बाहर तेज धूप थी...भीतर अंधेरा था।
तभी मैंने पढ़ा, ‘बाहर बारिश हो रही है।‘ और पाया कि बारिश हो रही है। पेड़, पशु, धरती, पंछी सब भीग रहे थे। बूंदें उछलकर बालकनी के भीतर गिर रही थीं लेकिन वो क्या सिर्फ बालकनी के भीतर गिर रही थीं? मैंने देखा मेरा चेहरा तर-ब-तर था। मेरी हथेलियों पर बूंदें जगमगा रही थीं। भीतर का अंधेरा छँट रहा था। सूखा भी। एक भीगे परिंदे ने अपने पंख झटके, पूरी धरती सोंधी ख़ुशबू में डूब गयी।
लिखना और क्या है अपने पाठक की ज़िंदगी में बारिश बनकर बरस जाने, रोशनी बनकर बिखर जाने के सिवा। प्रियंवद ऐसे ही तो लेखक हैं। कल शाम उनकी नयी किताब ‘एक लेखक की एनेटमी’ के पन्ने पलटते ही एहसास हुआ लंबे अरसे से जो रुका हुआ है पढ़ना, लिखना, जीना वो शायद अब चल निकले।
‘बारिश हो रही थी। दोनों बारिश देख रहे थे।
‘बारिश हो रही थी। दोनों बारिश देख रहे थे।
बारिश न भी होती तो भी वे दोनों नीले रंग की दो अलग-अलग लंबी, पतली खिड़कियों से सर निकाल कर बाहर देखा करते थे। वे हमेशा इसी तरह बाहर देखते हुए, बाहर से देखने पर अलग-अलग तरह से दिखते।‘
मैं अभी अपने मन की खिड़की से बाहर का आसमान देख रही हूँ। किताब हाथ में है तो लगता है उम्मीद हाथ में है, बाहर देखने का चश्मा आँखों पर है।
मैं अभी अपने मन की खिड़की से बाहर का आसमान देख रही हूँ। किताब हाथ में है तो लगता है उम्मीद हाथ में है, बाहर देखने का चश्मा आँखों पर है।
फिलहाल आधार प्रकाशन से आयी “लेखक की एनेटमी” की संगत पर मन थिरक रहा है।
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