लिखने की यह बेचैनी इसलिए है कि मैं ख़ुशबू लिखना चाहती हूँ...देवदार के जंगलों की वो ख़ुशबू जो दुनिया भर के दर्द निवारकों से कहीं आगे की चीज़ है। उस ख़ुशबू की स्मृति इस लम्हे में मुस्कुराकर मुझे देख रही है। 'सब कुछ लिखा नहीं जा सकता, कुछ सिर्फ जिया जाता है,' उसने कहा। मैंने पलकें झपकायीं और उस सुबह की स्मृति की खिड़की खोल दी सुबह पूरी तरह से कमरे में बिखर गयी। स्मृति की सन्दूक बहुत बड़ी होती है इसमें पूरे पहाड़, नदियां, जंगल अपने पूरे वैभव के साथ समा जाते हैं।
सुबह उठी तो हरारत बाकी थी देह में। माँ ने फोन पर डपटा और कहा 'आज कहीं मत जाना, आराम करो'। मैंने मिमियाई सी आवाज़ में कहा 'ठीक है'। यूं भी मुझे जाना ही कहाँ था। और सुबह की एक सुंदर सैर तो मैं कर ही आई थी। सो रज़ाई में घुसकर चाय सुड़कना और सामने की खिड़की से देवदार के पेड़ों पर हवा और पंछियों के खेल देखना अच्छा विकल्प लगा।
लेकिन वो इश्क़ ही क्या जो तमाम सोचे-विचारे की तोड़-फोड़ न करे, तमाम योजनाओं की बैंड न बजा दे। देर तक बिस्तर पर पड़े-पड़े हिम्मत कर खिड़की के थोड़ा और करीब जा बैठी। बहुत सुंदर लग रहा था सब लेकिन इस देखने में हवा का स्पर्श और महक नहीं थी। लालच बढ़ा तो थोड़ा दरवाजा खोला...जैसे हवा भी इसी फिराक में हो कि कब मौका मिले और वो मुझे सराबोर कर दे। हवा का झोंका किसी नशे सा था...कुछ देर सुध-बुध खोये दरवाजे पर ही खड़ी रही। और कुछ ही देर बाद हथेली में पैरासीटामाल और पैरों में जूते देखे। 'तेरा प्यार पैरासीटामाल' वाली एक पुरानी बात याद आ गयी...किसी शरारती लम्हे की वो बात चेहरे पर खेलने लगी।
कल से अब तक इस जगह के लगभग के हर हिस्से तक मैं कई-कई बार जा चुकी थी। एक पगडंडी थी जो बची हुई थी। मेरे कमरे के सामने से दूर एक हरा बगीचा मुस्कुराता दिखता था। अकेले होने पर तनिक हिचक भी हुई कि कहीं अनजान रास्ते पर भटक न जाऊँ, तिस पर फोन में सिग्नल भी नहीं थे। देर रात तक पार्टी करने वाले बच्चे शायद सोये होंगे तो आसपास होने वाली थोड़ी सी हलचल भी बंद ही थी। ऐसी खामोशी कि पुकारूँ तो अपनी ही आवाज़ जरा अलसाकर ही लौटे अपने पास। संज्ञा ने ताकीद की थी जब निकलना तो एक छड़ी रखना हाथ में। सो एक छड़ी तलाशी और चल पड़ी उस पगडंडी पर। जैसे-जैसे आगे बढ़ती जाती, अच्छा लगता जाता।
एक जगह जाकर एक छोटा सा लकड़ी का गेट मिला जो न बंद था, न खुला। सोचा जाऊँ या न जाऊँ। फिर जाने का ही तय किया, कोई रोकेगा तो देख लेंगे यही तय किया मन में। लेकिन यह जो छोटा सा लकड़ी का गेट था असल में रोकने के लिए नहीं था यह बताने के लिए था कि अब आप एक दिव्य दुनिया में प्रवेश करने वाले हैं। उलझनें वुलझनें उतार फेंकिए। शानदार मंजर था। नीले और पीले फूलों की क्यारियां हाथ पकड़कर ले जाती हैं और वहाँ ले जाकर बैठा देती हैं, जहां होना असल में जहां में न होना है।
मंत्रमुग्ध उस मंज़र के आगे देर तक खड़ी रही। बैठना है, चलना है, आगे जाना है सब भूल गयी। आँखें झरना हो चुकी थीं। कुछ देर बाद होश आया तो मैं पहले वहाँ बनी बेंच पर बैठी फिर ज़मीन पर और फिर सचमुच वहीं लेट गयी। हरे कालीन पर नीले फूलों की ख़ुशबू के बीच। देवदार मानो पंखा झल रहे हों...और तभी सूरज के उगने की आहट हुई। सुबह से बादलों का खेल चल रहा था तो सूरज मियां आज तनिक देर से आए थे। सूरज की पहली किरन के साथ ही पूरा मंज़र अलौकिक हो गया। अंखुयाए हरे पर जब सूरज की पहली किरण झरती है तो कैसा दिप दिप कर उठता है संसार। हर उस सुनहरी रंगत में ज़िंदगी के हर गम को हर लेने वाली औषधि बन जाता है। मैं भागती फिरती थी यहाँ से वहाँ, नंगे पाँव। इस सुबह को अकोर लेने को व्याकुल, इसमें धंस जाने को बेताब। धूप ने माथा सहलाया और कहा, 'यह सुबह तुम्हारी ही है, यह सूरज तुम्हारा है। यह दृश्य, यह ख़ुशबू सब सिर्फ तुम्हारे हैं।' मैं फफक पड़ी। मैंने पाया कि सचमुच मेरे सिवा यहाँ कोई भी तो नहीं हैं। तितलियाँ हैं, भँवरे हैं और मैं हूँ।
भीतर एक लंबी रुलाई धँसी हुई थी जिसे मैं लंबे समय से मुस्कुराहट बनाकर लोगों के बीच बाँट रही थी। लेकिन इस यात्रा में उस रुलाई को ठौर मिल रहा था। मैंने भीतर एक कंपन महसूस किया... किसी के आसपास न होने ने मुझे और आज़ाद किया। उस सुबह मैं उस सूरज के आगे फूट-फूटकर रोयी। जाने कितने बरसों की रुलाई थी वो। रोने की आवाज़ वादियों में घुल रही थी। कितनी देर तक रोई याद नहीं कि रोते-रोते वहीं सो गयी।
कोई होता तो पूछता कि क्या हुआ और शायद मैं झेंप जाती, असल में क्या हुआ जैसा कुछ नहीं होता। रोजमर्रा का जीवन जीते हुए हमारे भीतर न जाने कितना स्याह एकत्र होता रहता है क्योंकि दुनिया को मुस्कुराहटें चाहिए वो उदास होने को सामान्य होना नहीं मानती इसलिए हम खुश मुखौटों में खुद को कैद करते जाते हैं।
खैर, एक अच्छी मीठी नींद सो चुकने के बाद मेरी आँख खुली तो दस बज चुके थे। तीन घंटे हो चुके थे, पता ही नहीं चला। धूप की चादर पूरी देह को ढंके हुए थी। पैरासीटामाल भी अपना असर कर ही चुकी थी। मैं सोकर उठी तो लगा कोई और मैं हूँ। बहुत खुश और बहुत हल्कापन लिए। इस पल में मैंने माँ, बेटू, संज्ञा, देवयानी, श्रुति, पल्लवी, ज्योति और माया आंटी को याद किया, जरूर उन्हें हिचकी आई होगी।
मेरा उठकर जाने का मन ही नहीं कर रहा था। लेकिन कोई था नहीं कहने वाला कि जल्दी करो, वरना ब्रेकफ़ास्ट खतम हो जाएगा। इसलिए यह खुद ही कहना था खुद से। जाने से पहले एक बार फिर हर पेड़ के गले लगी, पत्तियों को छुआ और नंगे पाँव घास पर एक चक्कर लगाया और बेमन से लौटने लगी...
आड्रिक बार बंद करके निकल रहा था। मुझे अकेले जाता देख उसने पूछा, 'कोई परेशानी है? आपको कोई मदद चाहिये?' मैंने कहा मदद तो नहीं जरा सा साथ चाहिए। इस रास्ते पर अकेले जाने में वो भी इतनी रात में थोड़ी सी हिचक हो रही है। उसने कहा, 'मैम आपको होटल की गाड़ी से भी छोड़ा जा सकता है, किसी स्टाफ को आपके साथ भेज सकते हैं। या आप कहें तो मैं आपको छोड़ दूँ, मैं भी उधर ही जा रहा हूँ।'
मैंने मुस्कुराहट को छुपाते हुए कहा, लास्ट ऑप्शन ठीक रहेगा। उसने कहा, मुझे दो मिनट दीजिये मैं रजिस्टर पर साइन करके और बैग लेकर आता हूँ।
सच कहूँ, इस समय आड्रिक का होना बड़ा अच्छा लग रहा था। रास्ते भर हम बातें करते रहे। उसने बताया कि वो यह काम अपनी च्वायस से करता है। नए लोगों से मिलना, घूमना उसे पसंद है। उसने एमबीए किया, कुछ जगह नौकरी की लेकिन मन लगा नहीं। उसे दुनिया भर की शराब के बारे में भयंकर जानकारी थी। कई सारे कोर्स किए हुए हैं जनाब ने। अच्छा शराब की जानकारी के लिए भी कोर्स होते हैं ये मुझे नहीं पता था।
उसने हँसकर कहा, 'यह एक ज़िम्मेदारी वाला काम है, खुशी की तलाश में आने वालों को खुशी देना। बात सिर्फ ड्रिंक की नहीं होती उस माहौल की, व्यवहार की भी होती है जिससे कस्टमर स्ट्रेस फ्री रहे।'
'अच्छा, तुमने मेरी पसंद के गाने कैसे बजाए?' उन पगडंडियों पर चलते हुए मैंने उससे पूछ ही लिया। उसने कहा, 'कुछ राज बताने के नहीं होते मैम।' यह कहकर वो जरूर मुस्कुराया होगा जिसे अंधेरे ने ढँक लिया था।
'आप सोलो ट्रैवल पर हैं न?' उसने मुझसे पूछा। मैंने कहा 'हाँ'। 'ये बेस्ट होता है'। उसकी आवाज़ में चहक थी। 'आप क्या करती हैं'? उसने पूछा तो मुझे समझ ही नहीं आया, मुझे इस सवाल का जवाब कभी समझ नहीं आता। मैंने कहा 'नौकरी करती हूँ वैसे तो और ज़िंदगी जीने की कोशिश करती हूँ सुंदरतम तरह से'।
'आह, आप तो पोयट हैं'। उसकी आवाज़ पिघलने लगी थी। मैंने शरारत में कह दिया 'हाँ, हूँ शायद'।
'मुझे लगा था, आप पोयट ही हो सकती हैं।'
मैंने कहा, 'अच्छा है ये फ़्लर्ट। मुझे बुरा नहीं लगा'। और मैं ज़ोर से हंस दी। इतनी रात गए चायल के घने जंगलों में मेरी हंसी गूंज रही थी। मैं खुद अपनी ऐसी मुक्त हंसी को सुनकर हैरत में थी। हंसी रुक ही नहीं रही थी। 'आप हंस लीजिये फिर बताता हूँ,' उसने तसल्ली भरी आवाज़ में कहा।
'बताओ, चलो मैं रुक जाती हूँ।' यह कहकर फिर से हंसी का झरना फूट पड़ा...ये मुझे हुआ क्या है। मैं खुद हैरत में थी। मैंने महसूस किया कि रात के जंगल दिन के जंगलों से अलग होते हैं....चाँदनी में नहाये जंगलों में मेरी हंसी ज्यादा ही गूंज रही थी।
हम रुक गए थे, क्योंकि मेरी हंसी मुझे चलने नहीं दे रही थी। ज़िंदगी की किस शाख पर कब कौन सा लम्हा बैठा मिलेगा कोई नहीं जानता। आड्रिक पहाड़ी दीवार से टिककर मुझे देख रहा था और शायद सोच रहा होगा, कि ये रुके तो हम आगे बढ़ें।
खैर, हंसी का तूफान थमा और हम आगे बढ़े। उसने कहा, 'मैं फ़्लर्ट नहीं कर रहा था। हालांकि अब लग रहा है कि काश वो फ़्लर्ट ही होता...' कहकर वो मुस्कुराया। इस बार अंधेरे में भी उसकी मुस्कुराती आँखें छुप न सकीं या शायद उसने छुपाया नहीं। क्योंकि ऐसा कहते वक़्त पहली बार वो मेरे चेहरे की ओर देख रहा था। अब अचकचाने की बारी मेरी थी।
उसने बात का सिरा बदला और आवाज़ में चहक लाते हुए बोला, 'आप कैसी पोयट्री लिखती हैं?'
मैंने कहा, ' आड्रिक, अभी तुम ऑन ड्यूटी नहीं हो कि खुश रखना तुम्हारा काम हो। ईज़ी रहो।
कुछ देर चुप्पी हमारे साथ चली हवा की आवाज़ और तेज़ और साफ सुनाई दे रही थी। मेरा ठिकाना आने ही वाला था। मुझे वहाँ छोड़कर जाते वक़्त गुड नाइट से पहले आड्रिक ने कहा, 'आप हँसती रहा करिए, अच्छी लगती हैं।'
मैंने उसकी मुस्कुराहट को आँखों में भर लिया और सोचा रिवर्स बैक वाला कॉम्प्लीमेंट नहीं करूंगी। रात नींद देर से आई थी...
नाश्ते के टेबल पर मैंने उससे कहा, 'तुम्हारे नाम का उपयोग अपनी कहानी में करूंगी।' तुम रोक नहीं सकते। 'श्योर मैम' कहकर वो फिर एक बार नाश्ते के साथ मुस्कुराहट रखकर चला गया। नाश्ते के वक़्त मुस्कुराहटों का यह खेल चलता रहा। जिसका नतीजा यह हुआ कि मुझे ज्यादा खाना पड़ा और दो बार चाय पीनी पड़ी। खुद की ही शरारतों पर खुद ही हँसते हुए वहाँ से निकली।
कुछ देर धूप में बैठने के बाद एक और ट्रैक की तरफ पैर बढ़ गए, बढ़ते गए...अनजान रास्तों की पुकार में अजीब सा आकर्षण होता है, आप रुक नहीं सकते...
(जारी...)