पिछले दिनों सिद्धेश्वर जी ने वेरा पाव्लोवा की कुछ कवितायेँ पढने को दीं. उन कविताओं में से ये एक अटक सी गयी है दिमाग में. तो इसे यहाँ अपने ब्लॉग पर निकालकर रखे दे रही हूँ (सिद्धेश्वर जी की अनुमति से) ताकि इसे सहेज भी लूं और शेयर भी कर लूं...
आईने के सामने
मैं सीख रही हूँ 'नहीं' कहना :
ना - ना - ना।
प्रतिबिम्ब दोहराता है :
आईने के सामने
मैं सीख रही हूँ 'नहीं' कहना :
ना - ना - ना।
प्रतिबिम्ब दोहराता है :
हाँ -हाँ - हाँ।
(अनुवाद-सिद्धेश्वर सिंह)
बहुत खूब कहा है ...बेहतरीन शब्द रचना ।
ReplyDeleteसिद्धेश्वर जी एवं आपको बधाई.
ReplyDeleteअनुवाद बहुत जीवंत और सशक्त है.....सिद्धेश्वर जी
ReplyDeleteसिद्धेश्वर जी का आभार! संजय जी आपका शुक्रिया! कविता वाकई बड़ी गहरी है. न जाने कितनी चोट करती है. कितने बरसों की हसरतों की खुशबू है इसमें...
ReplyDeleteक्या बात है... सोच में डालने वाली कविता।
ReplyDeleteप्रतिभा जी,
ReplyDeleteआभार आपके प्रति इसे साझा करने के लिए!
और
सभी मित्रों को धन्यवाद इसे पसंद करने के लिए!
आईने में मन है।
ReplyDeleteप्रतिभा जी, आपके ब्लॉग पर ये पहली हाज़िरी है, आपका साहित्यिक सृजन बहुत पसंद आया. कई रचनाएं देखने का इत्तेफ़ाक हुआ. मुबारकबाद.
ReplyDeleteहाँ के भीतर ना छुपा है...
ReplyDeleteना कहना नहीं है आसान।
हाँ से जीवन दुरूह है होता,
ना ही है जीवन का ज्ञान...
हम सभी ना कहना सीख रहे...आपने हमें आईना दिखाया है...अच्छी प्रस्तुति...आपकी अन्य प्रस्तुतियाँ भी शानदार हैं...बधाई.
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ReplyDeleteगजब !!!
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