पिछले दिनों सिद्धेश्वर जी ने वेरा पाव्लोवा की कुछ कवितायेँ पढने को दीं. उन कविताओं में से ये एक अटक सी गयी है दिमाग में. तो इसे यहाँ अपने ब्लॉग पर निकालकर रखे दे रही हूँ (सिद्धेश्वर जी की अनुमति से) ताकि इसे सहेज भी लूं और शेयर भी कर लूं...
आईने के सामने
मैं सीख रही हूँ 'नहीं' कहना :
ना - ना - ना।
प्रतिबिम्ब दोहराता है :
आईने के सामने
मैं सीख रही हूँ 'नहीं' कहना :
ना - ना - ना।
प्रतिबिम्ब दोहराता है :
हाँ -हाँ - हाँ।
(अनुवाद-सिद्धेश्वर सिंह)
11 comments:
बहुत खूब कहा है ...बेहतरीन शब्द रचना ।
सिद्धेश्वर जी एवं आपको बधाई.
अनुवाद बहुत जीवंत और सशक्त है.....सिद्धेश्वर जी
सिद्धेश्वर जी का आभार! संजय जी आपका शुक्रिया! कविता वाकई बड़ी गहरी है. न जाने कितनी चोट करती है. कितने बरसों की हसरतों की खुशबू है इसमें...
क्या बात है... सोच में डालने वाली कविता।
प्रतिभा जी,
आभार आपके प्रति इसे साझा करने के लिए!
और
सभी मित्रों को धन्यवाद इसे पसंद करने के लिए!
आईने में मन है।
प्रतिभा जी, आपके ब्लॉग पर ये पहली हाज़िरी है, आपका साहित्यिक सृजन बहुत पसंद आया. कई रचनाएं देखने का इत्तेफ़ाक हुआ. मुबारकबाद.
हाँ के भीतर ना छुपा है...
ना कहना नहीं है आसान।
हाँ से जीवन दुरूह है होता,
ना ही है जीवन का ज्ञान...
हम सभी ना कहना सीख रहे...आपने हमें आईना दिखाया है...अच्छी प्रस्तुति...आपकी अन्य प्रस्तुतियाँ भी शानदार हैं...बधाई.
गजब !!!
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