इस बरस की अंतिम सुबह चाय के साथ पहली लाइन पढ़ी, 'जब चाँद को पहली बार देखा तो लगा यही है वह, जिससे अपने मन की बात कह सकती हूँ।' एक सलोनी सी मुस्कान तैर गयी। पहली चाय के साथ जिस पंक्ति का हाथ थाम एक सफर पर निकली थी शाम की चाय तक उस सफर की खुमारी पर चढ़े रंग साथ हैं।
इस बरस....
उसने मुझसे पूछा, 'क्या चाहती हो?'
मैंने कहा, 'मौत सी बेपरवाह ज़िंदगी।'
उसने वाक्य में से मौत हटा दिया और हथेली बेपरवाह ज़िंदगी की इबारत लिखने लगा। लकीरों से खाली मेरी हथेलियाँ उसे बेहद पसंद हैं कि इनमें नयी लकीरें उकेरना आसान जो है।
एक रोज मैंने कहा 'आसमान' तो समूचा आसमान मेरी मुट्ठी में था, फिर एक रोज समंदर की ख़्वाहिश पर न जाने कितने समंदर उग आए कदमों तले।
जाते बरस से हाथ छुड़ाते हुए मैंने उसकी आँखों में देखा, उसके जाने में आना दिखा। रह जाना दिखा।
जाने में यह सौंदर्य उगा पाना आसान कहाँ।
इस बरस ...
मैंने अधूरेपन को प्यार करना सीखा। ढेर सारे अधूरे काम अब मुझे दिक नहीं करते। आधी पढ़ी किताबें, आधी देखी फिल्में, अधूरी छूटी बात, मुलाक़ात। इस अधूरेपन में पूरे होने की जो संभावना है वह लुभाती है। सिरहाने आधी पढ़ी किताबों का ढेर मुस्कुरा रहा है। मैं जानती हूँ इनके पढे जाने का सुख बस लम्हा भर की दूरी पर है लेकिन मन के खाली कैनवास पर कुछ लिखने का मन नहीं। तो इस खाली कैनवास को देखती रहती हूँ। कितना सुंदर है यह खाली होना।
इस बरस...
कुछ था जो अंगुल भर दूर था और दूर ही रहा, कुछ था जो सात समंदर पार था लेकिन पास ही था। कि इस बरस उलझी हुई स्मृति को सुलझाया, कड़वाहट दूर हुई और वह स्मृति मधुर हुई, महकने लगी। जिस लम्हे में हम जी रहे हैं वो आने वाले पल की स्मृति ही तो है। इस लम्हे को मिसरी सा मीठा बना लें या कसैला यह सोचना भी था और सीखना भी।
इस बरस...
अपने में ही मगन होना सीखा कुछ, बेपरवाही को थामना और जीना सीखा कुछ, सपनों को थामना उन्हें गले लगाना सीखा। किया कुछ भी नहीं इस बरस, न पढ़ा, न लिखा ज्यादा न जाने कैसे फ़ितूर को ओढ़े बस इस शहर से उस शहर डोलती रही। खुश रही।
खुश होने की बात कहते कहते आँखें नम हो आई हैं। तमाम उदासियाँ सर झुकाये आसपास चहलकदमी करती रहीं। दुनिया के किसी भी कोने में कोई उदास है तो वह खुश होने और खुश दिखने की उज्ज्वल इच्छा पर स्याह छींटा ही तो है।
चलते चलते-
वो जो जा रहा है अपना समस्त जिया हुआ हथेलियों पर रखकर उसके पस कृतज्ञ होना है और वो जो आ रहा है नन्हे कदमों से हौले-हौले उसके कंधों पर कोई बोझ नहीं रखना है बस कि जीना है हर लम्हा ज़िंदगी को रूई के फाहे सा हल्का बनाते हुए...वरना कौन नहीं जानता कि एक रोज उड़ जाएगा हंस अकेला...
1 comment:
बहुत सुंदर
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