Thursday, December 31, 2020

प्रस्तर मारीना- अनीता दुबे


कुछ जीवनियों को पढ़कर लगता है कि जैसे हम भी वहीं खड़े थे और दृश्य घटित हो रहे थे ।कभी लगता है कि जीवन किसी महान व्यक्ति का उतना सरल कभी नहीं हुआ। जो सफल दिखाई देते रहें हैं ।मारीना कवयित्री की कविताएँ चाहे जो कहती हो उसने भी स्त्री जीवन की हर मुश्किल का सामना किया । वो मुक्त हुई मगर सौगात ही देकर गई ।

उस कठिन समय की कवयित्री की जीवनी प्रतिभा तुमने बखूबी लिखा। मैं पढ़ते हुए कई बार बैचैन भी हुई ।
मगर तुमसे वादा था ।आज साल के आखिर दिन प्रस्तर से तुम्हारी मारीना ।
किसी जीवन को अपने लिए समझने के लिए "मारीना" को ज़रूर पढ़ा जाये ।

Thursday, December 24, 2020

अंतिमा- मध्य में होने का सुख


ख़्वाब भरी आँखें अगर एकदम से खाली हो जायें और वो भी यूँ कि आँखों में बसने वाले ख़्वाब एक दिन कूद कर बाहर आ जाएँ और आसपास चहलकदमी करने लगें तो क्या हो? सिर्फ आँखों की कोरों को छूकर लौट जाने की बजाय एक चमकीली गीली लकीर हथेलियों पर उतर आये तो क्या हो? क्या हो कि वर्तमान के सुख में अतीत की पीड़ा का तिलिस्म (वो पीड़ा जिसकी किसी नशे की तरह हमें आदत लग चुकी थी) आकर बैठ जाए? क्या हो कि एक लम्बी गहरी चुप्पी के बीच मिल जाए कोई खोया हुआ वाक्य, कोई शब्द कोई उम्मीद जिसकी राह देखते हुए हम थक चुके थे और हमने इंतजार छोड़ दिया था? 

अंतिमा पढ़ते हुए ऐसा ही महसूस हो रहा है. इसे पढ़ते हुए जैसे अतीत, और भविष्य खिसककर वर्तमान की ओर उत्देुता भरी आँखों से देख रहे हों. भीतर की किसी भूख को जैसे एक बड़ा सा टुकड़ा मिल मिल गया हो देर तक चुभलाने को और लम्बे समय बाद भूख मिटने के सुख में एक नयी भूख जाग उठने की बेचैनी शामिल होती जा रही हो .

मैं खाना धीमे खाती हूँ, चाय और भी धीरे पीती हूँ लेकिन पढ़ती तेजी से हूँ. आमतौर पर इसका सुख हुआ है लेकिन कभी-कभी उलझन भी. आज पीठ के दर्द के चलते दिन आराम के नाम था और ऐसे में अपनी पसंद की किताब पढने से अच्छा भला और क्या हो सकता था. दोपहर तक अंतिमा के ठीक बीच में पहुँच चुकने के बाद खुद को रोक लिया. सारी किताबें ऐसी नहीं होतीं कि उन्हें गति से पढ़ा जाय. मानव को पढ़ते हुए ऐसा अक्सरहां महसूस होता है. किताब को सरकाकर खुद से दूर कर दिया. उसे न पढने के लिए तमाम उपक्रम किये. अंतिमा को दूर से देखते हुए कुछ दोस्तों को फोन किए, एक बेकार सी सीरीज देखी, कई बार चाय पी, एक्सरसाइज़ की लेकिन नजर अंतिमा से हटी नहीं.

इस बीच कामू, बोर्खेस, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना को फिर से पढने की इच्छा भी सामने आ खड़ी हुई. लेकिन मैंने रोहित, पवन, अरु के संवादों और चुप्पियों के बीच किसी को फ़िलहाल आने नहीं दिया.
कहे जा चुके शब्द अपना अस्तित्व धीरे-धीरे ग्रहण करते हैं. जब लगता है वो कहे जा चुके हैं तब असल वो उगना शुरू करते हैं. और जब हम पन्नों से गुजर चुके होते हैं तब पढ़े जा चुके संवाद, पढ़े जाने में घटित हुए दृश्य हमारे करीब आकर बैठ जाते हैं.

फ़िलहाल उन दृश्यों के मध्य होने का सुख है. चाहती तो आज पूरी पढ़ी जा सकती थी यह किताब लेकिन बीच में रुकना सुख दे रहा है. मानव बेहद आसान लेखक हैं दिल में जगह बनाने के लिहाज से लेकिन वो अपने लिखे से अपने पाठक का हाथ पकडकर जिस दुनिया में ले जाते हैं वहाँ जाना आसान नहीं है. इस लिहाज से मानव को लोकप्रिय लेखक के तौर पर देखना संतोष से भरता है.

अंतिमा निश्चित ही मानव के पुराने पाठकों को पसंद आएगी और नए पाठक भी बनाएगी. फ़िलहाल किसी किताब के मध्य में होना यात्रा के मध्य में होने या जीवन यात्रा के मध्य में होने जैसा ही मालूम हो रहा है. आधा जिया/पढ़ा जा चुका है और आधा जिया/पढ़ा जाना बाकी है. जो बाकी है वह अनिश्चितता से भरा है... अनिश्चितता उत्सुकता बनाये हुए है..

Sunday, December 20, 2020

धूप जो सहेली है




 और यह साल बीतने को आया आखिर. आखिरी से ठीक पहले वाले इतवार के पायदान पर खड़े होकर इस पूरे बरस को देख रही हूँ.

आंदोलनों की आंच तब भी धधक रही थी देश में जब जनाब 2020 ने इंट्री ली. और आंदोलनों की आंच अब भी धधक रही है. इस बीच कोविड ने पूरी दुनिया को अपनी गिरफ्त में लेते हुए व्यंगात्मक लहजे में कहा, इसे कहते हैं, पूरी दुनिया का एक सूत्र में बंधना.' कितना कुछ खोया हमने इस बरस. कितनों को खोया. ऐसे झटके से गए लोग कि अभी हैं, और बस अभी नहीं हैं. 

सोचती हूँ यह बरस आत्मावलोकन का बहुत ज्यादा समय लेकर भी आया था. यह जो सर पर सवार रहता है न हर वक़्त 'मेरा' ''मैं' कितना बेमानी है यह सब क्योंकि नजीर अकबराबादी के अल्फाजों में कहें तो सब ठाठ पड़ा रह जाएगा जब लाद चलेगा बंजारा.'

जीवन बस जिया गया पल ही है इससे न रत्ती भर कम न रत्ती भर ज्यादा. फिर भी रोइए जार जार क्यों कीजिए हाय हाय क्यों. बीतते बरस के आखिरी से पहले वाले इतवार की धूप मेरे पैरों के आसपास टहल रही है. वो मेरा ध्यान खींच रही है. हँसते हुए कह रही है जो नहीं करना है वो बताने के लिए भी वही तो कर रही हो...छोड़ो सब. आओ, मेरे साथ खेलो और हवा में घुलकर धूप का एक टुकड़ा मेरे चेहरे को ढांप चुका है.

मैं इस धूप की, इस हवा की, सामने मुस्कुराते फूलों की शुक्रगुजार हूँ कि इन्होंने मुझे संभाले रखा इस समय में. इस बरस भी फोन करने, बात करने, मैसेज करने,किये गए मैसेज के जवाब देने को लेकर आलस बढ़ता ही रहा. और इस बरस भी दोस्तों ने इस आलस का बुरा नहीं माना.

मैंने धूप से कहा, 'तुम जानती हो तुम मेरी कौन हो?' धूप ने मुस्कुराकर कहा 'हाँ, सहेली'
अब मुस्कुराने की बारी मेरी है. मैं धूप में अपने पाँव पसारे हुए चाय के प्याले को दोनों हथेलियों से थामे हुए सोच रही हूँ इस बरस मैंने क्या-क्या किया. सोचा था इस बरस पढूंगी कि पिछले कई बरसों से पढने का सिलसिला छूटा हुआ था. और थोड़ा संतोष है कि इस बरस पढ़ पाने का सिलसिला शुरू हुआ. पढ़ी गयी किताबों को दोबारा भी पढ़ा गया, नयी किताबें, नए लेखक पढ़े, पंछियों की बोली सीखने की कोशिश की और नये घर में आने वाले पंछियों से पक्की वाली दोस्ती की. जाना फिर बार वही कि महसूस किये हुए को व्यक्त कर पाना कितना मुश्किल होता है.

Wednesday, December 9, 2020

जूही महारानी


बित्ते भर की थीं जूही महारानी जब स्कूटर पर आगे चढ़कर घर आई थीं बरस भर पहले. फिर अरमानों की बेल सी चढ़ती गयीं...कूद फांद करते हुए आगे बढ़ने की ऐसी चाह थी इन्हें कि इनके आस पास जो भी आया उसके काँधे पर सवार होती गयीं...अब यूँ है कि सुबह खिड़की खोलते ही खिलखिलाते हुए मिलती हैं. आसपास की धरती फूलों से भर उठी है. खुशबू हमेशा तारी रहती है...शरारत इतनी पसंद है इन्हें कि मेरे बालों में टंक जाने भर से जी नहीं भरता काँधे पर चढकर मेरे साथ घूमती फिरती हैं. कोई करीब से निकले और इनकी खुशबू से तर ब तर न हो उठे ऐसा कहाँ हो सकता है भला. न सिर्फ खुशबू ये तो पास आने वाले के काँधे पर टप्प से टपक जाने का सुख भी लेने में माहिर हैं. एक रोज मैंने देखा, शाम की सैर करने वाली सारी ही आंटियों के कंधे पर सवार थीं जूही महारानी. इतने चुपचाप कि उन्हें खुद भी खबर नहीं थी. बिलकुल प्रेम की तरह कि जैसे वो चुपचाप जीवन में आकर बैठ जाता है जीवन को महकाने लगता है और हमें खबर ही नहीं होती कि अचानक हुआ क्या...क्यों बदलने लगी दुनिया. 

इन्हें आते हैं सब ढब अपने पास बुलाने के और हाथ थाम के अपने पास रोके रहने के...पास खिले गुलाब भी इनकी शरारतों पर मुग्ध रहते हैं.


Sunday, December 6, 2020

उपक्रम




कोलाहल और शान्ति सब भीतर है 
हम रचते हैं उसे तलाशने का उपक्रम बाहर...