Wednesday, April 7, 2021

चाहे सोने के फ़्रेम में जड़ दो

-कृष्ण बिहारी नूर 

ज़िंदगी से बड़ी सज़ा ही नहीं
और क्या जुर्म है पता ही नहीं

इतने हिस्सों में बट गया हूँ मैं
मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं

ज़िंदगी मौत तेरी मंज़िल है
दूसरा कोई रस्ता ही नहीं

सच घटे या बढ़े तो सच न रहे
झूट की कोई इंतिहा ही नहीं

ज़िंदगी अब बता कहाँ जाएँ
ज़हर बाज़ार में मिला ही नहीं

जिस के कारन फ़साद होते हैं
उस का कोई अता-पता ही नहीं

कैसे अवतार कैसे पैग़मबर
ऐसा लगता है अब ख़ुदा ही नहीं

चाहे सोने के फ़्रेम में जड़ दो
आईना झूट बोलता ही नहीं

अपनी रचनाओं में वो ज़िंदा है
'नूर' संसार से गया ही नहीं.

12 comments:

डॉ. दिलबागसिंह विर्क said...


आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा 8.4.2021 को चर्चा मंच पर होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
धन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क

Ravindra Singh Yadav said...

आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" ( 2092...अनिश्चिताओं के घन हो चले हैं भारी... ) पर गुरुवार 08 अप्रैल 2021 को साझा की गई है.... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!



प्रतिभा सक्सेना said...


इतने हिस्सों में बट गया हूँ मैं
मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं
- बिलकुल ठीक कहा - स्थिति यही है .

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

सुन्दर गीतिका।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

खूबसूरत ग़ज़ल लायी हैं ।

Preeti Mishra said...

बेहतरीन लेखन

अनीता सैनी said...

जी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज गुरुवार (०८-०४-२०२१) को (चर्चा अंक-४०३०) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।

Anuradha chauhan said...

बहुत सुंदर रचना।

Anuradha chauhan said...

वाह बेहतरीन 👌

उषा किरण said...

आहा....शुजात खान ने क्या गाया है सितार के साथ सुनिएगा ।

मन की वीणा said...

वाह शानदार ग़ज़ल एक एक शेर जड़ाऊ ।
बेमिसाल।

Onkar said...

सुन्दर प्रस्तुति