Sunday, December 31, 2023

जग दर्शन का मेला


इस बरस की अंतिम सुबह चाय के साथ पहली लाइन पढ़ी, 'जब चाँद को पहली बार देखा तो लगा यही है वह, जिससे अपने मन की बात कह सकती हूँ।' एक सलोनी सी मुस्कान तैर गयी। पहली चाय के साथ जिस पंक्ति का हाथ थाम एक सफर पर निकली थी शाम की चाय तक उस सफर की खुमारी पर चढ़े रंग साथ हैं।

इस बरस....
उसने मुझसे पूछा, 'क्या चाहती हो?'
मैंने कहा, 'मौत सी बेपरवाह ज़िंदगी।' 
उसने वाक्य में से मौत हटा दिया और हथेली बेपरवाह ज़िंदगी की इबारत लिखने लगा। लकीरों से खाली मेरी हथेलियाँ उसे बेहद पसंद हैं कि इनमें नयी लकीरें उकेरना आसान जो है। 
एक रोज मैंने कहा 'आसमान' तो समूचा आसमान मेरी मुट्ठी में था, फिर एक रोज समंदर की ख़्वाहिश पर न जाने कितने समंदर उग आए कदमों तले। 
जाते बरस से हाथ छुड़ाते हुए मैंने उसकी आँखों में देखा, उसके जाने में आना दिखा। रह जाना दिखा। 
जाने में यह सौंदर्य उगा पाना आसान कहाँ। 

इस बरस ...
मैंने अधूरेपन को प्यार करना सीखा। ढेर सारे अधूरे काम अब मुझे दिक नहीं करते। आधी पढ़ी किताबें, आधी देखी फिल्में, अधूरी छूटी बात, मुलाक़ात। इस अधूरेपन में पूरे होने की जो संभावना है वह लुभाती है। सिरहाने आधी पढ़ी किताबों का ढेर मुस्कुरा रहा है। मैं जानती हूँ इनके पढे जाने का सुख बस लम्हा भर की दूरी पर है लेकिन मन के खाली कैनवास पर कुछ लिखने का मन नहीं। तो इस खाली कैनवास को देखती रहती हूँ। कितना सुंदर है यह खाली होना। 

इस बरस...
कुछ था जो अंगुल भर दूर था और दूर ही रहा, कुछ था जो सात समंदर पार था लेकिन पास ही था। कि इस बरस उलझी हुई स्मृति को सुलझाया, कड़वाहट दूर हुई और वह स्मृति मधुर हुई, महकने लगी। जिस लम्हे में हम जी रहे हैं वो आने वाले पल की स्मृति ही तो है। इस लम्हे को मिसरी सा मीठा बना लें या कसैला यह सोचना भी था और सीखना भी। 

इस बरस...
अपने में ही मगन होना सीखा कुछ, बेपरवाही को थामना और जीना सीखा कुछ, सपनों को थामना उन्हें गले लगाना सीखा। किया कुछ भी नहीं इस बरस, न पढ़ा, न लिखा ज्यादा न जाने कैसे फ़ितूर को ओढ़े बस इस शहर से उस शहर डोलती रही। खुश रही। 
खुश होने की बात कहते कहते आँखें नम हो आई हैं। तमाम उदासियाँ सर झुकाये आसपास चहलकदमी करती रहीं। दुनिया के किसी भी कोने में कोई उदास है तो वह खुश होने और खुश दिखने की उज्ज्वल इच्छा पर स्याह छींटा ही तो है। 

चलते चलते- 
वो जो जा रहा है अपना समस्त जिया हुआ हथेलियों पर रखकर उसके पस कृतज्ञ होना है और वो जो आ रहा है नन्हे कदमों से हौले-हौले उसके कंधों पर कोई बोझ नहीं रखना है बस कि जीना है हर लम्हा ज़िंदगी को रूई के फाहे सा हल्का बनाते हुए...वरना कौन नहीं जानता कि एक रोज उड़ जाएगा हंस अकेला...

Sunday, December 24, 2023

इस बरस की खर्ची


इस बरस को पलटकर देखने को पलकें मूँदती हूँ तो आँखों के किनारे कुछ बूंदें चली आती हैं। इन बूंदों में एक कहानी छुपी है। एक नन्ही सी भोली सी कहानी। पलकें खोलने का जी नहीं करता कि बंद पलकों के भीतर एक प्यारी सी बच्ची को छाती से लगाए हुए का एक दृश्य है। पलकें खुलते ही ज़िंदगी की तीखी धूप पसर जाती है। सर्दियों वाली धूप नहीं जेठ के महीने वाली धूप।

किस्सा एक स्कूल का है। एक बच्ची थी प्यारी सी। बहुत सारे बच्चों के बीच। हँसती, खिलखिलाती, मुसकुराती। मैंने सारे बच्चों से कुछ बातें कीं और उनके दोस्त के बारे में लिखने को कहा। बच्चे लिखने लगे। बच्चे छोटे थे, कक्षा 3 के। सरकारी स्कूल के बच्चे जिन्हें न ट्यूशन न किताबें ठीक से न कॉपियाँ। लेकिन हरगिज़ कम मत आंकिए इनकी प्रतिभा को। तो बच्चों ने लिखना शुरू किया। कुछ ने मुझे दिखाया अपना लिखा, कुछ ने सुनाया। फिर मैं चलने को हुई तो आँचल ने अपनी कॉपी बढ़ा दी। मैंने कहा अब मैडम को दिखा देना मैं निकलती हूँ। उसने कुछ कहा नहीं, लेकिन उसकी आँखें उदास हो गईं। मैं बैठ गयी। उदास आँखें छोड़कर कैसे जाती ये तो पाप होता न।

कॉपी ली और पढ़ने लगी। तीसरी पंक्ति में लिखा था 'मैं और मेरी दोस्त गौरी बहुत मजे करते थे।' मुझे लगा उसने गलती से 'थे' लिख दिया है। आगे पढ़ा तो उस 'थे' का विस्तार बढ़ता ही जा रहा था। उसे पपीता बहुत पसंद था। हम साथ में घूमने जाते थे। अंतिम वाक्य था 'मुझे उसकी बहुत याद आती है। अब मैं कभी पपीता नहीं खाती।'

अंतिम वाक्यों तक आते हुए मैं बिखर चुकी थी। 30 बच्चों की हल्ले गुल्ले वाली कक्षा के बीच उसे भींचकर गले लगाने की इच्छा को जाने किस संकोच ने रोक लिया लेकिन उसकी हथेलियाँ मैंने अपने हाथों में ले लीं। उसकी बड़ी बड़ी आँखों में सागर से बड़े-बड़े आँसू टपक रहे थे लेकिन होंठ लगातार मुस्कुरा रहे थे।

मैंने धीमे से इतना ही पूछा, 'क्या हुआ था'
उसने कहा, 'पता नहीं। शाम को खेलकर गयी थी फिर उसके पापा ने उसे मारा था। सब कहते हैं वो बीमार थी।'
क्या दुनिया की किसी भी भाषा में कोई शब्द है जो ऐसे वक़्त में किसी को दिलासा दे सके। मुझे तो नहीं मिला अब तक सो मैंने उसकी हथेलियों को ज़ोर से भींच लिया।

आँचल अब भी मिलती है। हम दोनों में एक अनकहा सा रिश्ता है जो उसकी आँखों में मुझे देखते ही खिल उठता है।
'मैं अब कभी पपीता नहीं खाती...का वाक्य गूँजता रहता है।'

हम इस बहस में ही उलझे हुए हैं कि बच्चों को कैसा साहित्य देना चाहिए, कैसी कहानियाँ। उनमें मृत्यु, दुख, दर्द होना चाहिए या नहीं। असल में हमें बच्चों को हम जैसा जीवन दे रहे हैं वैसा ही साहित्य देना होगा। अगर सिर्फ हँसता मुसकुराता साहित्य देना चाहते हैं तो हँसता मुसकुराता जीवन देने की कोशिश करनी होगी। कहानियाँ बदलने से कुछ नहीं होगा।


इस बरस के तमाम हिसाब-किताब के बीच आँचल से मेरा जो मेरा रिश्ता बना वही मेरा इस बरस का हासिल है कि उसकी आँखें मुझे भरोसे और प्यार से देखती हैं।

Monday, December 4, 2023

पतझड़- नया उगने की आहट

सुबह की चाय पीते हुए कैथरीन से मिली। उसकी आँखों में बीते समय की परछाईं थी। मैंने उससे पूछना चाहा, 'क्या तुम बदल गयी हो?' लेकिन कुछ भी बोलने का मन नहीं किया। चुपचाप उसके पास बैठी रही। कानों में झरते पत्तों की आहट का मध्ध्म संगीत घुल रहा था। 

पतझड़ हाथ में है या मन में या जीवन में सोचते हुए झरे हुए पत्तों को देखते हुए मुस्कुराहट तैर गयी। कश्मीर याद आ गया। कश्मीर यूनिवर्सिटी की वो दोपहर जब बड़े से कैंपस के एक कोने में बैठकर चिनारों के झरते पत्ते देख रही थी। किसी जादू सा लग रहा था सब। झरते हुए पत्ते जैसे झरने का आनंद जानते हैं। वो पूरा जीवन जी चुके होते हैं। बड़े सलीके से शाख से हाथ छुड़ाते हैं। शाखों के कानों में उम्मीद की कोंपल का मंत्र फूंकते हुए और लहराते हुए, हवा में नृत्य करते हुए धरती को चूमने को बढ़ते हैं। सर्द हवाएँ इस खेल को और भी सुंदर बनाती हैं और झरते पत्तों का नृत्य हवा में कुछ देर और ठहर जाता है। 

इन्ही ठहरे हुए खुश लम्हों का सुख नयी कोंपलों की खुशबू बन खिलता है।

'कैथरीन क्या तुम मुझे पहचानती हो'? पूछने का जी हो आया। फिर सोचा वो कैसे पहचानेगी भला? लेकिन क्यों नहीं पहचानेगी आखिर हम सब दुनिया भर की स्त्रियाँ एक ही मिट्टी की तो बनी हैं। चेहरे अलग, नाम अलग, देश अलग पर वो जो धड़कता है सीने में दिल वो जो नरमाई है वो क्या अलग है। 

आईना देखा तो इसमें न जाने कितने चेहरे नज़र आने लगे, कैथरीन,रूहानी, जंग हे, सारथी, पारुल, रिद्म और भी न जाने कितने। जी चाहा पोंछ दूँ तमाम पहचानें, उतार फेंकूँ नाम, चेहरे से चेहरा पोंछ दूँ। फिर किसी नयी कोंपल सा उगे कोई नया चेहरा, नई मुस्कान। 

तभी एक बच्ची की हंसी कानों में झरी। वो स्कूल ड्रेस में खिलखिलाते हुए स्कूल जा रही थी। मैंने कैथरीन को देखा उसने मुझे...हम दोनों ज़िंदगी की पाठशाला में नए सबक सीखने को बढ़ गए। सलीम मियां सारथी और रिद्म नाम की पगडंडियों को दूर से देख रहे थे। 

दोनों पगडंडियों पर खूब फूल खिले थे....

(पढ़ते-पढ़ते)

Wednesday, November 22, 2023

बाल्की की चुप पर चुप्पी क्यों रही


चुप 2022 में रिलीज हुई थी। इत्तिफ़ाक से मैंने कल देखी। चूंकि क्राइम मेरा जॉनर नहीं है और यह फिल्म एक सीरियल किलर के बारे में है इसलिए सजेशन लिस्ट में यह काफी दिन से पड़ी हुई थी। कल देखनी शुरू की तो लगा क्यों इतने दिन नहीं देखी। वो जो होती है न क्रिएटिव भूख वो पूरी हुई इस फिल्म से। आर बाल्की का यह काफी सुंदर काम है। पता नहीं इस पर बात क्यों नहीं हुई।
 
फिल्म फिल्म की दुनिया के बारे में है। फिल्म फिल्म के रिव्यू के बारे में हैं। कई लेयर्स में बहुत सारी कमाल बातें करती है। फिल्म की नायिका जो कि मीडिया में काम करती है, एक नॉर्मल बातचीत में अपनी दोस्त से कहती है, 'जिस फिल्म के रिव्यू बहुत अच्छे होते हैं, खूब स्टार मिलते हैं अक्सर वो फिल्म मुझे अच्छी नहीं लगती और जिसे क्रिटिक नकार देते हैं मुझे लगता कि यह फिल्म मुझे पक्का अच्छा लगेगी और ऐसा अक्सर सच ही होता।' मैंने इस बात से खुद को रिलेट कर पा रही थी। 

फिल्म की कहानी फिल्म रिव्यू करने वालों के बारे में है। कैसे किसी फिल्म को रिव्यू बनाते हैं, बिगाड़ते हैं। एक दृश्य में हीरो कहता है 'तुमने फिल्म को 1 स्टार दिया तो कोई बात नहीं लेकिन इसकी वजह तो ठीक बताती न कि यह फिल्म कहाँ की कॉपी है, उसकी असल कमजोरी क्या है। यही दिक्कत है, जानते नहीं हो तुम लोग और कुछ भी बोल देते हो, लिख देते हो...'कागज के फूल' गुरुदत्त, फिल्मों से प्यार, फिल्मों की समझ, नासमझ इन सबके बीच ट्यूलिप के फूल, चाँदनी रात, बरसात और रोमांस को गूँथते हुए एक सीरियल किलर ड्रामा को आर बाल्की बहुत अच्छे से लेकर आए हैं।

सनी देयोल को हैंडपंप उखाड़ने वाले अवतार से अलग देखना अच्छा लगा। मैं तो जबसे फिल्म देखी है फिल्म के असर में हूँ।

Tuesday, November 21, 2023

बात एक रोज की

फोटो- नितेश शर्मा 

'तुम्हारी मुट्ठी में क्या है? बताओ न? दिखाओ न? दिखाओ न...'  कहते हुए लड़की लड़के की मुट्ठी खोलने को जूझ रही थी। जैसे जैसे लड़की मुट्ठी खोलने को उत्सुक हो रही थी लड़का मुट्ठी कसता जा रहा था। आखिर लड़की थक गयी और फिर रूठ गई,'जाओ मुझे देखना ही नहीं।' कहकर उसने पीठ लड़के की तरफ कर दी। उसकी पीठ पर नीम के पेड़ से छनकर आती हुई चाँदनी कुछ इस तरह गिर रही थी जैसे किसी ने चाँदनी के छींटे बिखेर दिये हों।  लड़के ने उसकी पीठ को देखा और मुस्कुरा दिया। 

तू नहीं जानती नाराज होकर तूने कितना एहसान किया मुझ पर...लड़के ने सिगरेट के मुहाने पर उग आई राख़ को आहिस्ता से झाड़ते हुए कहा। लड़की ने पलटकर कहा, 'मैं तेरी बातों में नहीं आने वाली।' उसके यूं पलटने का असर यह हुआ कि चाँदनी के छींटे अब उसके सर पर झरने लगे। लड़का मंत्रमुग्ध उसे देख रहा था। चाँदनी लड़की पर बिखर रही थी। रातरानी की खुशबू इस जादू को आँखें मलते हुए देख रही थी। रात का तीसरा पहर था और धरती का यह कोना अल्हड़ इश्क़ के इत्र की ख़ुशबू से महक रहा था। 

लड़के ने मुट्ठी लड़की के आगे कर दी। 'लो...' लड़की ने उसकी आँखों में देखते हुए कहा, 'जब देना ही होता है तो क्यों करता है तू ऐसा?' 
'यह तू नहीं समझेगी।' कहकर लड़का नीम के पेड़ की उन शाखों को देखने लगा जहां से चाँदनी के बूटे खिल रहे थे और लड़की के देह पर बिखर रहे थे। 
लड़की ने मुट्ठी खोली। इस बार मुट्ठी आराम से खुल गयी। 
'अरे ये तो खाली है, मुझे बुधधू बना रहे थे।' लड़की ने लड़के को घूरते हुए कहा।
'खाली नहीं है ये, ध्यान से देखो।' 
लड़की ने खाली हथेली को उलट-पुलट कर देखा उसे कुछ भी नज़र नहीं आया। 
लड़का मुस्कुरा दिया। 'इसमें एक सपना है, एक पेड़ का सपना। गुलाबी फूलों वाला एक पेड़ एक छोटे से घर के सामने ।'  
लड़की की आँखें छलक पड़ीं। ऐसी ही किसी चाँदनी रात में एक रोज उसने अपना एक सपना लड़के को बताया था। एक छोटा सा घर, सामने नदी और गुलाबी फूलों से भरा एक पेड़। लड़के ने उस सपने को सहेज लिया था।

'सुनो, मेरा रिजल्ट आ गया है. सिलेक्शन हो गया। अगले महीने ज्वाइन करना है' लड़के ने लड़की के आगे अपनी हथेली को फैलाते हुए कहा। 
'ओह, तो इस मुट्ठी में तुम्हारे जाने की खबर है?'  लड़की की खुशी में उदासी घुल गयी थी। 
नहीं, जाने की नहीं हमारे साथ होने की। 
कैसे? लड़की ने अपनी आँखें लड़के की आँखों में उतार दीं। 

लड़का चुप रहा। कुछ देर बाद उसने बस इतना कहा, ' गुलाबी फूलों वाला पेड़?' 
लड़की समझ चुकी थी। लड़का अपने साथ जीवन भर चलने का प्रस्ताव लाया था। 
लड़की की नीली आँखों में भरोसे की बदलियाँ उतर आयीं। 
उसने बहुत प्यार से लड़के की हथेली को चूमा और उसे वापस बंद कर दिया। 
'तुम बहुत प्यारे हो। लेकिन तुम्हें मेरे सपने समेटने की जरूरत नहीं बस कि तुम साथ रहो मैं अपने सपने खुद सहेज लूँगी।' 
'तुम और मैं क्या अलग हैं?' लड़के की उदास आवाज़ में सुबह की अज़ान घुलने लगी थी। 
'हाँ, हम दोनों अलग हैं। प्यार में होना खुद को खो देना नहीं होता, खुद को पाना होता है। तुम हो तो मुझे मेरे सपनों पर यक़ीन होता है। मुझे मेरे सपनों को जीने दो और तुम अपने सपनों को जियो न।' 
'तो तुम साथ नहीं आओगी?' 
'आऊँगी, पर अभी नहीं। अभी मुझे मेरे सपनों की नींव रखनी है।' 
'तुम इतनी जिद्दी क्यों हो?'  लड़का तनिक खीझने लगा था। 
'सदियाँ लगाई हैं जिद करना सीखने में...' लड़की मुस्कुरा दी। नीम का फूल उसके कांधे पर आ गिरा था। 
लड़का उठने को हुआ तो लड़की ने उसे रोक लिया। 
चलो न एक नया सपना देखते हैं, हम दोनों का सपना। 
लड़की ने अपनी बंद हथेली उसके सामने की और कहा, खोलो। 
लड़के ने हथेली खोली और मुस्कुरा दिया, अब बताओ भी। 
'दिखी नहीं तुम्हें तुम्हारी वो बाइक जो मेरे उस गुलाबी पेड़ के नीचे खड़ी है।'
दोनों खिलखिलाकर हंस दिये। 

Saturday, November 4, 2023

मैंने प्यार किया


प्यार किया तुम्हें
जैसे मिट्टी करती है
बीज से प्यार
और अंकुरित होता है एक पौधा

प्यार किया तुम्हें
जैसे राहगीर करता है
रास्तों से प्यार और
भर लेता है झोलियों में सफर

प्यार किया तुम्हें
जैसे सूरज करता है
धरती से प्रेम
और शरद की दुपहरी
जगमगा उठती है

प्यार किया तुम्हें
जैसे पूस की ठिठुरती रात में
अलाव से करती हैं प्यार
ठिठुरती हथेलियाँ
समेटती हैं ज़िंदगी में भरोसे की ऊष्मा.

Wednesday, November 1, 2023

गोधूलि- प्रियंवद


लंबे समय से एक जद्दोजहद में हूँ कि मेरा पढ़ना छूट रहा है। मुझे लिखना छूटने से ज्यादा तकलीफ होती है पढ़ना छूटने से। पढ़ने से बची हुई जगह में बेकार की व्यस्तता का न जाने कितना कचरा फैलने लगता है। इस छूटने को रोकने के लिए मैंने तमाम किताबें मंगाईं। कुछ पढ़ीं। कुछ पढ़ने की कोशिश में छूट गईं। लिखने और पढ़ने में मेहनत करने की हिमायती मैं बिलकुल भी नहीं। लिखना और पढ़ना सांस लेने जैसा होना चाहिए। सरल और बिना किसी अतिरिक्त प्रयास जैसा। 

इस सिद्धांत को कम उम्र में ही अपना लिया था। जब भी कुछ पढ़ने में मेहनत करनी पड़ी उस रचना के आगे सर झुका लिया और खुद से कहा,'प्रतिभा, अभी इसे पढ़ने की तुम्हारी तैयारी नहीं है।' यह तैयारी किसी स्कूल या कॉलेज में नहीं होती है। जीवन में होती है। समझ की तैयारी। बहुत सी रचनाएँ अब भी मेरी तैयारी की बाट जोह रही हैं, या शायद मैं बाट जोह रही हूँ। या शायद कोई बाट नहीं जोह रहा, बाट जोहने के भ्रम फैले हैं। 

कुछ प्रिय लेखक जिन्हें पढ़ चुकी हूँ उन्हें फिर फिर पढ़ती हूँ। फिर लौट आती हूँ उस कोने में जहां शायद कोरे पन्नों का जादू रखा है। उन पन्नों को पलटना नहीं चाहती। जादू बचाए रखना चाहती हूँ। 



बेवजह सी कोई उदास धुन खुशनुमा मौसम में ढलकर मौसम को और सुहाना बना रही है। उदासी प्रेम का गहना है। जानती हूँ। मुस्कुरा देती हूँ। एक पीले फूल की पंखुड़ी हथेलियों पर रखकर धूप के आगे हथेली फैला देती हूँ। किरणें पंखुड़ी के पीले को सुनहरे में बदल देती हैं। 

प्रियंवद सब खेल देखते हुए हंस देते हैं। उनकी हंसी में 'गोधूलि' नज़र आने लगती है। उन्होंने अपने कहे में कहना शुरू किया, 'उस बरस ऋतुएँ थोड़ा पहले आ गयी थीं।' पहले वाक्य को छुआ भर था कि एक पंछी ने उड़ान भरी, ठंडी हवा का झोंका देह को सहला गया। पलकें मूँदीं और बुदबुदा उठी, 'नहीं इस बरस ऋतुएँ तनिक पहले आ गयी हैं।' 

ऋतुओं के बदलने की आहट तेज़ हो चुकी थी। मैंने गोधूलि की उस बेला को मुट्ठी में बंद कर लिया। आज शाम उदासी जरा परे सरक गयी थी। गोधूलि खुलने लगी थी। कुछ देर बाद मैंने अपनी देह पर सुख रेंगता हुआ महसूस किया। कि सुर लग चुका था। पढ़ने का सुर। प्रिय लेखक ने उबार लिया था। 

किताब जब रात दिन साथ रहने लगे, वाक्य जब रात दिन बतियाने लगें तो ज़िंदगी से शिकायत कम होने लगती है। कहानी में क्या है, यह बताने का कोई अर्थ नहीं लेकिन यह जरूर कहना चाहती हूँ कि लिखना क्या है, कैसे एक  लेखक को एक-एक वाक्य लिखने की तैयारी में पूरा जीवन गलाना पड़ता है यह समझ आता है पढ़ते हुए। जीवन के प्रति दृष्टि जितनी साफ होती है लेखन उतना सुंदर होता है। यह कोई सामान्य कहानी नहीं है लेकिन सामान्य ही कहानी तो है। जीवन की तरह कि खुल जाये गांठ तो सरल और उलझी रहे तो मुश्किल बहुत....

इस कहानी से कुछ इबारतें- 
- बहुत सी चीज़ें अक्सर या फिर धीरे-धीरे या फिर अचानक ही ख़त्म होकर दिखना बंद हो जाती हैं, जैसे कि प्रेमिका, नदी या कुछ शब्दों का फिर न दिखना। 
- मुझे लगा, मेरा यह अनायास जन्मा डर उसी तरह ख़त्म हो जाएगा जैसे और भी डर ख़त्म हो जाते हैं। उसी तरह जैसे स्वप्नों में निरंतरता, प्रार्थनाओं में उम्मीदें और चुंबनों में तृप्ति ख़त्म हो जाती है। 
- हर दस्तक की एक गुप्त भाषा होती थी। बिना दरवाजा खोले ही लोग आने वाले को पहचान लेते थे कुछ दस्तकों का सामी आने वाले का इरादा भी बता देता था। 
- जीवन में दस्तक उसी तरह शामिल थी जैसे वासना में उत्तेजना, नक्षत्रों में लय और चीख में धार। 
- उसने अधिकारी को देश के स्वर्णिम अतीत पर एक कविता सुनाई, फिर देश की वर्तमान बदहाल स्थिति पर एक कविता सुनाई फिर उस संघर्ष पर कविता सुनाई जो क्रांति के दौरान जरूरी होता है। फिर क्रांति कि निश्चित सफलता पर एक कविता सुनाई। अंत में उस युग और यूटोपिया पर एक कविता सुनाई जो क्रान्ति के बाद आएगा। 
- उसने कहा अधिकारी होने के लिए कविता की समझ होना जरूरी है। अगर वह कविता नहीं समझेगा तो मनुष्य को कैसे समझेगा, मनुष्य को नहीं समझेगा तो देश कैसे चला पाएगा? 
- ईश्वरविहीन प्रार्थनाएँ और अकारण बनी रहने वाली करुणा द्रवित होने लगी थी।
- ईश्वर कहीं दुबका था। नैतिकतायें कहीं लिथड़ रही थीं। धर्म और पुण्य मकड़ी के जाल में फंसे कीड़े की तरह बेबस झूल रहे थे। 
- दुनिया का इतिहास सिर्फ महत्वाकांक्षाओं का इतिहास है। महत्वाकांक्षाओं में धँसे लोग ही महान बनाए गए हैं। 
- सारे सत्य हजारों साल पुराने हो चुके हैं। सड़ चुके हैं। सिर्फ झूठ है जो हर बार नया होता है। 

(कहानी जानने के लिए कहानी पढ़नी होगी। किताब आधार प्रकाशन या अमेज़न से मँगवाई जा सकती है। अगली कहानियों पर अपने पाठकीय नोट्स साझा करती रहूँगी।) 

Tuesday, October 31, 2023

बाहर बारिश हो रही है


बाहर तेज धूप थी...भीतर अंधेरा था।
 
तभी मैंने पढ़ा, ‘बाहर बारिश हो रही है।‘ और पाया कि बारिश हो रही है। पेड़, पशु, धरती, पंछी सब भीग रहे थे। बूंदें उछलकर बालकनी के भीतर गिर रही थीं लेकिन वो क्या सिर्फ बालकनी के भीतर गिर रही थीं? मैंने देखा मेरा चेहरा तर-ब-तर था। मेरी हथेलियों पर बूंदें जगमगा रही थीं। भीतर का अंधेरा छँट रहा था। सूखा भी। एक भीगे परिंदे ने अपने पंख झटके, पूरी धरती सोंधी ख़ुशबू में डूब गयी।

लिखना और क्या है अपने पाठक की ज़िंदगी में बारिश बनकर बरस जाने, रोशनी बनकर बिखर जाने के सिवा। प्रियंवद ऐसे ही तो लेखक हैं। कल शाम उनकी नयी किताब ‘एक लेखक की एनेटमी’ के पन्ने पलटते ही एहसास हुआ लंबे अरसे से जो रुका हुआ है पढ़ना, लिखना, जीना वो शायद अब चल निकले।
‘बारिश हो रही थी। दोनों बारिश देख रहे थे।

बारिश न भी होती तो भी वे दोनों नीले रंग की दो अलग-अलग लंबी, पतली खिड़कियों से सर निकाल कर बाहर देखा करते थे। वे हमेशा इसी तरह बाहर देखते हुए, बाहर से देखने पर अलग-अलग तरह से दिखते।‘
मैं अभी अपने मन की खिड़की से बाहर का आसमान देख रही हूँ। किताब हाथ में है तो लगता है उम्मीद हाथ में है, बाहर देखने का चश्मा आँखों पर है।

फिलहाल आधार प्रकाशन से आयी “लेखक की एनेटमी” की संगत पर मन थिरक रहा है।

Friday, October 27, 2023

आसमानी बातें थीं उसकी...


लड़की ने स्याही में उंगली डुबोई और लड़के की पीठ पर रख दी। शफ़्फाक सुफेद शर्ट पर नीला आसमान उग आया था। लड़का उस नीले गोले को देख नहीं पाया था। उसने बस लड़की की उंगली की आंच को महसूस किया था। और शरारत के बाद की उस खिलखिलाहट के सैलाब में तिर गया था जो पीठ पर उंगली रखने के बाद लड़की के पूरे वजूद से झर रहा था।

पीठ पर उभरे उस स्याही के गोले का रंग लड़के की हथेलियों पर नीली लकीर बनकर उभरा जब प्रार्थना के वक़्त ड्रेस मॉनिटर ने उसे लाइन से बाहर निकाला और मास्टर जी ने हथेलियाँ आगे करने को कहा। लड़के के हाथ पर उभरी नीली लकीरें लड़की की आँख का नीला दरिया बनकर छलक पड़ी थीं। उसने कब सोचा था कि उसकी जरा सी शरारत का यह असर होगा।

लड़का अपनी हथेलियों पर आए दर्द को भूल गया था लेकिन उसे अपनी पीठ पर रखी लड़की की उंगली की आंच सुलगाये हुए थी। छुट्टी हुई। लड़की की बड़ी-बड़ी आँखों से दरिया बह निकला। लड़के की हथेलियाँ अपनी हथेलियों में लिए लड़की देर तक खामोश खड़ी रही।

लड़के ने लड़की की आँखों के दरिया से धरती को सींचा और लड़की की खिलखिलाहट के बीज बो दिये। मुद्दत हुई इस बात को। धरती के किसी भी कोने पर नीले अमलतास खिले देखो तो समझना वो लड़की की खिलखिलाहट खिली हुई है।

लड़के की पीठ पर अब भी आसमान टंका हुआ है। लड़की की आँखों में अब भी एक दरिया छलकता है। अक्टूबर का मौसम उन दोनों के प्रेम पत्र अपनी टहनियों पर समेटे बैठा है।

Saturday, October 21, 2023

अक्टूबर महक रहा है


हथेलियों पर
रखे हरसिंगार के नीचे
धीमे से
बिना कोई हलचल किए
उग रही हैं नयी लकीरें

धूप की नर्म कलियाँ
खिलखिलाकर झर रही हैं
काँधों पर
अक्टूबर महक रहा है।

Saturday, October 7, 2023

हथेलियों में झरता अक्टूबर


'मैं अपनी कहानियों का अंत बदलना चाहती हूँ।' लड़की ने अपनी पनीली आँखों से लड़के की आँखों में देखते हुए कहा।
लड़के का ध्यान ट्रेन के एनाउंसमेंट पर था। उसने लड़की की आँखों में देखे बिना कहा, 'तो बदल दो न। तुम्हारी कहानी है तो अंत वही होना चाहिए जो तुम चाहती हो।' यह कहते हुए लड़का चलने को उठ खड़ा हुआ। उसकी ट्रेन का एनाउंसमेंट हो चुका था। 
'चलो, निकलता हूँ अब। तुम अपना खयाल रखना' कहकर लड़के ने ट्रेन की तरफ कदम बढ़ा दिये। 

लड़की अपनी पनीली आँखों से जाते हुए लड़के को देखती रही। 
लड़के की पीठ पर उसकी गीली आँखें चिपकी हुई थीं। लौटते कदमों से वापस लौटती हुए लड़की सोच रही थी क्या लड़के को अपनी पीठ पर उसके आंसुओं की नमी महसूस होती होगी? वो लड़के से कह न पाई कि 'अपना ख्याल मैं क्यों रखूँ वो तो तुम्हें रखना था न।' 

वो सोच रही थी कि क्या सचमुच वो अपनी कहानी का अंत बदल सकती है? 
तो फिर लड़का चला क्यों गया, रुक क्यों नहीं गया। इस कहानी में वो लड़के का रुक जाना लिखना चाहती थी। 
तो क्या वह झूठी कहानी लिखे? 

उसकी उदास आँखें जाते हुए लड़के की नहीं आते हुए, जीवन में रुक गए, साथ निभाने वाले लड़के की कहानी लिखना चाहती थीं। 

लेकिन वो झूठी कहानी नहीं लिखना चाहती थी। उसने आसमान से झरते अक्टूबर के आगे हथेलियाँ फैला दीं। घर पहुँची तो लड़का इंतज़ार करता मिला। 

अरे...तुम तो चले गए थे न? 
मैं कहाँ गया हूँ। कब तक इस डर को जीती रहोगी। कहीं नहीं गया मैं। ख्वाब था तुम्हारा। लो चाय पियो। 

लड़की ने खुद को टटोला वो सचमुच ख्वाब में थी। उदास ख्वाब का मौसम बीत चुका था। ट्रेन न जाने कितनी चली गईं लड़का कहीं नहीं गया। वादे की मुताबिक सुबह की चाय बना रहा है। चाय की प्याली के बगल में हरसिंगार के फूल मुस्कुरा रहे थे।  

लड़की ने उदास कहानियाँ लिखना बंद कर दिया है। उसके मोबाइल पर माहिरा खान की शादी के वीडियो तैर रहे हैं। 

Wednesday, September 27, 2023

धरती को बहुत प्रेम चाहिए


न जाने कितनी सदियों पहले देखा होगा ये ख़्वाब कि सामने समंदर होगा एक रोज़ मन में होगी डूब जाने की ख़्वाहिश। प्रेम में डूब जाने की। समंदर खारा सही लेकिन खरा प्रेमी है। उदास नहीं करता। उसकी उदात्त लहरें जीवन की तमाम लालसाओं समेत, तमाम खर पतवार समेत समेट लेती हैं पूरा का पूरा वजूद। वो आपको आज़ाद करता है। मुक्ति की लालसा से भी। आप समंदर का किनारा पकड़िए वो आपको जीवन का मध्य पकड़ा देगा।

मैंने हमेशा समंदर के करीब जाकर जीवन को कुछ और जाना है। मैं पहाड़ में रहती हूँ और समंदर से प्यार करती हूँ। जंगलों में फिरना मेरा शगल है और आसमान पर हमेशा मेरी नज़र टिकी रहती है। माँ ने हमेशा सिखाया कि नज़र आसमान पर हो और पाँव धरती पर मजबूती से जमे हुए। यही जीवन का मंत्र है। लेकिन समंदर सारे मंत्र सारी योजना, सारे तरीके तोड़ देता है। वो प्रेमी है। उसका काम है सब छिन्न भिन्न करना। जब टूटेगा कुछ तभी तो नया उगेगा। समंदर उसी नए उगने की मुनादी है।

तो इस बार समंदर से मुलाक़ात अलग थी। उदासी जीने की अभिलाषा में बदली हुई थी। मैंने लहरों को छुआ और और लहरों ने मुझे सराबोर किया और खिलखिलाकर कहा, 'तुम्हें प्रेमी से किस तरह मिलते हैं ये सलीका भी नहीं आता'। मैं एक पल को लजा गयी।
 


हिचक टूटी और लहरों के आगोश में सिमटने की बेकरारी ने हाथ थामा। कुछ ही देर में समंदर मुझमें था और मैं समंदर में। सुख वहीं आसपास टहल रहा था, मुस्कुरा रहा था। मैंने सुख को देखा और हंस पड़ी। सुख से मेरी जान पहचान एकदम नयी है। मैं उसके बारे में ज्यादा नहीं जानती लेकिन वो कमबख्त मेरे बारे में सब जानता है। मैंने सुख से कहा देखो सूरज। डूबते सूरज की लालिमा ने आसमान को सिंदूरी रंग में डुबो दिया था। आसमान के कैनवास पर बेहद खूबसूरत पेंटिंग बन रही थी। मैं मंत्रमुग्ध सी उसे देख रही थी और सुख मुझे। तभी एक बड़ी लहर ने हम दोनों को अपने भीतर समेट लिया। पाँव उखड़ गए और कुछ ही देर में मैं बीच धार में थी। आसमान और धरती के मिलन का समय था। समंदर में आसमान सूरज समेत उतरने को व्याकुल। मैंने सुख की ओर हाथ बढ़ाया उसने मुस्कुराकर कहा, जी क्यों नहीं लेती जी भरके। मैं फिर से पानी में गुड्प हो गयी। उसी समय सूरज डूबा, उसी समय दो पंछियों ने एक दूसरे की गर्दन सहलाई, उसी वक़्त धरती पल भर को थमी।

मैंने पाया कि सुख की चौड़ी हथेलियों ने मुझे थाम रखा है। वो एक लम्हा था जिसकी खुशबू पूरी धरती पर बिखरी हुई है। सदियों पहले देखा कोई ख़्वाब आसमान से उतरकर धरती के करीब खुद चलकर आया हो जैसे। धरती को बहुत प्रेम चाहिए। 


Monday, September 4, 2023

हमकदम

एक रोज
ढलती शाम के समय
समंदर के किनारे
हमने अपने कदमों
के निशान भर
नहीं बोये थे
बोयी थी उम्मीद
कि दुनिया में
सहेजी जा सकती है
प्रेम की ख़ुशबू।

Tuesday, August 29, 2023

सुख का स्वाद



सुख का स्वाद
उस वक़्त पता नहीं चलता
जब वह घट रहा होता है

वह पता चलता है
घट चुकने के बाद

जीभ पर टपकता है
बूंद-बूंद
धीमे-धीमे
मध्धम-मध्धम 
राग हंसध्वनि की तरंग सा

जैसे मिसरी की डली
घुल रही हो
जैसे नाभि से फूट रही हो कोई ख़ुशबू.
जैसे बालों में अटका हो
बनैली ख़ुशबू से गुंथा
एक फूल।

Friday, August 11, 2023

ये भी कोई बात हुई


बात बात बात… कितना कुछ कहा जा रहा है. मैं थक जाती हूँ. थोड़ा सुनती हूँ उतने में ही थक जाती हूँ. कुछ कहने की इच्छा मात्र से थक जाती हूँ. कहना भीतर होता है लेकिन कौन उसे बाहर लाये सोचकर चुपचाप सामने मुस्कुराती जूही को देखने लगती हूँ. 

बिस्तर के पास वाली छोटी टेबल किताबों से भर चुकी है. ये वो किताबें हैं जिन्हें मैं कभी भी हाथ बढ़ाकर पढ़ना चाह सकती हूँ. उस संभावना में ये किताबें बिस्तर के क़रीब रहती हैं. अब कुछ किताबें बिस्तर तक पहुँच चुकी हैं. कुछ नहीं बहुत सारी. नहीं बहुत सारी से भी ज़्यादा. इतनी कि अब ये किताबों का बिस्तर हो गया है और मैं अपने लिए थोड़ी सी जगह बनाती हूँ कि सो सकूँ. लेकिन मुश्किल यह नहीं है कि मेरे ही बिस्तर पर मेरी जगह नहीं बची मुश्किल यह है कि किसी भी किताब पर टिक नहीं पा रही. उन्हें देखती हूँ. आधी पढ़ी किताबें. बुकमार्क लगी किताबें. अधख़ुली किताबें. अब उन्हें देखते ही थकान से भर जाती हूँ. 

आज समीना से कहा इन सब किताबों को ड्राइंग रूम की बुकशेल्फ में रख दो और जैसे ही वो किताबें लेकर गई भीतर कोई हुड़क सी उठी. कभी कभी हम सिर्फ़ पास रहना महसूस करते हैं, करना चाहते हैं. और यह उपयोगिता से काफ़ी बड़ा होता है. यह महसूस करना. ड्राइंग रूम की शेल्फ में सजने के बाद वो किताबें मुझे उदास लगीं. जैसे मेरा उनके साथ जो आत्मीय रिश्ता था उसे मैंने पराया कर दिया हो. 

ख़ाली साफ़ सलीक़ेदार बिस्तर मुझे चिढ़ा रहा है. बाहर बारिश हो रही है और भीतर बारिश की वो आवाज़ बज रही है बिलकुल वैसे ही जैसे ख़ाली बर्तन में बजती है कोई आवाज़. न पढ़ने का अर्थ किताबें ख़ुद से दूर करना कैसे मान लिया मैंने. ऐसा ही जीवन के साथ तो नहीं कर रही हूँ? उन ख़ामोश लम्हों को समेटने लगी हूँ जिनके होने में कुछ होना दर्ज नहीं है लेकिन जिनके होने ने बिना किसी लाग लपेट बिना किसी अपेक्षा के मुझे अपने भीतर पसर जाने दिया. 
(सुबह की अगड़म बगड़म)

Wednesday, August 9, 2023

जीवन से प्रेम की कहानी


‘रिकी और रानी की प्रेम’ कहानी एक सुंदर कहानी है। न जाने कितने नर्म लम्हे, मीठी सी अधूरी ख्वाहिशें हैं फिल्म में। असल में रिकी और रानी की प्रेम कहानी में उन दोनों की प्रेम कहानी ही केंद्र नहीं है। और यह शायद जरूरी भी था कि दर्शक प्रेम की एक कहानी में सिमट कर न रह जाएँ और देख सकें दुनिया के वो खूबसूरत पहलू जो पास होकर नज़रों से ओझल ही रहे।

फैज के शेर का हाथ थामकर जो प्रेम कहानी शुरू होती है उसका हर शेड खूबसूरत है। शबाना और धर्मेन्द्र की प्रेम कहानी के बहाने फिल्म झूठे, दोगले समाज की चारदीवारी में दम घुटते लोगों को ऑक्सीज़न देती है। विवाह प्रेम की बाध्यता नहीं है। किसी एक लम्हे का प्यार उम्र भर के साथ पर भारी पड़ता है।

शादियों में और कुछ हो न हो अहंकार बहुत होता है, 'ये व्यक्ति मेरा है, इस पर मेरा ही हक़ है' जैसा अहंकार। जया बच्चन उस किरदार को पोट्रे करता है और ठीक से करता है। पितृसत्ता किस तरह स्त्रियॉं को एक टूल कि तरह इस्तेमाल करती है इसकी मिसाल बनकर उभरी हैं जया बच्चन।

पूरी फिल्म मुझे अच्छी लगी। दृश्य, संगीत, आलिया की साड़ियाँ, शबाना की ग्रेस रणवीर की अदायगी।

आलिया के पिता का किरदार, माँ का किरदार, सब किस तरह करीने से गढे गए हैं। वैसे ही रणवीर की माँ का, पिता का बहन का किरदार। हर बिहेवियर एक जर्नी होता है। हम सिर्फ बिहेवियर को देखते हैं जर्नी को नहीं देख पाते। फिल्म उस जर्नी को दिखाती है।

बस जरा सी कसक रह गयी कि जया बच्चन के किरदार की उस जर्नी कि झलक भी जरूर मिलनी चाहिए थी। यह जरूरी था। वह स्त्री होकर स्त्री की दुशमन वाले खांचे में फिट न हो इसलिए यह जरूरी था।

जब फिल्म लिखने वाले और निर्देशक की नज़र साफ हो तब ग्लैमर, गाने बजाने, साड़ी झुमके और रंगीनियों के बीच भी जरूरी बातों को ठीक से रखा जाना मुश्किल नहीं होता।

करन जौहर की ‘कभी अलविदा न कहना’ फिल्म मुझे खूब पसंद आई थी जो एक लाइन में यह बात कहती थी कि किसी को पसंद न करने के लिए उसका बुरा या गलत होना जरूरी नहीं होता ठीक इसके उलट किसी को पसंद करने के लिए उसका सर्वश्रेष्ठ या महान होना जरूरी नहीं होता। 

फिलहाल रिकी और रानी जरूर देखनी चाहिए, मनोरंजन भरपूर है और कुछ जरूरी काम की बातें भी हैं जो बिना किसी नसीहत सी लगे साथ हो लेती हैं।

फिल्म में पुराने गानों का इस कदर खूबसूरत प्रयोग है कि कोई दिखाये तो फिल्म मैं दोबारा देख सकती हूँ...शबाना के लिए , ईशिता मोइत्रा, शशांक खेतान और सुमित राय की कहानी के लिए।

यह प्रेम कहानी सिर्फ दो लोगों के बीच के प्रेम की कहानी नहीं है जीवन के तमाम रंगों से प्रेम करने की कहानी है जिन्हें अपनी नासमझी से हमने बदरंग कर रखा है और जिसकी अक्सर हमें ख़बर भी नहीं है।

Monday, July 31, 2023

कुछ सवाल छोड़ती है ट्रायल पीरियड

एक स्त्री का अकेले रहने का फैसला एक पुरुष के अकेले रहने के फैसले से अलग होता है। यह आसान नहीं होता। खुद की मर्जी से लिया गया हो या परिस्थितिवश। जानते हैं यह मुश्किल फैसला क्यों होता है? इस फैसले को निभाना मुश्किल क्यों होता है? क्योंकि हम सब मिलकर उसे मुश्किल बनाते हैं। हम सब जो उस स्त्री के करीबी हैं, उसके दोस्त हैं, परिवार हैं। 

हर वक़्त उसे यह एहसास कराते हैं कि तुमने गलत फैसला लिया है, तुम इसे बदल दो, अब भी देर नहीं हुई। अगर वो स्त्री लड़खड़ा जाये, कभी उलझ जाय, उदास हो जाय तो ये सारे करीबी मुस्कुराकर कहते हैं, 'देखा मैंने तो पहले ही कहा था।' और अगर साथ में बच्चा भी है तब तो कहना ही क्या। सारा का सारा समाज मय परिवार राशन पानी लेकर चढ़ जाएगा यह बताने के लिए कितना गलत फैसला कर लिया है उस स्त्री ने।  

लेकिन यह वही दोगला समाज है अगर स्त्री के लिए यह फैसला नियति ने किया हो (पति की मृत्यु या ऐसा कुछ) तब यह नहीं कहता कि आगे बढ़ो नए रिश्ते को अपना लो। तब यही लोग कहते हैं अरे, 'बच्चे का मुंह देख कर जी लो।' नियति को स्वीकार कर लो। मतलब सांत्वना देने या ताना देने के सिवा कुछ नहीं आता इन्हें। 

एक मजबूत स्त्री जिसने खुद के लिए कुछ फैसले लिए हों, जिसकी आँखों में सिर्फ बच्चे की परवरिश ही नहीं अपने लिए भी कुछ सपने हों, इनसे बर्दाश्त ही नहीं होती। घूम फिरकर उसे गलत साबित करने पर तुल जाते हैं। अगर वो खुश है अकेले तो भी कटघरे में है और अगर वो उदास है तो भी कटघरे में ही है। हंसी आती है इन लोगों पर। क्योंकि दुख तो अब होता नहीं। 

हाल ही में आई फिल्म ट्रायल पीरियड ने भी ऐसा ही कुछ परोसने की कोशिश की है। मैंने फिल्म रिलीज के दिन ही देख ली थी लेकिन मुझे फिल्म अच्छी नहीं लगी। मैं अपने एंटरटेनमेंट में भी काफी चूजी हूँ। कुछ भी मुझे खुश नहीं कर सकता। 

फिल्म एक एकल स्त्री की कहानी है। जिसका एक छोटा बच्चा है। बच्चा अपने पापा के बारे में पूछता रहता है। यह पूछना उसके पियर प्रेशर से भी ड्राइव होता है। सारे बच्चे पापा के बारे में बातें करते हैं और उसके पापा नहीं हैं। वो अपनी माँ से ट्रायल पर पापा लाने के लिए कहता है। आइडिया मजाक वाला है लेकिन ठीक है। 

त्रासदी वहाँ से शुरू होती है जहां से कौमेडी शुरू होती है। किराए के पापा सुपर पापा हैं। एक बेरोजगार नवयुवक जो किराए के पापा कि नौकरी पर चल पड़ता है। पापा की सारी भूमिकाएँ निभाता है और बच्चे के भीतर पल रही पापा की कमी को पूरा करता है। लगे हाथ माँ को पैरेंटिंग पर लेक्चर भी पिला देता है। खैर, माँ को पैरेंटिंग पर तो लेक्चर यहाँ कोई भी देकर चला जाता है। सो नथिंग न्यू इन इट। 

तो ये नए पापा सब कुछ फिक्स कर देते हैं। खाने से लेकर होमवर्क, स्पोर्ट्स से लेकर एंटरटेंमेट तक। कहाँ हैं ऐसे पापा भाई? पापा वो भी तो हैं जो बच्चे के सामने माँ का अपमान करते हैं, घर के काम करते नहीं बढ़ाते हैं, माँ और बच्चे का हौसला नहीं बढ़ाते बल्कि उन्हें बताते हैं उनकी कमियाँ गलतियाँ। 

और आखिर में वही हिन्दी फिल्मों का घिसा पिटा फॉरमूला कि हीरो हीरोइन बच्चे के साथ हैपी एंडिंग करते हुए मुसकुराते हुए। 

यह फिल्म मिसोजिनी अप्रोच की ही फीडिंग करती है। मेरे लिए यह फिल्म तब बेहतर होती जब हीरो हीरोइन के संघर्ष को सैल्यूट करता, बच्चे को समझाता कि उसकी माँ कितनी शानदार स्त्री है और पापा के न होने से उसका जीवन कम नहीं है बल्कि कुछ मामलों में ज्यादा सुंदर ही है। हीरोइन और मजबूती से खड़ी होती। और किराए के पापा को कोई सचमुच का बढ़िया रोजगार मिल जाता। 

फिल्म में मानव को देखना ही सुखद लगा। बाकी लोगों को देखकर तो ऐसा लग रहा था जैसे या तो वो ओवरकान्फिडेंट थे कि क्या ही करना है एक्टिंग जो करेंगे ठीक ही लगेगा। और जेनेलिया की भर भर के क्यूटनेस कितना देखे कोई। कभी तो उन्हें थोड़ी एक्टिंग भी कर लेनी चाहिए। फिल्म रील नहीं है यह बात उन्हें समझनी चाहिए। 

फिल्म का संगीत अच्छा है। बिना किसी संकोच के कह सकती हूँ फिल्म सिर्फ मानव के कंधों पर चल रही है। फिल्म का चलना सुखद है लेकिन क्यों उन सवालों पर बात नहीं होनी चाहिए जो सवाल फिल्म छोड़ रही है।

(Published in NDTV- https://ndtv.in/blogs/trail-period-film-review-why-doesnt-mother-exist-without-father-pratibhakatiyar-4253377)

Saturday, July 29, 2023

तरला के बहाने

खाना बनाना मुझे खूब पसंद है। शायद बचपन से ही। नयी-नयी रेसिपी बनाना और उसे खिलाकर खाने वाले का मुंह देखना कि कैसी बनी है, अगर अच्छी बनी है सुन लिया तो खुशी से झूम उठना। क्या यह मेरी बात है सिर्फ? नहीं यह लगभग हर स्त्री की, हर लड़की की बात है। अच्छी कुकिंग, घर की साज संभाल, खुद को सुंदर ढंग से प्रस्तुत करना। इनमें सुख की तलाश। यहीं से शुरू, यहीं पर कहानी ख़त्म। 

लेकिन सच्चाई की परत धीरे-धीरे खुलती है। एक रोज मैंने महसूस किया कि मुझे खाना बनाने में खास मजा नहीं आ रहा। आँख खुलते ही किचन में पहुँचना अखरने लगा। उलझन होने लगी। लेकिन क्या इस उलझन का कोई विकल्प था। नहीं। खाना बनाना, घर संभालना तो स्त्री के साथ रक्तमज्जा की तरह चिपका हुआ है। जब तक है जान किचन और घर ही है सारा जहान। 

आप डॉक्टर बन जाएँ, इंजीनियर बन जाएँ, किसी कंपनी की सीईओ बन जाएँ, चाँद पर चली जाएँ किचन तो आपके हवाले है ही, रहेगा ही।  इसका कोई विकल्प नहीं। अगर थोड़ा लिबरल साथी या घरवाले हुए तो कभी जब उनका मन हुआ तो थोड़ा हाथ बंटा दिया। इस हाथ बंटाने का गर्व हाथ बंटाने वाले में तो खूब था ही उन स्त्रियॉं को भी कम न हुआ जिनका हाथ बंटाया गया। उन्होंने गर्व से भरकर कहा, 'मेरे ये तो बहुत अच्छे हैं कभी कभी चाय बना देते हैं मेरे लिए कभी खाना भी बना देते हैं।' मासूम औरतें। 

न जाने कितने सवाल हैं मन में। छोटी-छोटी चीज़ें जिनसे जीवन बनता है। जब मैंने पहली बार कुक रखने की बात रखी तो पूरे परिवार ने ऐसे देखा जैसे कोई गुनाह हो गया हो। 

ख़ैर, मैंने तो गुनाहों की राह पर कदम रख ही दिये थे। सो कुक लग गयी। घर के मर्दों ने ही नहीं स्त्रियों ने भी पुरजोर विरोध किया। हम नहीं खाएँगे कुक के हाथ का खाना से लेकर न जाने क्या-क्या। धीरे-धीरे स्वीकृति मिली। लेकिन हमेशा यह स्वर रहता कि खाने में स्वाद नहीं है। मैं मुस्कुराकर कहती, इस बहाने यह तो याद आया आप लोगों कि अब तक घर की स्त्रियाँ जो बनाती थीं जिस पर ध्यान तक दिये बिना या सिर्फ कमियाँ निकालते हुए खाते रहे असल में उसकी वैल्यू क्या है। 

ये सब क्यों कह रही हूँ मैं अब? क्योंकि अभी-अभी फिल्म 'तरला' देखकर ख़त्म की है। फिल्म पूरा एक जीवन है। खाना जब घर की चारदीवारी से बाहर निकलता है तब क्या होता है। तरला एक सीधी सी हाउस वाइफ है। घर परिवार बच्चा यही उसकी दुनिया है। इस दुनिया के बीच उसके भीतर कुछ करने की इच्छा मध्धम आंच पर पकती रहती है। शादी की दसवीं सालगिरह पर तीन बच्चों और पति के साथ केक काटते हुए, मोमबत्ती जलाते हुए कोई सपना बुझता हुआ उसे महसूस होता है। तरला का पति नलिन एक समझदार और पत्नी को समझने वाला उसका साथ देने वाला व्यक्ति है। फिर भी वो समझ नहीं पाता कि उसकी पत्नी का सपना किस तरह बुझ रहा है। 

फिर अचानक एक रोज ज़िंदगी बदलती है तरला की जब आसपास की स्त्रियाँ उससे खाना बनाना सिखाने का आग्रह करती हैं। क्योंकि एक लड़की ने तरला से सीखी रेसिपी बनाकर अपनी सास को खिलाकर नौकरी करने की अनुमति हासिल कर ली थी। बात अजीब है वही किसी की सहमति के लिए पेट के रास्ते होकर जाने वाली बात। 

तरला कुकिंग सिखाने को ज़िंदगी की खिड़की खोलने के तौर पर देखती है। वो कुकिंग सिखाने से पहले कहती हैं कि अपने सपनों को पकड़कर रखना है। फिल्म आगे बढ़ती है। तरला की कुकिंग क्लासेज चल पड़ती हैं। फिर अवरोध आते हैं और कुकिंग क्लासेज बंद हो जाती हैं। फिर कुक बुक निकाली जाती है जिसके लिए पति नलिन पूरा सहयोग करते हैं। कुक बुक कैसे फ्लॉप से हिट की तरफ जाती है। फिर कुकरी शो की तरफ और कैसे अनजाने ही कहानी में अभिमान की कहानी आ मिलती है। 

पति का सहयोग ठंडा होने लगता है। घर उपेक्षित होने लगता है जिसके ताने तरला को मिलने लगते हैं। माँ, पति, बच्चे सब उसे गिल्ट देने लगते हैं। माँ कहती है, 'तुम जो भी हो उसे बाहर छोड़कर घर आया करो, औरत का पहला काम घर संभालना है।' 

फिल्म कई दरीचे खोलती है जिसमें ढेर सारे नन्हे सवाल जगमगाते हैं। कुकिंग सीखने आने वाली सारी लड़कियां ही हैं। तरला की किताब को पढ़कर प्रोफेशनल उपयोग करने वाला एक लड़का है। 

खाना बनाना सिर्फ स्त्रियों का ही काम क्यों है, घर संभालना कब तक सिर्फ स्त्रियों के मत्थे मढ़ा रहेगा। क्यों बच्चे की बीमारी या घर पर समय पर सब्जी न आने, पर्दे या बेडशीट गंदे होने की ज़िम्मेदारी औरतों के सर मढ़ी जाती रहेगी। 

सारी दुनिया को खाना बनाना सिखाती हो घर में भी खाना बनाया करो। अब कर तो लिया इतना बस भी करो। घर और बच्चों को समय दो। तुम बाहर जो भी झंडे गाड़ो लेकिन घर में तुम बीवी, बहू, माँ ही हो ये कभी मत भूलो और घर की ज़िम्मेदारी संभालो। 

ये सब कितनी उलझन वाली बातें हैं। अब भी। 

तरला दलाल ने किस तरह एक सफर तय किया। किसी मुकाम पर पहुँचीं कहानी यह नहीं है। कहानी मुकाम पर पहुँचना नहीं है, कहानी सपने देखना है, उन्हें मरने न देना है, उन सपनों के लिए एफर्ट करना है। कहानी है कि क्या हम उन्हें सच में जरा भी समझते हैं जिन्हें प्यार करने का दावा करते हैं। 

मैं जानती हूँ 'अरे दो ही रोटी तो बनानी है इसके लिए कुक क्यों रखना' या 'इनकी तो ऐश है कुछ करना ही नहीं। कुक तक तो लगा रखी है' जैसे तानों की बरसात जब तब हो ही जाती है। और ये ताने देने वाली स्त्रियाँ भी कम नहीं हैं। माने खाना न बनाया तो किया ही क्या, और खाना बनाना भी कोई काम है जैसे विरोधाभास के बीच अभी हम नए समय के लिए नयी सोच के लिए तैयार हो रहे हैं। 

जब देख रही यह फिल्म तब नाश्ता बना रही थी और मुस्कुरा रही थी। कुकिंग करना अच्छा या बुरा है की बात नहीं है बात उस च्वाइस की है जो स्त्रियों के पास नहीं है और पुरुषों के पास है।  

तरला के बहाने हमें अपने आसपास को जरा खंगालना चाहिए। 

फिल्म के अंत में तरला के पति की बात असल में पूरे जमाने की बात है जिसे थोड़ा ध्यान से सुनने की जरूरत है। फिल्म अच्छी है, बिना लाउड हुए अपनी बात कहती है और जीवन को कैसे मीठा बनाएँ इसकी रेसिपी बताती है।  



Wednesday, July 26, 2023

तुम्हारे बारे में- मानव कौल


उसने कहा 'तुम्हारे बारे में'। 
मैंने कहा नहीं सोचा,'कि अगर यह मेरे बारे में है तो तुम्हारे पास क्यों है?' 

सारे जमाने में हमेशा यही हुआ कि जिसके बारे में जो था, उसके अलावा वो सबके पास था। मुझे कभी-कभी लेखकों, कवियों पर गुस्सा आता है। दुनिया की सारी त्रासदी उनके लिए रसद है। लेकिन अगले ही पल यह भी लगता है कि सच ऐसा है क्या? काश!  

इस बरसती सुबह में जब कड़वी कॉफी का स्वाद होंठों पर चिपका हुआ है 'तुम्हारे बारे में' का ख़याल अटका हुआ है। असल में यह अटका तो तबसे है, जबसे देखा है। लेकिन कुछ भी लिख पाऊंगी का कमतर एहसास राह रोके रहा। यूं भी जो अटका रह जाता है, वो करीब सरक आता है। 

पृथ्वी थियेटर में पहली बार नाटक देखा 'तुम्हारे बारे में'। 
पृथ्वी थियेटर का माहौल अपनेपन आप में एक जीवन है, जीवंतता है। उसके बारे में फिर कभी। 

अभी उस किरच के बारे में जो चुभी हुई है, जिसने बहुत सारी चुभी हुई किरचों की कसक को बढ़ा दिया है। 
यह नाटक हम स्त्रियॉं के बारे में है, लेकिन यह पुरुषों के बारे में भी है। यह पूरे समाज के बारे में है। व्यक्ति की गढ़न के बारे में है। हमारा व्यवहार जो हमें लगता है हमारा है, हमारा अच्छा लगना, बुरा लगना, खुश लगना सब कुछ क्या सच में हमारा ही लगना है इसे खँगालने की बाबत कहाँ सोचते हैं हम, कहाँ सोच पाते हैं। 
 
'तुम्हारे बारे में' की तीन स्त्रियाँ मिलकर अपना सपना ढूंढती हैं जिसे लिखकर उन्होंने कहीं रख दिया था। एक स्त्री जिसने अपने उड़ने के सपने के बारे में लिखा होगा वो इतिहास की कोई स्त्री थी, यह हम ही थे। वो सपना जो लिखा नहीं गया, वो सपना जो अभी अपनी इबारत गढ़ रहा है, वो सपना जो अभी लिपि में ढला नहीं वो सपना जो खिड़की से दिखते आसमान के बारे में नहीं था एक मुक्त उड़ान के बारे में था। वो सपना जिसके बारे में सोचते ही आँखें भर आती हैं, मन सहम जाता है वो सपना कौन चुरा लेता है हमसे। 

उड़ान का सपना इतना बड़ा क्यों है आखिर? जब पंख हैं, आसमान है और उड़ने की इच्छा है तो अवरोध कहाँ है, क्यों है। हम उड़ना चाहती हैं, हमारे पास पंख हैं, सामने पूरा आसमान है लेकिन... ये कमबख़्त अपनों की शक्ल की बिल्ली...सारी ज़िंदगी उड़ान को रोके रहती है और मुस्कुराती है। 

मैंने यह नाटक दो बार देखा। और दोनों बार मैंने खुद पर खुद को तारी होते महसूस किया। बहते आंसू और खड़े होते रोयें मुझे गहरे मौन में धकेल रहे थे।
 
हम जो कहने से बचा लाते हैं वो हमसे जब-तब बतियाता रहता है। यह बतियाना बचा रहे इसलिए कहाँ लिख ही रही हूँ कुछ भी कि मैं तो इस सुबह में आई एक याद के सामने खड़ी हूँ बस। मेहंदी हसन गाये जा रहे हैं...बारिश बरसे जा रही है। 

मैंने अपनों की शक्ल की बिल्ली की तरफ देखना बंद कर दिया है फिर भी ठिठकी हूँ उड़ने का सपना अपनी हथेलियों में ज़ोर से भींचे हुए। 
मानव, तुमने हम सबके सपनों को क्यों चुरा लिया। वैसे अच्छा ही किया कि हम तो उस सपने को भूल ही गए थे...

हाँ, नाटक देखना नाटक पढ़ने से, नाटक के बारे में पढ़ने से बहुत अलग होता है। सचमुच। 

चुंबन


जब तुमने पहली बार चूमा था
अज़ान की आवाज़ पिघल रही थी कानों में
गौरेया का जोड़ा थोड़ा करीब सरक आया था
दिन कहीं गया नहीं था
लेकिन शाम की दहलीज पर
रात खड़ी मुस्कुरा रही थी
एक नन्हे बच्चे ने
अपनी गुल्लक खनखनाई थी
मेरी ज़िंदगी की खाली पड़ी गुल्लक में
एक चमकता सिक्का गिरने की
आवाज़ आई थी
खाली पड़ी शाखों पर
अंखुएँ फूटने की आहट हुई थी
धरती उम्मीद से भर उठी थी
कि तुमने सिर्फ एक स्त्री को नहीं चूमा था
तुमने सहेजा था एक स्त्री का भरोसा
मेरे माथे पर तुम्हारा चुंबन
सूरज सा जगमगाता है
मेरी देह से तुम्हारी देह की
खुशबू कभी झरती नहीं...

Thursday, July 20, 2023

खिड़की भर नहीं है आसमान



एक खिड़की थी छोटी सी
एक आसमान था बड़ा सा
लड़कियों को सिखाया गया
खिड़कियों को सजाना-संवारना
उस सजी धजी खिड़की से 
आसमान को देखना
और इतने से ही खुश हो जाना
खुशक़िस्मत समझना ख़ुद को
कि उनके पास खिड़की है तो कम से कम 

उन्हें शुक्रिया कहना सिखाया गया
घर देने वाले का
ताकि वो उसे सजाती-संवारती रहें
खिड़की देने वाले का
जिसमें वो एक टुकड़ा
आसमान थोड़ी सी बूँदों की झालर
लगाती रहें
लोग कहते रहें
कितना सुंदर घर सजाती हो

लड़कियों को खिड़कियाँ और दीवारें लांघकर
बाहर जाना नहीं सिखाया गया
उन्हें नहीं बताया गया 
कि आसमान सिर्फ़ देखने के लिए नहीं होता
उड़ान भरने के लिए होता है.

लड़कियों ने खुद ही सीख लिया एक रोज़
बिना दीवारों वाला घर बनाना
आसमान सिर्फ़ देखना नहीं
उसमें ऊँची उड़ान भरना भी 
 
अब वो सिर्फ़ घर, दहलीज़ 
और खिड़कियाँ नहीं सजातीं 
पूरी दुनिया को सुंदर बना रही हैं
अपनी मुस्कुराहटों से भी 
और अपने प्रतिरोध से भी.

Monday, July 17, 2023

Notes to Myself


Reading the book 'Notes to Myself' by Hugh Prather is listening to my own breath, sensing my emotions, getting relaxed from over thinking, holding my own hand, and walking on green carpet of nature. It has been a mesmerizing experience. The book is holding me inside like a beloved one saying, 'do not worry, everything is okay I am there with you. Reading it, giving a feel like I am standing in front of the mirror which is taking me inside me to see my soul, my tiny botheration and unnecessary guilt. The book is taking me to deep dive into myself. Since long I was waiting for to read something like that.

यह शहर एक कविता है



एक गहरी लंबी सांस के साथ अपनी कलाई को खुद थामते हुए मैंने सुबह से वादा किया कि 'अपना साथ हमेशा निभाऊँगी। चाहे कुछ भी हो जाये, उम्मीद पर भरोसा करना कभी नहीं छोड़ूँगी।' पिछले दिनों यही छूटने लगा था शायद। मन की जिस दशा को मुंबई की सुंदर सी यात्रा भी संभाल नहीं पाई, उसे इन पहाड़ों ने सहेज लिया।

रिल्के के कहे के हवाले जीवन करने के बाद जीवन को दृष्टा की तरह देखने का प्रयास करती हूँ। हर आने वाले पल की आहट पर कान लगाए रहती हूँ कि जाने इस लम्हे में क्या हो। जीवन जैसा आता है, उसे प्यार से अपना लेती हूँ, कुछ जो पसंद नहीं आता तो झगड़ भी लेती हूँ। हालांकि उसे झगड़ा कहना गलत है, उसे जीने का ढब कहना ही ठीक होगा शायद। क्योंकि जीवन में आए अनचाहे के सामने डटकर खड़े होते समय भी जीवन साथ ही था। जब हमें लगा कि वो हमारे खिलाफ़ है तब वो असल में हमारी बांह थामे हुए था।


कई बरस पहले जब बाबुषा कहती थी कि ज़िंदगी से लड़ो नहीं, उसे जियो तो मुझे उसकी बात समझ नहीं आती थी, गुस्सा आता था उसकी बात पर। अब लगता है वो ठीक कहती थी। जीवन से लड़ना नहीं होता, उसे जीना होता है। हमारे जीवन में जो अवांछित है जिससे हम लड़ते हैं वो जीवन नहीं। हम घटनाओं को जीवन का नाम देने लगते हैं। घटना अच्छी या बुरी हो सकती है, लोग अच्छे बुरे हो सकते हैं, जीवन नहीं। उन घटनाओं और लोगों के साथ हमारा संबंध, उनका हम पर पड़ने वाला प्रभाव हमें प्रभावित करता है। वहीं से कुंठा, अहंकार, गुस्सा, प्रतिकार जैसे भाव  उपजते हैं। मैंने तो अपने अनुभव में यही पाया है कि ये भाव जब जीवन का हिस्सा होने लगते हैं ये जीने में बाधा बनने लगते हैं। कितना बोझ लिए घूम रहे हैं हम, न जाने किन-किन बातों का। जबकि जीवन कितना सरल है, प्यास में पानी जैसा, भूख में रोटी जैसा, अकेलेपन में दोस्त की दुलार भरी डांट जैसा, रास्तों पर राहगीर जैसा और सुबह की चाय जैसा।

जैसे अभी मेरे सामने जो बरस रहा है जीवन रिमझिम रिमझिम। आज मुझे लंबी सुबह की दरकार थी। हमें झूलापुल के लिए जल्दी निकलना था लेकिन जिन दोस्तों के साथ जाना था उन्हें कुछ काम आ गया और हमारा निकलना थोड़ा मुल्तवी हुआ। इस तरह मेरी सुबह लंबी हो गयी। देर तक बालकनी में खामोश बैठे हुए मैंने बारिश को रुकते और मौसम को खुलते देखा। महसूस हुआ कि मन के कुछ सीले कोनों तक भी अंजुरी भर धूप गिर रही है। खामोशी का कैसा तो जादू होता है। लंबे समय से अकेले रहते हुए इस खामोशी की संगत की इतनी अभ्यस्त हूँ कि लगता है यही एक सुर है जो ठीक से लग पाता है जीवन का।

बैग पैक हो चुके थे। आज पाइन रिसौर्ट से विदा का दिन था। वो कमरा जो तीन दिन से मुझे सहेजे हुए थे उससे हाथ छुड़ाना था। मैंने 'सब कुछ को शुक्रिया' कहा। यहाँ एक आखिरी चाय पीते हुए सामने बिखरे तमाम हरे को आँखों से अकोरा।

कुछ देर में दोस्त आ पहुंचे। कुछ ही देर में हम झूलघाट के रास्ते में थे। धूप निकल आयी थी। कार में सुंदर गाने बज रहे थे। दोस्त रास्ते में आने वाली जगहों के बारे में बताते जा रहे थे साथ ही उन जगहों से जुड़े अपने अनुभवों पुराने किस्से भी सुनाते जा रहे थे।
 

थोड़ी ही दूरी तय की थी हमने। यह आर्मी एरिया था। कार एक किनारे रुकवाई गयी। यह जगह थी जलधारा हुडकन्ना। पता चला कि यहाँ का पानी बहुत स्वादिष्ट होता है बहुत ही मीठा और ताकीद मिली कि मुझे जरूर पीना चाहिए। पानी के स्वाद की बाबत तो मैं कुछ नहीं कहूँगी वो तो पीकर ही जाना जाना चाहिए लेकिन इस पानी से जुड़े किस्से मजेदार थे। मसलन जो यहाँ का पानी पीता है उसकी तमाम मनोकामनाएँ पूरी होती हैं, यहाँ का पानी पीकर पुत्र प्राप्ति होती है, अगर किसी को बोलने में दिक्कत है, जबान साफ नहीं है तो यहाँ का पानी पीकर एकदम ठीक हो जाती है समस्या।

इन किस्सों के बारे में बताते हुए दोस्तों का चाव और उनकी हंसी दोनों ही रोचक थी। उन्होने हँसते हुए कहा कि उनके पड़ोस के एक व्यक्ति ने दो साल तक यहाँ का पानी मंगवाकर पिया फिर उसे बेटी हो गयी...हम सब हँसते हुए वहाँ से आगे बढ़े।

बात हंसी की थी सो हंसी में टल गयी लेकिन एक सर्द लकीर दिल में कहीं तड़क गयी। 'फिर उसे बेटी हो गयी...'। यह तो पहाड़ का एक दूरस्थ सा गाँव है लेकिन पुत्र प्राप्ति का यह मोह और उसके लिए किए जाने वाले टोटके शहरों में कौन से कम हैं। बस वो प्रगतिशीलता के चोले में छुपा लिया है चतुर सुजान लोगों ने।

धर्म और आस्था चप्पे-चप्पे पर बिखरी हुई थी। हर थोड़ी देर पर कोई नए देवता दिख जा रहे थे। ऐसे-ऐसे देवता जिनका नाम भी नहीं सुना कभी। बताया गया कि यहाँ हर गाँव के अलग देवता होते हैं। हो सकता है इसका भौगोलिक कारण हो। फिर पता चला कि किसी की मृत्यु के बाद अगर उसकी आत्मा भटकती है मुक्त नहीं होती तो उसके नाम का मंदिर बना देते हैं गाँव वाले। इस तरह देवताओं की सूची बढ़ती जाती है। ये सब बातें कितनी युक्ति संगत, तर्क संगत हैं नहीं पता लेकिन लोक के कहन में तो हैं ही। तभी पता चला कि यहाँ एक खुदा देवता भी हैं...मैंने तीन बार कनफर्म किया हाँ खुदा देवता ही। थोड़ी हैरत हुई थोड़ा सुख हुआ। कितना सुंदर हो कोई अल्लाह कभी शिव मंदिर में मिलने लगें और कोई गणेश कोई हनुमान किसी मस्जिद में टकरा जाएँ। किसी चर्च में किसी गुरुद्वारे में मिलें सब और मिलकर निकालें राह हर धर्म के नाम पर होते उत्पात से बचने के।


 मुझे खुदा देवता के दर्शन तो नहीं हुए लेकिन एक सुंदर सी घाटी के करीब चाय की दुकान के दर्शन हो गए। चाय से ज्यादा लोभ हुआ उस जगह पर रुकने का। कार रुकी, कौन चाय पिएगा, कौन क्या खाएगा का हिसाब लगाने का काम दोस्त के सर छोड़ मैं भागती फिरी उस घाटी की ओर जहां से काली नदी अपने सौंदर्य और आवाज़ से लुभा रही थी। नन्ही बूंदों की फुहार के बीच नदी की ओर दौड़ते मेरे कदमों से ज्यादा रफ्तार मन की थी।

जब दूर-दूर तक कोई न हो तो कुदरत का संगीत कितना स्पष्ट सुनाई देता है। झींगुर, चिड़ियों, नदी और बूंदों की आवाज़ों के बीच मैंने पत्तियों और फूलों की आवाज़ भी सुनी। उस आवाज़ की एक पंखुरी बालों में टाँक ही रही थी कि आवाज़ आई, 'आ जाओ चाय बन गयी है।'

चाय बहुत अच्छी थी और मौसम उससे भी अच्छा। चाय के साथ कुछ काले चने और उस पर पहाड़ी रायता भी था खाने को। खाने का मन एकदम नहीं था लेकिन कुछ नया था यह तो चखना तो बनता ही था। फिर पहाड़ी केले भी खाने को मिले। दो-दो इंच वाले केले। स्वाद में एकदम अलग। ऐसे केले तो मैंने दक्षिण भारत में खाये थे इलायची केले के नाम से। ये यहाँ कैसे। पता चला ये यहाँ के खास केले हैं। केले मुझे खास पसंद नहीं लेकिन इनका स्वाद अलग था। नतीजा यह हुआ कि तमाम केले ले लिए गए। नहीं जानती थी कि इन्हें मेरे साथ देहरादून रवाना होना है।


सफर आगे बढ़ा और हम झूलापुल की ओर बढ़ते गए। रास्ते में मिली ममता जलेबी। पता चला ये बहुत फेमस है। दोस्त ने हँसकर बताया कि ममता जलेबी पर खूब सारे गाने यूट्यूब पर मिलेंगे। अरे वाह, ऐसा क्या खास है जानना जरूरी था लेकिन पेट एकदम नो मोर ईटिंग वाला बोर्ड लगाए हुए बैठा था। तो तय हुआ कि ममता जलेबी को वापसी के समय निपटाया जाएगा। ममता जलेबी तकरीबन 50 साल पुरानी दुकान है। संभवतः उन दिनों मिठाई के नाम पर आई जलेबी का आकर्षण रहा होगा। सुनने में आया कि इसे चीनी से नहीं मिश्री से बनाते हैं। हालांकि जब हमने जलेबी खरीदी तो वो मिश्री की तो नहीं थी। दुकान वाले ने कहा अब कहाँ मिश्री। मिश्री इतनी महंगी हो गयी है। बहरहाल ममता जलेबी का जलवा अभी भी कायम है। और यह राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित है ऐसा भी इन्टरनेट बताता है। 
(https://www.youtube.com/watch?v=HK5mOAsT__A- ममता जलेबी का गाना)

ममता जलेबी के ठीहे से आगे बढ़े तो काली नदी करीब आती दिखी।  थोड़ी ही देर में झूलापुल दिखने लगा था। यह नदी दोनों देशों की सीमाओं को साथ लेकर बहती है। इसके एक हाथ में नेपाल है दूसरे में भारत। ठीक इसी तरह झूला पुल भी दोनों देशों को जोड़ रहा था। मुझे चाव होता है इस तरह जोड़ने वाली चीजों को देखने का। जैसे ही हम कार से उतरे मैं नदी के किनारे की ओर बढ़ने लगी। जाने कितनी बातें काली नदी के मन में होंगी, हर नदी की अपनी कहानी है। हर नदी की अपनी अलग ही रवानी है। मैंने उससे पूछा, 'ठीक तो हो?' उसने मुस्कुराकर कहा,'आ गईं तुम?' मैं चुप रही। सच मेरी योजना में कभी नहीं था इस नदी से मिलना। कहाँ कुछ भी होता है हमारी योजना में। सब योजनाएँ जीवन के खलीते में होती हैं और वो हमें कभी कुछ नहीं बताता।

 

पुल के इस पार एक छोटा सा सुरक्षा घेरा था। जो लगभग निष्क्रिय या कहूँ औपचारिकता भर था। एक आधार कार्ड भर दिखाकर हमें उस पार जाने की अनुमति मिल गयी। चार कदम, बस चार कदम और नेपाल। झूला पुल के ठीक बीच जब मैं खड़ी थी और नदी के दोनों छोर देख रही थी मेरी आँखें सजल हो उठीं। मैंने रोएँ खड़े होते महसूस किए।

सरहद क्या होती है एक राजनैतिक व्यवस्था ही तो। फिर इन सरहदों के नाम पर इतना रक्तपात, इतना द्वेष कैसे फैल गया। क्या फर्क है चार कदम इस पार और चार कदम उस पार में। क्या फर्क है नदी के इस किनारे में और उस किनारे में। इस सरहद के बहाने देश की बल्कि तमाम देशों की सरहदों का खयाल ज़ेहन में आ गया था। नेपाल तो मित्र देश है लेकिन सरहद तो सरहद। इस पल में मैं जहां खड़ी हूँ वो किसी सरहद में नहीं। ठीक बीच में। दो देशों के ठीक बीच में, जीवन के ठीक बीच में। मेरी रुचि न इस पार में है, न उस पार में। मेरी रुचि है इस लम्हे में जिसमें जीवन मुस्कुरा रहा है। किसी भी सरहद के इस पार या उस पार और क्या चाहिए सिवाय जीवन के। जीवन जो मोहब्बत से, जीने की समर्थता से और सम्मान से भरा हो। जीना कौन नहीं चाहता भला, प्यार किसे नहीं चाहिए, सम्मान किसकी जरूरत नहीं। झूठ कहते हैं सब कि रोटी पहली जरूरत है, हाँ, वो है लेकिन वो रोटी सम्मान से मिलनी भी जरूरी है। यही छूट जाता है...क्यों हों ऐसे हालात कि इंसान को सम्मान और रोटी में से चुनना पड़े एक को। मन में विचारों का कोलाहल था सामने नदी का।  

काली नदी कह रही थी 'ज्यादा मत सोचो मेरे पास आओ।' सामने नेपाल मुस्कुरा रहा था। और दो कदम बढ़ाकर मैं नेपाल में थी। सारा मामला सोच का है वरना क्या फर्क था इस पार में, उस पार में। नेपाल की सीमा लगते ही दुकानें दिखने लगीं। सामान से भरी दुकानें। लेकिन ग्राहकों से खाली दुकानें।


 लोगों ने बताया कि कोविड के बाद से यह बाजार पनप नहीं पाया। पहले यहाँ खूब भीड़ होती थी। सस्ता सामान लेने लोग टूटे रहते थे। इस देश की करन्सी, यहाँ के टैक्स भारत के मुक़ाबले सामान को सस्ता बनाते होंगे शायद। 23 बरस पहले की अपनी काठमाण्डू यात्रा याद आ गयी जब साथ आए लोगों में घूमने से ज्यादा सस्ता सामान खरीदने का चाव देखकर हैरत होती थी।

मैं नेपाल से अपने लिए क्या ले जाऊँ सोचते हुए मैंने अपनी फेवेरेट औरेंज कैंडी का एक पैकेट लिया। मैंने उस पार से इस पार की तस्वीरें लीं और खूब सारा महसूस किया दुनिया के इस कोने में अपना होना।

जब लौट रहे थे हम तो भीतर कोई खामोशी पसर गयी थी। दिन तेज़ी से बीत रहा था और मुझे यह बीतना अच्छा नहीं लग रहा था कि अगले दिन वापसी जो थी।

फिलहाल आज के दिन में अभी बहुत सारा दिन बचा हुआ था। पिथौरागढ़ पहुँचकर कविता कारवां की बैठक में शामिल होना था। यह बैठक खास मेरे आग्रह पर महेश पुनेठा जी ने रखी थी। मुझे बड़ा चाव था कि इस सुंदर शहर की एक शाम में खुद को सुंदर कविताओं के संग घुलते देखने का। कविता कारवां को जिस कदर प्यार मिल रहा है हर शहर में वह जीवन में लोगों की आस्था ही तो बयान करता है वरना जब सब अपने मैं का टोकरा उठाए हाँफ रहे हों किसको फुर्सत है कि समय निकाले किसी और की कविता सुने और सुनाए।


कविता कारवां की सुंदर शाम थी। किसी पहाड़ी गाँव में, बरसती बूंदों के साये में एक कप चाय के साथ अपनी पसंद की कवितायें सुनने और सुनाने का सपना ही केंद्रीय तत्व था कविता कारवां का। मुझे कविता कारवां के अपने साथी सुभाष से थोड़ी ईर्ष्या हुई कि वो उत्तराखंड की अलग-अलग जगहों पर ही नहीं देश के अलग-अलग शहरों में भी शामिल हुआ है। वो सचमुच पागल है, कविता कारवां से जितना प्रेम सुभाष को है वही इस कारवां को आगे बढ़ाए है और अब यह प्रेम सबमें बिखर गया है। हेम इस बैठक में शामिल थे हेम रुद्रपुर हल्द्वानी में बैठकों को अलग-अलग अंदाज में करते हैं और अलग ही रौनक देते हैं। महेश जी भी पिथौरागढ़ में खूब प्रयोग करते रहते हैं कविता कारवां की बैठकों के साथ। सबसे सुंदर यह हुआ कि मुझे कहा गया कि आप इसके नियम और यात्रा के बारे में बताइये। मैंने कुछ कुछ बताया और जो छूट गया मुझसे वो जोड़ा उन साथियों ने जिन्हें मैं पहली बार मिल रही थी। जो अन्य बैठकों में शामिल थे और कविता कारवां के कांसेप्ट और नियमों से अच्छी तरह से वाकिफ थे। यही, बस यही सबसे सुंदर हासिल है। हमें छूटते जाना है, लेकिन कारवां बढ़ते जाना है...


इस कारवां से निकले तो पहुंचे जनता पुस्तकालय। कितना तो सुंदर रास्ता था। कब चढ़ना, कब उतरना, खेतों के बीच से पानी की कलकल के बीच से गुजरते हुए एक सुंदर से घर में प्रवेश किया। महेश पुनेठा, शीला पुनेठा और अभिषेक का घर। अपनेपन का एहसास घर के कोने-कोने में समाया हुआ था।

सरल जीवन की खुशबू में किताबों की महक घुली हुई थी। मैंने बहुत से घरों में किताबें देखी हैं, लेखकों के घर देखे हैं उनके घर की उनकी लाइब्रेरी देखी हैं। मैं खुद लाइब्रेरी वाले घर में पली बढ़ी हूँ। लेकिन यहाँ बात एकदम अलग है। ये लाइब्रेरी जनता के लिए है। इतनी सारी किताबों की सार संभाल आसान तो न होती होगी। यह पूरा परिवार किस कदर पढ़ने-लिखने की संस्कृति को बढ़ावा देने और इस दुनिया को तनिक और सुंदर बनाने के लिए जुटा हुआ है देखकर सुख होता है। अभिषेक अपने दोस्तों के साथ आरंभ स्टडी सर्किल चला रहे हैं यह एक खूबसूरत प्रयोग है। यह जनता पुस्तकालय एक ख्वाब है कि लोग पढ़ेंगे फिर समझेंगे कि असल में दुनिया भर का साहित्य बेहतर सोचने, समझने महसूस करने को कहता है ताकि हम समझ सकें कि जीवन सिर्फ प्रेम है बाकी सब बेमानी है। यह घर और इस घर के लोग मुझे कविता से लगे और अपनी ही एक कविता की लाइन याद आ गयी- 'मुझे इस धरती पर मनुष्यता की फसल उगाने वाली कवितायें चाहिए।' इस घर में ऐसी कवितायें लिखने वाले लोग रहते हैं।

दिन को यूं तो काफी पहले बीत जाना चाहिए था लेकिन कुछ मौकों पर हम उसे रोके रहना चाहते हैं और जी लेना चाहते हैं। दोस्त के घर आज डेरा था अपना। खुश रंगों से सजे इस घर में पहले भी आ चुकी हूँ। यहाँ आपकी एक नहीं चलती, डांट-डांटकर खिलाया जाता है, मनुहार से नहीं हक़ से खयाल रखा जाता है। कौन से बीज कभी छिटक गए होंगे जो मित्रता के ऐसे खूबसूरत बिरवे उगे हैं। ये मित्रताएं जीवन का संबल हैं।

अपनेपन की उसी गर्माहट के साथ गप्पे लगाते हुए कब सो गयी पता ही नहीं चला।

चलते चलते...

 रात भर बारिश एक लय में गिरती रही। कभी-कभी लय घट बढ़ भी रही थी। नींद उचट गयी। एक डर मन में घिरने लगा। ये निरंतर बरसती बदलियाँ कल रास्ता न रोक लें कहीं। पहाड़ जीतने सुंदर होते हैं यहाँ की दुश्वारियाँ भी कम नहीं होतीं। घूमने आना, तस्वीरें लेना चले जाना एक बात है और यहाँ रहना दूसरी बात। पैदल, नंगे पाँव शहर में चलना, सारे मौसम बदन पर उतरने देना, स्थानीयता की, लोक की, संस्कृति की खुशबू से रू-ब-रू होना और रोज की दिक्कतों को भी चखकर देखना जरूरी होता है। चूंकि मुझे इस शहर से इश्क़ हो गया था तो शहर ने भी मुझे पूरी तरह अपनाने की ठान ली थी। 

सुबह में तनाव था। तनाव सिर्फ मुझे नहीं था दोस्तों ने भी बारिश देखकर अंदाजा लगा लिया था कि रास्ता रुका हुआ हो सकता है। लैंड स्लाइड का खतरा बढ़ चुका था। सब अपनी तरह से पता लगाने की कोशिश कर रहे थे। और सुबह की पहली चाय के साथ ही पता चल गया कि लैंड स्लाइड हुआ है, रास्ता रुका हुआ है। रास्ते दो जगह बंद थे। एक जगह तो टैंकर ही मलबे में फंस गया था। समझ में आ गया था कि मुश्किल आ चुकी है। 

दोस्त लगातार हौसला बढ़ा रहे थे कि पहाड़ों में यह आम बात है, रास्ता खुल जाएगा। पिथौरागढ़ से रुद्रपुर तक पहुँचने में 6 घंटे का समय लगता है इसलिए ज्यादा फिक्र तो नहीं थी लेकिन फिक्र तो थी। इधर बारिश भी रुक नहीं रही थी। हालांकि सुकून यह था कि मैं घर में थी, सुरक्षित थी। 

कैसे समय से मैं स्टेशन पहुँच पाऊँ ताकि वहाँ से देहारादून की ट्रेन पकड़ी जा सके इसकी जुगत लगाने में तमाम लोग लगे हुए थे। 

आखिर राह निकली और मैं ढेर सारी मधुर स्मृतियों की गठरी के साथ शहर से विदा हुई। सच है, थोड़ी सी रह गयी हूँ वहीं, पूरी कहाँ लौटी हूँ। किसी भी यात्रा से हम पूरे के पूरे वैसे ही कहाँ लौटते हैं जैसे गए थे, और यही तो यात्रा का हासिल होता है...

Saturday, July 15, 2023

उम्मीद भरी आँखें और सवाल तमाम


जब रात भर ख़्वाब सुकून से सोने देने के लिए पलकों की दहलीज़ पर बैठकर पंखा झले तो नींद की झील में तैरते फिरने का आनंद ही कुछ और होता है। देह पंखों से हल्की और मन एकदम मुक्त। कोई बोझ नहीं। न विगत का, न आगत का। यूं मुझे देर तक सोना पसंद है लेकिन सुबह जागने के सुख का स्वाद जबसे लगा है तबसे दो सुखों में जंग चलती है। देर तक सोने का सुख अक्सर जल्दी उठकर वॉक पर जाने के सुख पर भारी पड़ता है। लेकिन जब घर से बाहर होती हूँ, किसी नए शहर में तो उस शहर की सुबह में घुल जाने को जी करता है।

मैं चाहूँ भी तो शहर सोने नहीं देता। आवाज़ देता है, हाथ पकड़कर ले जाता है अपनी गलियों में, सड़कों में, बागीचों में। और यह शहर जिससे कल ही इश्क़ हुआ है वो भला कैसे मेरी सुबह पर अपना नाम दर्ज न होने देगा। नींद और जाग के मध्य ही थी कि चिड़ियों की पुकार और बारिश कि मध्धम धुन ने माथे पर हाथ रखा। ताप नहीं था, ताप के निशान थे थोड़े से। दुपट्टा लपेटा और बालकनी में जाकर पाँव पसार दिये। आँखों से नींद पूरी तरह झरी नहीं थी लेकिन उनमें सुबह समाने लगी थी।

बिना ज़िम्मेदारी वाली ऐसी सुबहें हम स्त्रियॉं के हिस्से में कितनी कम आती हैं। चाय तक बनाने कि ज़िम्मेदारी से मुक्त सुबह। सोचती हूँ जो हमारा बमुश्किल हाथ आया सुख है पुरुषों का तो वह रूटीन का सुख है जिसकी उन्हें इतनी आदत है कि उन्हें वह सुख महसूस तक नहीं होता। कितनी ही बातें कर लें, भाषण दे लें बराबरी के, कितनी ही कवितायें कहानियाँ लिख लें लेकिन अभी स्त्रियॉं की असल ज़िंदगी की कहानी में बहुत कुछ बदलना बाकी है। अपनी ही गहरी सांस को सुनते हुए बरसती बूंदों पर ध्यान लगा देती हूँ।
 
धुंध की धुन सुनते हुए अरसे बाद अपने दिल की धड़कनें सुनीं। नब्ज़ की रफ़्तार को महसूस किया, बंद आँखों में हरा समंदर उगते देखा और हरे समंदर में खुद को बिखरते हुए। बिखरना अगर इस तरह हो तो क्या ही सुंदर है। इस तरह तो मैं ज़िंदगी भर बिखर जाने को तैयार हूँ सोचते हुए होंठों के पास खिलती मुस्कुराहट को महसूस किया। इन दिनों चाय पीना बढ़ गया है सोचते हुए एक और चाय का रुख़ किया और हथेलियों को बूंदों के आगे पसार दिया। हथेलियों पर सुख बरस रहा था। मैंने उस सुख को पलकों पर रख लिया...

 

आज के दिन के लिए मन में काफी उत्साह था। आज युवाओं से संवाद था। नहीं जानती थी कि उनके प्रश्न क्या होंगे, लेकिन सुख था कि ऐसे युवाओं के बीच होने वाली हूँ जिनके मन में सवाल हैं। मेरी भूमिका जवाब देने की कम उन सवालों को प्यार करने की ही होने वाली है यह मुझे अच्छी तरह से पता था।

पत्रकारिता के दिनों में गेस्ट फैकेल्टी के तौर पर कई साल पत्रकारिता के छात्रों को पढ़ाया है या कहूँ कि उनसे मुखातिब हुई हूँ, वो दिन याद आ गए। सामने बैठे अपने छात्रों के चेहरे भी। आज का दिन नयी उम्र की खुशबू के संग इकसार होने का दिन था। नियत समय से पहले ही जा पहुंची थी। बरसते भीगते मौसम में यूं शहर से गुजरना, छतरियों के साये में गंतव्य तक पहुँचना रूमानी था।


पिथौरागढ़ टीम के साथ संवाद में एक गढ़न थी। साथियों को लग रहा होगा वो मुझसे कुछ पूछ रहे थे असल में मैं उन्हें सुन रही थी। कहने से ज्यादा सुनना सुंदर होता है यह अच्छे से जानती हूँ इसलिए सुनने के रियाज़ पर काम करती रहती हूँ।

सारा दिन तरह-तरह के सवालों से घिरी रही। जवाब का पता नहीं लेकिन हम सवालों पर बात करते रहे। पहाड़ी वोकल एक युवा समूह है जो आज मुझसे बात करने वाला था। नियत समय से पहले ही अनौपचारिक बातचीत मैं युवाओं के सवालों और जिज्ञासाओं के समंदर में घिरी बैठी थी।


शाम हुई और क्या खूब हुई। इतने खूबसूरत सवाल, इतने मौजूं सवाल और इतने सारे युवा चेहरे देखकर मन उम्मीद से भर उठा। सवाल जाति, धर्म, जेंडर भेद के। सवाल कैसे इस दुनिया को सुंदर बनाया जाय। पढ़ना कैसे बेहतर मनुष्य बनने में मदद करता है, क्या पढ़ना चाहिए, मन न लगे पढ़ने में तो क्या करें। लिखना कैसे बेहतर हो, कैसे पहचानें फेक न्यूज़ को। कुछ कवितायें पढ़ी गईं उन पर भी बात हुई। सवालों का सैलाब आया हुआ था और यक़ीनन यह खूबसूरत मंज़र था। ज़िंदगी को, समाज को देश को प्रेम से भर देने के लिए, एक-दूसरे को बिना किसी भी विभेद के सम्मान से पेश आने के सिवा और क्या इस धरती को सुंदर बना सकता है।

और फिर आया एक सवाल जिसने मेरे पूरे व्यक्तित्व की नब्ज़ पर हाथ रख दिया, 'आपके लिखे में प्यार शब्द बहुत आता है, आपके लिए प्यार क्या है?' इस सवाल से मैं खिल उठी। 'बचपन में जिस गुलमोहर के पेड़ के नीचे किताबें पढ़ा करती थी वो पेड़ मेरा पहला प्यार है,' मैंने कहा। यह कहते हुए मैंने खुद को गुलमोहर के साये में ही महसूस किया। स्मृति की शाख से टूटकर गुलमोहर का एक फूल अपने कंधे पर गिरता हुआ मालूम हुआ। मैंने मुस्कुराकर उसे 'हैलो' कहा और अपनी बात को कहना जारी रखा कि 'असल में जीवन में सब कुछ प्यार है। सब कुछ। धरती, आसमान, हवा, पेड़, पंछी, नदी, हम सब प्रेम ही तो हैं। प्रेम से विहीन जीवन की कल्पना ही असहनीय है। हम सब प्यार के तलबगार हैं। कौन है इस दुनिया में जिसे प्यार की आस नहीं है, तलाश नहीं। सबको प्यार मिले सम्मान मिले, जीने के समान अवसर मिलें इत्ती सी बात यूटोपिया क्यों लगने लगती है लोगों को। लेकिन अगर यह यूटोपिया है, तो है। मेरी प्यार में, जीवन में, प्रकृति में बहुत आस्था है और यही मेरे लिखे में बार-बार दिखता है जो कि लाज़िम है।'



कुछ कविताओं के पोस्टर साथियों ने बनाए थे। अनुष्का और रश्मि ने बताया कि आपकी कवितायें हमें, हमारे दोस्तों को खूब पसंद हैं। वोकल पहाड़ी की टीम के बाकी साथी सुधांशु, मुकेश, पूनम, शीला, यशोदा, राखी, ज्योति भी खूब उत्साहित थे और शाम को सजाने में पूरे मनोयोग से लगे हुए थे। इस युवा समूह की ऊर्जा और उत्साह को एकदम चुपचाप बिन बताए कुछ लोग सहेज रहे थे। हर्षा, अमित, अंकित, दीपिका, जुगल, संतोष, नन्दिता, सुरेन्द्र, मेघा, नदीम, रीतिका, अखिल। यह एक जोशीली और उम्मीद भरी शाम थी। जिसके बीतते-बीतते दिन की कलाई पर सांवला रंग उतर आया था। बारिश कहीं गयी नहीं थी।

कोई दिन कई दिन लेकर आता है। दिन बीत रहा होता है लेकिन ठहरा रहता है। ये ऐसे ही दिन थे। शाम तक चेहरे पर थकान की लकीरें उभर आई थीं, जिनमें भूख भी शामिल थी। एक पक्का दिन जिसका हासिल एक लंबा और सार्थक संवाद था हाथ छुड़ाने को तैयार था, लेकिन...क्या यह इतना आसान था। बीतते दिन का बीतना अभी बाकी था। अचानक मैंने खुद को चंडाक के रास्तों पर पाया। उतरती शाम को अपनी दोनों हथेलियों में उठाए रास्ते खुशनुमा थे। बारिश ने आँचल समेट लिया था। पंछी आसमान में खेल रहे थे। हम और आगे और आगे बढ़ते जा रहे थे। बहुत सुना था इस जगह के बारे में।


 चंडाक का नाम चंडाक क्यों है, है क्या यहाँ पर, इन सवालों के जवाब गूगल पर मौजूद थे। मेरे भीतर इच्छा थी घने देवदार के जंगल की ख़ुशबू को अपनी साँसों के उतार लेने की। यह किसी गूगल या यूट्यूब पर संभव नहीं। रास्ते की निस्तब्धता का आकर्षण अलग ही था।

'सुनो देवदार, मुझे बहुत भूख लगी है' मैंने सोचा था पहुँचकर सबसे पहले यही कहूँगी। लेकिन कुछ भी कहने कहाँ देता है यह शहर कहने से पहले इच्छायें पूरी होती जाती हैं। कब सोचा था कि किसी रोज वादियों में चल रहा होगा बदली और धूप का खेल और मेरे सामने होगी अच्छी सी कॉफी और पकौड़े।


उस जरा सी देर में वादियों के इतने रूप बदले कि दिल अश अश कर उठा। अभी कुछ देर पहले जहां धुंध थी, बस जरा सी देर बाद वहाँ धूप के गुच्छे उग आए थे और कुछ देर पहले की सुफेद पहाड़ियाँ अचानक सोने में मढी हुई लगने लगीं। देवदारों के सीने से लगकर रो लेने का जी किया, चीड़ के पेड़ों की शाखों को हथेलियों में भींच लेने का जी किया। ज़िंदगी इस कदर खूबसूरत है, प्रकृति का वैभव हमें हर पल विस्मित करता है। एक जीवन कितना कम है इस सुख को अकोरने के लिए और हम उस एक जीवन में छल, प्रपंच, ईर्ष्या, नफरत की फसल उगा बैठते हैं। शायद अभी हमें मनुष्य के तौर पर इस जीवन को जीने की योग्यता हासिल करना बाकी है। यूं सांस लेना और लेते जाना भी कोई जीना हुआ भला। 

कल जब दीप्ति पूछ रही थीं साहित्य क्या है तो यही तो आया था मन में कि यह जो बिखरा हुआ है चारों ओर यही तो है साहित्य। इसे अभी लिखा जाना बाकी है। तमाम भाषाएँ इसे जस का तस लिख पाने में असमर्थ हैं। इसे जीकर ही पढ़ा जा सकता है।


 
प्र्कृति के सम्मुख हम कितने बौने हैं। कितना तुच्छ है वो जीवन जो इस विराट सौंदर्य के करीब होकर भी अपने भीतर के खर-पतवार को बीन न पाये। जी चाहा देवदार के आगे धूनी जमाकर बैठी रहूँ, बस बैठी रहूँ। लेकिन अब पीठ कराहने लगी थी और कह रही थी कि थोड़ा आराम चाहिए सो लौटना पड़ा।

जब हम लौट रहे थे तो साथ में एक ख़ुशबू लौट रही थी। ख़ुशबू जिसे लिखा नहीं जा सकता लेकिन जो इस समय स्मृति की कोटर से निकलकर लैपटॉप में झांक रही है। देवदार की ख़ुशबू, वादियों में बिखरी धुंध की ख़ुशबू और ख़ुशबू कॉफी की।

लौटते समय शहर ने सितारों से टंकी ओढनी ओढ़ रखी थी। यह बिना बारिश वाली रात थी। कमरे में पहुँचकर बिस्तर ने पीठ के दर्द को जिस मोहब्बत से देखा मुझे सच में हंसी आ गयी। समय बीत रहा था और मैं इसे थाम लेना चाहती थी। खाने के बाद देर तक दूर तक टहलने जाने का मोह कैसे छूटता भला कि अब मेरे पास बस एक दिन शेष था इस शहर में। सुबह हमें जाना था झूलाघाट। जहां से नेपाल का रास्ता खुलता है। यानी हम नेपाल जाने वाले थे अगले दिन।

एक मुक्कमल दिन को जी लेने की खुशी रसगुल्ले के साथ सेलिब्रेट करते हुए नींद का रुख किया। नींद जो न जाने कितनी देर से बाहें पसारे अपने आगोश में लेने को व्याकुल थी...


जारी..