अजीब सी उलझनों वाले दिन थे वो. हर वक्त उलझन रहती थी, सोने ही नहीं देती थी. बेचैनी रहा करती थी. जिस प्रोफेशन को बहुत मोहब्बत से खुद के लिए चुना था, जिसे प्रोफेशन की तरह नहीं पैशन की तरह जिया हरदम वही अब तकलीफ दे रहा था. यूँ लगता था कि पत्रकारिता में इतने हाथ पैर बांधकर भला कैसे सांस ली जा सकती है. जिस कलम को समाज के आखिरी व्यक्ति के कंधे से कन्धा मिलाकर खड़े होना था, जिस कलम को बीन लेने थे राहगीरों की राह के कांटे, किसानों के साथ खड़ी धूप में खड़ा होना था वो कैसे पेज थ्री कॉलम, सेलिब्रिटी खबरों और कुछ ख़ास ख़बरों को सजाने, अच्छी हेडिंग लगाने में जाया होने लगी. न्यूज़रूम में रोज लड़ती थी, भीतर उससे ज्यादा लड़ा करती थी. एक टर्म हुआ करता था ‘डाउनमार्केट’. कोई समझ सकता है क्या कि इस टर्म का इस्तेमाल न्यूजरूम में होता हो और खूब होता हो तो कैसा लगता है. ये खबर डाउनमार्केट है, ये तस्वीर डाउनमार्केट है...इसे अंदर के पन्नों पर फेंको, इसमें ग्लैमर है इसे थोडा और बड़ा करो...पेज वन पर लाओ.
हम पत्रकारिता में नौकरी करने नहीं गये थे, हम तो पत्रकारिता को समझे थे मजलूमों के हक में खड़े होने वालों की जमात. शुरूआती दिनों में यह था भी. कि हमने अच्छी वाली पत्रकारिता के जाते हुए दिनों की पीठ भर देखी है. फिर पत्रकार को प्रोडक्ट की तरह देखा, सुना और पढ़ा जाने लगा. जाहिर है पैशन ब्रेक होना था, कब तक अड़े कोई कितना लड़े कोई. एक रोज तय कर लिया अब और नहीं...हालाँकि लड़ाई छोडकर चल देना मुझे अब भी ठीक नहीं लगता. हर इन्सान जो जहाँ है अपने हिस्से का बदलाव करने के लिए जूझता रहे तो भी कुछ न कुछ हो ही सकता है. लेकिन मैं अपने हिस्से की लड़ाई लड़ते लड़ते थकने लगी थी...सैचुरेशन की इंतिहा हो गयी थी, नकारात्मकता घेरे रहती थी. और एक रोज रिश्ता तोड़ लिया अख़बारों की दुनिया से, नहीं शायद यह कहना ठीक होगा कि अख़बारों की नौकरी करने से रिश्ता तोड़ा.
आजाद होकर वैसा ही लग रहा था जैसा आज़ाद होकर लगता है. सुकून और बेचैनी का कॉकटेल हो रखा था जेहन में. सुकून कि अब मैं आजाद थी, बेचैनी कि आगे क्या?
लिखने के सिवा तो कुछ आया ही नहीं, हालाँकि लिखना भी कितना आया यह भी पता नहीं. फिर कुछ अख़बारों और पत्रिकाओं से आये नयी नौकरियों के प्रस्ताव पर्स में डालकर चली गयी गोवा घूमने. सोचा कुछ दिन कोई नौकरी नहीं. वहीँ गोवा में एक मित्र का फोन आया कि अपना सीवी भेजो, मैंने दोस्तों से कभी पलटकर क्यों, क्या आदि पूछा नहीं. खुद पर ज्यादा भरोसा करने से ज्यादा भरोसा करने लायक दोस्तों का जिन्दगी में होना शायद इसका कारण होगा. तो गोवा से चला वो एक पेज का सीवी आ पहुंचा अज़ीम प्रेमजी फाउन्डेशन जहाँ मैं पिछले 8 बरसों से हूँ. एक पेज के सीवी की कहानी भी अजीब है कि बचपन में पोलिश कवियत्री विस्साव शिम्बोर्स्का की कविता पढ़ ली थी बायोडाटा जिसमें वो लिखती हैं कि जीवन कितना भी बड़ा हो/बायोडाटा छोटा ही होना चाहिए. वैसे मेरा तो जीवन भी छोटा ही था. क्या लिखती मैं. और बायोडाटा बनाया भी पहली बार ही था कि इसके पहले बायोडाटा बनाने की जरूरत पड़ी नहीं थी. तो वो एक पेज का पुर्जा जिस पर बायोडाटा लिखा था भेज दिया गया.
मैंने बस नाम भर सुना था अज़ीम प्रेमजी फाउन्डेशन का और यह भी कि एजुकेशन में काम करता है. क्या काम, कैसे काम करता है कुछ पता नहीं था. सच में कुछ भी नहीं. और जब इंटरवियु के लिए कॉल आई तो कुछ लोगों ने वेबसाईट की लिंक भेज दी कि पढ़ लो, जान लो संस्था के बारे में. मैंने सोचा पढकर जाना तो क्या जाना, जायेंगे, मिलकर जानेंगे. शिक्षा के बारे में मेरी समझ उतनी ही थी जो मेरे स्कूल कॉलेज के अनुभव थे और अख़बारों में काम करने के दौरान आने वाली ख़बरें. जाहिर है यह बेहद नाकाफी था. हाँ, मुझे यह जरूर पता था कि यह जो सिस्टम है न शिक्षा का बहुत बुरा है. ये सीखने के मौके कम देता है, न जानने वालों को अपमानित करने के तरीके ज्यादा जानता है.
सरकारी स्कूलों में पढने से लेकर शहर के बेहतरीन कॉलेज, यूनिवर्सिटी तक में पढ़ने के अलग-अलग अनुभवों में यह बात एक सी ही थी कि कुछ बेस्ट स्टूडेंटस ही शिक्षा व्यस्व्स्था के परचम को लहराते हैं. चाहे वो अख़बारों में टापर्स की तस्वीरों का छपना हो या खुलेआम कुछ बच्चों को कम जानने पर अपमानित किया जाना.
मेरे सामने एक ऐसी संस्था थी जो मुझसे पूछ रही थी कि इस शिक्षा व्यवस्था को लेकर मेरी राय क्या है. सच कहूँ मेरा मन कसैला ही था. कक्षा 1 और 2 में पढ़ाने वाले गोपी सर के अलावा कोई शिक्षक याद नहीं जिसने मेरी शिक्षा को बेहतर बनाया हो. गोपी सर भी पढ़ाने के लिए कहाँ याद हैं, वो याद हैं कि वो मेरी चुप्पी को समझते थे और सर पर हाथ रखते हुए हौसला देते थे.
मैंने एक बात जानी है अपने जीने से कि ईमानदारी और सच्चाई के लिए आपको कोई तैयारी नहीं करनी पड़ती. आप जैसे हैं वैसे ही खुद को रख दीजिये...बस. यही मैंने हमेशा किया. यह संस्था अजीब ही थी/है. यह आपसे सवाल नहीं करती आपके सवालों को रिसीव करती है. मैंने सिर्फ इतना कहा था कि मुझे खुद से सिर्फ लिखना ही आता है थोड़ा बहुत, अगर शिक्षा में बदलाव के इस बड़े काम में मेरा यह काम किसी तरह कोई भूमिका निभा सके तो मुझे ख़ुशी होगी.
ऐसी संस्थाएं या ऐसे लोग मैंने नहीं देखे जो आपको आपके जानने से जायदा आपकी मंशा को परखते हैं. मुझे काफी समय लगा संस्था को समझने में, शिक्षा के मुद्दों को समझने में, दिक्कत कहाँ है, कैसे दूर हो सकती है. मेरे लिए हर दिन कुछ नया सीखने का दिन था. हर दिन एक नयी चुनौती से टकराने का. जैसे कक्षा 1 में फिर से दाखिला लिया हो. उजबक की तरह सबको सुनती थी, समझती थी, हाँ लिखने पढने को लेकर मेरी पिछली भूमिकाओं को देखते हुए संसथान ने मुझे प्रकाशन जिम्मेदारी जरूर दे दी थी. मैंने शिक्षकों की कहानियों को करीब से जाकर देखा, सुना महसूस किया. यह मेरे भीतर के पत्रकार को भरपेट मिलने वाली खुराक जैसा था. इन कहानियों को देश भर के अख़बारों में पत्रिकाओं में प्रकाशित होने भेजना शुरू किया. अपने अनुभवों को लिखना शुरू किया. और शुरू किया एक नया सफर न जाने हुए को जानने का. दूर-दराज के शिक्षकों से मिलती उनकी जर्नी को समझती, बच्चों से मिलती सब कुछ बदल रहा था. मैं बदल रही थी. हर दिन मेरा विद्यार्थी होना निखर रहा था.
अब समझ में आना लगा था कि असल में शिक्षा ही है बदलाव का असल टूल. और शिक्षा को डिग्री समझना बड़ी भूल है. शिक्षा में वो क्या और क्यों मिसिंग है जो एकेडमिक ग्रोथ की तरह धकेलते हुए ह्यूमन होने से दूर कर देता है. वो क्या है जो काम्पटीशन और होड़ बनाकर रख देता है शिक्षा को. समाज में यह जो असमानता, भेदभाव है क्या इसका कारण अशिक्षा है या ठीक शिक्षा का न होना है? दिमाग में हलचल होने लगी थी. मैं शिक्षा के उन डाक्यूमेंट्स को पढ़ रही थी जिनके नाम सुनकर शुरू शुरू में डर लगता था. उन शिक्षाविदों को पढ़ रही थी जिनके भारी भरकम नाम डराया करते थे.
मैं उन चिंतकों और फिलॉसफर्स को अब नए पर्सपेक्टिव से पढ़ रही थी जिन्हें पॉलटिकल साइंस की स्टूडेंट होने के नाते और अपनी इच्छा के चलते भी अलग पर्सपेक्तिव से पढ़ा था. पढ़ना मुझे हमेशा से पसंद था. राजनीति और साहित्य मेरे प्रिय विषय रहे. अब मैं नए जानर में प्रवेश कर रही थी. गिजुभाई, फ्रेरे को एक साथ पढ़ने के अनुभव थे. वाय्गोसकी, को दोस्तोवस्की को साथ में पढ़ रही थी. कृष्ण चंदर और कृष्ण कुमार को पढ़ रही थी. मुझे बड़ा अच्छा लग रहा था एक अवेयर लर्नर होना. जिस पर कोई प्रेशर नहीं था कुछ पढने का इम्तिहान देने का, कहीं खुद को साबित करने का. लेकिन अगर आप चाहें तो पूरे मौके थे पढने के समझने के. अनुभव करने के लिए स्कूलों की, गांवों की यात्राएँ थीं और उन सब कामों को फील्ड के साथियों के अनुभवों को सहेजने के लिए हमारे पास दो पत्रिकाएं थीं, उम्मीद जगाते शिक्षक और प्रवाह.
कोई भी काम आपको कितना ही अच्छा लगता हो और आप उसे कितने ही बेहतर ढंग से करते हों एक दिन आप उससे ऊब ही जाते हैं. लेकिन इस संस्था में आपको लगातार खुद को एक्सप्लोर करने का, नया सीखने का अवसर मिलता रहता है. मैंने यहाँ भाषा में काम करना शुरू किया. पढ़ना कैसे बेहतर होता है और पढ़ाना कैसे बेहतर होता है इसको लेकर समझ को विकसित करना और जुड़ना स्कूलों से. हर दिन कोई नयी ऊर्जा लिए घर लौटना होता था. कई बार मेरी आँखें पनीली हो जाती थीं, जब कोई शिक्षक यह कहता वो जो आपने बताया था न मैंने वैसे किया और बच्चों को बहुत अच्छा लगा. इतना सुख होता है जब स्कूल में आया देख बच्चे ख़ुशी से चहक उठते.
ये नयी दुनिया मेरी दुनिया बदलने लगी. जब कोई आप पर भरोसा करता है न तब वह उस भरोसे के लायक बनने की जिम्मेदारी भी थमा देता है. भाषा में को-डेव की प्रक्रिया ने बहुत सिखाया. सब मुझसे ज्यादा जानते थे, जानते ही हैं मैं सबसे सीख रही थी. मेरे पास वो सवाल थे जो बच्चों को सीखने के बीच खड़े थे, वो सवाल थे जो शिक्षकों के सिखाने के बीच खड़े थे. अपने से मेरे तईं हमेशा सवाल ही रहे हैं मैं उन सवालों को लेकर घूमती, जो मिलता उससे पूछती, किताबें पलटती रही. यह यात्रा अभी चल रही है. भाषा में काम करने के दौरान डायरी और यात्रा विधा पर काम करना बहुत समृद्ध करने वाला अनुभव रहा. डायरियां पढ़ी खूब थीं, यात्राएँ करने का शौक रहा है लेकिन इनका पढने-लिखने से जुडाव देख पाना और उस जुडाव को कक्षा में करके देख पाना एक अलग ही अनुभव था. बच्चे जब स्कूल में डायरी लिखने लगे, पत्र लिखने लगे और फिर वो जब बताते उन्हें कैसा लगा तो लगता कि लिखने को लेकर जो गांठें हैं खुल रही हैं. यही शिक्षकों के संग भी हुआ. बहुत सारे शिक्षक साथियों ने डायरियां लिखनी शुरू की, पढने-लिखने की संस्कृति के तहत ढेर सारे शिक्षक साथियों ने अपने अनुभव साझा किये कि किस तरह पढ़ना व्यक्ति के तौर पर समृद्ध करता है और जाहिर है शिक्षक के तौर पर भी और जिसका सीधा जुड़ाव कक्षा शिक्षण से होता ही है.
रेखा चमोली की डायरी इसका एक बड़ा प्रमाण बन चुकी है. शिक्षक साथियों और अपने फाउन्डेशन के साथियों में भी लिखने को लेकर जो संकोच था उसे तोड़ने की कोशिश की. इसलिए नहीं कि किसी को लेखक बनाना उद्देश्य था, या सबको लेखक ही बन जाना चाहिए. नहीं, बल्कि इसलिए कि अनुभवों को सहेजा जाना जरूरी है. शिक्षकों का अपने शिक्षकीय अनुभवों को लिखना वैसा ही है जैसे किसान का लिखना अपने खेत की मिट्टी और फसल के बारे में लिखना. मुझे पुश्किन हमेशा ऐसे मौकों पर याद आते हैं, जब वो कहते हैं, ‘अच्छा शास्त्रीय और सधा हुआ लिखना आसान है, ऊबड़ खाबड़ और सच्चा लिखना कठिन.’ मैं सबको सच्चे और ऊबड़-खाबड़ की ओर जाने को कहती. मैं भी तो उसी राह पर हूँ अच्छे लिखे की किताबों से तो दुनिया भर के पुस्तकालय भरे ही हैं. शिक्षक साथियों की हिचक टूटने लगी, फाउन्डेशन के साथियों की भी. उनके सच्चे सरल अनुभवों से शिक्षा जगत में सकारात्मकता की रौशनी जल उठी है.
इधर शिक्षक साथी कलम से दोस्ती करने लगे हैं उधर मेरा सीखने की इच्छा से रिश्ता लगातार गाढ़ा हो रहा है. इसमें लगातार कुछ नयापन जुड़ रहा है. इन दिनों गणित की दुनिया के दरवाजे खुले हैं. जिन नम्बरों को देखकर डर लगा करता था अब उनसे दोस्ती होने लगी है. किसी भी सीखने की शुरुआत की पहली सीढ़ी उस अजाने से दोस्ती होना ही तो है.
सीखने का यह सफर चल रहा है. हम सब को-लर्नर के तौर पर एक साथ जुड़े हैं और हाथ थामकर चल रहे हैं. इस हाथ थामने की खूबी यह है कि किसी को कुछ ज्यादा आता होगा किसी को कुछ कम लेकिन को-लर्नर होते ही वो जानना और कम जानना सबका साझा होने लगता है. जानने का कोई अहंकार नहीं होता, न जानने की कोई गिल्ट नहीं होती यह सफर हर किसी को समृद्ध करता रहता है...
मैं एक बेहतर विद्यार्थी होना सीख रही हूँ.
2 comments:
सारगर्भित आलेख।
पत्रकारिता छोड़ कर विधार्थी बनने की यात्रा को सलाम!
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