'ठीक है, एक दिन लिखूंगा...' कहकर लेखक ने रूह के कश्मीर पर लिखने के इसरार को थाम लिया है. पेज 92 पर ठीक इसी जगह मेरा सब्र टूट गया है. अब तक जो आँखों में नमी पिछले पन्नों को पढ़ते हुए साथ चल रही थी अब वह भभक कर फूट पड़ी है. घर का खालीपन मुझे जी भरके रोने के लिए खूब पनाह देता है.
मैं किताब के बारे में नहीं लिख रही. उन सवालों, उन एहसासों के बारे में लिख रही हूँ जो किताब से गुजरते हुए जन्मे. किताब के बारे में लिखने के मेरे मन के अभी हालात नहीं.
तो कश्मीर की बात करते हैं. सबसे पहले मेरे मन में सवाल आता है कि हम बचपन से 'कश्मीर हमारा है' सुनते हुए बड़े हुए. तबसे, जबसे हमें यह भी नहीं पता था कि आखिर यह बात कहने की जरूरत क्या है. जो चीज़ अपनी होती है वो तो होती है यानी कुछ गड़बड़ तो थी जो तब समझ नहीं आई थी अब भी कितनी समझ आई है पता नहीं.
'कश्मीर हमारा है' के भीतर देशप्रेम की जो आग सुलग रही है उसे समझना चाहती हूँ. जब हम कहते हैं कि कश्मीर हमारा है तो कश्मीर से हमारा आशय क्या होता है. वहां की सड़कें, पेड़, झीलें, पहाड़? बस इतना ही? यही है कश्मीर? फिर धारा 370 लागू होने के वक़्त के सस्ते चुटकुले और टिप्पणियाँ याद आयीं....और याद आया कैसे कश्मीरी लड़कियों को लेकर बात करते थे देशभक्त शोहदे.
फिर आई 'कश्मीर फ़ाइल' और एक बार फिर कश्मीरी पंडितों पर हुए जुल्मों को लेकर देशभक्ति उबाल लेने लगी. बहुत बुरा हुआ कश्मीरी पंडितों के साथ...वहां के मुसलमानों ने बड़े जुल्म किये. इस सबमें प्रतिशोध बजबजाता हुआ साफ़ दिख रहा था, दिख रहा है.
सवाल यह है कि हम किस कश्मीर के बारे में बात कर रहे हैं. क्या उस कश्मीर में वहां के लोग शामिल नहीं हैं? लोग शामिल हैं तो उनमें से कौन से लोग शामिल नहीं हैं? और उनके न शामिल होने का आधार क्या है?
रूह...को यह सब समझने के लिए पढ़ा जाना चाहिए. कि जिन कश्मीरी पंडितों के दर्द से भावनात्मक होने का ड्रामा करते हुए प्रतिहिंसा को अपनाकर देशभक्ति का नाटक ओढा हुआ है सबने उसके भीतर झांककर देखिये कि उन्हीं कश्मीरी पंडितों के साथ हमने क्या किया है. हिन्दू होते हुए भी हमने इन कश्मीरी पंडितों को भी नफरत की नजर से ही देखा, उनके दर्द को समझा नहीं उनका साथ दिया नहीं लेकिन उनके हिस्से का बदला लेने को आतुर हैं.
कश्मीर से विस्थापित एक परिवार होशंगाबाद में अपनी जगह बनाने की कोशिश करता नजर आता है. बच्चे दोस्त तलाश रहे हैं, माँ बाप अपने डरों से निकलने की और लोगों पर भरोसा करने की कोशिश कर रहे हैं कि एक रोज जब दसवीं में पढ़ने वाला एक कश्मीरी विस्थापित लड़का शहर में एक फैशन शो कराना चाहता है तो पूरे शहर की दीवारों पर लिखा मिलता है 'कश्मीरियों, वापस जाओ.' ये कश्मीरी हमारी 'संस्कृति' और 'सभ्यता' को खत्म कर देना चाहते हैं. 'तुम तो कश्मीरी हो न, वहां से भगाए गए, अब यहाँ से भी भगाये जाओगे. जाओ अपने कश्मीर. इस शहर को क्यों गंदा कर रहे हो?'
ये सब कहने वाले हिन्दू थे, देशभक्त थे और यह सब सुनने वाले कश्मीरी पंडित. जिनकी चिंता में कश्मीर फ़ाइल सुलग रही है. कितनी असभ्य है वो सभ्यता जिसकी चिंता में इंसानियत ही शर्मसार हुई जा रही है. कितनी अश्लील है वो संस्कृति जो क्रूर और हिंसक होना सिखाती है.
इन दिनों सभ्यता, संस्कृति, संस्कार, देशभक्ति जैसे शब्दों से डर लगने लगा है सचमुच.
मेरी आँखें नम हैं और गर्दन झुकी हुई.
(जारी...)
(जारी...)
4 comments:
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 6 जुलाई 2022 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
अथ स्वागतम शुभ स्वागतम
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 6 जुलाई 2022 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
अथ स्वागतम शुभ स्वागतम
कश्मीर का सच आज तक जितना भी जाना कम ही है पूरा सच शायद जान ही नहीं सकते क्योंकि पूरा सच बताने वाले बचे ही कहाँ होंगे...।
आँखें नम करता बहुत ही विचारणीय लेख।
निशब्द हूँ।कश्मीर के नाम पर दाव खेलने वाले खेल गये।सबकी नज़र सत्ता पर है।कश्मीरीयों से सहानुभूति जाती रही है, स्वार्थ की जय जय है।मार्मिक लेख जो सीधा दिल को छूता है।🙏
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