अदबी ख़ुतूत : ख़त इमरोज़ के अमृता के नाम :
ये ख़त उन दिनों के हैं जब अमृता और इमरोज़ के दरम्यान कुछ नाराज़गी के बादल घिर आये थे। इमरोज़ अमृता को आशी कहकर पुकारते थे और अमृता उन्हें जीती कहती थीं। ख़तों के संबोधन इन्ही नामों से हैं।--------------
३/११/६०
सुनो,
टू लव समबडी इज़ नॉट जस्ट अ स्ट्रॉन्ग फ़ीलिंग। इट इज़ अ डिसीज़न, अ ज़जमेंट।
मैं आज भी सिर्फ तुम्हें ही बता सकता हूँ और बता रहा हूँ कि मैं कितना बेआराम हूँ और किसी की समझ में नहीं आ सकता।
चाहे तुम्हें इस समय मेरा कुछ भी सुनाई न दे पर मैं किसे बताऊँ।चाहे हक कहीं दूर जा बैठा है, बेमायनी होकर शायद इस ख़त की तरह बेजान।
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१२/११/६०
वो दिन
वो रातें
वो तुम
वो मैं
वो तुम्हारी बातें
वो मेरी अमानतें
वो मेरे लम्हे
क्या पता था मेरा जीती ही ले जाएंगे
मेरा चैन मेरा हौसला सब कुछ ले जायेंगे
पर मैं तुम्हारी तरह ख़ामोश नहीं रहूंगा
मैं अपना सब कुछ ले जाने वाली को दिलेरी की हद तक, हिम्मत की हद तक, ज़िन्दगी की हद तक, नज़र की हद तक, तसव्वुर की हद तक खोजूंगा।
खोजकर ले आऊँगा।
नसीब के लिए भटकने वाला
जीती
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१४/११/६०
स्टूडियो साफ़ कर रहा हूँ
छोटी मेज पर रखी हुई तुम्हारे पोर्ट्रेट को पोंछते हुए हाथ रुक गए। आँखें ठहर गयीं।
तस्वीर की तरफ देखता ही रहा जिसे बनाकर कितना गर्व का अनुभव करता था।
पर आज आर्टिस्ट खुद, उस तस्वीर का क्रिएटर, तस्वीर के आगे, अपने क्रिएशन के आगे झुक गया।
अब मैं उस तस्वीर से आँखें नहीं मिला पा रहा।
पर मैं रोज उसे पूजता हूँ। मेरी पूजा न जाने कब क़ुबूल होगी।
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२१/११/६०
तस्सवुर की खिड़की से तुम्हें देख रहा हूँ।
तुम ख़ामोश हो, सर झुकाए हुए।
तुम तो तब भी मुझसे सब बातें कर लिया करती थीं, जब मैं तुम्हारा कुछ भी नहीं लगता था,
अब तो मैं तुम्हारा कुछ हूँ
जन्म से तुम्हारा सारा अपना
सिर्फ कुछ दिनों से कुछ ग़ैर
यह ख़ामोशी एक अँधेरे की तरह मेरे तसव्वुर पर छा जाती है। कई बार कितनी कितनी देर तक खिड़की में से कुछ दिखाई नहीं देता। कब तुम नज़र भरकर मुझे देखोगी और कब मेरी रोशनी मेरी तरफ देखेगी।
कब मैं और मेरा तसव्वुर रोशन होंगे।
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२१/११/६०
मेरे प्यार,
इस चुप के अँधेरे में मैं और नहीं रह सकता। २८ तारीख, सोमवार सवेरे साढ़े दस बजे मैं तुम्हारे पास आ रहा हूँ। तुम्हें अपनी रोशनी को खुद लेने के लिए आ रहा हूँ।
अपनी ख़ुदी भी तुम्हारे बगैर बेजान सी लगती है। बेमानी लगती है।
जो कुछ भी हूँ, अच्छा बुरा तुम्हारा हूँ।
तुम जो कुछ भी हो मेरी हो।
मेरी अमानत, मेरी खूबसूरत शाम।
जहाँ भी रहना चाहो, मुझे साथ गिन लेना।
अलग अब कोई नहीं रहेगा।
तुम्हारा समय
जीती
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आशी,
तुम्हारी नज़्में, तुम्हारी कहानियां, तुम्हारे उपन्यास, तुम्हारी फाइलें, तुम्हारी साड़ियाँ, तुम्हारी कमीजें, तुम्हारी चूड़ियाँ, तुम्हारे पर्स, तुम्हारी तस्वीरें, तुम्हारा जीती, अधूरी बनियान (बुनी हुई) हम सब अधूरे आ रहे हैं।
सवेरे साढे दस बजे डीलक्स से हम नई दिल्ली स्टेशन पर पहुँच रहे हैं। तुमसे मिलने के लिए, देखने के लिए इंतज़ार करेंगे। खुद आकर हमें ले जाना। जब तक तुम नहीं आओगी हम वहीं स्टेशन पर तुम्हारा इंतज़ार करेंगे।
मैं जीतीए कभी तुम्हारा सारा अपना, अब एक अजनबी तुम से मुख़ातिब है।
कभी तुमने बम्बई आते समय तीन दिन मांगे थे, आज मैं मांग रहा हूँ।
चाहे तीन दिन दो
चाहे तीन पहर
चाहे तीन घंटे
या चाहे तीन मिनट ही
जीती
(उमा त्रिलोक जी की किताब खतों का सफ़रनामा से साभार)
प्रस्तुति - प्रतिभा कटियार