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Friday, August 11, 2023

ये भी कोई बात हुई


बात बात बात… कितना कुछ कहा जा रहा है. मैं थक जाती हूँ. थोड़ा सुनती हूँ उतने में ही थक जाती हूँ. कुछ कहने की इच्छा मात्र से थक जाती हूँ. कहना भीतर होता है लेकिन कौन उसे बाहर लाये सोचकर चुपचाप सामने मुस्कुराती जूही को देखने लगती हूँ. 

बिस्तर के पास वाली छोटी टेबल किताबों से भर चुकी है. ये वो किताबें हैं जिन्हें मैं कभी भी हाथ बढ़ाकर पढ़ना चाह सकती हूँ. उस संभावना में ये किताबें बिस्तर के क़रीब रहती हैं. अब कुछ किताबें बिस्तर तक पहुँच चुकी हैं. कुछ नहीं बहुत सारी. नहीं बहुत सारी से भी ज़्यादा. इतनी कि अब ये किताबों का बिस्तर हो गया है और मैं अपने लिए थोड़ी सी जगह बनाती हूँ कि सो सकूँ. लेकिन मुश्किल यह नहीं है कि मेरे ही बिस्तर पर मेरी जगह नहीं बची मुश्किल यह है कि किसी भी किताब पर टिक नहीं पा रही. उन्हें देखती हूँ. आधी पढ़ी किताबें. बुकमार्क लगी किताबें. अधख़ुली किताबें. अब उन्हें देखते ही थकान से भर जाती हूँ. 

आज समीना से कहा इन सब किताबों को ड्राइंग रूम की बुकशेल्फ में रख दो और जैसे ही वो किताबें लेकर गई भीतर कोई हुड़क सी उठी. कभी कभी हम सिर्फ़ पास रहना महसूस करते हैं, करना चाहते हैं. और यह उपयोगिता से काफ़ी बड़ा होता है. यह महसूस करना. ड्राइंग रूम की शेल्फ में सजने के बाद वो किताबें मुझे उदास लगीं. जैसे मेरा उनके साथ जो आत्मीय रिश्ता था उसे मैंने पराया कर दिया हो. 

ख़ाली साफ़ सलीक़ेदार बिस्तर मुझे चिढ़ा रहा है. बाहर बारिश हो रही है और भीतर बारिश की वो आवाज़ बज रही है बिलकुल वैसे ही जैसे ख़ाली बर्तन में बजती है कोई आवाज़. न पढ़ने का अर्थ किताबें ख़ुद से दूर करना कैसे मान लिया मैंने. ऐसा ही जीवन के साथ तो नहीं कर रही हूँ? उन ख़ामोश लम्हों को समेटने लगी हूँ जिनके होने में कुछ होना दर्ज नहीं है लेकिन जिनके होने ने बिना किसी लाग लपेट बिना किसी अपेक्षा के मुझे अपने भीतर पसर जाने दिया. 
(सुबह की अगड़म बगड़म)

Sunday, July 19, 2020

नींद

आधी गोली
पूरी नींद का चक्कर लगाने के बाद
घुटने टेक देती है

पूरी गोली
आधी नींद से दोस्ती कर
सुस्ता लेती है

बची हुई आधी नींद
भटकती फिरती है
सुकून की तलाश में

सुकून जो उधडा पड़ा है...

Thursday, October 13, 2016

शोर अच्छा नहीं लगता...



कुछ दिनों से अपने 'स' की तलाश में फिर से भटक रही हूँ. इस भटकन में सुख है. अकसर लगता है कि बस अब पहुँचने वाली हूँ, कहाँ पता नहीं लेकिन वहां शायद जहाँ इस भटकन से पल भर को राहत हो. राहत, क्या होती है पता नहीं... खिड़की के बाहर देखने पर पडोसी के घर के फूल नज़र आते हैं, वो राहत है, अपने पौधों में इस बार कलियाँ कम आई हैं इसकी चिंता है...वो जिसे अपना कहकर रोपा था, उसे सहेज नहीं पा रही हूँ शायद, वो जो कहीं और खिल रहा है वो अपना ही लग रहा है....ये अपना होता क्या है आखिर...वो जिसे सहेज के पास रख सकें या जो दूर से अपनी खुशबू, अपने होने से मुझे भर दे...

आज फिर 'यमन' शुरू किया...फिर से. मुझे इस राग के पास सुकून मिलता है इन दिनों. 'क्यों' पता नहीं. कभी ऐसा सुकून मालकोश के पास मिला करता था. तो क्या राग बदल गया, या मौसम, या मन का मौसम...उन्हू मौसम तो वही है...किसी कमसिन की पाज़ेब की घुँघरूओं सा. सरगोशियाँ करता, इठलाता, मुस्कुराता . राग भी वही है...यानि मुझे खुद से ही बात करनी चाहिए. कर ही रही हूँ. सारे जहाँ में बस एक 'स' नहीं मिलता. सब मिलता है. त्योहारों का मौसम है, बाज़ार सजे हैं...अक्टूबर का महीना है, आसमान से रूमानियत टपक रही है...अनचाहे मुस्कुराहटें घेर लेती हैं...लेकिन 'स' नहीं लग रहा. कल रात लगते लगते रह गया. ये तार झन्न से टूट गया...हमेशा टूटता है...तार बदल सकता था..लेकिन मन नहीं...तार बहुत हैं पास में, मन एक ही है बस.

सुबह के दोस्तों से मुखातिब होती हूँ, उन्हें कोई फ़िक्र नहीं...उन्हें बस दाना खाने से और दाना खाकर उड़ जाने से ही मतलब है..जाने उनका सुख दाना है या उड़ जाना, पर वो सुख में लगते हैं...सुख में लगना भी अजीब है...मैं भी लगती हूँ शायद, सबको लगती हूँ, खुद को भी...लेकिन हूँ क्या...अगर हूँ तो मेरा 'स' कहाँ गुम गया है. अगर वो इतना गैर ज़रूरी है तो उसे ढूंढ क्यों रही हूँ. पागलपन्ती ही तो है सब...कोई 'स' 'व' नहीं होता ज्यादा मत ढूंढ, सो जा चैन से, मन मसखरी करता है...हंसती हूँ...

शोर अच्छा नहीं लगता, मैं उससे कहती हूँ...तो कहाँ है शोर...शांति ही तो है...वो मुझसे कहता है...शांति बाहर है न, भीतर बहुत शोर है...बाहर से आने वाले शोर के रास्ते बंद करना जानती थी, सो कर लिए भीतर के शोर से मुक्ति के रास्ते तलाश रही हूँ...एक झुण्ड पंछियों का लीची के पेड़ से फुर्रर से उड़कर आसमान की ओर रवाना हुआ है...मेरा आसमान कहाँ है....

Wednesday, July 1, 2015

जब बारिशें आएं तो...



जब बारिशें आएं तो रेनकोट और छतरियों को पर धकेल देना, तमाम नसीहतों को दीवार की खूँटी पे टांग देना, निकल पड़ना बारिश के संग बरसे फूलों से भरी सड़क की ओर. घने बनास के जंगल टोकरियों में भरे भरे बादल लिए खड़े मिलेंगे, उन बादलों की नाक पर ऊँगली रखकर पूछना ज़रूर कि , 'आप कैसे हैं जनाब?' उनके जवाब के इंतज़ार में ठिठकना मत कि कुछ सवाल जवाब के लिए होते भी नहीं, शरारत भर होते हैं बस. कोई नदी मिलेगी राह में उफनाती, गले लगाने को बेताब, उतार लेना उस नदी को अपने भीतर, उसके भीतर उतरने की तुम्हें न चाह होगी न ज़रुरत। 

कोई आवाज़ मिलेगी भीगी सी, प्यार में डूबी, और कहना कुछ भी बेकार है जानां कि तब रुकने से रोक न सकोगे तुम खुद को. और अपनी इस भूल के बदले जीवन भर आसमान से बरसती बूँदें तुम्हें जलाएंगी। ये ही तुम्हारे इश्क़ का ईनाम होगा। 

हर बूँद के सीने में आंच होती है और हर लौ के सीने में नमी....

Wednesday, June 25, 2014

बड़ी बात नहीं है मोहब्बत करना...




सुनो, बड़ी बात नहीं है मोहब्बत करना, बड़ी बात तो है मोहब्बत को सांस-सांस सहना। 

बड़ी बात नहीं है अपने आंचल की खुशियों को किसी के नाम कर देना, बड़ी बात है कि फिर उन खुशियों के लिए न तो बिसूरना और न उनका जिक्र करना, खुद से भी नहीं। 

बड़ी बात नहीं है अपनी आंखों में उगा लेना ढेर सारे ख्वाब, बड़ी बात है उन ख्वाबों की मजबूत परवरिश करना। 
बड़ी बात नहीं है यूं ही किसी बीहड़, अनजाने सफर पर निकल पड़ना, बड़ी बात तो है उस सफर को जीवन का सबसे खुशनुमा सफर बना लेना। 

कोई बड़ी बात नहीं है हथेलियों पर सूरज उगा लेना, बड़ी बात है सूरज की रोशनी को धरती के अंतिम अंधेरे तक पहुंचा पाना। 

बड़ी बात नहीं है किसी का दिल जीत लेना, बड़ी बात है जीते हुए दिल पे अपनी जान हार जाना। 

बड़ी बात नहीं विनम्रता की चादर ओढ़ अपने लिए गढ़वा लेना अच्छे होने की इबारतें, बड़ी बात है तमाम रूखेपन, अक्खड़ता, बीहड़ता के बावजूद किसी की आंख का आंसू किसी के दिल की धड़कन बन पाना।

(अगड़म बगड़म )

Tuesday, August 19, 2008

allav

1८ अगस्त गुलज़ार साहब का जन्मदिन
आज उनकी ये नज़्म मेरे ब्लॉग पर

रात भर सर्द हवा चलती रही
रात भर हमने अलाव तापा
मैंने माजी से कई खुश्क सी शाखिएँ
काटी तुमने भी गुजरे हुए लम्हों के पत्ते
तोडे मैंने जेबों से निकली सभी सुखी नज्म
तुमने भी हाथों से मुरझाये हुए ख़त खोले
अपनी इन आंखों से मैंने कई मांजे तोडे
और हाथों से कई बासी लकीरें फेंकी
तुमने पलकों पे नमी सूख गयी थी ,
सो गिरा दिन रात भर जो भी मिला
उगते बदन पर हमको काट के दाल दिया
जलते अलावों मैं उसे रात भर फूंकों से
हर लौ को जगाये रखा और दो जिस्मों के इंधन को
जलाये रखा भर बुझते हुए रिश्ते को तापा हमने