आज की सुबह बारिश नहीं है. हरारत भी नहीं है. अजब सी उदास सी शांति है. किसी भी कहानी का आरम्भ और अंत मुझे मुश्किल लगता है. जैसे एक ठीक सुर से उठाना कोई राग और उसी एकदम दुरुस्त सुर पर उसे पूरा करना. दोनों सिरे अगर संभल जाएँ तो मध्यम और पंचम खिल उठते हैं.
कल रात जब मैं इसके अंतिम पन्नों से गुजर रही थी तो यात्रा की समाप्ति की थकान और शान्ति दोनों साथ थी. किताब बंद करते ही मेरी कोरों से कुछ बूँदें लुढकीं और मैं एक ख़ामोशी ओढकर देर तक आसमान देखती रही. तब तक, जब तक वो शाम के नीले से रात के काले में न बदल गया...
मुझे नहीं मालूम आज मैं क्या लिखना चाहती हूँ. क्योंकि मैं तो असल में चुप रहना चाहती हूँ. चुप ही हूँ कई दिनों से. और चुप्पी को लिखना जरूरी क्यों है. लेकिन शायद जरूरी है कि ख्वाजाबाग के जिस घर में कई दिन अटकी रही, जिस नीले दरवाजे और सफेद दीवारों को सपने में देखती रही उससे बाहर आना जरूरी है. उसके बाद क्या हुआ क्या नहीं इसके बारे में नहीं है यह बात. यह बात है एक ऐसी यात्रा के अनुभवों की बाबत जिनसे गुजरना बेहद जरूरी है.
मानव का यह यात्रा वृतांत सिर्फ कश्मीर यात्रा का वृतांत भर नहीं है. यह कई यात्राओं की बाबत है. खुद को जानने समझने की बाबत है. हम क्या हैं, क्यों हैं, जैसे हम हैं वैसे ही क्यों हैं. क्या सच में हम ऐसे ही होना चाहते हैं? हमारी किसी के प्रति नाराजगी, गुस्सा, प्रेम यह सब कहाँ से आता है. देश क्या है आखिर. अपनापन कैसा होता है. इतिहास की उन चालाकियों को देखना हम कब सीखेंगे आखिर जो जानबूझकर अधूरा सच लिए हमारे सामने खड़ा कर दिया जाता है. क्या हम उसके पार जाकर देख पाने की योग्यता कभी ग्रहण कर सकेंगे?
खुद के भीतर झांकना मनुष्य होने की पहली और अनिवार्य शर्त है. यह सिलेबस में कहीं नहीं है, स्कूलों में नहीं पढ़ाया जाता खुद के भीतर झांकना, खुद को टटोलना. समूचे देश को, एक ऐसी नफरत की आग में झोंकना आसान है जिसका असल में कोई सर-पैर ही नहीं लेकिन यह मुश्किल है कि उदासी और नाराजगी की नन्ही किरचों को सुभीते से निकाला जाय कि दर्द में तनिक कमी आये.
कश्मीर क्या है आखिर...कश्मीरी कौन हैं. जिन कश्मीरी पंडितों के दर्द, तकलीफ को राजनीति ने बेहद चालाकी से अपने नफे के लिए भरपूर उगाहा उनके दर्द असल में हैं क्या यह किसने पूछा? जिन कश्मीरी मुसलमानों के लिए नफरत उगाई उनके भीतर जो प्यार था/है, जो अपनापन है उसे किसने देखा?
जिन दिनों मैं रूह के जरिये कश्मीर की यात्रा पर निकली थी उन दिनों मेरी बेटी मुझे पढ़ते हुए देख रही थी. और एक रोज उसने मुझे मैसेज किया, ' रूह के बारे में लिखना, रूह को पढ़ना अपनी रूह को तलाशने जैसा है.' मैंने उसे पूछा कि यह किसने लिखा? उसने कहा, यह तुम्हारे बारे में है. मुझे लगा तुम ऐसा ही महसूस कर रही हो.
एक ही वाक्य में उसने मेरी पाठकीय यात्रा को कह दिया. सचमुच यह अपनी रूह तलाशने जैसा है. इस किताब में न जाने कितनी ऐसी जगहें हैं जहाँ देर तक ठहरना चाहिए. न जाने कितने ऐसे हिस्से हैं जिनका सार्वजनिक पाठ होना चाहिए. यह किताब प्रेम के बारे में है नफरत के बारे में नहीं. जो होती नफरत के बारे में तो शायद बेस्ट सेलर हो चुकी होती अब तक, नफरत की मार्केट जो कमाल की है.
मुझे ख़ुशी है कि अपनी ही दुनिया में डूबा हिंदी साहित्य जगत कितना ही आत्म आनन्द में रत रहे लेकिन रूह को युवा पाठकों ने दिल से लगा रखा है. मैं हर युवा के हाथ में यह किताब देखना चाहती हूँ, रिकमंड करती हूँ. अगर आप सचमुच इंसानियत के पैरोकार हैं, दुनिया में अमन और सुकून चाहते हैं, कश्मीर को सच में इस देश का हिस्सा मानते हैं तो कुछ धाराओं और अनुच्छेदों से बाहर आकर, वहां के लोगों को गले से लगाना होगा. यह किताब वादी के हर इन्सान के दिल में धड़कते उस प्यार के बारे में है जो वो हमसे करते हैं, उस उदासी के बारे में है जो उन पर थोपे गए इल्जामों के भीतर सांस लेती रहती है. उस उम्मीद के बारे में है जिसमें प्यार की रौशनी होगी एक दिन.
कश्मीर सिर्फ पेड़, पहाड़, झील नहीं है, कश्मीर वहां रहने वालों के दिलों की धड़कन से आबाद है. नफरत से सिर्फ नफरत बढ़ सकती है, प्यार से प्यार. माया आंटी कहती हैं कि 'अगर हम वर्तमान को दुरुस्त करना चाहते हैं तो हमें सामने वर्तमान ही रखना होगा. बार-बार अतीत को सामने रखकर हम वर्तमान को दुरुस्त नहीं कर सकते.' कितनी सच बात है यह. लेकिन सच में क्या हम दुरुस्त करना चाहते हैं? अगर चारों तरफ प्रेम और सौहार्द हो गया तो क्या होगा राजनीति का. बेहद चालाकी से हमें एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा किया गया और हम मोहरे की तरह इस्तेमाल होते रहे.
यह एक कश्मीरी पंडित की इनसाइड स्टोरी है, वो परिवार जिसने वो सब सहा जिसे फिल्म में देखकर लोगों का खून खौल उठता है और उनका देश प्रेम हिंसक हो उठता है. लेकिन जिसने वह सब जिया, सहा उसके भीतर तो कोई गुस्सा नहीं, कोई प्रतिशोध नहीं. वो तो प्यार से भरा हुआ है. रूह को पढ़ते हुए और भी न जाने कितने कश्मीर से आये दोस्त, पड़ोसी, सहकर्मी याद आये जिनके पास उनकी कहानियां तो थीं लेकिन नफरत नहीं थी कहीं. मैं खुद 8 साल एक कश्मीर से विस्थापित परिवार के घर में किरायेदार के तौर पर रही हूँ. मकान मालिक की आँखों से जो कश्मीर मैं देखा करती थी उसमें हमेशा प्रेम ही नजर आता था और उनकी याद में जो लोग आते थे वो न हिन्दू थे न मुसलमान वो बस कश्मीरी थे.
रूह को पढ़ना जरूरी है और अगर इसे ठीक से पढ़ा है तो निश्चित तौर पर भीतर काफी कुछ बदलता महसूस होगा. क्योंकि यह सचमुच अपनी रूह को टटोलने जैसा है.