Wednesday, April 20, 2011

मैं सीख रही हूँ 'नहीं' कहना...

पिछले दिनों सिद्धेश्वर  जी ने वेरा पाव्लोवा की कुछ कवितायेँ पढने को दीं. उन कविताओं में से ये एक अटक सी गयी है दिमाग में. तो इसे यहाँ अपने ब्लॉग पर निकालकर रखे दे रही हूँ  (सिद्धेश्वर जी की अनुमति से) ताकि इसे सहेज भी लूं और शेयर भी कर लूं...


आईने के सामने

मैं सीख रही हूँ 'नहीं' कहना :
ना - ना - ना।  
प्रतिबिम्ब  दोहराता है :
हाँ -हाँ - हाँ। 
(अनुवाद-सिद्धेश्वर सिंह)

11 comments:

संजय भास्‍कर said...

बहुत खूब कहा है ...बेहतरीन शब्‍द रचना ।

संजय भास्‍कर said...

सिद्धेश्वर जी एवं आपको बधाई.

संजय भास्‍कर said...

अनुवाद बहुत जीवंत और सशक्त है.....सिद्धेश्वर जी

Pratibha Katiyar said...

सिद्धेश्वर जी का आभार! संजय जी आपका शुक्रिया! कविता वाकई बड़ी गहरी है. न जाने कितनी चोट करती है. कितने बरसों की हसरतों की खुशबू है इसमें...

विमलेश त्रिपाठी said...

क्या बात है... सोच में डालने वाली कविता।

siddheshwar singh said...

प्रतिभा जी,
आभार आपके प्रति इसे साझा करने के लिए!
और
सभी मित्रों को धन्यवाद इसे पसंद करने के लिए!

प्रवीण पाण्डेय said...

आईने में मन है।

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' said...

प्रतिभा जी, आपके ब्लॉग पर ये पहली हाज़िरी है, आपका साहित्यिक सृजन बहुत पसंद आया. कई रचनाएं देखने का इत्तेफ़ाक हुआ. मुबारकबाद.

Vijuy Ronjan said...

हाँ के भीतर ना छुपा है...
ना कहना नहीं है आसान।
हाँ से जीवन दुरूह है होता,
ना ही है जीवन का ज्ञान...

हम सभी ना कहना सीख रहे...आपने हमें आईना दिखाया है...अच्छी प्रस्तुति...आपकी अन्य प्रस्तुतियाँ भी शानदार हैं...बधाई.

Madhavi Sharma Guleri said...
This comment has been removed by the author.
सुशीला पुरी said...

गजब !!!