Friday, June 9, 2023

मानव कौल तितली और नाय्या

एक अजनबी
मेरे शहर
मुझसे मिलने आया...

जैसे-जैसे तितली पढ़ती गयी नाय्या की ओर खिंचती गयी. मैंने उन्हें ढूंढ-ढूंढ कर पढ़ना शुरू किया. पढ़ रही हूँ.
यह कविता अपने भीतर अपनेपन का ऐसा कोमल संसार लिए है कि यह बार-बार अपनी ओर खींचती है. पलकें भिगोती है.
 
मानव के लिखे को पढ़ते हुए उनके पात्रों से इकसार होना होता रहा है. जंग हे से तो जाने कितनी बार मिल चुकी हूँ. कैथरीन, इति ,उदय, पवन, जीवन, बंटी, सलीम, शायर. जैसे सबको मैं जानती हूँ शायद वो भी मुझे जानते होंगे. जानना कितना अपर्याप्त सा शब्द है लेकिन इसकी तरफ कैसा सा खिंचाव है.

लेकिन नाय्या पात्र नहीं हैं, वो लेखक हैं और कमाल की लेखक हैं. जितना भी सुना, पढ़ा और समझा उन्हें मुझे एक सहजता मिली. ऐसी सहजता जिसमें लेखक होने पर, गर्दन पर कोई बल नहीं पड़ता. जीवन ऐसा ही है जितना इसके करीब जायेंगे विनम्रता और करुणा से भरते जायेंगे.

साहित्य के शोर से दूर नाय्या को सुनना, पढ़ना और कृतज्ञ होना उस लेखक का जो अपने लिखे में ऐसे सुंदर ठीहों के पते छोड़ता चलता है.

Sunday, June 4, 2023

काफ्काई मन



ये इतवार की सुबह है. एक उदास अख़बार दरवाजे के नीचे से झाँक रहा है. उसे उठाने की हिम्मत नहीं हो रही. लेकिन न देखने से चीजें होना बंद नहीं होतीं, दिखना बंद हो जाती हैं. लेकिन लगता है दिखना भी बंद नहीं होतीं.

कोई बेवजह सी उदासी है जो भीतर गलती रहती है. जैसे नमक की डली हो. वजह कुछ भी नहीं, या वजह न जाने कितनी ही हैं. हमेशा वजहों के नाम नहीं होते. लेकिन वो होती हैं. इतना मजबूत मन न हुआ है, न हो कभी कि आसपास के हालात का असर न हो.

कभी जब हम जिन चीज़ों पर बात नहीं करते वो चीज़ें और गहरे असर कर रही होती हैं. दुःख कितना छोटा शब्द है, सांत्वना कितना निरीह. घटना और खबर के पार एक पूरा संसार है जहाँ बहस मुबाहिसों के तमाम मुखौटे धराशाई पड़े हैं.

कल काफ्का की याद का दिन था. सारे दिन की भागमभाग के बीच काफ्का से संवाद चलता रहा. मैंने उससे पूछा, 'ऐसा क्यों हो रहा है इन दिनों?' उसने पूछा कैसा? मैंने कहा,'कोई बेवजह सी उदासी रहती है. किसी भी काम में मन नहीं लगता. पढ़ना दूर होता जा रहा है, लिखने की इच्छा नहीं होती. बात करने की इच्छा होती है लेकिन किससे बात करूँ समझ नहीं आता. अगर कोई बात करता है तो दिल करता है ये क्यों बोल रहा है. चुप क्यों नहीं हो जाता. सब लोग क्यों बोलते हैं इतना?' ये कहते हुए मैं फफक पड़ी. मैंने सुना कि मैं भी तो कितना बोल ही रही हूँ. किसी से न सही खुद से ही सही. चुप रहना न बोलना तो है नहीं. उफ्फ्फ, अजीब उलझन है.

काफ्का मुस्कुराये और बोले, 'चाय पी लो.'
मैं चाय बना रही हूँ. सामने लिली और जूही में खिलने की होड़ है. लीचियां पेड़ों से उतरने लगी हैं.

देह पर हल्की सी हरारत तैर रही है. काफ्काई हरारत.

Saturday, May 27, 2023

एक था नज़ीब


तुम्हें याद है वो नौजवान
जिसकी आँखों से ख़्वाब छलकते रहते थे
जिसकी बाँहों में सामर्थ्य थी 
दुनिया के अंधेरों को मिटा देने की 
वो नौजवान जो सिर्फ अपने लिए नहीं 
पूरी दुनिया के लिए सपने देखता था 
वो जो हर वक़्त मोहब्बत में डूबा रहता था 
इस दुनिया को मोहब्बत के फूलों से 
सजाना चाहता था, संवारना चाहता था 
जो चाहता था कि जो सच दिखे 
वो सच ही हो भी 

क्या तुमने देखा है उस नौजवान को 
जो अधूरी नींदों के बीच से जागकर 
लोगों के लिए सुकून की नींद बुनना चाहता था 
जो कैंटीन में छोड़ देता था अधूरा समोसा 
और निकल पड़ता था उस ख़्वाब के पीछे  
कि कोई बच्चा मुठ्ठी भर अनाज की कमी से 
दम न तोड़े 
कोई किसान मुंह न फेरे ज़िंदगी से 
वो जो दुनिया के हर मसायल को 
अपनी जिम्मेदारी समझता था 

वो नौजवान बहुत दिनों से गुम है
उसका नाम नज़ीब था  

वो जब से गुम हो गया है 
मेरे सपनों में आने लगा है
हर रात वो कुछ सवाल और कुछ सपने
मेरी नींदों में रख जाता है 

जागती हूँ तो नज़ीब की माँ की याद आती है 
रोहित वेमुला की माँ की याद आती है 
उन तमाम माँओं की याद आती है 
जिनके बच्चों ने इस दुनिया को 
जीने लायक बनाने के सपने देखने की सजा पायी
गर्दन उदासी से झुक जाती है
और आपकी?

Wednesday, May 17, 2023

मन की मनमानियां


मन अब मनमानी करने लगा है. सुनता नहीं किसी की. मुझे उसकी यह आदत अच्छी लगती है. ऐसा लगता है अब मेरा मन, मेरा मन होने लगा है. थोड़ा दुष्ट, थोड़ा बेपरवाह. एक रोज मैंने मन से पूछा, 'तुम्हें यूँ अपने मन की करने में क्या मजा आता है?' वो मेरा चेहरा देखकर मुस्कुरा दिया. 'तुम नहीं समझोगी' कहकर वो पाँव पसार कर बालकनी में लुढ़क गया. मैंने उसे लाख समझाया, 'देख, बहुत काम हैं. बहुत ही ज्यादा काम हैं. अभी ये सब नहीं चलेगा. उठो तो जल्दी से.' उसकी मुस्कुराहट और फ़ैल गयी और टाँगे और ज्यादा ही पसर गयीं. फिर? फिर क्या, काम का काम तमाम और महाशय मन की मनमानी चली.
 
कभी-कभी लगता है चारों तरफ का खाली घेरा बढ़ता जा रहा है. अपनी ही सांस की आवाज़ से टकराती फिरती हूँ. लेकिन इस सबमें कोई उदासी नहीं है. बस कुछ नहीं है जैसा कुछ है शायद.

किसी से खूब सारी बातें करने को दिल करता है लेकिन देर तक सोचती रहती हूँ किसे कॉल करूँ? सारे नाम एक एक कर गुजरते हैं ज़ेहन से. फोन नहीं करती. कभी कर लेती हूँ अगर तो दूसरी तरफ घंटी जाते ही भूल जाती हूँ किसे कॉल किया था. स्क्रीन देखती हूँ कि याद आये. तीन चार घंटी जाती है तो सोचने लगती हूँ काश कि न उठाये कोई फोन, काश न उठाये. अगर नहीं उठता फोन तो चैन की सांस लेती हूँ. और अगर उठ जाता है तो फंस जाती हूँ ये सोचकर कि अब क्या बात करूँ? सामने वाले के पास बताने को इतना कुछ है कि ऊंघने लगती हूँ कुछ देर में लेकिन बात का प्रवाह ऐसा होता है कि बीच में रख नहीं पाती.

कोई मैसेज इनबॉक्स में दिपदिप करता है. उसे खोलती नहीं. दीवार घड़ी की सुइयों का खेल देखना ज्यादा भला लगता है.   

देर तक अकेले रह चुकने के बाद सोचती हूँ किसी से मिल लूं. मिलते ही खुद से अजनबी होने लगती हूँ. शब्द कानों से टकराते जाते हैं, सुनाई कुछ भी नहीं देता. अपनी आँखों में खुद को ढूंढती हूँ. वहां एक खिड़की नज़र आती है. खिड़की जिसके बाहर खुला आसमान है, लेकिन खिड़की बंद है. मैं खिड़की खोल भी सकती हूँ लेकिन चाहती हूँ कोई आये और खोल दे. और जैसे ही कोई आने को होता है घबरा जाती हूँ. नाराज होती हूँ, मना करती हूँ...मेरे जीवन की सारी खिड़कियाँ, सारे दरवाजे मैं खुद ही खोलूंगी...

मन मुझे देखता है, देखता जाता है. मुस्कुरा कर पूछता है, 'तुम चाहती क्या हो आखिर?'
मैं अपनी हथेलियों को देखते हुए कहती हूँ, एक कप चाय पीना चाहती हूँ, पिलाओगे.'
वो चादर ओढ़कर सो जाता है. मैं चाय की इच्छा लिए खिड़की के बाहर टंगे आसमान को देखने लगती हूँ.
आसमान खूब नीला है.

Friday, May 5, 2023

रिश्ता बचाने से ज्यादा जरूरी है ज़िन्दगी बचाना


- प्रतिभा कटियार
टूटना हर हाल में बुरा होता है. कोई भी रिश्ता नहीं टूटना चाहिए लेकिन रिश्ते के न टूटने की कीमत व्यक्ति का टूटना तो नहीं हो सकता. इसलिए जब रिश्तों के अंदर इन्सान मरने लगे, जज्बात मरने लगें तो जरूरी है रिश्ते की दहलीजों से पार निकलना और खुद को बचाना. लेकिन अब भी यह समाज सड़े-गले रिश्तों के झूठे सेलिब्रेशन पर निसार रहता है और टूटे, सड़े, बजबजाते रिश्ते से बाहर निकलने की हिम्मत देने के बारे में सोच भी नहीं पाता. ऐसे में अगर कोई स्त्री तलाक भी ले और तलाक के बाद उसे सेलिब्रेट भी करे तो कैसे न होगा समाज के पेट में दर्द. तमिल टीवी अभिनेत्री शालिनी ने तलाक के बाद एक फोटोशूट कराकर जिसमें वो तलाक को मुक्ति के तौर पर देख रही हैं और मुक्ति का जश्न मना रही हैं समाज की सड़ी गली सोच को अंगूठा दिखाया है.
समाज स्त्रियों से अपेक्षा रखता है कि वो अपनी मर्जी से किसी रिश्ते में न जाएँ. जो भी रिश्ता उन्हें पकड़ा दिया जाय उसे पूरी शिद्दत से निभाएं और निभाते-निभाते मर जाएं. मरते-मरते भी उस रिश्ते के झूठे सुख के कसीदे पढ़ना न भूलें.
हमारे आसपास न जाने कितनी ही ऐसी शादियाँ हैं जिसमें लोग एक-दूसरे को बड़ी मुश्किल से झेल रहे हैं. हर दिन कुढ़ रहे हैं. अपनी शादी को कोस रहे हैं. लेकिन उसी शादी की झूठी हैपी फैमिली वाली तस्वीरें भी लगातार पोस्ट कर रहे हैं. ये सुखी दिखने का इतना दबाव जाने कहाँ से आ गया है.
चारों तरफ दुःख, अवसाद, झगड़े, झंझट वाली शादियां नजर आती हैं लेकिन उनसे निकलने की हिम्मत करने वाले लोगों की संख्या अब भी बहुत कम है. एक पूरी उम्र टूटे-बिखरे रिश्ते के लिए बिसूरते हुए गुजार देने वाले लोग भी शादी को बचाने की वकालत करते नजर आते हैं. अच्छे खासे पढ़े लिखे लोग, आर्थिक रूप से सम्पन्न, आत्मनिर्भर लोग भी तलाक से बचे रहना चाहते हैं. और विडम्बना यह कि लोग प्रेम बचे रहने की दुआ नहीं देते, रिश्ता बचे रहने की देते हैं.
प्रेम और सम्मान के अभाव में किसी भी रिश्ते को क्यों बचे रहना चाहिए? और यह अलग होना सुभीते से क्यों नहीं होना चाहिए?
एक स्त्री के लिए तलाक के फैसले तक पहुँचने की राह आसान नहीं होती. यह लड़ाई पहले मन के भीतर लम्बी चलती है और उसके बाद कोर्ट में. जिस रिश्ते के बनने को कभी सेलिब्रेट किया था उससे मुक्ति पाने के लिए कोर्ट की सीढियां चढ़ना आसान नहीं होता. परिवार के लोगों से लेकर, कोर्ट, कचहरी, वकील, जज और आसपास के लोग सब मिलकर संदेह की नज़र से देखते हैं. आपमें दोष तलाशते हैं.
एक स्त्री शादी के 28 साल बाद तलाक लेने पहुंची तो जज ने कहा, ‘अब इतनी उम्र कट गयी है बाकी भी काट लो, क्यों लेना है तलाक? अलग तो रहते ही हो, तलाक लेने की क्या जरूरत है? अब इस उम्र में दूसरी शादी तो करनी नहीं है फिर पड़ी रहने दो शादी?’
ये जो है न पड़ी रहने दो शादी इसी ने जिन्दगी अज़ाब बनाई है. कुछ भी करके शादी को बचा लेने पर तुला है समाज. शादी के भीतर चाहे कुछ बचा हो या न बचा हो शादी बची रहे बस. कभी बच्चों की दुहाई देकर, कभी बुढ़ापे का सहारा कौन होगा की दुहाई देकर और कभी सब लोग क्या कहेंगे की दुहाई देकर.

रिश्ता बचाया जाना यक़ीनन जरूरी है लेकिन अगर रिश्ते में से और जीवन में से कुछ चुनना हो तो बेशक जीवन को ही चुना जाना चाहिए.

https://ndtv.in/blogs/issue-divorce-celebration-saving-life-is-more-important-than-saving-relationship-opinion-pratibha-katiyar-4005984

Thursday, May 4, 2023

मारीना- किताब इन दिनों


-दिनेश कर्नाटक 

कुछ दिनों पहले रूसी कवयित्री मारीना की Pratibha Katiyar द्वारा लिखी जीवनी स्टोरी टेल पर सुनी। सोच रहा था, जल्दी ही इसके असर से मुक्त हो जाऊंगा, लेकिन मारीना लगातार साथ बनी हुई है ठीक ऐसे जैसे वे जीवनीकार के साथ बचपन में पढ़ी कविताओं के रूप में बनी रही।
 
मारीना के जीवन को कैसे देखें ? एक ओर तो उसे उसकी लेखन के प्रति प्रतिबद्धता के रूप में देख सकते हैं, जहाँ वह निर्वासन में चरम कष्टों व अभावों के दौर में भी लेखन से मुँह नहीं मोड़ती। ऐसी कविताएँ लिखती हैं, जिन्हें उस दौर के बड़े लेखक बोरिस पास्तरनाक रिल्के को पढ़ने को भेजते हैं। दूसरा उसका जिया जीवन जिसमें वह अपने तरह से जीने की जिद के साथ जीये चली जाती है और खुद एक न भूलने वाले ऐसे किरदार के रूप में हमारे सामने आती है, जो प्रेम की तलाश में अतिरेकों से पूर्ण संबंध बनाती चलती है।

इस जीवनी को एक पश्चिमी महिला लेखिका की लेखन प्रक्रिया व चुनौतियों को समझने के लिए भी पढ़ सकते हैं। मारीना की जीवनी को एक ऐसे इंसान के जीवन संघर्ष के रूप में भी पढ़ा जा सकता है, जो अपने जीवन को आसान व सुविधाजनक बनाने के लिए दायें या बायें का हिस्सा बनने के बजाय सही का पक्ष चुनना पसंद करता है और इसकी कीमत चुकाता है।

सबसे बढ़कर मारीना की जीवनी को पढ़ते हुए हम दो विश्व युद्धों के बीच शोषण से मुक्ति और बराबरी के दावे के साथ हुई क्रांति की शत्रु समझे जाने वाली रूसी कवयित्री व लेखिका के साथ हुए शत्रुतापूर्ण व्यवहार को देख सकते हैं, जिसने अंततः उसके जीवन को नारकीय बनाते हुए उसे आत्महत्या को मजबूर किया। मारीना के जीवन से गुजरना सिर्फ एक कवयित्री के जीवन के त्रासदीपूर्ण जीवन से गुजरना नहीं इतिहास की अंधेरी तथा यातना पूर्ण लम्बी गली से गुजरना भी है।

Thursday, April 27, 2023

कविता से दोस्ती और उसका कारवाँ


* सिद्धेश्वर सिंह

भाषा ने बहुत छिपाया है मनुष्य को
उसी को उघाड़ने बार-बार
कविता का द्वार खटखटाया है

संसार भर के आचार्यों ,अध्येताओं और कवियों के लिए 'कविता क्या है' एक असमाप्य शेषप्रश्न बना हुआ है और ऐसी उम्मीद है कि यह सवाल सनातन उपस्थित रहेगा।यह अलग बात है कि कविता के उत्स ,उद्गम और उसकी उपादेयता पर इतना अधिक लिखा - कहा गया है कि हर बार लगता है कि कहीं कुछ है जो कि अकथ है और 'कविता क्या है' के सवाल से आगे बढ़कर 'कविता क्यों है' पर बात चली जाती दिखाई देती है।एक समय था जब कविता 'करने' और 'बनाने' की चीज थी।कुछ लोगों के लिए वह 'प्रकट' होने और अनायास फूट पड़ने की चीज भी हुआ करती थी।जाहिर है कि मनुष्य की संगत में कविता का होना बहुत जरूरी था और इसीलिए तमाम तरह की प्रतिकूलताओं के बावजूद वह होती भी थी।सभ्यताएं अपनी सामूहिकता में उससे रोशनी पाती थीं और एक अकेला मनुष्य उसमें अपनी संवेदना का साहचर्य पाता था तथा शरण्य भी।

कविता केवल कवि(यों) का कार्यव्यापार नहीं है।वह केवल कला भी नहीं है और न ही विनोद का एक शाब्दिक उपादान ही।वह एक साथ अभिव्यक्ति और आस्वाद दोनों ही है।वह अपने भावक के माध्यम से अपना वृहत्तर विश्व रचती है और पाठक,श्रोता ,प्रेमी जैसी संज्ञाओं का सहारा पाकर व्यष्टि से समष्टि की ओर अग्रसर होती है।हमारी भाषा में कवि सम्मेलन, मुशायरा ,कवि गोष्ठी ,कवि दरबार,नशिस्त, महफ़िल जैसी चीजें आम रही हैं लेकिन इन सबके बीच हाल के वर्षों में 'कविता कारवाँ' जैसी चीज का होना कुछ अलहदा और अलग है।तो फिर ,यह 'कविता कारवाँ' क्या है? सच पूछिए तो कुछ खास नहीं; यह कविताओं से प्रेम करने वाले मित्रों का का एक ऐसा समूह है जो किसी जगह ,किसी समय एकत्र होकर अपनी पसंदीदा कविताओं की पाठ - प्रस्तुति करते हैं।इसमें बस एक ही शर्त रहती है कि भले ही आप स्वयं कविताएं लिखते हैं लेकिन स्वरचित नहीं किंतु अनिवार्यतः स्वयं की पसंद की कविता की साझेदारी करनी है।साथ ही यह भी कि यदि किसी को कोई कविता सुनानी नहीं है तो भी केवल सुनने का सुख पाने के लिए भी आप इसमें शामिल हो सकते हैं।

निश्चित उगेगा संभावित सूर्य
उस सुबह में जिसके लिए
अँधेरी ज़िंदगी से मैं गया हूँ
रोशन कविता के पास

आज से कोई दसेक साल पहले 'कविता कारवाँ' का जो बीजवपन देहरादून में हुआ था वह अब देश - दुनिया की तमाम जगहों पर पुष्पित - पल्लवित हो रहा है और एक ऐसी बिरादरी का निर्माण हो चुका है जो आपस में एक दूसरे के 'कविता - मित्र' और उनका जो समवेत है उसका ही नाम है 'कविता कारवाँ'।जिस भाषा को हम अपने रोजमर्रा के जीवन में बरतते हैं; जो हमारी अपनी 'निज भाषा' है उसके विपुल साहित्य भंडार में समाहित कविता का जो अकूत कोष है उसमें से चयनित कविताओं के साथ क्रमिक तौर पर जुड़ने की जो सामूहिक चेतना है वही 'कविता कारवाँ' का सर्वप्रमुख दाय है। साथ ही हमारी अपनी भाषा के अतिरिक्त जो हमारी सहभाषाएँ है उनकी और दुनिया भर की तमाम भाषाओं से अनुवाद के माध्यम से कविता का जो इंद्रधनुष बनता है उसका साक्षात्कार होना एक अलग अनुभव है।खुशी की बात है कि 'कविता कारवाँ' के जरिये कविता - मित्रों का जुड़ाव दिनोंदिन विस्तार पा रहा है।

पिछले दिनों हमारे समकाल में 'कोरोना काल' जैसा एक शब्द उभर कर आया है जिसमें अयाचित - अनचाहे एकांत ने इंसान को सचमुच अकेला किया है और सामाजिकता की सक्रियता पर अदृश्य पहरा रहा है।ऐसे कठिन काल में 'कविता कारवाँ' की नियमित होने वाली बैठकों का सिलसिला टूटा था और ऑनलाइन माध्यम से इसके फेसबुक पेज पर हिंदी साहित्य के नामचीन हस्ताक्षरों ने अपनी पसंद की कविताओं को साझा किया।इस कड़ी में अशोक वाजपेयी ,ममता कालिया,अनामिका,नरेश सक्सेना, कृष्ण कल्पित,लाल्टू, बोधिसत्व, प्रियदर्शन,अनुज लुगुन ,प्रताप सोमवंशी,मोनिका कुमार आदि ने अपनी मनपसंद कविताओं का पाठ प्रस्तुत किया।हिंदी बिरादरी के लिए यह एक सर्वथा नया अनुभव था और लीक से हटकर भी।हिंदी की साहित्यिक बिरादरी के लिए यह जानना एक नई चीज थी कि जिनके लिखे को सब पढ़ते हैं आखिर वे किनके लिखे को पढ़ते और पसंद करते हैं।

'कविता कारवाँ' का मंच एक खुला मंच है।इसकी बस एक ही शर्त है कि आपको कविता से प्रेम हो।कहा जाता है कि प्रेम बाँटने से प्रेम मिलता है वैसे ही यह भी कहा जा सकता है कि कविता की साझेदारी से कविता मिलती है और जब हम इस संगत से जुड़ते हैं तो लगता है कि यह एक ऐसी दुनिया है जो कि इसी दुनिया को और सुंदर तथा सहज बनाने के काम में लगी हुई है।तो,यह जो 'कविता कारवाँ' है न उसका सहचर बनिये।अपने स्थान पर ,अपने दायरे में ,अपनी सुविधा से अनौपचारिक तरीके से इसकी बैठकों के काम को आगे बढ़ाइए।कविता से दोस्ती करने वाली बिरादरी को बड़ा ,और बड़ा कीजिए।यकीन मानिए इससे कोई हानि नहीं होगी और लाभ यह होगा कि एक दिन आप स्वयं को अधिक उदार,अधिक संवेदनशील व अधिक समृद्ध पाएंगे। तो , हे कविता मित्र अपने समानधर्मा साथियों की संगत में आपका सहर्ष स्वागत है!

नहीं मिली मुझे कविता
किसी मित्र की तरह अनायास
मैं ही गया कविता के पास
अपने को तलाशता—अपने ख़िलाफ़
कविता जैसा अपने को पाने!
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( सभी कवितांश मानबहादुर सिंह की कविता कविता के बहाने' से लिये गए हैं )

Tuesday, April 18, 2023

यूँ ही साथ चलते-चलते- कविता कारवां



यूँ ही साथ चलते-चलते सात बरस हो गए. पता ही नहीं चला. हाँ, कविता कारवां के सफर को सात बरस होने को आये. जब शुरुआत की थी तब कहाँ पता था कि हम कब तक चलेंगे, कितने लोग साथ चलेंगे. बस इतना ही पता था कि हमें कहीं पहुंचना नहीं था बस साथ चलने का सुख लेना था. अगर विनोद जी कविता के बरक्स इस बात को कहूँ तो 'हम एक-दूसरे को नहीं जानते थे लेकिन साथ चलने को जानते थे.'

'कविता कारवां' यानी एक ऐसा परिवार जहाँ कविता प्रेमी जुड़ते हैं और अपनी प्रिय कविताओं को पढ़ते हैं, उनके बारे में बात करते हैं. इस प्यारे से सफर में जो सात बरस पहले शुरू भले ही देहरादून से हुआ था में देश भर से, दुनिया भर से लोग जुड़ते गए, जुड़ते जा रहे हैं.

अगर आप में से कोई भी अपने शहर में 'कविता कारवां' की बैठकें शुरू करनी हैं तो इनबॉक्स करें. शर्त बस इतनी सी है कि अपनी कविताओं का पाठ यहाँ नहीं होता सिर्फ अपनी प्रिय कविताओं को पढ़ना होता है वो हमें क्यों पसंद हैं इस बारे में बात करते हैं हम. असल में यह सफर कविताओं से प्यार का सफर है...इसे प्यार से ही आगे बढ़ाना है...तो बढ़ाइए हाथ और इस सफर में शामिल होकर इसे आगे बढ़ाइये...

सादर
कविता कारवां परिवार

Sunday, April 16, 2023

एक पूरा दिन है और मैं हूँ



इतवार की शाख से अभी-अभी सुबह उतारी है. एकदम खिली-खिली सी सुबह है. बाद मुद्दत हथेलियों में फुर्सत के फूल रखे हैं. एक लम्बी व्यस्तता के बीच वायरल ने जब धप्पा दिया तो वायरल को शुक्रिया कहा कि यूँ ही दिन दिन भर सामने वाली दीवार को ताकते रहना और चाय पीने की इच्छा और बनाने के आलस से जूझते हुए घंटों बिता देना. इसका भी कोई सुख होता है. देह की हरारत की डोर में स्मृतियों की ख़ुशबू पिरोना.
 
माँ की चिंता कि 'अकेले कैसे करोगी सब?' को सहेज लेती हूँ और माँ को कहती हूँ 'माँ, अकेली कहाँ हूँ. अकेला होना घर में किसी के न होने से नहीं होता.' माँ कुछ समझती नहीं बस चिंता में घुली जाती हैं तो अब आवाज़ में ख़ुशी पिरोकर बात करना आदत बना ली है. हालांकि हूँ भी खुश लेकिन कभी खुश दिखना होने से ज्यादा जरूरी हो जाता है.

बहरहाल, इस सुबह में हरारत नहीं है. एक पूरा दिन है और मैं हूँ. मुस्कुराती हूँ. सोच रही हूँ क्या-क्या कर सकती हूँ. देर तक सो सकती हूँ, कहीं घूमने जा सकती हूँ, चुपचाप पड़े रह सकती हूँ.

कुछ पौधे हसरत से देखते हैं तो उनसे कहती हूँ, 'हाँ आज थोड़ा समय तुम्हारे लिए भी.' वो खुश हो जाते हैं. बालकनी में बैठे कबूतर गुटर गूं कर रहे हैं जैसे कह रहे हों, 'तुम दिन यूँ ही क्या करूँ सोचते हुए बिता दोगी देख लेना.' मैं हंसती हूँ. हाँ सच ऐसा ही तो होता है हमेशा.

इन दिनों चुप की ऐसी आदत हो चली है कि इसकी संगत में मन खिलता है. तो इतवार की इस सुबह में रेखा भारद्वाज गुनगुना रही हैं 'गिरता है गुलमोहर ख़्वाबों में रात भर....'

दोस्तोवस्की क़रीब रखे हैं और सिमोन की डायरी पढ़ने की इच्छा कुलबुला रही है. दिन के हाथों में तसल्ली का तोहफा है. सामने ढेर सारे सूरजमुखी खिले हैं.

हाँ, मैंने अरसा हुआ न्यूज़ नहीं देखी.


Thursday, March 23, 2023

जाऊँगा कहाँ, रहूँगा यहीं


वो दुःख है
जायेगा कहाँ,
रहेगा यहीं
कभी मुस्कान में छुपकर
कभी खिलखिलाहट में
कभी 'सब ठीक है' के भीतर
तानकर सो जाएगा लम्बी नींद
उसकी नींद के दौरान हम
तनिक खुश होंगे
और तनिक सतर्क
कि कहीं लौट न आये फिर से
और एक रोज जब
आईना देख रहे होंगे
हमारी आँखों के नीचे आये
काले घेरों के बीच से
वो झांकेगा
और मुस्कुरा कर कहेगा
मैं कोई सुख नहीं हूँ 
कि चला जाऊँगा   
मैं तुम्हारा दुःख हूँ
जाऊँगा कहाँ
रहूँगा यहीं, तुम्हारे पास. 

Tuesday, March 21, 2023

कैद कबूतर


देर तक अपनी आँखें आसमान में टिकाये रहने के बाद थककर एक कप चाय पीना और उसके बाद खाली दीवार में आँखें धंसा देना अजीब से सुख से भरता है. कोई फोन बजता है तो देखती रहती हूँ देर तक फिर फोन के कटने से ठीक पहले ऑटो मैसेज सेंड करती हूँ,’आई एम बिजी राईट नाव, आई विल कॉल यू लेटर.’ उसके बाद फिर उस कबूतर के बारे में सोचने लगती हूँ जो कल गलती से बालकनी में बंद रह गया था. जब मैं दो घंटे बाद घर लौटी तो उसे बालकनी के बंद शीशे से टकराते देखा. मैं दर्द से कराह उठी थी. ओह...यह कैसे हो गया. ये महाशय कहीं छुप के बैठे होंगे. जाने से पहले आदतन मैंने सारी खिड़कियाँ बंद कर दी थीं. पारदर्शी कांच से आसमान एकदम साफ़ दिख रहा था, बाहर के पेड़ भी, पंछी भी. कबूतर को बार-बार लगता आसमान उसका है वो उस तरफ जाने की कोशिश करता और कांच से टकरा जाता. बालकनी का सारा सामान गिरा पड़ा था. मैंने जैसे ही उसे देखा सीधे बालकनी में गयी और खिड़कियाँ खोल दीं. वो इस कदर डर चुका था कि खुली खिडकियों के बावजूद बाहर नहीं निकल पा रहा था. मैं जो उसे निकालना चाह रही थी, वो मुझसे भी डर रहा था.

मैं चुपचाप अंदर चली आई कि शायद मुझसे डरना कम करे तो शायद सहज हो और निकल सके. मेरी आँखें ये सोचकर नम थीं कि इन दो घंटों में उसे कैसा महसूस हुआ होगा. यह सोचते हुए चाय का पानी चढाया था और एक सिसकी सुनी थी अपनी ही. हम सब कबूतर ही तो हैं. कैद कबूतर. बेचारे कबूतर.

जाने भीतर क्या होगा, शायद कुछ मजेदार होगा की जिज्ञासा लिए एक ऐसे जाल में उलझे हुए जिससे निकलने की राह ही नहीं मिलती. आसमान दिखता तो इतने करीब है जैसे हाथ बढ़ाएंगे और छू लेंगे लेकिन जैसे ही आसमान की तरफ बढ़ते हैं न दिखने वाले मजबूत अवरोध से टकराकर गिर जाते हैं. फिर उठते हैं, फिर टकराते हैं. चोट खाते रहते हैं, कोशिश करते रहते हैं. फिर कोशिश करते-करते थक जाते हैं. एक रोज कोई खिड़कियाँ खोलने आता है तो उससे ही डरने लगते हैं और कोशिश करना छोड़ चुके होने के कारण खुली खिड़की के बावजूद आसमान तक पहुँच नहीं पाते.

कबूतर के टूटे हुए पंख मुझे मेरे ही पंख लगे.

Monday, March 20, 2023

स्त्री कविता और राजनीति


जब किसान
अपने हक़ के लिए 
उतरे होते हैं सड़कों पर
स्त्री लिखती है 
रोटी पर कविता

जब राजनीति 
बो रही होती है 
वैमनस्व के, हिंसा के बीज
स्त्री चूम लेती है
प्रेमी का माथा
और लिखती है प्रेम कविता
 
जब दुनिया भर में 
सरहदों की ख़ातिर
छिड़ रहा होता है युद्ध
स्त्री सात समंदर पार बैठी दोस्त को
झप्पी भेजती है

जब दुनिया भर के लोग
सेंसेक्स पर निगाहें गड़ाये
दिल की धड़कनों को 
समेट रहे होते हैं
स्त्री नन्हे की गुल्लक में
उम्मीद के सिक्के डालती है

तुम्हें लगता है 
स्त्रियों को दुनिया की
राजनीति की समझ नहीं है 
असल में स्त्री के 
राजनैतिक दखल को
समझ पाने की 
तुम्हारे पास नज़र ही नहीं.

Wednesday, March 15, 2023

इच्छा के फूल


सामने वही पहाड़ी थी जिसे हम दोनों साथ बैठकर ताका करते थे. खामोशियाँ खिलती थीं और शब्द इन्हीं पहाड़ियों में फिसलपट्टी खेलने को निकल जाते थे. मुझे याद है वो तुम्हारी इच्छा भरी आँखें और नीले पंखों वाली चिड़िया की शरारत. तुम्हें पता है, तुम्हारी इच्छा के वो बीज इस कदर उग आये हैं कि धरती का कोना कोना फूलों की ओढ़नी पहनकर इतरा रहा है. उस पहाड़ी पर अब भी हमारी ख़ामोशी की आवाज़ गूंजती है. वो पहाड़ी लड़की जिसने पलटकर हमें देखा था और मुस्कुराई थी उसकी मुस्कान अब तक रास्तों में बिखरी हुई है.

बारिश बस ज़रा सी दूरी पर है, तुम आओ तो मिलकर हाथ बढ़ायें और बारिश को बुला लें…🌿

Tuesday, March 14, 2023

सच माइनस झूठ- कहानी पर फिल्म

बातें कितनी ही बड़ी-बड़ी कर लें लेकिन हकीकत यही है कि स्त्रियों को अब भी अपने स्पेस के लिए बहुत मशक्कत करनी पड़ रही है. सुकून से बैठकर एक कप चाय पीना भी जैसे किसी ख़्वाब सा हो. कई बरस पहले ऐसी ही एक कहानी लिखी थी जिसमें एक स्त्री घड़ी भर की फुर्सत के लिए, अपने स्पेस के लिए जूझ रही है और पितृसत्ता की महीन किरचें बीनते हुए लहूलुहान हो रही है. कहानी का शीर्षक था 'सच माइनस झूठ बराबर रत्ती भर जिन्दगी.' कहानी लोगों को पसंद आई. फिर इस पर फिल्म बनना शुरू हुई. फिर कोविड आ गया. पोस्ट प्रोड्क्शन का काम अटक गया. आखिर अब फिल्म बनकर तैयार हुई है और कल 15 मार्च को लखनऊ में इसकी स्क्रीनिंग हो रही है.

मेरी तो सिर्फ कहानी है, सारी मेहनत है फिल्म निर्माण यूनिट की. निर्माता, निर्देशक, अभिनय से जुड़े सभी लोगों को दिल से मेरी बधाई. 

Monday, March 13, 2023

दुनियादारी


जिन्होंने डराया
उन्होंने कहा, 'मुझसे डरो मत'
और मुस्कुराये
 
जिन्होंने रचे प्रपंच
उन्होंने शदीद दुःख जताया
प्रपंच रचने वालों पर

जिन्होंने रची झूठ की इबारतें 
उन्होंने कहा झूठ बोलने से ज्यादा जरूरी हैं
बहुत सारे काम 

जिन्होंने शोर बोया 
उन्होंने शन्ति की तलाश पर 
लिखी कविता 

जिन्होंने काटे वृक्ष 
उन्होंने आंसू बहाए 
हरियाली के कम होने पर

जिन्होंने आज़ादी पर लगाये ताले 
उन्होंने दिए सुंदर भाषण आज़ादी पर 

जिन्होंने हड़प ली दूसरों की रोटी 
उन्होंने भूख को एजेंडा बनाया 
और जीते चुनाव 

और इस तरह जीवन में 
सब 'ठीक ठाक' चलता रहा
सूरज रोज की तरह उगा पहाड़ी पर 
और मुस्कुराया इस खेल तमाशे पर.

Sunday, March 5, 2023

झरती पत्तियों सी मैं


मौसम सुनहरा हो रहा है. सारे रास्ते सुनहरी पत्तियों से ढंके हुए हैं. काम करते-करते निगाह बाहर जाती है और मन शाखों से लहराकर उतरती पत्तियों के संग अटकने लगता है. भटकने लगता है. पत्तियों के गिरने में एक लय है. उनके धरती चूमने का अलग अंदाज है. मीठी सी आवाज है.

हवा चलती है तो जैसे कोई अल्हड़ युवती छन छन करती पायल पहनकर भागते हुए गुजरी हो.

रास्तों से गुजर रही होती हूँ कि हवा का एक बड़ा सा झोंका सुर्ख और पीले फूलों की पंखुड़ियों को उड़ाकर पूरे वजूद को ढंक देता है. मेरी पलकें भीग जाती हैं. जीवन कितना समृद्ध है, कितना खूबसूरत. प्रकृति के जितने करीब हम जाते हैं जीवन के रहस्य खुलते जाते हैं.

ये झरती हुई पत्तियां ये उगती हुई कोपलें इनसे बड़ा जीवन दर्शन क्या है भला. हर यात्रा का एक विराम होता है. उस विराम को कैसे और कितना सुंदर बना पाते हैं बस इतना ही तो रहस्य जानना है. और यह रहस्य हमारी हथेलियों पर रखा होता है हम देख नहीं पाते.

मैं पीले पत्तों को अपना पीला मन सौंपती हूँ. वे मुझे नयी उगती कोंपलों की बाबत बताते हैं.

मैं जीवन से कहना चाहती हूँ कि मुझे पीले पत्तों से और उगती कोंपलों से एक जैसा प्यार है. न कम, न ज्यादा.
वो जो झर रही हैं पत्तियां वो मैं हूँ, वो जो उग रही हैं कोपलें वो मेरे ख्वाब हैं...

Tuesday, February 21, 2023

चलो न मर जाते हैं


'चलो न मर जाते हैं' लम्बी सुनसान सर्पीली सी सड़क पर दौड़ते-दौड़ते थककर बीच सड़क पर पसरते हुए लड़की ने कहा. यह कहकर लड़की जोर से खिलखिलाई. चीड़ के घने जंगलों में जो धूप फंसी हुई थी लड़की की हंसी के कम्पन से वो झरने लगी. धूप का एक छोटा सा झरना लड़की के चेहरे पर कुछ यूँ गिरा कि लड़की का सांवला रंग चमक उठा. जैसे हीरे की कनी चमकती है रौशनी से टकराकर.
लड़की ने फिर से अपनी बात दोहराई, 'चलो न मर जाते हैं'.
लड़के ने उसकी नाक खीचते हुए कहा, 'तू मर जा, मुझे तो अभी बहुत जीना है.' लड़के के चेहरे पर शरारत थी.
लड़की ने उसी अल्हड़ अदा के साथ इतराते हुए कहा,' मेरे बिना जी लोगे?' 
'जी ही रहा था इतने सालों से...'तुम्हारे बिना'...लड़के ने तुम्हारे बिना पर जोर देकर कहा.
'आगे भी जी ही लूँगा.'
'वो जीना भी कोई जीना था लल्लू...' लड़की ने लड़के के हाथ से अपनी नाक छुडाते हुए कहा. और वो फिर से चीड़ के जंगलों में खो जाने को बावरी हो उठी.
'वैसे एक बात बताओगी?' लड़के ने लड़की के पीछे से एक सवाल उछालना चाहा.
लड़की ने हंसते हुए सवाल की इजाज़त दे दी. 
'ये तुम बात-बात पर मर जाने की बात क्यों करती हो? जीना तुम्हें अच्छा नहीं लगता?'
लड़की ने अपने दोनों हाथ कमर पर टिकाकर बड़ी अदा से पीछे पलटकर देखा फिर लड़के की तरफ चल पड़ी. उसके दोनों कंधे अपने हाथों से थाम कर उसने कहा,'मरना और जीना एक ही तो बात है. बिना जिए कौन मरता है भला. बिना जिए तो देह मरती है. जीना सिर्फ सांस लेना तो नहीं. मैं इतना जीना चाहती हूँ इतना जीना चाहती हूँ कि बस मर जाना चाहती हूँ.'
लड़के को कुछ भी समझ में नहीं आया. 
'तुम पागल हो एकदम. कसम से' उसने लड़की के बालों में अटकी पत्तियों को हटाते हुए कहा. 
लड़की ने कहा, 'इस दुनिया को सुंदर बनाये रखना का जिम्मा हम जैसे पागलों के ही हिस्से तो है जनाब. वरना समझदारों ने तो दुनिया का क्या हाल किया है तुम देख ही रहे हो.'
'चलो तो तुम्हें तुम्हारा पागलपन मुबारक.' लड़के ने उठते हुए कहा.
और तुम्हें मुबारक ये रौशनी से भरा लम्हा. लड़की ने लड़के के आगे बंद मुठ्ठी करते हुए कहा. 
लड़के ने जैसे ही उम मुठ्ठी को खोला उसमें रखा धूप का वक्फा बिखर गया.
लड़के की आँखें उस रौशनी से चुन्धियाँ उठीं...लड़की ने हंसते हुए लडके के गालों को चूमते हुए कहा, 'चलो न मर जाते हैं. लड़का मध्धम आवाज़ में बुदबुदाया.'हाँ, चलो न मर जाते हैं.' 

Sunday, February 12, 2023

फ़िज़ूल का प्रेम


जब दुनिया में
हजार मसायल हों
तब प्यार की बात करना
फिजूल ही तो है
हाँ, भला प्यार में डूबे
दो लोग
दुनिया के किस काम के
लेकिन बिना प्यार में डूबे लोगों के
ये दुनिया भी भला किस काम की.

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मामूली सा प्यार
प्यार बहुत मामूली सी चीज़ है
बिलकुल उतना ही मामूली
जैसे दाल में
ठीक-ठीक नमक
जैसे रोटी पर
जरा सा घी
जैसे मजदूर की थाली में
भरपेट खाना
जैसे बच्चों के हाथों में
खिलौने
जैसे आँखों में नींद
नींद में सपने
सपनों में तुम
और तुम्हारा
वो जाते-जाते पलटकर देखना...
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एक रोज खूब भूख लगी
भरपेट खाना खाया
खूब नींद लगी
देर तक सोयी रही
दिन में कई बार चाय पी
बादल थे नहीं आकाश में
लेकिन बारिश की
बाट जोहती रही
आईना देखा नहीं दिन भर
और बेवजह मुस्कुराती रही
फिर देर तक दीवार घड़ी की
सेकेण्ड की सुई की रफ्तार
ताकती रही
कितना सरल सा तो था प्यार.
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एक रोज लड़की ने कहा
‘जा मैं तुझे प्रेम नहीं करती’
यह कहकर वो
देर तलक खिलखिलाई
लड़के ने उसकी खिलखिलाहट को
अपने धानी बोसे में
छुपा लिया.

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सपनों में से
नींदें गुम गयीं
रातों में घुल गयी
सिरफिरी सी एक रात
दिन निकला
लेकिन जाने कहाँ
ठिठका ही रहा
उदास शामें सिमट गयीं
मुस्कुराहटों के आगोश में
बस कि जरा सा
प्यार ही तो हुआ था
और तो कोई बात नहीं थी.

- प्रतिभा कटियार


Thursday, February 9, 2023

तुम्हारा होना


जैसे चिड़ियों को मिलना ऊँची उड़ान
जैसे स्त्रियों को मिलना पूरा आसमान
जैसे पूरा होना धरती पर हर किसी का ख़्वाब
जैसे शीरी का फ़रहाद से मिल जाना
जैसे रेशमा आपा की आवाज़ में
जुदाई नहीं मिलन के गीत गूंजना

तुम्हारा होना
जैसे सदियों से थके जिस्म को
राहत मिलना
और अधूरे ख़्वाबों को मिलना उनकी ताबीर.

Sunday, February 5, 2023

तितली- जीवन की धूप-छाँव के रंग



तितली उपन्यास एक सांस में पढ़ लिया था ऐसा कह सकते हैं लेकिन कुछ भी कहने की बजाय मौन में रहना ज्यादा भला लगा. उपन्यास पढ़ने के बाद जो पहला ख्याल आता है वो यह कि यह उपन्यास मृत्यु के बारे में है लेकिन जाने क्यों मुझे लगा कि असल में यह ज़िन्दगी का उपन्यास है. ज़िन्दगी को थाम के रखने की उस जिजीविषा का जिसमें अवसाद, पीड़ा, बेचैनी शामिल होने लगती है.

तितली उपन्यास को पढ़ते हुए मुझ मारीना बहुत याद आई. नाय्या, मारीना...कार्ल, इरिना.

कोई बात अधूरी छूट जाय तो बहुत दिक करती है यह उपन्यास उसी अधूरी छूटी हुई बात के बारे में है. वो बात जो असल में जिन्दगी थी पूरी.

जीवन क्या है, कितना है. कब कोई जीवन पूरा होता है और कब वो अधूरा रह जाता है. क्या इसका उम्र से कोई लेना-देना है. नहीं जानती, लेकिन इतना जानती हूँ बीच राह में यूँ ही अचानक बिछड़ गए लोग छूट गए लोगों के जीवन में इस कदर रह जाते हैं कि उनका जीवन सच में बहुत मुश्किल हो जाता है.

नाय्या की पीड़ा मारीना की पीड़ा एक जैसी ही तो थी. पीडाएं सहचर होती हैं. वो सच्ची दोस्त की मानिंद साथ हो लेती हैं. किसी भी देश, काल, व्यक्ति की पीड़ा कांधे से आकर टिककर बैठ सकती है. अपने दुःख से, पीड़ा से रिहा होने में कई बार दूसरे की पीड़ा को अपना लेना काम आया है. 

तितली को पढ़ते हुए कई जख्म खुलने लगते हैं, कुछ भरने भी लगते हैं. उपन्यास का पहला हिस्सा दूसरे हिस्से की तैयारी सरीखा है. पूरे वक़्त लगता है कि काफ्का आसपास हैं कहीं. हालाँकि वो उपन्यास में कहीं नहीं है. उपन्यास में बहुत सारे लेखकों का जिक्र है, उनके मृत्यु के बारे में लिखे कुछ अंश हैं. कुछ धूप छाँव सा समां बनता है जैसे जीवन की तैयारी हो रही हो. या शायद मृत्यु की. या शायद लम्हों की. मेरे जेहन में हमेशा से मृत्यु की बाबत सबसे पहले काफ्का का लिखा ही उभरता है फिर कामू फिर नीत्शे लेकिन तितली पढ़ते हुए यह विस्तार बढ़ता जाता है. पढ़ना और जीना दो अलग शय हैं. कुछ भी पढ़ना, किसी का भी लिखा पढ़ना जीने की तैयारी नहीं हो सकता लेकिन जिया हुए का स्वाद पढ़ने के संग जब मिलता है तब समझ तनिक और साफ़ होती है.

मुझसे कोई पूछे कि तितली उपन्यास कैसा लगा तो मैं सिर्फ चुप ही रहूंगी. ‘अच्छा लगा’ कहना मुझे अच्छा तो नहीं लगेगा. हालाँकि यह जरूर है कि इसे पढ़ना अपने भीतर के उन अंधेरों में झांकना है जिन्हें हमने छुपा दिया था. उन जख्मों को तनिक मरहम लगाना है जिसे हम इग्नोर किये बैठे थे. सामना करना है जीवन का, उसके हर रूप का. यह उपन्यास उस एहसास का मीठा स्वाद है जो दूर देश में बैठा कोई व्यक्ति महसूस कर पाता है. एक लेखक जब पाठक होता है और अपने प्रिय लेखक की पीड़ा को अपने भीतर समेट लेता है, उससे मिलने का ख़्वाब उसकी आँखों में दिपदिप करने लगता है.

कोई भी लेखक असल में तो पाठक ही है. तो यह उस उस पाठक के अपने लेखक के प्रति प्रेम की कहानी है. उस कहानी में सात समन्दर पार की यात्रा है, लेखक से हुईं खूबसूरत मुलाकातें हैं और जीवन है.

मुझे इस उपन्यास में शायर का किरदार किसी रिलीफ सा लगा. जैसे तेज़ धूप में पाँव जैसे ही जलने लगते हों शायर की उपस्थिति छाया कर देती हो.

मैं एक स्त्री हूँ और मैंने इसे स्त्री नजरिये से पढ़ते हुए पाया कि क्लाउस की प्रेमिका हो, शायर हो, खुद नाय्या हो कितना कुछ अनकहा रह गया है अभी. कितना कुछ सुनना बाकी है उनसे. लेखक ने उपन्यास भर का सामान जमा किया और जो छूट गया मेरा मन उसमें अटका हुआ है. क्यों समझ से भरी स्त्रियों के हिस्से कोई समझ और संवेदना से भरा पुरुष नहीं आता.

कभी-कभी लगता है कि यह उपन्यास अगर स्त्री ने लिखा होता तब यह कैसा होता? 

लेखक जिद्दी है वो अपने सपनों का पीछा करना जानता है. यह बात इस उपन्यास की ख़ास बात है. यह दो लेखकों की कहानी है, एक पाठक जो लेखक भी है का अपने प्रिय लेखक के प्रति प्रेम की कहानी है. यह कोपेनहेगन की धूप, वहां की हवा, पेड़ और भाषा की कहानी है जिसमें कॉफ़ी की खुशबू घुली हुई है. यह कहानी है इमोशनली एक्स्जास्ट होकर पस्त एक लेखक की यात्रा की. नाय्या की उपस्थिति इन सारी कहानियों का वो सुर है जिस पर सधकर ये सब कहानियां आगे बढ़ती हैं.

लेकिन जाने क्यों लगता है कि बहुत सी कहानियां शेष रह गयी हैं वो जीवन के किसी नए मोड़ पर हमारी बाट जोह रही होंगी. सोचती हूँ छत्तीसगढ़ जाऊं तो शायर से मुलाकात होगी क्या?

किताब में प्रूफ की गलतियाँ अखरती हैं. यूँ भी लगता है कि शायर के पत्रों की भाषा और शैली इतनी परिमार्जित न होती तो शायद और अच्छा होता. यह उपन्यास बहुत से सवाल ज़ेहन में छोड़ता है. इसके पूरा होते ही काफी सारा अधूरापन बिखर जाता और यही इसकी खूबसूरती है.

Monday, January 30, 2023

प्रेम- दो कवितायें



वादियाँ दूधिया कोहरे से ढंकी थीं 
और सूरज नन्ही बदलियों में छुपकर 
लुका छिपी का खेल खेल रहा था 
बसंत हथेलियों पर   
सपनों की कोंपलों खिलने को आतुर थीं 
ठंडे रास्तों पर 
जीने की ऊष्मा बिखरी हुई थी 
जैसे उनींदी आँखों पर 
बिखरा होता है इंतज़ार 
जब तुम आए  
सच में, वक़्त ठहरा हुआ था हथेलियों पर. 

भरोसा और उम्मीद 
आते हुए प्रेमी के चेहरे पर 
प्रेमिकाएं तलाशती हैं भरोसा 
और जाते हुए प्रेमी की पीठ पर 
लौट कर आने की उम्मीद.

Thursday, January 26, 2023

जब बसंत आता है...



जब बसन्त आता है
तब बसन्त कहाँ आता है
वो तो आता है तब
जब आती है मिलने की आस
जब खिलते हैं मन के पलाश
जब भरोसे पर बढ़ता है तनिक और भरोसा
जब टूटने से बच जाता है कोई ख़्वाब
जब यह धरती बच्चों की खिलखिलाहट से
गूँज उठती है
जब प्रेयसी के माथे पर सजती है
सूरज की पहली किरन

जब बसंत आता है तब कहाँ आता है बसंत
वो तो आता है तब जब आती हैं 
तुम्हारे आने की आहटें...

Sunday, January 22, 2023

तितली-मानव कौल


हम अमरकंटक गए थे तितलियाँ देखने लेकिन वो मुझे मिली घर में ही. जब लौटकर आई तो देखा ड्राइंगरूम में लगे पाम के पेड़ में तितली ने जन्म लिया है. उसका नाम हमने सोना रखा. दो दिन बाद सोना ने अपने जन्म की टहनी छोड़ी और कमरे में टहलना शुरू किया. जब भी दफ्तर से लौटती वो मुझे नयी जगह पर बैठी मिलती. उसके पंख बेहद चमकीले थे और चाल ठीक वैसी ही जैसे बच्चे सीखते हैं चलना.

एक रोज जब मैं ऑफिस में थी बेटू का फोन आया. उसकी आवाज़ में चहक थी. उसने हँसते हुए बताया ‘तुम्हारी सोना उड़ गयी...’ मैंने पूछा, ‘कहाँ’ उसने कहा ‘उड़कर खिड़की से बाहर चली गयी.’ वो देर तक हंसती रही.

उस रोज जब मैं वापस लौटी तो सोना को न पाकर उदास थी. तब बेटू ने कहा, ‘वो तितली है, उसे जंगल में ही जाना चाहिए.’ मैंने इस बात को सुना और अपने भीतर सहेज लिया.

कानों में न जाने कितनी तितलियाँ पहनीं हैं मैंने, उनमें से न जाने कितनी उड़ गयीं. कलाई पर तितली का टैटू बनाने की इच्छा मन में कबसे दबाये हूँ. लेकिन इन सब बातों का कोई कनेक्शन नहीं उस तितली से जो इस वक़्त मेरे हाथ में है. मानव कौल की तितली. मानव के लिखे में भी तितली का जिक्र बार-बार पहले आता रहा है लेकिन इस तितली के रंग अलग हैं, उड़ान अलग है.  

मानव का लिखा मुझे इसलिए भर प्रिय नहीं कि वो बहुत अच्छा लिखते हैं बल्कि इसलिए कि मानव का लिखा हमेशा, हर उलझन में, हर बेचैनी में अपने भीतर आने की जगह देता है. और मेरे भीतर कुछ बदलने लगता है, कुछ सहज होने लगता है. शायद यही कारण है कि मैंने उन्हें कई-कई बार पढ़ा है, सुना है. हर बार कुछ नए की ध्वनि के साथ.

तितली उपन्यास का मुझे तबसे इंतज़ार था जब यह लिखे जाने की यात्रा में था, या शायद तबसे जब मानव इस उपन्यास के रियाज़ के लिए पहला ‘स’ साध रहे थे.

उस रोज ढेर सारे कामों वाले थके से चिड़चिडे से दिन के बाद जब कार में बैठी तो ड्राइवर ने एक पैकेट दिया. मैंने अनमने मन से पैकेट ले लिया. देखा तो हिन्द युग्म दिखा. ओह, यह तो तितली है...मन चिहुंक उठा. अचानक दिन का सारा चिडचिडापन फुर्रर हो गया.

जाने क्यों लेकिन बहुत दिनों से लग रहा था कि इस वक़्त मुझे जो पढ़ने की जरूरत है वो तो अभी लिखा जा रहा है. और अब वह लिखा हुआ मेरे हाथों में था. उस रोज दोस्तों की पार्टी थी घर में लेकिन मैं होकर भी उसमें शामिल नहीं हो पा रही थी. मैं तितली की खुशबू में थी. दोस्त ने कहा, ’इतनी खुश तो तुम अपनी किताब आने पर भी नहीं थी.’ मैं हंस दी. दोस्त सच कह रहा था.

मैंने एक धुकधुकी के साथ किताब खोली और नाज़ा की वो कविता पढ़ी जो किताब की शुरुआत में है. अपनेपन की मिठास में डूबी सादी, सरल कविता. मैंने उसे एक ही बार में चार पांच बार पढ़ा. एक लेखक और एक पाठक के बीच का अपनापन, एक लेखक का दूसरे लेखक के बीच का अपनापन. कविता के शब्दों में जो तरलता है उसमें वही आकर्षण है जो झरने के पानी का होता है.

मैंने किताब सिरहाने सजाई और सो गयी. किताब मेरे साथ हर वक़्त रहने लगी. लेकिन जाने क्यों मैं उसे पढ़ नहीं रही थी. पलट रही थी. क्यों नहीं पढ़ रही थी पता नहीं. शायद पानी के किनारे बैठी थी और छलांग लगाने से हिचक रही थी. मैंने इसका पहला पैराग्राफ कम से कम 7 या 8 बार पढ़ा और उसके बाद किताब बंद कर दी.

शायद मैं जानती थी कि क्या होने वाला है, शायद मैं नहीं जानती थी कुछ भी...

शनिवार की रात देर तक मैं तितली को सिरहाने रखे उसे पढ़ना टालते हुए एक बेकार सी वेब सीरीज देखती रही. कुछ दोस्तों से बात करती रही और सोने की तैयारी करने लगी. मन उलझा हुआ था, थोड़ा उदास था तो मानव का एक पुराना इंटरवियु सुनने लगी. उसे सुनते हुए जाने क्या हुआ कि मैंने पाया कि मैं तितली खोलकर बैठी हूँ. अब मानव का इंटरवियु नेपथ्य में चला गया. तितली सामने उड़ने लगी.

मैं नाज़ा के बारे में मानव से सुन चुकी थी. नाज़ा को नेट पर सर्च किया और देर तक उन्हें खंगालती रही. कुछ किताबें ऑर्डर करने की लिस्ट बनाई. जिनमें सिमोन की A very easy death भी शामिल हुई.

किताब बेहद इंटेंस है. एक किताब में न जाने कितनी किताबें हैं. मृत्यु की बाबत बात करना जितना मुश्किल होता होगा शायद मृत्यु उतनी ही सरल होती है. जैसे देह कोई डाल हो और जीवन कोई तितली. एक रोज अचानक उठकर खिड़की से बाहर, फुर्रर्र...

मैंने मृत्यु की बाबत काफ्का का लिखा जब पढ़ा था तब ऐसा लगा था कि मृत्यु से प्रेम होने लगा है. तितली पढ़ते हुए काफ़्का बेतरह याद आ रहे हैं.

बहरहाल मध्य रात्रि तक तितली के मध्य में पहुंचकर बेमन से किताब बंद करके सोने की कोशिश करने लगी. देर तक नाज़ा, कार्ल, शायर और देवदार सपने में घूमते रहे.

ऊपर पहाड़ों पर बर्फ पड़ी है, देहरादून में मध्धम धूप उग रही है. चाय पीते हुए मैं कार्ल के बारे में सोच रही हूँ, नाज़ा के बारे में सोच रही हूँ.

इति, उदय, कैथरीन, जंग हे ऐसा लग रहा है सब मेरे साथ हैं इस यात्रा में. नाज़ा के गले से लिपट जाने की इच्छा से भर उठी हूँ और तितली को गले से लगा लेती हूँ.

तितली पढ़ना शुरू करने से पहले जो बेचैनी थी वो अब नहीं है. एक वाक्य रात भर किसी सिम्फनी की तरह बजता रहा वो इस सुबह का हासिल है. ’जो हम चाहते हैं वो एक बार पा जाएँ तो उसके बाद सारा जीवन कितना सुखद बीतेगा. पर जो चाहते हैं उसका पाना सबसे बड़ी त्रासदी है...’

किताब के बारे में तफसील से लिखूंगी बाद में अभी तो खुद को सहेज रही हूँ इसे पढ़ते हुए. यूँ लग रहा है कि बस बिखरने ही वाली थी कि किसी ने हाथ बढ़ा दिया है...

Monday, January 16, 2023

जीने की तलब


हथेलियाँ फैलाई थीं तो आसमान का एक टुकड़ा उतर आया था हथेलियों पर. धूप और बारिश ने मिलकर आसमान के उस सुनहरे टुकड़े को और भी निखार दिया था. लड़की उसे देर तक देखती रही. उसने हथेलियाँ बंद कर लीं, और लम्बी सांस ली. आसमान के उस टुकड़े को मुठ्ठियों में भींचे वो चल पड़ी थी. 

पास बहती नदी ने उसे देखा और पूछ बैठी, 'आसमान हथेली में लिए हो फिर भी उदास हो?' लड़की ने अपनी गीली हंसी को छुपाते हुए कहा, 'हाँ क्योंकि मुझे आसमान का टुकड़ा नहीं पूरा आसमान चाहिए...' यह कहकर लड़की जोर से हंसी. इतनी जोर से, इतनी जोर से कि क़ायनात घबराकर उसे देखने लगी. पेड़ों से पत्ते झरने लगे, परिंदे आसमान में उड़ते-उड़ते ही ठहरने को हो आये उन्होंने अपनी रफ्तार इतनी धीमी कर ली कि इस हंसी में डूब सकें. 

नदी समझ गयी. उसने लड़की को पास बिठाया, उसे गले से लगाया. उसके सूखे होंठों पर थोड़ी नमी रखी और कहा,'जानती हूँ तेरी ख्वाहिश, तू बहुत जीना चाहती है न?' लड़की ने सर झुकाकर कहा, 'शायद मर ही जाना चाहती हूँ इतना...' इतना कहते-कहते लड़की के होंठों पर मुस्कान तैर गयी थी.

बिना जिए कौन मरता है पगली. देह का जीना क्या और मरना भी क्या. वो तो संसार का चक्र है.

लड़की ने नदी में पाँव डाले हुए ही मुठ्ठी में बंद आसमान से कहा, 'तुम्हें घर ले चलूं? सिरहाने रखूंगी. भाग तो न जाओगे?' लड़की की नर्म हथेलियों में रखे-रखे आसमान ऊंघने लगा था. उसकी बात सुनकर मुस्कुरा उठा और बोला, 'वहीं जहाँ, मोगरे की खुशबू, सावन की बरसातें, पलाश की दमक, सरसों की खिलखिल, राग भैरवी,आम की बौर रखी है...?

लड़की ने हैरत से उसे देखा, 'तुझे ये सब कैसे पता..?

'मैं तेरे हिस्से का आसमान हूँ, मुझे कैसे पता नहीं होगा.' आसमान ने मुस्कुराकर कहा. सामने जो सरसों की पीली चादर बिछी थी वो लहरा उठी. स्कूल जाते बच्चे लड़की को देखकर हाथ हिलाने लगे. नदी की आवाज़ में लड़की की तमाम उदासी गुम होने लगी.

तभी लड़की ने महसूस किया कि किसी ने उसकी आँखें मूँद ली हैं. उसकी बंद आँखों ने सुना, 'मैं तुम्हारा आसमान हूँ, हमेशा तुम्हारे साथ.'

लड़की की रुलाई फूट गयी...यह सुख की रुलाई थी इसमें मौसम की खुशबू थी. खिलने वाले पलाश और आने वाले बसंत की आहट थी. उसकी जीने की तलब और बढ़ गयी थी.

सूरज उस रोज जरा देर से आया था...

Monday, January 2, 2023

नया बरस नया संग्रह


मेरे लिए अपनी कविताओं के बारे में बात करना सबसे मुश्किल होता है जबकि अपनी पसंद की, प्रिय कवियों की कविताओं के बारे में घंटों बात कर सकती हूँ. अपनी कविताओं के बारे में इतना ही लगा हमेशा कि इन्होने मुझे ढेर सारे अनजान लोगों का दोस्त बना दिया है. अपनी गढ़न को बनाये रखने के लिए मैं इन कविताओं के सम्मुख सजदे में रहती हूँ इसलिए नहीं कि ये श्रेष्ठ कविताएं हैं नहीं, बल्कि इसलिए कि इन्होंने मुझे सच्चे दोस्त की तरह जीवन के हर मोड़ पर सहेजा है. मेरी भीतरी गढ़न की सहयात्री बनी हुई हैं.

दोस्तों के इसरार ने ढेर सारे संकोच के बीच थोड़ी सी हिम्मत दी और ज्यादा जिम्मेदारी जिसके चलते पिछले बरस कविता संग्रह ‘ख़्वाब जो बरस रहा है’ प्रकाशित हुआ. उस संग्रह के लिए कवितायें चुनना मुश्किल काम था. जब ‘न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन’ ने प्रस्ताव दिया ‘समकाल की आवाज़’ में शामिल होने का तो फिर वही संकोच सामने आ खड़ा हुआ.

उन सबके प्रति आदर व प्रेम से भरी हुई हूँ जिन्होंने मेरे लिखे में कुछ ढंग का देखा, हौसला बढ़ाया. जिन्होंने मुझे ढूंढकर पढ़ा. दोस्तों में साझा किया. जिन्होंने अस्वीकार किया, उपेक्षित किया उनके प्रति ज्यादा आभारी हूँ कि उन्होंने बताया है कि अभी बहुत कुछ सीखना है, जीने की बाबत क्योंकि जीना जितना सरल और स्पष्ट होता जायेगा कविता अपने आप उतनी ही बेहतर होती जायेगी.

ये कवितायेँ मेरा ही अक्स हैं. इनमें जो सुधार संभावित है वह असल में मेरे भीतर होने वाले सुधार की संभावना है और जिसके प्रति एक सजगता हमेशा मेरा हाथ थामे रहती है. अपना होना आपसे साझा करते हुए अनजानी उत्सुकता और संकोच से घिरी हूँ. अब तक की यात्रा इस संग्रह में सहेज आगे की यात्रा पर निकलने की तैयारी थोड़ी आसान होगी ऐसी उम्मीद है.

तो अब यह आप सबको सौंपती हूँ.
संग्रह amazon पर उपलब्ध है.
लिंक यह रहा- https://www.amazon.in/PRATIBHA-KATIYAR-CHAYANIT-KAVITAYEN/dp/8196069219/ref=sr_1_fkmr0_2?crid=2N81BJHBM57YB&keywords=pratibha+katiyar+in+books&qid=1672670227&sprefix=pratibha+katiyar%2Caps%2C478&sr=8-2-fkmr0