असहमतियों को इतना व्यापक स्पेस उन्हीं के पास था. उस स्पेस में वो असहमतियों के सौंदर्य को निखारते थे. मेरी पहली कहानी हंस में ही छपी थी. उस छोटी सी उम्र में मुझे पता भी नहीं था कि कहानी क्या होती है. अख़बारों के लिए लिखते-लिखते जाने कैसे एक कहानी लिख गयी. अख़बार में छप गयी तो हौसला देने वालों ने चढ़ा दिया। अगली कहानी 'हंस' में भेज दी. राजेंद्र जी से मिली नहीं थी तब तक. बस उनके सम्पादकीय पढ़ती थी. मेरे कॉलेज के दिनों की बात है. कहानी भेजने के पांच दिन बाद ही उनका पीला पोस्टकार्ड आया. कहानी में कुछ सुधार बताये थे. फिर वो कहानी स्त्री विशेषांक में छप गयी.
(नए लेखकों के साथ इतनी मेहनत करने वाला दूसरा संपादक भी मिला तो राजेन्द्र नाम का ही. राजेन्द्र राव.)
उसके बाद उनसे मुलाकात हुई. कथाक्रम में. लखनऊ में. अपनी कहानी 'हासिल' को लेकर वो उन दिनों विवादों में थे. वो मेरी उनसे पहली मुलाकात थी और खूब नाराजगी भरी. अगले दिन जो छ्पा वो कड़वा ही था. लेकिन राजेन्द्र जी ने अगले दिन भी पूरी आत्मीयता से ही बात की. मेरी नाराजगी कायम रही. उसके बाद मैंने उनके कई इंटरव्यू किये, पॉलिटिकल, सोशल, इकोनोमिकल लेकिन साहित्य पर कम ही बात की. मुझे याद है मैंने उनका एक लम्बा पॉलिटिकल इंटरव्यू धनबाद में लिया था, वीरेंद्र यादव जी के साथ. उनके पास समाज का एक मॉडल था. उनकी नजर से देखने पर चीज़ें काफी साफ़ नजर आती थी-मैंने उनसे कहा भी था कि मुझे आपकी कहानियों से ज्यादा अच्छा आपके सम्पादकीय पढ़ना लगता है.
मेरी उनसे आखिरी बात जागरण के लिए किये गए इंटरव्यू के दौरान ही हुई थी जिसमे उन्होंने साहित्य और पत्रकारिता के मेल को लेकर बात की थी और मार्खेज को इसका सबसे बड़ा उदाहरण बताया था.
हजार असहमतियां रही हों लोगों की लेकिन इस बात से कोई असहमति नहीं कि उनका जाना बहुत बड़ा नुक्सान है. सब लोग उनके आगामी सम्पादकीय का इंतज़ार कर रहे थे और वो चुपचाप चले गए.