क्या यह अजीब बात नहीं है कि जिंदगी के तमाम दर्द लेकर भी पूरा देश एक साथ रोशनी बिखरने का इंतजार करता है. अपने कंधे पर न जाने कितने घायल दिन और रात लिए उस एक शाम जब हर कोई हर दीये से रोशन करता है सूरज. और समय के आर-पार झिलमिलाने टिमटिमाने लगती हैं मानवीय संवेदनाएं. क्या यह बात चौंकाती नहीं कि जब रोज रात का अंधेरा फुंफकारता हो, समय पर कुंडली मारकर बैठा हो तब एक शाम, सारी शाम, एक रात, सारी रात सूर्य की अंतिम किरण का सूर्य की पहली किरण का सूर्य की पहली किरण तक हरी भरी इंसानियत दीये से कुछ उजाला और ऊष्मा मांगकर रोशनी की लकीर खींच देती है. कैसी है यह इमोशनल बॉन्डिंग? शायद, बहुत बड़े रिश्ते की गाथा है-नेचर और ह्यूमन इमोशंस के बीच।
एक घटना शेयर करने को जी चाहता है. इसे विश्वविख्यात नाट्य निर्देशक पीटर ब्रुक ने थियेटर क्रिटिक जयदेव तनेजा को सुनाया था. बात उन दिनों की है जब वियतनाम युद्ध चल रहा था. ब्रिटेन के लोग खुद को अलग-थलग उदास हीन अनुभव कर रहे थे. उन दिनों पीटर ब्रुक जो महाभारत नाटक के लिए भी दुनिया भर में बहुचर्चित रहे हैं, ने ब्रिटेन के लोगों को वियतनाम पर आधारित एक नाटक दिखाया, किसी उद्देश्य को $जाहिर किए और बिना किसी उत्तेजना के, एकदम खामोशी से. नाटक के अंत में एक दृश्य था जिसमें एक पात्र सेंटर स्टेज पर आता है और एक बॉक्स खोलता है. उस बॉक्स में से अचानक ढेरों रंग-बिरंगी तितलियां निकल-निकलकर पूरे ऑडिटोरियम में इधर-उधर कूदने लगती हैं. पूरे ऑडिटोरियम में दर्शकों की खुशी और हंसी तैर जाती है. तभी अचानक, वह ऐक्टर एक हाथ में एक तितली के पंखों को पकड़कर खड़ा हो जाता है और दूसरे हाथ से जेब में रखा लाइटर निकालता है. वह जलता हुआ लाइटर तितली के नजदीक ले जाने लगता है. दर्शक खामोश हो जाते हैं, ज़रा भी आवाज़ नहीं. लोग चुपचाप तितली को जलता हुआ देखकर हतप्रभ रह जाते हैं और धीरे-धीरे ऑडिटोरियम से बाहर निकल जाते हैं. मन पर न जाने कितना बोझ और अवसाद लिए. यह दृश्य कई प्रदर्शनों में दोहराया जाता रहा लेकिन एक दिन अचानक वहां विचित्र घटना घटी. यह दृश्य चल ही रहा था कि दर्शकों के बीच से एक महिला तेजी से निकली और तितली को मंच पर खड़े हुए एक्टर के हाथों से मुक्त कराते हुए बोली आपने देखा, खराब से खराब हालात में कुछ तो किया ही जा सकता है।
थियेटर और समाज की संवेदनशीलता को लेकर इस घटना के कई मायने हैं लेकिन उस लाइटर की आग से तितली को बचाने की पहल एक रोशनी की लकीर खींच देना इस बेरुखे और बेजान होते जा रहे समय में.ऐसे किसी उजाले की तलाश या उजाले की पहल या पटाखों-मिठाइयों के बहाने खुशियां लुटाने के अवसर ढेरों उलझनों एवं तनावों से मुक्ति का रास्ता बनकर आता हे- दीवाली पर. साथ ही, जाति, म$जहब, नस्ल के पार जाकर सामूहिकता और सामूहिक प्रसन्नता के सुर में सुर मिलाना भी है. भारतीय लोक जीवन की इस चरम सामूहिक उपलब्धियों में दीपावली का ही पर्व है जिसमें जन समुदाय अपने रीति रिवाज एग्जॉटिक लाइफ स्टाइल के साथ वृहत्तर सामाजिक जीवन के उत्सवधर्मी पहलुओं को उजागर करता है.दीपोत्सव, भारतीय मन के लिए, कठिन से कठिन परिस्थितियों में जीवन जी रहे लोगों के लिए रंगारंग जीवन संसार रचने का पर्व है. सपनों, फैंटेसी, खुशियों का एक प्रकार का बाईपास है जिस पर गुजरकर लोग सुखद सुकून हासिल करते हैं जीवन के साथ दीपावली का रिश्ता बनाते हैं रोशनी अच्छी लगती है इंसान को भी और धरती को भी. चांद-सूरज की रोशनी धरती के प्रभावित करती है. इंसान को दीयों की रोशनी में चैन मिलता है, रूह को आराम मिलता है. यही सुकून देने का काम दीपक करते हैं. यह जलते हुए यह दीपों से रोशनी हासिल करने का पर्व है. रोशनी और इंसान का रिश्ता न जाने कब से सदियों की छाती में धड़क रहा है.हमारे गांव में एक पागल थे रामजतन. गांव के बच्चों के लिए राम जतन खिलौना थे, जीता-जागता खिलौना और बड़ों के लिए पागल, सिर्फ पागल. छोटे डिब्बे, टूटी टोकरी, फटे कनस्तर, रद्दी की किताबें, मोरपंख, चिथड़ा कोट, पतलून, फटी टोपी, बेकार लोटा आदि बहुतेरी चीजों से लदे-फंदे. गांव की गलियों में उनकी आउटफिट्स की आवाज़ से लोगों को पता चल जाता था कि रामजतन गुजर रहे हैं. पुरानी हिंदी फिल्मों के गीतों से वह अपने होंठों को सजाया करते थे लेकिन छेड़छाड़ करने वालों के लिए मौलिक किस्म की ढेरों गालियां राम जतन की डिक्शनरी में थीं. बच्चों के वह खिलौना थे और कौन बच्चा चाहता है कि उसका खिलौना टूट जाए, सो कोई बच्चा राम जतन को परेशान नहीं करता था. यह काम बड़े और समझदार खेतों बाग-बगीचों में दीये जलाते थे ताकि लक्ष्मी की किरपा बनी रहे और घर अन्न फल-फूल से भरा रहे. भोर होते ही, जब सारा गांव रात भर दीपावली मनाने एवं पटाखों से खेलने के बाद मीठी नींद में डूबा होता, राम सारे खेत के जल चुके सूखे दीये बीन लाते. अगले दिन वह उन दीयों में गांव से ही बटोरे टॉफी के रैपर व ऐसी कुछ और चीजों को रखकर बच्चों को गिट (गिफ्ट) देते थे. रामजतन जिसकी जिं़दगी में अंधेरों के सिवा कभी कुछ रहा ही नहीं, वह बच्चों के लिए खुशियां बुनता था, बीनता था ख्ेातों से, बागों से. रामजतन रोशनी और किरणों से मोहब्बत बुनते थे, जिसे वह बच्चों में भर देते थे।
ऐसी सुकोमल स्मृतियां आज भी दीपावली को जग मग कर देती हैं।
- प्रवीण शेखर