उसने कहा 'तुम्हारे बारे में'।
मैंने कहा नहीं सोचा,'कि अगर यह मेरे बारे में है तो तुम्हारे पास क्यों है?'
सारे जमाने में हमेशा यही हुआ कि जिसके बारे में जो था, उसके अलावा वो सबके पास था। मुझे कभी-कभी लेखकों, कवियों पर गुस्सा आता है। दुनिया की सारी त्रासदी उनके लिए रसद है। लेकिन अगले ही पल यह भी लगता है कि सच ऐसा है क्या? काश!
इस बरसती सुबह में जब कड़वी कॉफी का स्वाद होंठों पर चिपका हुआ है 'तुम्हारे बारे में' का ख़याल अटका हुआ है। असल में यह अटका तो तबसे है, जबसे देखा है। लेकिन कुछ भी लिख पाऊंगी का कमतर एहसास राह रोके रहा। यूं भी जो अटका रह जाता है, वो करीब सरक आता है।
पृथ्वी थियेटर में पहली बार नाटक देखा 'तुम्हारे बारे में'।
पृथ्वी थियेटर का माहौल अपनेपन आप में एक जीवन है, जीवंतता है। उसके बारे में फिर कभी।
अभी उस किरच के बारे में जो चुभी हुई है, जिसने बहुत सारी चुभी हुई किरचों की कसक को बढ़ा दिया है।
यह नाटक हम स्त्रियॉं के बारे में है, लेकिन यह पुरुषों के बारे में भी है। यह पूरे समाज के बारे में है। व्यक्ति की गढ़न के बारे में है। हमारा व्यवहार जो हमें लगता है हमारा है, हमारा अच्छा लगना, बुरा लगना, खुश लगना सब कुछ क्या सच में हमारा ही लगना है इसे खँगालने की बाबत कहाँ सोचते हैं हम, कहाँ सोच पाते हैं।
'तुम्हारे बारे में' की तीन स्त्रियाँ मिलकर अपना सपना ढूंढती हैं जिसे लिखकर उन्होंने कहीं रख दिया था। एक स्त्री जिसने अपने उड़ने के सपने के बारे में लिखा होगा वो इतिहास की कोई स्त्री थी, यह हम ही थे। वो सपना जो लिखा नहीं गया, वो सपना जो अभी अपनी इबारत गढ़ रहा है, वो सपना जो अभी लिपि में ढला नहीं वो सपना जो खिड़की से दिखते आसमान के बारे में नहीं था एक मुक्त उड़ान के बारे में था। वो सपना जिसके बारे में सोचते ही आँखें भर आती हैं, मन सहम जाता है वो सपना कौन चुरा लेता है हमसे।
उड़ान का सपना इतना बड़ा क्यों है आखिर? जब पंख हैं, आसमान है और उड़ने की इच्छा है तो अवरोध कहाँ है, क्यों है। हम उड़ना चाहती हैं, हमारे पास पंख हैं, सामने पूरा आसमान है लेकिन... ये कमबख़्त अपनों की शक्ल की बिल्ली...सारी ज़िंदगी उड़ान को रोके रहती है और मुस्कुराती है।
मैंने यह नाटक दो बार देखा। और दोनों बार मैंने खुद पर खुद को तारी होते महसूस किया। बहते आंसू और खड़े होते रोयें मुझे गहरे मौन में धकेल रहे थे।
हम जो कहने से बचा लाते हैं वो हमसे जब-तब बतियाता रहता है। यह बतियाना बचा रहे इसलिए कहाँ लिख ही रही हूँ कुछ भी कि मैं तो इस सुबह में आई एक याद के सामने खड़ी हूँ बस। मेहंदी हसन गाये जा रहे हैं...बारिश बरसे जा रही है।
मैंने अपनों की शक्ल की बिल्ली की तरफ देखना बंद कर दिया है फिर भी ठिठकी हूँ उड़ने का सपना अपनी हथेलियों में ज़ोर से भींचे हुए।
मानव, तुमने हम सबके सपनों को क्यों चुरा लिया। वैसे अच्छा ही किया कि हम तो उस सपने को भूल ही गए थे...
हाँ, नाटक देखना नाटक पढ़ने से, नाटक के बारे में पढ़ने से बहुत अलग होता है। सचमुच।
No comments:
Post a Comment