Thursday, September 30, 2021

वैक्सीनेशन की प्रक्रिया में हमारी भूमिका


-प्रतिभा कटियार
अगर किसी व्यक्ति या चीज़ या काम के बारे में कोई राय बन गयी तो उस राय का बदलना आसान नहीं होता. जब हमने (अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन) एक टीम के तौर पर वैक्सीनेशन की प्रक्रिया में तेजी लाने के लिए स्वास्थ्य कर्मियों के साथ मिलकर उनका साथ देना शुरू किया तो उस दौरान ऐसी ही पूर्व निर्मित धारणाओं से सामना हुआ. जैसे कुछ सामाजिक मान्यताएं पहले से पकड़ बनाये हुए मिलीं. ‘फलाने लोग तो होते ही ऐसे हैं. उन लोगों से बात करने का कोई फायदा नहीं. फलां जाति के लोग वैक्सीन लगाने के लिए राजी ही नहीं होते. फलां समुदाय के लोग तो ऐसे ही हैं, उन्हें कितना भी समझा लो सुनते ही नहीं.’

भारतीय समाज में कुछ समुदायों, जातियों, लोगों के प्रति इस तरह की धारणाओं का होना कोई नयी बात नहीं है. इन्हीं धारणाओं के बीच हम पले-बढ़े हैं. जाने-अनजाने इन्हीं धारणाओं की गिरफ्त में जकड़े हुए भी हैं. यह भी सच है कि जब हम पूर्वनिर्मित किसी धारणा के साथ कोई काम करते हैं तब नतीजे ज्यादातर धारणाओं को पोषित करने वाले आ सकते हैं. क्योंकि वो फलां व्यक्ति या समुदाय भी जानता है कि उसके बारे में कौन क्या सोचता है और वो अपने बारे में बनी धारणाओं को लेकर बेपरवाह और कभी-कभी गुस्सैल भी होने लगता है.

लेकिन अगर सच में इन फलां समुदायों, जातियों, व्यक्तियों के बारे में जानना है तो सिर्फ दो काम करने की जरूरत है. सबसे पहले अपनी पूर्व निर्मित और जड़ जमाए हुई मान्यताओं को तोड़ना होगा. दूसरा उन लोगों, समुदायों, व्यक्तियों के साथ समय बिताना होगा जिनके बारे में मान्यताएं फैली हुई हैं. यक़ीन मानिए इसके अलावा तीसरा कोई तरीका है ही नहीं हक़ीकत तक पहुँचने का.

वैक्सीनेशन के दौरान जब हमने स्वास्थ्य कर्मियों के साथ मिलकर काम करना शुरू किया तो ऐसी जड़ पकड़ी हुई मान्यताओं से टकराने का अवसर भी मिला. पहली दूसरी और तीसरी मुलाकातों में हमें यह यकीन दिला दिया गया था कि ये जो कुछ जातियां, समुदाय, लोग हैं ये बहुत पिछड़े हुए हैं, गुस्सैल हैं, और किसी भी तरह वैक्सीनेशन के लिए राजी नहीं हो रहे. हमने जब बिना किसी पूर्व धारणा या मान्यता पर ध्यान दिए उन फलां जातियों, समुदायों और व्यक्तियों से मिलना शुरू किया तो हक़ीकत को सामने आते जरा भी देर नहीं लगी. देहरादून की जिन बस्तियों, गांवों में हमने लोगों से मुलाकातें कीं उनमें शायद ही कोई ऐसा मिला हो जो वैक्सीन न लगवाना चाहता हो. जो लोग वैक्सीन लगवाने से हिचक रहे थे उनके कुछ कारण थे जो वैक्सीन को लेकर बनी भ्रांतियों के चलते थे जिस पर उनसे बात करने की जरूरत थी. हमने महसूस किया कि जब लोग आप पर भरोसा करते हैं तब वो आपकी बात मानने को भी तैयार हो जाते हैं.

इस दौरान कुछ एक ऐसी बस्तियों और गांवों में जाना हुआ जहाँ के बारे में सुना था कि पूरा गाँव ही वैक्सीन लगाने का विरोध करता है. और ये लोग काफी गुस्सैल हैं, मारपीट भी कर सकते हैं. वो लगातार गिरती बारिश वाला दिन था. हम जब उस गाँव में जा रहे थे. हमारे साथ पीएचसी के डाक्टर भी थे और आशा भी थीं. उन्होंने बताया कि एक बार यहाँ वैक्सीन लगाने के बाद एक व्यक्ति की तबियत ख़राब हो गयी थी इसलिए अब पूरी बस्ती वैक्सीन नहीं लगवाना चाहती.

हम सब तेज बारिश में अपने अपने छातों में खुद को बचाते हुए टपकते छप्पर के भीतर से झांकते एक बुजुर्ग से मिले. उन्होंने सच में वैक्सीन लगाने से मना कर दिया और कहा कि उनकी तबियत खराब है. उन्होंने दवाइयों का थैला दिखाते हुए कहा, ‘ये देखो ये दवाइयां खा रहा हूँ. ये हार्ट अटैक की दवाई है.’ फिर उनसे कुछ देर बात होती रही. घर परिवार की, सेहत की. उन्हें यक़ीन दिलाया कि यह वैक्सीन लगाने से कोरोना से बचाव होगा न कि तबियत खराब होगी. वो ना-नुकुर करते रहे लेकिन उनकी ‘न’ पिघल रही थी यह हमने महसूस किया. आखिर उन्होंने मुस्कुराकर कहा, ‘अच्छा लो, लगा लो.’ उनकी इस सहमति का असर यह हुआ कि उस समुदाय के अन्य लोगों ने भी धीरे-धीरे वैक्सीन को लेकर जो डर था उसे पीछे छोड़ा. निश्चित तौर पर इस सबमें हमारी आशा वर्कर्स की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण है.

एक और अनुभव याद आता है जब एक समुदाय की महिला ने यह कहकर वैक्सीन लगाने से मना किया, ‘कि वो दूध पिलाती है’ हमारी साथी ने अपना उदाहरण देकर जब कहा ‘मैं भी तो पिलाती हूँ बच्चे को दूध और मैंने तो लगाया है वैक्सीन.’ तो उस महिला ने आश्चर्य और भरोसे वाली मिलीजुली नजर से उसे देखा और वैक्सीन लगाने को तैयार हो गयी. एक और बस्ती के बारे में हमें बताया गया था कि वहां के लोग एकदम तैयार नहीं वैक्सीन लगाने को लेकिन जब हमने वहां घर-घर में जाकर लोगों से बात की तो हक़ीकत कुछ और थी. या तो उन्हें पता नहीं चल पाता कि वैक्सीन कब लग रही है, कौन सी डोज़ लग रही है या वो काम पर गए हुए थे, या वैक्सीन लगने के समय वो बाहर गये थे लेकिन अब अपनी बारी आने का इंतजार कर रहे हैं.

जमीनी सच्चाई यह है कि वैक्सीन लगाने को लेकर लोगों के मन में नकारात्मकता नहीं है. अगर कहीं है बहुत छोटे हिस्से में तो उसके उनके पास कुछ कारण हैं. जो संवाद के जरिये दूर हो सकते हैं. हमारे सवास्थकर्मी बहुत मेहनत और प्रतिबद्धता के साथ वैक्सीनेशन के काम में जुटे हुए हैं. लेकिन कुछ काम हमारे हिस्से भी है. वैक्सीनेशन को लेकर सकारात्मक संवाद बनाने का काम. आसपास जो भी लोग हैं, खासकर छोटे कामगार लोग, घर में काम करने वाली हेल्पर हों, ड्राइवर हों, सब्जी बेचने वाले, दूध बेचने वाले, फेरीवाले उनसे जरूर पूछें कि वैक्सीन लगी या नहीं. और अगर उनके मन में कोई वहम है, कोई हिचक है तो उसे दूर करें, उन्हें मार्गदर्शन दें कि वो कब और कहाँ वैक्सीन लगा सकते हैं. और हाँ, अगर उन्हें एक दो दिन की छुट्टी लेनी पड़े बुखार आदि आने के कारण तो भी उनकी मदद करें.

यह राष्ट्रव्यापी काम है जिसमें सबके सहयोग की जरूरत है. बस अपने हिस्से की भूमिका तलाशने भर की देर है.

Wednesday, September 29, 2021

बिना संवेदना की शिक्षा के क्या अर्थ


- प्रतिभा कटियार

पिछले दिनों मैंने एक फिल्म देखी ‘इन्सेप्शन’. फिल्म लगातार मेरे ज़ेहन में चल रही है. कैसे किसी के अवचेतन में चुपके से इंट्री लेकर कोई विचार रोपा जा सकता है. फिर वह व्यक्ति वही करेगा वही सोचेगा जो उसके अवचेतन में रोप दिया गया है. और उस करने और सोचने को लेकर जिद भी करेगा, उसके लिए लड़ेगा भी. क्योंकि चेतन में वो यही समझता है कि यह उसका ही विचार है, उसका ही व्यवहार.

फिल्म के निर्देशक क्रिस्टोफर नोलन ने क्या कमाल की फिल्म बनाई. जो बात मुझे हमेशा से लगती है कि हम नहीं जानते कि ‘हम नहीं जानते’ यह स्थिति सबसे मुश्किल होती है. क्योंकि इसमें बेहतर होने की, खुद को पलटकर देखने की संभावना कम से कमतर होती है. और जहाँ खुद को देखने की संभावना नहीं होती वहां बेहतर होने की, ग्रो करने की समझ को विकसित करने की संभावना भी कम ही होती है.

समाज की जो संरचना है उसमें इसके मजबूत तार हैं. फलां समुदाय ऐसा ही होता है. फलां वर्ग को ऐसा ही करना चाहिए. अच्छे बच्चे ऐसे होते हैं. अच्छे लोग वैसे होते हैं. नैतिकता, संस्कार, परम्पराएँ, मान्यताएं ये सब सदियों से हमारे अवचेतन में सेंध लगाकर हमारे व्यवहार को नियंत्रित कर रहे हैं. और हम ख़ुशी-ख़ुशी हो भी रहे हैं. क्योंकि हम जानते ही नहीं कि जिसे अपनी बात समझकर हम लड़ने-भिड़ने, हिंसक तक होने को व्याकुल हो उठ रहे हैं वो असल में हमारा है ही नहीं.

शिक्षा का यह काम होना था कि उसे इन बेवजह के लबादों से मुक्त होना सिखाना था. अपने खुद को खोजना शुरू करना सिखाना था. बने बनाये रास्तों पर चलना सिखाने की बजाय सिखाना था नए रास्ते खोजना. बताई हुई, सिखाई हुई बातों को सीधे-सीधे मान लेने की बजाय उन्हें खुद परखकर देखना सिखाना था. लेकिन हम हिंदी अंग्रेजी गणित सिखाने और सीखने की रेस में दौड़ पड़े. यह इसी रेस का नतीजा है शायद कि वाट्स्प यूनिवर्सिटी ने अच्छी-अच्छी यूनिवर्सिटी से अच्छे नम्बर लेकर पढ़े लोगों को अपनी गिरफ्त में ले लिया है. कैसे पढ़े-लिखे लोगों की भीड़ किसी निहत्थे, कमजोर व्यक्ति को घेरकर क्रूरता से मार देती है. फिर बहुत सारे पढ़े-लिखे लोग उस घटना को देखते हुए सुनते हुए उसे ठीक भी ठहराते हैं. यह हमारे दिमाग में घुसकर किसी खास वर्ग, समुदाय के प्रति रोपी गयी नफरत का नतीजा है. हमारे जन्म से पहले ही हमारा व्यवहार, हमारी प्रतिक्रियाएं, ख़ुशी, गुस्सा, नफरत तय करने वाला समाज हमें कठपुतली की तरह नचाता है, नचा रहा है और हम नाच रहे हैं.

कोई जज जब किसी खास वर्ग के प्रति अटपटे फैसले सुनाता है, कोई नेता जब बेहूदा हिंसक बयान देते हैं तब मूल सवाल शिक्षा पर उठता है. क्योंकि हैं तो ये सब शिक्षित ही. यानी शिक्षा ने वो किया ही नहीं जो उसका मूल उद्देश्य था. बेहतर संवेदनशील मनुष्य बनाना.

तो क्या शिक्षक समुदाय इस बात को समझ पाए? क्या वो खुद को तमाम पूर्वाग्रहों से मुक्त कर पाए? क्या वो खुद यह देख या समझ भी पाए कि उनके भी पूर्वाग्रह हैं कुछ. और अगर वो उन पूर्वाग्रहों के साथ कक्षा में जा रहे हैं, बच्चों से संवाद कर रहे हैं तो यकीनन वो सारे पूर्वाग्रह, मान्यताएं, व्यवहार बच्चों को सौंप रहे हैं. नतीजतन पीढ़ी दर पीढ़ी सामजिक विभेद, हिंसा, नफरत अवचेतन में ट्रांसफर हो रहे हैं. कक्षा में बच्चे गणित के सवाल ठीक से लगाना तो सीख ले रहे हैं लेकिन उनके मन में अपने गुरु जी को देखकर किसी खास समुदाय, वर्ग के प्रति उफनाती नफरत भी जगह बना रही है. यह घर में भी हो रहा है लेकिन स्कूल में ऐसा होना ज्यादा खतरनाक है. क्योंकि स्कूल वह जगह है जहाँ इन तमाम मान्यताओं की दीवार को ढह जाना होता है. समाज की हर समस्या की जड़ में शिक्षा ही नजर आती है. वह शिक्षा जो हमें एक-दूसरे के व्यवहार से मिलती है. अगर हम खुद संवेदनशील नहीं हैं तो अपने आसपास के तमाम लोगों को वैसा ही बनाने में किसी न किसी रूप में कोई न कोई भूमिका निभा ही रहे हैं.

शिक्षा के दस्तावेज (चाहे एनसीएफ़ 2005 हो या नयी शिक्षा नीति) तो मानवीय सरोकारों की पैरोकारी कर रहे हैं लेकिन उसे अभी स्कूलों में ठीक तरह से आना बाकी है. और सिर्फ प्रारम्भिक शिक्षा ही क्यों उच्च शिक्षा में भी इसका शामिल होना जरूरी है. लेकिन सबसे ज्यादा जरूरी है व्यक्ति के तौर पर हमें शिक्षा के इस मूल मूल्य को समझना कि इसके बिना सब अधूरा ही है, अधूरा ही रहेगा. क्या होगा उन 100 में से 100 नम्बरों का जिसके सीने में अपने पड़ोसी की मुश्किल में आँख न नम हो, मदद को दौड़ पड़ने की व्याकुलता न हो. किसी भी समाज का मुख्य संस्कार है संवेदना. इन्सान को इन्सान समझना. वही नहीं तो क्या होगा डिग्रियों के ढेर से. अच्छी नौकरी तो मिल जाएगी. ऐशो आराम के साधन भी जुटा लेंगे लेकिन वो जो हर वक़्त डर-डर के जीना है, अपने बच्चों की सुरक्षा का सवाल है, बेटियों के वक़्त पर घर न लौटने पर बढ़ती हुई धड़कनें हैं, चारों तरफ से आती चीखो-पुकार है उसका क्या? अगर हमें एक शांत, खूबसूरत, सुरक्षित समाज चाहिए तो संवेदना के सूत्र को किसी मन्त्र की तरह आत्मसात करना होगा.

ये जो हमारे अवचेतन पर कब्जा करके हमारे सपनों को, हमारे व्यवहार तक को हाइजैक कर लिया गया है सदियों सदियों से उस चक्र से अब बाहर तो निकलना ही होगा. 

Tuesday, September 28, 2021

कमला भसीन : स्‍मृति शेष


भारतीय विकास नारीवादी कार्यकर्ता, कवयित्री, लेखिका और सामाजिक विज्ञानी कमला भसीन का 25 सितम्बर की सुबह निधन हो गया। वे 75 वर्ष की थीं। वे कैंसर से पीड़ित थीं । कमला भसीन ने महिलाओं के हक़ की लड़ाई के लिए लगभग 1970 से ही काम शुरू कर दिया था। उन्होंने लिंग भेदभाव, शिक्षा, मानव विकास, महिला सम्मान आदि चीजों पर खुलकर समाज के सामने लड़ाई लड़ी थी। उन्होंने ‘जागो री मूवमेंट’ के माध्यम से महिलाओं को पितृसत्तात्मक समाज से बाहर निकलने के लिए कई अथक प्रयास जारी रखें थे। भसीन ने नारीवाद और पितृसत्ता को समझने पर कई किताबें लिखी हैं, जिनमें से कई का 30 से अधिक भाषाओं में अनुवाद किया गया।
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सुबह आँख खुली तो एक उदास ख़बर सामने खड़ी थी। कमला भसीन नहीं रहीं। फेसुबक पर उदासी बिखरी हुई थी। मैं इधर-उधर के कामों को समेटते हुए लगातार कमला दी के बारे में सोच रही थी। इस ख़बर पर यक़ीन करने का मन ही नहीं कर रहा था। हालाँकि यह अचानक हुई दुर्घटना नहीं है। उनके स्वास्थ्य के बारे में लगातार जानकारी मिल रही थी। वो लम्बे समय से कैंसर से लड़ रही थीं। लगातार उनका स्वास्थ्य गिरता जा रहा था लेकिन उनकी जिजीविषा वैसी ही थी। खुश रहने की उनकी फितरत, दूसरों को खुश रखने की चाह और किसी भी हाल में हौसला न टूटने की प्रतिबद्धता।

कमला दी का जाना भारत में स्त्री आन्दोलन की पैरोकार का जाना है। उस आवाज़ का जाना है जो किसी भी हाल में समझौतापरस्ती का विरोध करती थीं और स्त्री के हक़ के लिए लड़ना जानती थी। कमला दी की जानिब से नारीवाद को देखना एक खूबसूरत दुनिया का सपना देखना था। उनका नारीवाद स्त्रियों के हक़ में तो था लेकिन पुरुषों के विरोध में नहीं था। असल में नारीवाद यही तो है स्त्री समानता की बात न कि पुरुषों के विरोध की बात।

वो कहती थीं कि नारीवाद का सिर्फ एक अर्थ है समानता। वो सदियों से पितृसत्ता की गाड़ी में बैल की तरह जुती स्त्री के मन की दशा भी समझती थीं और यह भी कि वो कौन से कारण हैं जो एक स्त्री को दूसरी स्त्री के खिलाफ खड़ा करते हैं। वो किसी व्यक्ति के नहीं विचार के खिलाफ थीं। सत्ता के विचार के, पितृसत्ता के विचार के। उन्होंने कहा कि, ‘मैं ऐसी बहुत सी स्त्रियों को जानती हूँ जो पितृसत्ता की पैरोकार हैं, जो स्त्री होकर भी स्त्री विरोधी हैं। लेकिन मैं ऐसे पुरुषों को भी जानती हूँ जो महिला अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं। फेमिनिज्म बयोलौजिकल मामला नहीं है यह आडियोलौजिकल मामला है।’

वो कहती थीं, ‘मैं चाहती हूँ नारीवादी महिलाएं ही न हों, नारीवादी पुरुष भी हों।’ ‘नारीवाद से हमारा मतलब है समानता सिर्फ समानता’। नारीवाद को पुरुषों के विरोध में उठे किसी स्वर के तौर पर नहीं देखना है बल्कि शोषण की उस बुनियाद को हिलाना है जहाँ किसी एक को मनुष्य के रूप में मिलने वाले अधिकारों से ही वंचित किया जा रहा हो। और जाहिर है ‘वह एक’ स्त्री ही तो है। लेकिन जब भी नारीवाद की बात होती है कुछ पुरुष कुछ उदाहरणों के साथ आ खड़े होते हैं कि महिलाएं भी तो जीना दूभर करती हैं, देखिये उसके साथ ऐसा हुआ, इसके साथ वैसा हुआ। कमला दी के उनकी पास हर बात का जवाब होता था। उनकी बात समझने के लिए दिमाग पर ज्यादा जोर डालने की जरूरत नहीं थी।

विचारों से मजबूत कमला दी भावनात्मक रूप से खूब नरम थीं। वे जल्दी से दोस्ती कर लेतीं, दिल लगा बैठतीं। दोस्ती में भी वो बराबरी के भाव को अहमियत दिया करती थीं। इसलिए उनके दोस्तों में ढेर सारे युवा और बच्चे भी शामिल हैं जिनमें से एक मैं भी हूँ।

जल्दबाजी में हुई एक छोटी सी मुलाकात और फोन पर हुई कुछ बातचीत भर से मेरा उनसे आत्मीयता का जो तार जुड़ा वो ज़िन्दगी भर जुड़ा रहेगा। उनसे बात करते हुए इतनी हिम्मत मिलती थी और इतनी उम्मीद जगती थी कि ‘अब सब ठीक हो जायेगा’ के भाव से मैं भर उठती थी। कई बार फेसबुक से पता चलता कि जब वो मेरी समस्याओं को सुलझा रही थीं तब वो मेरी समस्या से कहीं बड़ी समस्या से जूझ रही थीं।

व्यक्ति असल में विचार ही तो होता है। और इस लिहाज से कमला दी कहाँ गयीं, उनके विचार हैं हमारे पास। उनके विचार सदियों तक हमें रास्ता दिखायेंगे। ये जानते हुए भी इस ख़बर के बाद से तारी उदासी जा ही नहीं रही। कमला दी, आपसे एक बार तसल्ली से मिलना, देर तक गले लगना रह गया। मिस यू कमला दी।

प्रतिभा कटियार
लखनऊ में पली-बढ़ी प्रतिभा कटियार ने राजनीति शास्त्र में एमए किया, एलएलबी के बाद पत्रकारिता में डिप्लोमा किया. पत्रकारिता करना तय किया, 'स्वतंत्र भारत', ‘पायनियर’ 'हिंदुस्तान' 'जनसत्ता एक्सप्रेस' और 'दैनिक जागरण' जैसे हिंदी के महत्वपूर्ण अख़बारों में काम किया. इसके बाद अज़ीम प्रेमजी फ़ाउंडेशन के साथ जुड़कर शिक्षा के क्षेत्र में काम करना चुना. इन दिनों देहरादून में कार्यरत हैं.

(https://www.spsmedia.in/celebrity/passing-of-kamala-bhasin-the-advocate-of-womens-movement-in-india/)

Saturday, September 18, 2021

एक व्यक्ति की नहीं पूरे समाज की जीवनी है मारीना- वीरेंद्र यादव


‘मारीना’ को पढ़ते हुए पाठक सिर्फ मारीना की जीवन यात्रा में ही शामिल नहीं होते बल्कि वो लेखिका प्रतिभा की विकास यात्रा को भी देख पाते हैं. सचमुच यह किताब हिंदी के पाठकों के लिए प्रतिभा का बड़ा योगदान है. इस काम की खासियत यह है कि यह पूरी तरह से मौलिक काम है. यह किताब एक व्यक्ति का जीवन भर नहीं है, यह एक सामाजिक जीवनी है. पहले और दूसरे विश्व युद्ध का वह समय और उस वक्त का समाज सब इस किताब में खुलता नजर आता है. वह पूरा दौर, बहुत सी अनकही और अनससुलझी बातें जो हमारी सोच, हमारी चेतना का हिस्सा नहीं थीं वो इस जीवनी के माध्यम से सामने आई हैं.

मारीना जिस समय के उथल-पुथल के दौर की उपज थी वह रूसी क्रांति से पहले का समय था. जारशाही के समय उसके शासन के दौरान जो आन्दोलन चल रहे थे मारीना बचपन से ही उन आंदोलनों, उन हलचलों के बीच रही. यह एक बड़ी बात है कि कोई किताब जो जीवनी के रूप में आ तो गयी साथ ही ढेर सारी उलझन भी लायी. अगर आप विचार पध्धति से जुड़े हैं तो कोई किताब आपको झकझोर दे, आपको सोचने पर मजबूर करे तो यह मामूली बात नहीं है.


इस किताब में लेखिका की झिझक भी दिखती है. एक तरीका यह हो सकता था कि बहुत निर्णायक तरह से उस दौर को उकेरते हुए उस समूचे दौर को सवालों के घेरे में रखने का प्रयास किया जाता. लेकिन इस किताब में प्रतिभा स्वयं एक असमंजस से गुजरती हुई मालूम होती हैं. वो असमंजस प्रतिभा का असमंजस नहीं है वो असल में मारीना का असमंजस है. मारीना का पति अगर व्हाइट आर्मी के साथ जुड़ा हुआ है तो उससे निर्विकार कैसे रह सकती थी मारीना. मारीना खुद जार के समय था उसके शासन की पक्षधर नहीं है. इस बात को समझने के लिए पाठक खुद उस समय में खुद को ढाल पायें उस समय से खुद को जोड़कर देख पायें तो बात समझ में आती है कि परिवर्तन का, क्रांति का दौर ऐसा गुजर रहा है जो कि बहुत साफ़ नहीं है. उस दौर को उस दौर का बुध्धिजीवी फैसलाकुन तरह से समझ नहीं सकता है. जबकि एक बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है. ये लोग देश छोड़कर जा रहे हैं. चाहे चेकोस्लोवाकिया में हो, जर्मनी में हो, फ़्रांस में हो बड़ी संख्या में पलायन हो रहा है. तो एक ऐसा दौर मारीना की निर्मिति का दौर है. मारीना का वह निर्माण काल सिर्फ मारीना का ही नहीं है इसके बहाने उस पूरे दौर के असमंजस को, उहापोह को समझा जा सकता है. अच्छी बात यह है कि निर्णायक स्वर न देते हुए भी उस दौर की जो जटिलतायें हैं उन जटिलताओं को किताब में उजागर किया गया है. मुझे लगता है कि अब बेबाकी के साथ हमें सवालों से टकराना चाहिए. इस तरह की जो किताबें होती हैं वो हमसे ईमानदार आत्मावलोकन की मांग करती हैं. मुझे लगता है इस किताब के साथ उस आत्मावलोकन की शुरुआत हो सकती है. बहुत मुखर न हो, मौन ही हो लेकिन शुरुआत तो हो.
 
मारीना के प्रेम को लेकर भी बात होती है कि न जाने कितने लोग उसके जीवन में आये और उसने मुक्त प्रेम की युक्ति अपनाई. यह युक्ति एक व्यक्तित्व की निर्मिति थी और इस संदर्भ में प्रतिभा ने परिशिष्ट में जो लिखा है, ’मेरी समस्या यह है कि मैं ऐसे हर मिलने वाले के जीवन में अविलम्ब प्रवेश कर जाती हूँ जो किसी कारण मुझे अच्छा लगता है, मेरा मन उसकी सहायता करने को कहता है. मुझे उस पर दया आती है कि वह डर रहा है कि मैं उससे प्रेम करती हूँ या वह मुझसे प्रेम करने लगेगा और उसका पारिवारिक जीवन तहस-नहस हो जाएगा. यह बात कही नहीं जाती पर मैं यह चीखकर कहना चाहती हूँ कि महोदय, मुझे आपसे कुछ नहीं चाहिए, आप जा सकते हैं, फिर आ सकते हैं, फिर जा सकते हैं, फिर कभी नहीं भी लौट सकते हैं. मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. मैं समझ, सहजता और स्वछन्दता चाहती हूँ. किसी को पकड़कर नहीं रखना चाहती और न ही कोई मुझे पकड़कर रखे.'

मारीना प्रेम में पज़ेसिव नहीं है कि वो अपने प्रेमी को प्रेम में जकड़कर रखे. प्रेम का जो सूत्र उसके पास है उसे उसके इस कहे से समझा जा सकता है कि ‘मैं समझ, स्वतन्त्रता और स्वछंदता चाहती हूँ’ यह उसके प्रेम का सूत्र है. प्रेम की जो एक पारम्परिक तरह की अवधारणा है या प्लेटोनिक प्रेम की जो अवधारणा है मुझे लगता है प्रेम की उन अवधारणाओं से अलग यह एक नया आयाम है. मारीना को समझने के लिए जो हमारे बने-बनाये ढाँचे हैं उन्हें तोड़ना होगा. उन ढांचों को भारतीय परिस्थितियों को समझना आसान नहीं है. उस समय का जो यूरोपीय समाज है उसके मद्देनजर देखना होगा.

यह देखिये कि उसका जीवन कितना त्रासद है. उसकी त्रासदी उसके जीवन की व्यक्तिगत त्रासदी नहीं है वो उस दौर के सामाजिक, राजनैतिक जीवन की उपज है. सवाल यह है कि अगर इतनी बड़ी बौध्धिक स्त्री, कवयित्री अगर एक जोड़ी जूते मांग रही है, कि वो उन जूतों के अभाव में कहीं जा नहीं पा रही है तो यह राजनीति से परे बात नहीं है. भले ही वह खुद को अराजनैतिक कहती है लेकिन वो है नहीं अराजनैतिक. कोई हो भी नहीं सकता है. बुकमार्क में लेखिका ने इस बात को बहुत अच्छे ढंग से उठाया है. असल में मारीना राजनीति का शिकार है. कितना त्रासद है यह सब. इस किताब को पढ़ते हुए हम अवसादग्रस्त होते जाते हैं. उसका पति जासूसी के आरोप में फंसता है, वो भी जेल जाता है, बेटी भी जेल जाती है. बेटा भी उत्पीड़ित है. यह सब उस दौर की राजनीति के कारण ही तो हो रहा है.

यह किताब उस दौर की राजनीति के बारे में निस्पृहता से विचार करने के लिए हमें प्रेरणा देती है. वो दौर उथल-पुथल का दौर था. स्टालिन ने 1935 में पेरिस में होने वाली कांफ्रेस में भाग लेने के लिए पास्तेरनाक को भेजा. जिस पास्तेरनाक को एंटी फासिस्ट कांफ्रेंस में भाग लेने के लिए भेजा यानी पास्तेरनाक पर उसे भरोसा था वही पास्तेरनाक बाद में उसी राजनीति के विक्टिम बने.

गोर्की बड़े नायक थे. उस समय की राजनीति की जो संरचना थी उसके अंतर्गत गोर्की भी मारीना की सहायता उस तरह से नहीं करते हैं. त्रासदी मरीना के हिस्से ज्यादा ही आई. तो सवाल यह है कि क्या नजरिया अपनाया जाय कि जो उस दौर में बहुत से साम्राज्यवाद के समर्थन का नजरिया अपना रहे थे या पूरी वैचारिक राजनीति में उथल-पुथल थी. एक कवियित्री की जीवनी के माध्यम से कितने रग-रेशे खुल रहे हैं. इसका दायित्व के साथ निर्वहन करना आसान नहीं था. यह काम बहुत परिपक्वता की मांग करता है और प्रतिभा ने उस परिपक्वता का परिचय दिया.

कितनी बड़ी त्रासदी है की मारीना ने आत्महत्या की लेकिन आत्महत्या के बाद उसे कहाँ दफन किया गया यह कोई नहीं जानता. उसकी कब्र कहाँ है आज तक किसी को नहीं पता. लोग ढूँढने गये लेकिन किसी को कोई ख़बर नहीं मिली. उस समय के लोग परिवार, लेखक समाज किसी ने उसे चिन्हित नहीं किया. किसी को नहीं पता वो कहाँ दफन है. कोई बताने वाला नहीं. इससे भी आप देखेंगे कि हालात कैसे थे और वो किस कदर उपेक्षित थी. मरीना का बेटा जो अपनी माँ की आत्महत्या को सही ठहराता है वो कहता है जिन हालात में माँ थी उन हालात में उसके पास कोई चारा नहीं था आत्महत्या के सिवा. वो कहता है ‘मेरी माँ ने सही किया.’ वो गवाह है उन स्थितियों का. वो सब देख रहा था. वो कहता है कि माँ ने जो किया यही उचित था किया जाना. कितनी बड़ी त्रासदी है कि बेटा माँ की आत्महत्या में ही उसकी मुक्ति देख रहा है. इन सारी परिस्थितियों का जो ताना-बाना बहुत उलझा हुआ है और उसमें उलझा है मारीना का जीवन.

रिल्के, पास्तेरनाक, अन्ना अख्मातोवा आदि के नाम हैं उस दौर में लेकिन मैं ईमानदारी से कहूँगा की मारीना मेरी स्मृति में नहीं थी. मैंने उस समय के कुछ सोवियत कलेक्शन निकाले उसमें मारीना को ढूँढा. वर्ल्ड सोशलिस्ट पोयट्री का एक बहुत अच्छा पोयट्री कलेक्शन है और वो करीब 30 साल पहले का है पेंग्विन ने उसे प्रकाशित किया था जिसमें दुनिया भर के कवि हैं जिसमें पाब्लो नेरुदा भी हैं उसमें भी मारीना कहीं नहीं मिली. एक सोवियत पोयट्री का बहुत अच्छा कलेक्शन है उसमें भी मरीना को तलाशा मैंने उसमें स्टालिनवाद के समय के सब लोग हैं उसमें येसेनिन भी हैं मायकोवस्की भी हैं लेकिन यह नाम वहां भी नहीं है. प्रतिभा ने उस लिहाज से मारीना को उपस्थित भी किया है. हिंदी के पाठको के लिए तो यह है ही कि क्योंकि किताब हिंदी में है लेकिन इसके माध्यम से चर्चा आगे भी जा सकती है क्योंकि यह एक जीवनी भर नहीं है, एक खोज है. प्रतिभा ने इसको खोजा, इसको इस रूप में प्रस्तुत किया. यह आगे जाने वाला काम है. टिकने वाला काम है. जब भी इस तरह की कोई चर्चा होगी तब मारीना को खोजा जाएगा. इस काम को दूर तक जाना चाहिए.
 (जनवरी 2021 में लखनऊ में हुए एक कार्य्रकम में दिया गया वक्तव्य)
 पुस्तक- मारीना (जीवनी)
लेखिका- प्रतिभा कटियार 
मूल्य- 300 रूपये
प्रकाशक- संवाद प्रकाशन, 
पुस्तक अमेजन पर भी उपलब्ध है. अमेजन का लिंक- https://www.amazon.in/-/hi/Pratibha-Katiyar/dp/8194436206/ref=sr_1_1?dchild=1&keywords=pratibha+katiyar&qid=1631940830&sr=8-1

Thursday, September 2, 2021

मौन में बात


सुनना
कोलाहल के समन्दर के बीच
अपनी धड़कनों की
कलियों के चटखने की
पत्तियों के गिरने की
मोगरे की खुशबू की
दिल के टूटने की
उदास आँखों में उगती उम्मीद की
आवाज़ को सुनना
सुनने का अभ्यास है,


एकांत
अकेले रहना नहीं होता
एकांत में होना
भीड़ में, कोलाहल में भी
बुना जा सकता है
अपने लिए एकांत का सुंदर बाना
जैसे ढेर सारे शब्दों और वाक्यों के बीच
बचाया जा सकता है
मौन का नन्हा सा बीज
जिसे सींचा जा सकता है
आत्मा के पानी से
जिसकी छांव में हम
सुस्ता सकें एक रोज
दुनियादारी की भागमभाग से थककर.


देखना
दृश्य जो झिलमिलाते हैं
वो दिखते हैं लेकिन दिखते नहीं
दृश्य जो कचोटते हैं
वो उस कचोट की यात्रा नहीं दिखाते
दृश्यों में डूबते-उतराते अक्सर
छूट जाता है हमसे देखना
क्योंकि देखना दृश्य भर नहीं होता.


बोलना
जब चुप थी
तब कितना शोर था भीतर
कितनी बातें

स्मृतियां कितना शोर करती हैं

चुप में रहकर जाना
कि बात के भीतर थी एक और बात थी
स्मृति के भीतर थी एक और स्मृति

सामने दिखती दीवार पर
शब्दों और वाक्यों का ढेर था
जबकि बागीचे में खिला था एक फूल
और उस पर मंडराने के बाद
पीली धूप पहनने वाली तितली ने कहा,
'जरा चुप भी हो जाओ
कि बारिश आने को है.'

बोलना
जब हम शब्दों में बोलते हैं
तब बचा रहता है थोड़ा सा मौन
थोड़ी सी चुप बची रहती है

जब हम बोलना बंद करते हैं
बहुत शोर करती है चुप्पी

मौन धीमे से मुस्कुराता है
हाँ, मौन और चुप दो अलग बाते हैं.

बंद आँखों से देखना
जब आँखें बंद होती हैं
तो खुलता है एक बड़ा सा संसार

बंद आँखों की दुनिया में
जंगल, नदियाँ पहाड़ सब होते हैं

बंद आँखों की दुनिया खुलती है
स्वप्न और स्मृति के संसार में
वहां ढेर सारे रंग खुलते हैं

बंद आँखों की खिड़की पर
बारिश की आवाज लिए बैठा होता है पंछी

प्रार्थना के लिए आँखें बंद करने पर
ईश्वर के सिवा सब दिखता है
और आँखें खोलने पर दिखती है
ईश्वर की मूर्ति

बंद आँखों से देखना एक अभ्यास है
यह आँखें बंद करने से नहीं आता.


सवाल
जवाब सवालों के नहीं होते
सवालों में होते हैं
सवाल होने पर परेशान होने से बेहतर है
सवालों से घिरे रहना
जवाब की खोज में भटकने से बेहतर है
बेहतर सवालों की खोज में निकल पड़ना.

शाख
खाली शाख
स्मृतियों से भरी होती है
ढेर सारे दृश्य टंगे होते हैं
खाली शाखों पर
हरियाली की खुशबू से तर-ब-तर
पंछियो के कलरव से झूमती
जुगनुओं से झिलमिलाती
खाली शाखों को देखने के लिए
ख़ास नजर चाहिए
खाली शाख सा दिखे कोई व्यक्ति
तो खाली मत समझना उसे
उसके भीतर छुपी हरियाली
से तनिक हरा चुन लेना.