नींद वक़्त से पहले ही आ चुकी थी। हालांकि इन दिनों नींद से मेरे रिश्ते अच्छे नहीं चल रहे हैं फिर भी सफर में मोहतरमा मेहरबान रहीं। मैंने आँख भर शीशे के बाहर टिमटिमाते कसौली को देखा और खरगोश की तरह नींद की चादर में दुबक गयी।
सुबह उठी तो मौसम बदला सा लगा। एक खुशमिजाजी तारी थी मौसम पर। कुछ शरारत भी। मुस्कुराकर मैंने सुबह को 'हैलो' कहा और लैपटॉप खोलकर बालकनी में कुछ लिखने बैठ गयी। सुबह ने हाथ पकड़कर कमरे से बाहर खींच लिया। मैं सुबह का हाथ थाम कसौली में मटरगश्ती करने निकली। मैंने महसूस किया ये कोई और मैं हूँ। बेफिक्र, शरारती, अल्हड़ और मस्तीखोर। सचमुच शहर छोड़ने से सिर्फ शहर नहीं छूटता चिंताएँ भी छूटती हैं। थोड़े से बोझिल वाले हम भी छूट जाते हैं, एक अनमनापन भी छूटता है।
होटल की चाय कुछ खास थी नहीं तो सोचा कि किसी टपरी में चाय सुड़की जाएगी। कमरे की बालकनी से जो खेत और जंगल दिख रहे थे उनकी चाह ऐसी हुई कि रास्तों के भीतर रास्तों में घुसते हुए वहाँ जा पहुंची। नयी जगह जाने पर हर अगले पल क्या होगा, कौन सा रास्ता खुलेगा, कौन सा बंद मिलेगा सब किसी रहस्य सा होता है। ये रास्ते कई बार लगा कि लोगों के घर से होकर गुजर रहे हैं। कहीं किसी चूल्हे पर बनती रोटी की खुशबू मिलती कहीं कुकर में उबलते आलू पुकारते। मैं चलती ही जा रही थी। इस बीच बादलों ने भी मटरगश्ती शुरू की और मैंने जंगल और खेतों के ठीक बीच में खुद को भीगते हुए पाया। सच कहती हूँ, देवयानी की ज़ोर से हुड़क लगी, हमारे उत्तराखंड में इसे खुद लगना कहते हैं। हिमाचल में क्या कहते होंगे नहीं जानती। देवयानी का कहा हर शहर में साथ चलता है कि ये लड़की अपनी बारिशें, अपने मौसम साथ लेकर चलती है। मैंने चेहरा ऊपर किया और बाहें फैला दीं। पहाड़ों की बारिशें किसी आशीर्वाद सी लगती हैं जो मन की सारी धुंध को दूर कर दें। मैंने मुस्कुराकर कसौली के मौसम का शुक्रिया अदा किया और बारिश से कहा, 'लौट जाओ प्रिये कि खेतों में अभी पका हुआ गेहूं खड़ा है।' बारिश समझदार थी, सर पर हाथ फेरने ही आई थी जैसे। मुझे बाहों में समेटकर, माथा सहला कर चली गयी।
अब भीगने के बाद वाली सड़कें, पेड़, पंछी मेरे साथ थे। दूर तक जाती लंबी सड़क पर खुद को रख दिया और कुछ ही देर में खुद को बौराता हुआ पाया। नहीं जानती थी कि ऐसी किसी सुबह का मुझे इस कदर इंतज़ार था। इस पूरी यात्रा में यह बौराहट बढ़ती ही गयी जिसके किस्से आगे भी खूब मिलेंगे।
ध्यान ही नहीं रहा कि कितनी दूर निकल आई हूँ। दूर निकलने ही तो आई हूँ सोचकर सड़क के किनारे एक पत्थर पर कुछ देर बैठ गयी और चिड़ियों का खेल देखने लगी। थोड़ी देर उन्हें ताकते रहने के बाद लगा असल में वो सब मिलकर मुझे देख रही हैं। वो मुझे देखकर क्या सोच रही होंगी, आपस में क्या बतिया रही होंगी मैंने मन ही मन सोचा और हंस दी। चाय की तलब बढ़ गयी। अब तक जितनी भी दुकानें व गुमटियां मिलीं सब बंद मिलीं थीं तो सोचा चाय मुश्किल है मिलना कि ठीक उसी वक़्त थोड़ा और आगे बढ़ने पर एक छोटी सी दुकान खुलती नज़र आई। मैंने दो चाय ली और जंगल के भीतर समा गयी। अपने भीतर के जंगल से निकलकर कसौली के रास्ते के किनारों पर सजे जंगलों में। जिस चाय में शहर की मोहब्बत घुली हो सुबह की खुशबू उससे ज्यादा अच्छी चाय भला कहाँ मिल सकती है।
इस शहर को मैंने एक दिन का ठिकाना बनाया था। मुझे कहीं जाना नहीं था, कहीं पहुँचना भी नहीं था बस होना था उन लम्हों में, उन पलों में खुद के साथ। और बीती शाम ही समझ आ गया था कि वो सुर तो लग चुका है. पहले भी कई बार हिमाचल आई हूँ लेकिन मेरा रिश्ता बन नहीं पा रहा था हिमाचल के साथ। टूरिस्ट की तरह जगहें घूमकर लौट जाती रही। सारा दोष मेरा भी तो नहीं रहा होगा, मैंने टेढ़ी आँखों से हिमाचल की तरफ देखते हुए कहा। उसने कहा, 'घूमने आओगी, तो घुमा देंगे और दोस्ती करने आओगी तो गले से लगा लेंगे।' समझ गयी, गलती मेरी ही थी। इस बार घूमने नहीं आई थी हिमाचल के साथ दोस्ती करने, रिश्ता बनाने आई थी। एक और मौका देने खुद को भी और हिमाचल को भी। बात कुछ बन ही गयी सी लग रही थी।
धूप बिखरी तो सिमटा जरा बिखरा हुआ मन। लौटकर कमरे में लेटे हुए घंटों राग मालकोश सुनती रही। कितना अरसा हुआ ऐसे संगीत और प्रकृति की सोहबत में हुए। पनीली आँखों में कई ख़्वाब उगने लगे थे...चायल की पुकार कानों में घुल रही थी। मैंने कहा, 'ठहरो भी, आती हूँ न तुम्हारे पास। इतनी भी क्या बेसब्री'। तेज़ हवा के झोंके ने बताया कि पैगाम पहुँच चुका है और जनाब चायल इंतज़ार में हैं....
जारी...
3 comments:
सुंदर... अगली कड़ियों की प्रतीक्षा रहेगी...
बहुत सुंदर
बहुत सुंदर
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