Thursday, April 27, 2023

कविता से दोस्ती और उसका कारवाँ


* सिद्धेश्वर सिंह

भाषा ने बहुत छिपाया है मनुष्य को
उसी को उघाड़ने बार-बार
कविता का द्वार खटखटाया है

संसार भर के आचार्यों ,अध्येताओं और कवियों के लिए 'कविता क्या है' एक असमाप्य शेषप्रश्न बना हुआ है और ऐसी उम्मीद है कि यह सवाल सनातन उपस्थित रहेगा।यह अलग बात है कि कविता के उत्स ,उद्गम और उसकी उपादेयता पर इतना अधिक लिखा - कहा गया है कि हर बार लगता है कि कहीं कुछ है जो कि अकथ है और 'कविता क्या है' के सवाल से आगे बढ़कर 'कविता क्यों है' पर बात चली जाती दिखाई देती है।एक समय था जब कविता 'करने' और 'बनाने' की चीज थी।कुछ लोगों के लिए वह 'प्रकट' होने और अनायास फूट पड़ने की चीज भी हुआ करती थी।जाहिर है कि मनुष्य की संगत में कविता का होना बहुत जरूरी था और इसीलिए तमाम तरह की प्रतिकूलताओं के बावजूद वह होती भी थी।सभ्यताएं अपनी सामूहिकता में उससे रोशनी पाती थीं और एक अकेला मनुष्य उसमें अपनी संवेदना का साहचर्य पाता था तथा शरण्य भी।

कविता केवल कवि(यों) का कार्यव्यापार नहीं है।वह केवल कला भी नहीं है और न ही विनोद का एक शाब्दिक उपादान ही।वह एक साथ अभिव्यक्ति और आस्वाद दोनों ही है।वह अपने भावक के माध्यम से अपना वृहत्तर विश्व रचती है और पाठक,श्रोता ,प्रेमी जैसी संज्ञाओं का सहारा पाकर व्यष्टि से समष्टि की ओर अग्रसर होती है।हमारी भाषा में कवि सम्मेलन, मुशायरा ,कवि गोष्ठी ,कवि दरबार,नशिस्त, महफ़िल जैसी चीजें आम रही हैं लेकिन इन सबके बीच हाल के वर्षों में 'कविता कारवाँ' जैसी चीज का होना कुछ अलहदा और अलग है।तो फिर ,यह 'कविता कारवाँ' क्या है? सच पूछिए तो कुछ खास नहीं; यह कविताओं से प्रेम करने वाले मित्रों का का एक ऐसा समूह है जो किसी जगह ,किसी समय एकत्र होकर अपनी पसंदीदा कविताओं की पाठ - प्रस्तुति करते हैं।इसमें बस एक ही शर्त रहती है कि भले ही आप स्वयं कविताएं लिखते हैं लेकिन स्वरचित नहीं किंतु अनिवार्यतः स्वयं की पसंद की कविता की साझेदारी करनी है।साथ ही यह भी कि यदि किसी को कोई कविता सुनानी नहीं है तो भी केवल सुनने का सुख पाने के लिए भी आप इसमें शामिल हो सकते हैं।

निश्चित उगेगा संभावित सूर्य
उस सुबह में जिसके लिए
अँधेरी ज़िंदगी से मैं गया हूँ
रोशन कविता के पास

आज से कोई दसेक साल पहले 'कविता कारवाँ' का जो बीजवपन देहरादून में हुआ था वह अब देश - दुनिया की तमाम जगहों पर पुष्पित - पल्लवित हो रहा है और एक ऐसी बिरादरी का निर्माण हो चुका है जो आपस में एक दूसरे के 'कविता - मित्र' और उनका जो समवेत है उसका ही नाम है 'कविता कारवाँ'।जिस भाषा को हम अपने रोजमर्रा के जीवन में बरतते हैं; जो हमारी अपनी 'निज भाषा' है उसके विपुल साहित्य भंडार में समाहित कविता का जो अकूत कोष है उसमें से चयनित कविताओं के साथ क्रमिक तौर पर जुड़ने की जो सामूहिक चेतना है वही 'कविता कारवाँ' का सर्वप्रमुख दाय है। साथ ही हमारी अपनी भाषा के अतिरिक्त जो हमारी सहभाषाएँ है उनकी और दुनिया भर की तमाम भाषाओं से अनुवाद के माध्यम से कविता का जो इंद्रधनुष बनता है उसका साक्षात्कार होना एक अलग अनुभव है।खुशी की बात है कि 'कविता कारवाँ' के जरिये कविता - मित्रों का जुड़ाव दिनोंदिन विस्तार पा रहा है।

पिछले दिनों हमारे समकाल में 'कोरोना काल' जैसा एक शब्द उभर कर आया है जिसमें अयाचित - अनचाहे एकांत ने इंसान को सचमुच अकेला किया है और सामाजिकता की सक्रियता पर अदृश्य पहरा रहा है।ऐसे कठिन काल में 'कविता कारवाँ' की नियमित होने वाली बैठकों का सिलसिला टूटा था और ऑनलाइन माध्यम से इसके फेसबुक पेज पर हिंदी साहित्य के नामचीन हस्ताक्षरों ने अपनी पसंद की कविताओं को साझा किया।इस कड़ी में अशोक वाजपेयी ,ममता कालिया,अनामिका,नरेश सक्सेना, कृष्ण कल्पित,लाल्टू, बोधिसत्व, प्रियदर्शन,अनुज लुगुन ,प्रताप सोमवंशी,मोनिका कुमार आदि ने अपनी मनपसंद कविताओं का पाठ प्रस्तुत किया।हिंदी बिरादरी के लिए यह एक सर्वथा नया अनुभव था और लीक से हटकर भी।हिंदी की साहित्यिक बिरादरी के लिए यह जानना एक नई चीज थी कि जिनके लिखे को सब पढ़ते हैं आखिर वे किनके लिखे को पढ़ते और पसंद करते हैं।

'कविता कारवाँ' का मंच एक खुला मंच है।इसकी बस एक ही शर्त है कि आपको कविता से प्रेम हो।कहा जाता है कि प्रेम बाँटने से प्रेम मिलता है वैसे ही यह भी कहा जा सकता है कि कविता की साझेदारी से कविता मिलती है और जब हम इस संगत से जुड़ते हैं तो लगता है कि यह एक ऐसी दुनिया है जो कि इसी दुनिया को और सुंदर तथा सहज बनाने के काम में लगी हुई है।तो,यह जो 'कविता कारवाँ' है न उसका सहचर बनिये।अपने स्थान पर ,अपने दायरे में ,अपनी सुविधा से अनौपचारिक तरीके से इसकी बैठकों के काम को आगे बढ़ाइए।कविता से दोस्ती करने वाली बिरादरी को बड़ा ,और बड़ा कीजिए।यकीन मानिए इससे कोई हानि नहीं होगी और लाभ यह होगा कि एक दिन आप स्वयं को अधिक उदार,अधिक संवेदनशील व अधिक समृद्ध पाएंगे। तो , हे कविता मित्र अपने समानधर्मा साथियों की संगत में आपका सहर्ष स्वागत है!

नहीं मिली मुझे कविता
किसी मित्र की तरह अनायास
मैं ही गया कविता के पास
अपने को तलाशता—अपने ख़िलाफ़
कविता जैसा अपने को पाने!
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( सभी कवितांश मानबहादुर सिंह की कविता कविता के बहाने' से लिये गए हैं )

Tuesday, April 18, 2023

यूँ ही साथ चलते-चलते- कविता कारवां



यूँ ही साथ चलते-चलते सात बरस हो गए. पता ही नहीं चला. हाँ, कविता कारवां के सफर को सात बरस होने को आये. जब शुरुआत की थी तब कहाँ पता था कि हम कब तक चलेंगे, कितने लोग साथ चलेंगे. बस इतना ही पता था कि हमें कहीं पहुंचना नहीं था बस साथ चलने का सुख लेना था. अगर विनोद जी कविता के बरक्स इस बात को कहूँ तो 'हम एक-दूसरे को नहीं जानते थे लेकिन साथ चलने को जानते थे.'

'कविता कारवां' यानी एक ऐसा परिवार जहाँ कविता प्रेमी जुड़ते हैं और अपनी प्रिय कविताओं को पढ़ते हैं, उनके बारे में बात करते हैं. इस प्यारे से सफर में जो सात बरस पहले शुरू भले ही देहरादून से हुआ था में देश भर से, दुनिया भर से लोग जुड़ते गए, जुड़ते जा रहे हैं.

अगर आप में से कोई भी अपने शहर में 'कविता कारवां' की बैठकें शुरू करनी हैं तो इनबॉक्स करें. शर्त बस इतनी सी है कि अपनी कविताओं का पाठ यहाँ नहीं होता सिर्फ अपनी प्रिय कविताओं को पढ़ना होता है वो हमें क्यों पसंद हैं इस बारे में बात करते हैं हम. असल में यह सफर कविताओं से प्यार का सफर है...इसे प्यार से ही आगे बढ़ाना है...तो बढ़ाइए हाथ और इस सफर में शामिल होकर इसे आगे बढ़ाइये...

सादर
कविता कारवां परिवार

Sunday, April 16, 2023

एक पूरा दिन है और मैं हूँ



इतवार की शाख से अभी-अभी सुबह उतारी है. एकदम खिली-खिली सी सुबह है. बाद मुद्दत हथेलियों में फुर्सत के फूल रखे हैं. एक लम्बी व्यस्तता के बीच वायरल ने जब धप्पा दिया तो वायरल को शुक्रिया कहा कि यूँ ही दिन दिन भर सामने वाली दीवार को ताकते रहना और चाय पीने की इच्छा और बनाने के आलस से जूझते हुए घंटों बिता देना. इसका भी कोई सुख होता है. देह की हरारत की डोर में स्मृतियों की ख़ुशबू पिरोना.
 
माँ की चिंता कि 'अकेले कैसे करोगी सब?' को सहेज लेती हूँ और माँ को कहती हूँ 'माँ, अकेली कहाँ हूँ. अकेला होना घर में किसी के न होने से नहीं होता.' माँ कुछ समझती नहीं बस चिंता में घुली जाती हैं तो अब आवाज़ में ख़ुशी पिरोकर बात करना आदत बना ली है. हालांकि हूँ भी खुश लेकिन कभी खुश दिखना होने से ज्यादा जरूरी हो जाता है.

बहरहाल, इस सुबह में हरारत नहीं है. एक पूरा दिन है और मैं हूँ. मुस्कुराती हूँ. सोच रही हूँ क्या-क्या कर सकती हूँ. देर तक सो सकती हूँ, कहीं घूमने जा सकती हूँ, चुपचाप पड़े रह सकती हूँ.

कुछ पौधे हसरत से देखते हैं तो उनसे कहती हूँ, 'हाँ आज थोड़ा समय तुम्हारे लिए भी.' वो खुश हो जाते हैं. बालकनी में बैठे कबूतर गुटर गूं कर रहे हैं जैसे कह रहे हों, 'तुम दिन यूँ ही क्या करूँ सोचते हुए बिता दोगी देख लेना.' मैं हंसती हूँ. हाँ सच ऐसा ही तो होता है हमेशा.

इन दिनों चुप की ऐसी आदत हो चली है कि इसकी संगत में मन खिलता है. तो इतवार की इस सुबह में रेखा भारद्वाज गुनगुना रही हैं 'गिरता है गुलमोहर ख़्वाबों में रात भर....'

दोस्तोवस्की क़रीब रखे हैं और सिमोन की डायरी पढ़ने की इच्छा कुलबुला रही है. दिन के हाथों में तसल्ली का तोहफा है. सामने ढेर सारे सूरजमुखी खिले हैं.

हाँ, मैंने अरसा हुआ न्यूज़ नहीं देखी.