Sunday, August 28, 2022

रूमर्स ऑफ स्प्रिंग- फराह बशीर



वीकेंड जैसा कुछ कभी फील नहीं हुआ. हाँ, कभी इतवार का कोई सिरा हाथ में मिला तो उस सिरे पर अटके सुख को अकोर लिया. 'लोग जो मुझ में रह गए' खत्म होने पर एक उदासी बनी हुई थी जिसे बीच-बीच में रिल्के की कवितायें और काफ्का के ख़त कम करते रहे. इस बीच जाने क्यों मुझे लोर्का की बहुत याद आई. एक समय में लोर्का की कवितायें हमेशा साथ रहने लगी थीं. बहरहाल, कल जब दफ़्तर से लौटी तो एक मुस्कान खिल गयी चेहरे पर. फराह बशीर की 'रूमर्स ऑफ स्प्रिंग' आ चुकी थी.

मुझे इस किताब का शिद्दत से इंतज़ार था. मानव कौल ने 'रूह' में इसका ज़िक्र किया था तबसे इसे पढ़ना था. किताब एक दोस्त ने भेजी है हालाँकि यह ऑर्डर भी कई बार कैंसिल होने के बाद फाइनली पहुंचा है.

फराह बशीर कश्मीर में जन्मी और पली-बढ़ी लड़की की कहानी है. फराह Reuters में फोटो जर्नलिस्ट रह चुकी हैं. यह उनकी पहली किताब है.

मैं पहले चैप्टर को पढ़ते हुए सिहर उठी हूँ. हम मनुष्य हैं और मनुष्य होते हुए हम कितनी लेयर्स में कैद हैं. खुद को भी देख नहीं पाते इतने परदे हैं हमारी आँखों पर. 1994 के दिसम्बर की एक बेहद ठंडी शाम की स्मृति में एक दादी की स्मृति है, उनके जीवन के अंतिम पलों की. स्मृति है कर्फ्यू वाले शहर की जिसमें इम्तिहान की तैयारी करती और एक बच्ची है. स्मृति है पास के बाजार में अपनी पसंद के बाल कटाने गयी दो किशोरियों की और अचानक बाजार के शोर के सन्नाटे में बदलने की. उस ऐलान की कि, 'अवाम से अपील की जाती है कि अपने घरों से बाहर न निकलें, शहर में शूट एट साइट' का ऑर्डर है. स्मृति है दो बच्चियां के एक-दूसरे का हाथ थामे घबराए क़दमों से बहते आंसुओं के बीच किसी तरह जिन्दा घर पहुँचने की हड़बड़ी और दहशत की.

घर में जब ये पहुँचती हैं तो घर वालों के चेहरे पर खौफ, सुकून, दहशत का मिला जुला मंज़र देखने को मिलता है खबर आ रही थी कि बाजार में एक 12 बरस की लड़की मार दी गयी है. घरवालों को यकीन हो चला था हो न हो यह 12 बरस की लड़की उनकी फराह ही है. तो फराह को जिन्दा देखना...अज़ब हूक सी उठती है इस हिस्से को पढ़ते हुए.

चैप्टर खत्म होने के बाद मैं घरवालों के उस सुकून, बाज़ार में घबराई उस बारह बरस की बच्ची जो सकुशल घर पहुँच गयी से ज्यादा सोच रही हूँ उस 12 बरस की बच्ची के बारे में जिसके मारे जाने की खबर थी...कौन थी वो बच्ची...

सबके पास उनका एक सच है, और यक़ीनन वो सच ही है. बस बात यह है कि इन सच के साथ खिलवाड़ करने वाले लोग ज्यादा शातिर हैं...और हम शायद जरूरत से ज्यादा मासूम...

एक बार फिर कश्मीर यात्रा पर हूँ इस बार फराह बशीर के साथ.

शुक्रिया मानव, इस किताब को सजेस्ट करने के लिए.

झिंझोड़ के जगाती हैं जसिंता की कवितायें...



- Pratibha Katiyar

जब मेरा पड़ोसी
मेरे खून का प्यास हो गया
मैं समझ गया
राष्ट्रवाद आ गया.
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वे हमारे सभ्य होने के इंतजार में हैं
और हम उनके मनुष्य होने का.
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पहाड़ पर लोग पहाड़ का पानी पीते हैं
सरकार का पानी वहां तक नहीं पहुँचता
मातृभाषा में कोई स्कूल नहीं पहुँचता
अस्पताल में कोई डाक्टर नहीं पहुँचता
बिजली नहीं पहुँचती इंटरनेट नहीं पहुँचता
वहां कुछ भी नहीं पहुँचता


साब! जहाँ कुछ भी नहीं पहुँचता
वहां धर्म और गाय के नाम पर
आदमी की हत्या के लिए
इतना ज़हर कैसे पहुँचता है?
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किसी आदिवासी गाँव से गुजरती कविता में
कुछ लोग ढूंढ रहे हैं
नदी में नहाती किसी आदिवासी स्त्री की नंगी पीठ
एक कपड़े में लपेट अपनी पूरी देह
भीगी-भीगी सी घर लौटती कोई जवान लड़की


बंद करो कविता में ढूंढना आदिवासी लड़कियां.
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जबसे इन कविताओं से गुजरी हूँ स्तब्ध हूँ, मौन हूँ. खुश हूँ ऐसा नहीं कह सकती लेकिन एक सुकून सा तारी है मन पर. जैसे बाद मुद्दत वह मिला हो जिसकी कबसे तो तलाश थी. मैं जसिंता केरकेट्टा की कविताओं की बात कर रही हूँ. यूँ जसिंता की कवितायें फुटकर पढ़ती रही हूँ. उनकी पोस्ट भी पढ़ती रहती हूँ और हर बार वो हाथ थाम लेती हैं मानो कहती हूँ, थोड़ी देर ठहरो न, जो पढ़ा है उसके संग.

जब मैंने इन कविताओं के बारे में लिखने का सोचा तब असल में मैंने इन्हें पढ़ने के बारे में ज्यादा सोचा. मुझे इन्हें पढ़ते हुए कैसा लगा. कविताओं पर, समीक्षा या आलोचकीय टिप्पणी करने की मेरी कोई हैसियत नहीं. मैं बस अपनी पाठकीय यात्रा और अनुभवों की बाबत लिख सकती हूँ. अक्सर मैं वही करती हूँ.

इन दिनों चारों ओर मानो कविताओं का सैलाब आया हुआ है. बहुत सारी अच्छी कवितायें भी होती होंगी ही. लेकिन मेरे लिए कविता मतलब मेरे संग उसका ठहरना. ईमानदारी से कहूँ तो वैभव विहाग की कविताओं के बाद जसिंता की कविताओं को ढूंढकर पढ़ने की इच्छा होती है. कविता पढ़कर किताब पलटकर रख देती हूँ लेकिन कविता साथ चलती रहती है. ये कवितायें नसों को तड़का देती हैं, जैसे देह पर खरोंचें उभर रही हों पढ़ते हुए, कभी गुस्सा, कभी ग्लानि और अक्सर प्रतिरोध के भाव आ घेरते हैं.

सोचती हूँ कविता क्यों लिखी जानी चाहिए आखिर? जसिंता की कवितायें पढ़ते हुए महसूस होता है कि ठहरे हुए समय में प्रतिरोध का कंकड़ फेंकने का काम तो कविता कर ही सकती है. खाये अघाए संसार की आँखों के आगे उन दृश्यों को सामने लाने का काम जो जानबूझकर छुपा दिए गये.

मैं निजी तौर पर जसिंता को नहीं जानती. उनकी कविताओं के जरिये जानती हूँ और वो मुझे बेहद सच्ची, ईमानदार और निर्भीक लगती हैं. वो जो लिखती हैं वो उनका जिया हुआ देखा हुआ, महसूस किया हुआ सच है. उस सच की चमक उनकी कविताओं में है. उस सच से उपजे सवाल, अन्तर्द्वन्द्व इन कविताओं में है. मेरे लिए कविता का असल अर्थ यही है कि वो हमारी आरामतलब चमड़ी को थोड़ा पिघला दे, थोड़ी बेचैनी बहुत सारे सवाल ज़ेहन में पैदा करे. भाषा विन्यास, शैली, बुनावट सब उनकी कविताओं के सच के आगे घुटने टेक देते हैं. ऐसा कहने का अर्थ यह नहीं कि शैली, विन्यास और बुनावट में ये कहीं भी कम हैं बस कि उसके लिए सायास प्रयास नहीं दिखता कवि की तरफ से. उनके सच की अपनी एक अलग ही शैली है.

ये कवितायें बार-बार पढ़ी जानी चाहिए और खुद से सवाल किया जाना चाहिए कि आखिर हम लिखते क्यों हैं? मेरे लिए जसिंता की कवितायें उस उम्मीद की कवितायें हैं जिसके सहारे इस बीहड़ समय के सामने हिम्मत से खड़ा हुआ जा सकता है. अपनी बात को मुखरता से कहा जा सकता है.

'ईश्वर और बाज़ार' कवि का तीसरा संग्रह है और यकीनन उनके पहले दोनों संग्रहों 'अंगोर' और 'जड़ों की जमीन' की तरह यह भी की पढ़ने वालों की आत्मा को तनिक चमक देगा, कुछ सवालों से भरेगा और सोचने पर मजबूर करेगा.

सिर्फ कुछ कविताओं के अंश और दे रही हूँ ताकि इन कविताओं को पढ़ने की भूख जगा सकूँ

'मंदिर मस्जिद गिरजाघर टूटने पर
तुम्हारा दर्द कितना गहरा होता है
कि सदियों तक लेते रहते हो उसका हिसाब
पर जंगल जिनका पवित्र स्थल है
उनको उजाड़ने का हिसाब , कौन देगा साब?'
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'एक दिन ईश्वर
मेरी आदत में शामिल हो गया
अब मेरी आदत में ईश्वर था
जैसे मेरी आदत में तंबाकू'
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'वह मजदूरों की नहीं सुनता
पर यह जरूर कहता है
ईश्वर पर भरोसा रखो'
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'उन्होंने अपना ईश्वर हमारी ओर बढ़ाया
कहा यह तुम्हें मुक्त करेंगे पापों से
हमने पूछा
कौन से पाप किये हमने?'
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'क्यों स्त्री के पास सबसे ज्यादा ईश्वर हैं
और उनमें से एक भी काम का नहीं?'
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'जिस देश के भीतर देस
भूख, गरीबी, बीमारी से मरता है
और देश अपने बचे रहने के लिए
किसी पूजा स्थल की ओर ताकता है
तब असल में वह अपनी असाध्य बीमारी के
उस चरम पर होता है
जहाँ वह खुद को सबसे असहाय पाता है'
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'एक शातिर आदमी है
जो जनता और सत्ता दोनों तरफ खड़ा रहता है
उसकी किताब के लिए इस बार
किसी पुरस्कार की घोषणा तय है.'

इन कविताओं को पढ़ते हुए लगता है मुझे ऐसी ही कवितायें पढ़नी थीं, ऐसी ही कविताओं की मुझे कबसे तलाश थी. शुक्रिया दोस्त जसिंता, तुमसे प्यार है.

Sunday, August 21, 2022

ये दाग-दाग उजाला...


उदास होना बुरा नहीं. मैं खुद अपने कंधों पर अपनी उदासी को रोज लादती हूँ और उसे दूर कहीं फेंक आने को निकल पड़ती हूँ. लेकिन इस कोशिश में खुद को ज्यादा थका हुआ पाती हूँ. उदासी कहीं नहीं जाती, वो उन्हीं कन्धों पर सवार रहती है. फिर मैं और उदासी एक समझौता कर लेते हैं. वो मुझे ज्यादा परेशान न करे और मैं उसके होने की ज्यादा शिकायत न करूं. इस समझौते को अक्सर उदासी ही तोड़ती है.

आज...अभी...इस वक़्त मैंने उदासी से झगड़ा कर लिया है. देर तक रो चुकने के बाद, देर तक चुपचाप छत ताकते रहने के बाद सूनी आँखों से उदासी को झाड़ दिया है...अब वहां एक स्याह दुःख है. जानती हूँ यह आसानी से जाने वाला नहीं. 

हमेशा सोचती हूँ कि एक इंसान दूसरे इंसान इतनी नफरत कैसे कर सकता है कि वो उसकी जान ले ले. यह बात मुझे कभी समझ नहीं आई. यहाँ तक किसी को पीटने वाली बात भी कभी समझ नहीं आई. मैंने कुछ झगड़ों में खून बहते देखा है लोगों का, एक मर्डर देखा है अपनी इन्हीं आँखों से. झगड़ने वालों में से किसी को नहीं जानती थी फिर भी स्मृतियाँ विचलित करती हैं. और इन दिनों तो यह आम बात सी हो चली है.

देश, धर्म, जाति, वर्ग, नस्ल, रंग, लिंग क्या ये कोई वजह है किसी से नफरत करने की. इतनी नफरत करने की उनकी हत्या कर दी जाए. क्या सचमुच? जबकि इसमें से कुछ भी हमने खुद नहीं चुना, यह हमें मिला है जन्म से. जन्म जिस पर हमारा कोई अख्तियार ही नहीं. हम इत्तिफ़ाकन हैं उस पहचान में जिस पर गर्व करते हुए हम हिंसक हुए जा रहे हैं.

अनुराधा बेनीवाल की किताब 'लोग जो मुझमें रह गये' के आखिरी पन्ने, आखिरी वाक्य, आखिरी शब्द के आगे सर झुकाए फूट फूट कर रो रही हूँ. शब्द सब झूठ हैं, बातें सब बेमानी...कि कुछ दर्द इतने गहरे होते हैं कि उन्हें दर्ज किया ही नहीं जा सकता...

हिटलर...होलोकास्ट...अमानवीयता...और हमारा उस दर्द के तूफ़ान से कुछ न सीखना. ऐसा लग रहा है सब कुछ अब भी है...

अनुराधा इतिहास की जिस वेदना के रू-ब-रू हैं हम उनके लिखे के रू-ब-रू. वो बस रोती जा रही हैं...लिखती जा रही हैं...मैं सिर्फ रोती जा रही हूँ, पढ़ती जा रही हूँ. पढ़ चुकने के बाद और ज्यादा रोती जा रही हूँ...दो बच्चे, टोपी लगाये, एक-दूसरे का हाथ पकड़े जा रहे थे...एक बच्चा जा रहा था एक मटकी से पानी पीने...

हम सब किसी हैवान में बदल चुके हैं...समझ नहीं आता कैसे बदलेगा यह सब..कैसे? कब?

मेरी रुलाई आज छुट्टी के दिन का फायदा उठाकर फूट पड़ी है. 
(जारी )

Wednesday, August 17, 2022

इस समाज को बदलना नहीं, फूंकना पड़ेगा...


'लोग जो मुझमें रह गए' किताब ने इन दिनों मुझे थाम रखा है. मैं अच्छी लगने वाली किताबों को धीमे पढ़ती हूँ. मन में एक डर होता है कि कहीं यह खर्च न हो जाए. खर्च हो जायेगी, खत्म हो जायेगी फिर क्या करूंगी. लिखना क्या है आखिर, क्यों है यह सवाल मन में कब नहीं चलता. शब्दों का इतना ढेर है चारों ओर कि कभी-कभी लगता है कि घुटन हो रही है. इतना सारा 'मैं' शब्दों का ऐसा उफ़ान ऐसा शोर कि किसी सूनी डगर पर चले जाने का जी चाहता है और किताबों को कहने का दिल चाहता है कि मुझे पढ़ना नहीं आता, वरना जरूर पढ़ती तुम्हे. लेकिन इसी सब उथल-पुथल के बीच कोई किताब रास्ता बनाते हुए सामने आ जाती है...हम उसे पढ़ते हैं और लगता है कि यही...बस यही तो पढ़ना चाहती थी, यही सुनना चाहती थी. अनुराधा की पहली किताब आज़ादी मेरा ब्रांड दिल के करीब है और अब यह दूसरी किताब भी. किताबें क्यों लिखी जानी चाहिए, उन्हें क्यों पढ़ा जाना चाहिए इस सवाल पर वान गॉग को पलटना अच्छा लगता है. रिल्के को भी. अनुराधा के लेखन में जो रौशनी है उसकी आज समाज को बहुत जरूरत है. चैप्टर 3 पढ़ रही हूँ और अनुराधा को गले लगाने की इच्छा से भर उठी हूँ. 

तीसरे चैप्टर का एक अंश-
इस गाँव (इसिकारो-फिनलैंड) में जितने भी कपल्स के घर मैं गई, उनमें से किसी की भी शादी नहीं हुई है. क्या शादी सिर्फ समाज की देन है? क्या सच में इसकी कोई ठोस जरूरत नहीं है? जब तक न हो, लगता है कब होगी? जब हो जाए तो लगता है इतनी भी क्या जरूरी थी. शादी के दस बारह साल बाद शायद ही कोई ऐसा जोड़ा होगा जो शादी के गुण गाता हो लेकिन हम सब कुंवारों की शादी करा देना चाहते हैं.

अजीब बात है कि हमारे समाज ने इस शादी नाम की संस्था का कोई दूसरा विकल्प नहीं ढूँढा/स्वीकारा जबकि बहुतेरी दुनिया में शादी धीरे-धीरे बीते जमाने की बात होती जा रही है. जाने क्यों हमें लगता है कि इसके बिना पूरा समाज बिखर जाएगा. क्या बिन ब्याहे हम हेडलेस चिकन की तरह इधर-उधर घूम रहे होंगे? क्यों करते हैं हम शादी?

हमारे समाज में दो तरह की शादियाँ हैं अरेंज और लव. अरेंज में उम्र पहला कारण है; 'उम्र हो गई शादी की. जल्दी कर दो.' -यह उम्र 18 से 30 के बीच कोई भी हो सकती है. दूसरा कारण ख़ास तौर पर लड़कों से जुड़ा है- 'सुधर जाएगा ,शादी करा दो' ; टाइम पर रोटी खा लेगा ब्याह कर दो! ' लड़कियों के लिए तो ज्यादातर घरवालों की इज्जत का मसला होता है- 'जवान बेटियां हैं घर पर!' 'लड़की बड़ी हुई, मतलब हमने मान लिया कि अब हमें बाहर वालों से खतरा है. कौन हैं ये बाहर वाले? घर से बाहर तो समाज ही है न! मतलब हमें समाज से खतरा है? फिर भी हम उसी समाज को वैसे का वैसा बचाए रखना चाहते हैं. गज़ब बात है! हमें पता है, हमारे समाज में हर उम्र की लड़की को खतरा है, क्या जवान, क्या बच्ची. शादी शुदा को भी खतरा है. अकेली का हाल क्या कहना...हर समय हर जगह खतरा है. घर में, बाहर- ये कौन लड़कियां हैं. ये हमारी लड़कियां हैं. ये खतरा पैदा करने वाले कौन हैं? यह हमारे ही बाप भाई, अपने रिश्तेदार हैं. फिर भी हम इस समाज को बदलते देखना नहीं चाहते हैं. जाति, धर्म, गोत्र और तो और, क्लास की जकड़बंदी से बाहर निकलकर नहीं सोचना चाहते.

दूसरी तरह की शादी है हमारे यहाँ- लव मैरिज: जिसे ज्यादर प्रेमी साथ रह पाने के लिए करते हैं. हमारे समाज में प्यार करने के लिए, एक साथ होने के लिए, सेक्स करने के लिए परमिशन लगती है. एक लड़के और एक लड़की का प्रेम में होना काफी नहीं है. लड़की किसके साथ प्रेम में है, किसके साथ होना चाहती है- इससे उसके भाई, बाप, चाचा, ताऊ सबको फर्क पड़ता है. बहन अपने प्रेमी के साथ रहने लगे तो भाई की इज्ज़त को खतरा हो जाता है. भाई नहीं है तो बाप की पगड़ी उछल जाती है. बाप भी नहीं है तो रिश्तेदार. यहाँ तक की पड़ोसी भी अपनी-अपनी नाक की फ़िक्र में पड़ जाते हैं.

मैं अपने समाज के एक ऐसे आदमी को जानती हूँ, जिसने आज तक अपनी बेटी से इसलिए बात नहीं की क्योंकि उसने प्रेम विवाह किया और उनकी 'इज्जत' मिट्टी में मिला दी. और यह वही आदमी है जिसने मुझे बचपन में मेरे ही घर में मॉलेस्ट किया था. ऐसे समाज को आप बचाना चाहते हैं? गज़ब ही है! मैं तो माचिस लिए तैयार रहती हूँ. कई बार लगता है इसे बदलना नहीं, फूंकना पड़ेगा. तब जाकर एक नए समाज की जगह बनेगी...

लव यू अनुराधा.

(जारी...)

Monday, August 15, 2022

कहाँ नहीं है प्यार...वार्तालाप


नयेपन में एक आकर्षण होता है. वह लगातार अपनी तरफ खींचता रहता है. ऐसा ही एक नया सा कुछ करने का प्रस्ताव जब युवा दोस्त अक्षय ने रखा तो सबसे पहले तो संकोच हुआ फिर लगा करके देखते हैं. तो इस तरह यह मेरा पहला पोडकास्ट तैयार हुआ. हम दोनों दो अलग-अलग शहरों में बैठकर चाय का प्याला हाथ में लिए कुछ बतियाने बैठे जिसे अक्षय ने रिकॉर्ड किया. हमारी बातें यूँ भी मजेदार होती हैं. उन्हीं बातों को सहेज लिया है बस.

प्रेम क्या है. कब पता चलता है कि यह प्रेम है और कब नहीं. फ्रेंड ज़ोन में न रह जाने का डर, दोस्ती प्यार है या दोस्ती में प्यार है, कैजुअल रिलेशनशिप या गहरा वाला प्यार, कहाँ नहीं है प्यार और जहाँ नहीं है प्यार वहीं तो सारे मसायल हैं. जहाँ प्यार है वहां न कोई सीमाएं, न कोई भेदभाव न कोई समस्या. कि प्यार में डूबे इन्सान को सिवाय प्रेम के कुछ सूझता ही कहाँ. 
 
कुछ बचपन के किस्से, किताबों की बातें, फुर्सत के पलों की बाबत ढेर सारी गपशप मैंने और अक्षय ने की. बातें कितने काम की हैं, कितनी नहीं जानती लेकिन मुझे इस वार्तालाप में मजा बहुत आया. सच में.

इसके बहाने मैं अपने बचपन में लौटी, अपनी प्रिय किताबों को ,प्रिय किरदारों को याद किया. गुलमोहर के उस पेड़ को याद किया जिसकी छाँव में न जाने कितनी किताबें पढ़ीं. थोड़ी सी हंसी, थोड़ी सी मजेदारी वाली इस बातचीत को सुनने की इच्छा अगर आपकी हो तो इसे इस लिंक पर जाकर सुना जा सकता है.

लिंक- https://www.youtube.com/watch?v=1GIaWWBDrTI&t=624s

Saturday, August 13, 2022

प्रेम ही आज़ादी है...

अगर समकालीन लेखकों में मुझे मेरे प्रिय दो लेखकों के नाम लेने हों तो बिना एक भी सेकेण्ड का समय लगाये मैं मानव कौल और अनुराधा बेनीवाल का नाम लूंगी. अनुराधा बेनीवाल की किताब 'लोग जो मुझमें रह गए' के साथ आज की सुबह हुई.

मन उदास हो तो छुट्टी वाली सुबहों से डर लगता है कि किस तरह इतना बड़ा दिन काँधे पर लादकर काटूँगी भला. मैंने खुद से वादा किया है कि उदासी से दूर रहूंगी तो सारे टैंट्रम करती रहती हूँ. आज सुबह उठी तो जन्मदिन में मिले तोहफों के ढेर में घुस गयी. ढेर में सबसे ज्यादा किताबें हैं. उनमें से काफी तो पढ़ चुकी हैं लेकिन बहुत सी अभी बची हैं. आज अनुराधा बेनीवाल की किताब उठा ली. दोस्त की किताब जो दोस्त ने गिफ्ट की है. सुबह से आँख मिलाते हुए मुस्कुराई और किताब को कवर से आज़ाद किया. उसकी खुशबू उँगलियों में तैरने लगी. किताब पढ़ने से पहले उसे देर तक उलट-पुलट कर देखना, उसे महसूस करना मुझे पसंद है. सुबह की चाय से पहले ही किताब की भूमिका पढ़ चुकी थी. मेरे भीतर एक उत्साह दौड़ रहा था. आज का दिन सुंदर हो गया है. सुबह सुंदर हो गयी है.

बस सुबह से अनुराधा साथ हैं. चाय बनाने से लेकर पीने से लेकर बालकनी, ड्राइंग रूम, लॉन हर जगह मैं अनुराधा के साथ टहल रही हूँ जबकि अनुराधा घूम रही हैं तमाम देश. तमाम देशों की संस्कृतियों को, लोगों को वो एक सूत्र में बांधती चल रही हैं यही बात उन्हें ख़ास बनाती है. कि यह किताब देशों की यात्राओं के साथ हमारे बनने और मंझने की यात्रा की बाबत बात करती है.

'दुनिया का कोई भी कोना ऐसा नहीं, जहाँ इन्सान प्रेम न चाहता हो. कोई ऐसी जगह नहीं जहाँ धोखे को अच्छा माना जाए और करुणा को बुरा. दुनिया में ब्याह करने के चाहे पचीस हजार तरीके हों, ब्याह में प्रेम हर कोई ढूंढता है. एक से सम्बन्ध बनाओ या हजार से, दुनिया में अलग-अलग नियम कानून हैं लेकिन हर सम्बन्ध में एक-दूसरे का आदर हो यह पूरी दुनिया में कॉमन है. घरों के डिज़ाइन हज़ारों होंगे लेकिन घर क्या है, उसकी परिभाषा पूरी दुनिया में एक ही है. हर कोई साथ चाहता है, प्रेम चाहता है, चैन चाहता है. बाकी के नियम कानून, सरकार, समाज और राजनीति है, बदलती रहती है.'

ट्रैवेल का असल अर्थ क्या है, उसे कैसा होना चाहिए इसकी समझ अनुराधा को पढ़ते हुए साफ़ होती है. अनुराधा अपनी भूमिका में लिखती हैं-

'मैं जैसे-जैसे दुनिया घूमती गई, अलग-अलग देशों में फिरती गई, नए-नए लोगों से मिलती गई, वैसे-वैसे दुनिया छोटी और अपनी होती गई. सब तरह के लोगों से मिलकर मैंने जाना कि जो एक चीज़ सब चाहते हैं, वह है प्रेम. प्रेम ही आज़ादी है.'

ये पढ़कर. कोई सुख रेंग रहा है देह पर, मन पर. हाँ, यही पढ़ना चाहती थी, एकदम ऐसा ही. कि जीवन क्या है सिवाय प्रेम के.

'होटलों से सिर्फ नदी, पहाड़, पार्क, इमारतों तक रास्ता जाता है, लोकल लोगों के दिलो-दिमाग तक का रास्ता उनके घरों में जाने रहने से मिलता है.'

'अकेले होने ने मुझे कभी परेशान नहीं किया, न घर में न बाहर. मेरे लिए अकेला होना कभी उदासी का पर्याय नहीं रहा, लेकिन ऐसा भी नहीं कि मुझे उदासियों से परहेज है. एक गहरी में एक उथली हंसी से कहीं ज्यादा सुख है.'

'क्या आज़ादी प्रेम से बड़ी है? क्या है आगे बढ़ पाना? कोई क्यों किसी के साथ रहता है, कोई क्यों किसी से दूर चला जाता है यह उस इन्सान का बेहद निजी मामला है. चाहे वह शादीशुदा हो या बच्चों वाला. एक इन्सान कैसे जीना चाहता है, यह निर्णय सिर्फ़ उसी का होना चाहिए और कम से कम कोई नैतिकता उसके आड़े नहीं आनी चाहिए,'

'आज़ादी प्रेम से बड़ी है या उसके बगैर अधूरी है?

अगर आप प्रेम में एक-दूसरे को आज़ाद नहीं करते तो क्या वह प्रेम है? किसी का हो पाना प्रेम है, लेकिन क्या निभाना भी प्रेम है? निभाना तो मजबूरी है, प्रेम को निभाना थोड़े न होता है! कुढ़ते-कुढ़ते निभाने में प्रेम की जगह कहाँ है? प्रेम तो आज़ादी में ही है, लेकिन आज़ादी? क्या अपनी इच्छा से जी पाना भर आज़ादी है? यह 'अपनी इच्छा' क्या है? क्या बदलती नहीं रहतीं इच्छाएं हर पल? तो फिर क्या इच्छाओं की कूद-फांद में प्रेम भी बदलता रहता है? मेरे पास बस सवाल हैं...जवाब जीवन है.'

'अपने आप को जाने बिना न प्रेम है, न आज़ादी. अपने आपको जानने की यात्रा सबकी अपनी है...'
(जारी)

Thursday, August 11, 2022

आह! कितनी उम्मीदें हैं तुम्हारे नाम से-किशोर चौधरी


- प्रतिभा कटियार
किशोर चौधरी का कविता संग्रह ‘बातें बेवजह’ पढ़कर ख़त्म किया है. जबसे इस किताब के संग हूँ मन पनीला सा हो रहा है. एक गौरैया भीगते हुए बालकनी में आ बैठी है. अपनी पांखें खुजला रही है या शायद भीगे पंखों को सुखाने की जुगत लगा रही है. कौन जाने क्यों वो भीगी होगी बारिश में, कहाँ जाने को निकली होगी और मेरी बालकनी की खिड़की पर सुस्ताने बैठ गयी है. बारिश लगातार हो रही है. भीतर भी, बाहर भी. चाय पीने की इच्छा में गौरेया को शामिल करने की इच्छा भी संग हो ली है. दिल ये चाहता है कि गौरेया यूँ ही बैठी रहे और मैं चाय बना लाऊं, एक कप उसके हिस्से की भी. फिर हम तीनों मैं किशोर और गौरेया साथ चाय पियें. बिना कुछ बोले. फिर यह डर भी है कि चाय बनाने गयी और गौरेया उड़ गयी तो...? यह सोचकर दिल उदास हो गया है. चाय पीने की इच्छा स्थगित कर गौरेया को देख रही हूँ. बारिश अब मुझे सिर्फ उसके पंखों पर ही दिख रही है. गौरेया प्रेम है...प्रेम गौरेया है. बारिश दुनियादारी कि जिससे कुछ पल राहत पाने को कोई ठीहा तलाशता दिल और फिर उसी दुनियादारी की पुकार पर उठकर चल देता है. किशोर इस बात को कुछ और ही ढंग से कहते शायद ऐसे कि-

ज़िंदगी अपरिभाषित दुःख नहीं
दर्द भरी जिज्ञासा थी.
कोई खो जाता है, तो मिलता क्यों है?

दिल को फितरत कुछ ऐसी मिली कि ऐसी ही बेवहज की बातों में वो जीवन भर अटका रहा. आँखों को फितरत कुछ ऐसी मिली कि बेवजह ही छलकती रहती हैं. बेवजह देर तक आसमान को ताकते हुए सोचा है पेड़ों के बारे में. फूलों की पंखुरियों पर हथेलियाँ फिराते हुए कभी टांकते हुए कोई फूल जुड़े में हमेशा सर झुका रहा जड़ों के आगे. कि चाय जब भी पी दो कप रहे ‘सामने’ जबकि दूसरा कोई न था. सच ही तो कहते हैं किशोर कि-

सब बातें नहीं होनी चाहिए हमारे बस में
मगर मूर्खतापूर्वक करना प्रेम
और समझदारी से मारे जाना, सीखना चाहिए सबको.

प्रेम की कौन कहे...कि प्रेम से ज्यादा बेवजह क्या है संसार में और हम इस विश्वास से निकल न पाए कभी कि प्रेम के बिना क्या ही जीवन, क्या ही दुनिया. प्रेम शब्द जितना रूमानी उतना ही इंकलाबी भी कि प्रेम से बड़ा प्रतिरोध कोई नहीं.

लेकिन प्रेम कभी ख़ाली हाथ नहीं आता. फूलों की, सपनों की, मिठास की सौगातें लेकर आता है और हमारी पूरी दुनिया बदलने लगती है. प्रेम लेकर आता है तन्हाई, दर्द, आंसू भी कि हमारी पूरी दुनिया बदल चुकी होती है. क्या प्रेम चला जाता है कहीं, फिर दूसरा प्रेम आता है, फिर तीसरा...पता नहीं. मुझे लगता है प्रेम कहीं नहीं जाता, वहीँ रहता है जीवन में डटकर. बस कि लोगों के आने-जाने को देखता रहता है, सहता रहता है. तासीर हर बार वही...टूटन हर बार वही. तो मान लीजिये कि अगर आप दुःख में हैं, पीड़ा में हैं, इंतज़ार में हैं, अगर दिल की धड़कनें काबू में नहीं तो रिल्के के शब्दों में अगर कहूँ तो मान लेना चाहिए कि ‘जीवन ने, प्रेम ने हमें बिसारा नहीं है, वो हमारा हाथ थामे चल रहा है.’

प्रेम से बड़ा नुकसान कुछ नहीं होता
कि एक दिन कोई
आपको आपसे ही चुराकर चला जाता है.

किशोर का यह कविता संग्रह ‘बातें बेवजह’ पढ़ते हुए जो महसूस होता है उसे सिर्फ ‘पढ़ना’ कहकर आगे नहीं निकला जा सकता. किशोर अपनी तरह के अलग ही लेखक हैं. वो अपना अलग ही जॉनर क्रिएट करते हैं. उन्हें पढ़ते हुए अक्सर हैरत में डूबती हूँ कि कोई कैसे नब्ज की चाल, आँख में अटका आंसू और दिल की धड़कनों को वैसा का वैसा लिख सकता है? यह उनके लिखने का हुनर नहीं यह उनके जीने का हुनर है. चूंकि किशोर मित्र भी हैं इसलिए थोड़ा करीब से जानती हूँ कि उनकी फितरत ही पानी की है. रेगिस्तान में रहने वाला यह लड़का अपनी पानी सी फितरत से रेगिस्तान को सींच रहा है. दिलों को मोहब्बत से सींच रहा है.

छोटी नीली चिड़िया को
चाहिए होती है जितनी जगह
एक पतली-सी टहनी पर
सबको
बस उतना-सा प्यार चाहिए होता है.

ये कवितायें बाहर की नहीं भीतर की हैं. इनका हाथ थामेंगे तो कोई सिसकी, कोई रुका हुआ रुलाई का भभका, कोई बिसरायी हुई स्मृति आपको थाम लेगी. जाने नहीं देगी. और सच कहूँ आप जाना चाहेंगे भी नहीं. मैं कबसे इन सतरों की दहलीज़ पर बैठी हूँ. उठने का दिल ही नहीं चाह रहा और मन ही मन किशोर से नाराज होती हूँ कि कम्बखत ऐसे कौन लिखता है, ऐसा कौन लिखता है भला कि-

आखिर लौट आई मुस्कान मेरे चेहरे पर
जब ये सोचा
कि तुम्हारे साथ न होने का दुःख
सिर्फ़ इक ज़िंदगी भर का ही है.

किताब लगभग पूरी अंडरलाइन है और मन खूब भरा हुआ जैसे भरे हुए हैं बादल. कि इस किताब ने आसपास रहने की जगह तलाश ली है. संग्रह हिन्द युग्म से आया है. कीमत सिर्फ 199 रूपये है और अमेजन पर उपलब्ध है. अंडरलाइन किये कुछ हिस्से साझा कर रही हूँ-

प्रेम दुबले लड़के का कहा हुआ
छोटा सा वाक्य है
काश, थोड़ी और होती शराब.
---
उसने दिव्य दृष्टि से खोला
जिंदगी का आखिरी पन्ना
और पढ़कर चौंक उठी
कि वह ताउम्र अकेली थी.
---
कि अद्भुत रचयिता ने
लड़कियों की तामीर में
शामिल रखा, एकाकीपन.
लड़के मगर बुनते रहे
अपना एकांत, शराब के दो प्याले.
---
कभी-कभी मैं सोचता हूँ
कि तुम लौटा दो मेरा पासा
और चला जाऊं उठकर
कि इस प्रेम वाली बिसात पर
दर्द वाले खाने कुछ ज्यादा हैं.
---
मेरी नास्तिकता पर
तुम्हें दया आ सकती है
हो सकता है कि तुम मेरा सिर भी फोड़ दो
मैं अगर तुमसे प्यार करता हूँ
तो मैं इसके सिवा कुछ नहीं कर सकता.
---
भ्रम
प्रेम का सबसे बड़ा सहारा है.
--
दिल ने ये कैसा
प्रेम का दरवाजा बनाया है
जो खुलता है उदासी के आंगन में.
--
आह
कितनी उम्मीदें हैं
एक तुम्हारे नाम से.

Sunday, August 7, 2022

मिलेना के नाम काफ़्का के ख़त




अप्रैल 1920
Meran-Untermais, Pension Ottoburg

प्यारी मिलेना,
पिछली एक रात और दो दिन से बरसात की जो झड़ी लगी हुई थी न, अब वो रुक गयी है. हाँ हाँ, यह कुछ देर के लिए ही रुकी होगी शायद फिर भी ऐसा लग रहा है बरसात के इस थमने को क्यों न सेलिब्रेट करूँ. और देखो, मैं तुम्हें ख़त लिखते हुए ऐसा कर रहा हूँ. सच कहूँ, बारिश भी अच्छी लग रही है यहाँ. तुम जानती हो मैं परदेस में हूँ. हालाँकि इतना परदेस भी नहीं, लेकिन हाँ, परदेस तो है. यहाँ अच्छा लग रहा है. अगर मैंने सच में ठीक-ठीक महसूस किया था तो उस खूबसूरत सी इकलौती मुलाकात में तुम्हारी ख़ामोशी किसी संगीत की तरह महसूस हो रही थी. तुम भी विएना में खुश थीं. हालाँकि बाद के हालात उस ख़ुशी की राह में आ आये जरूर. लेकिन सच कहो मिलेना, क्या तुम परदेस में होकर जो अजनबियत होती है उसका सुख महसूस नहीं करतीं? (हालाँकि हो सकता है यह बात थोड़ा बुरा महसूस कराये कि ऐसे कोई सुख होने ही नहीं चाहिए.)

मैं यहाँ एकदम ठीक से रह रहा हूँ. इस नश्वर शरीर को कहाँ ज्यादा देखभाल की जरूरत है. मेरे कमरे की जो बालकनी है न वो एक खूबसूरत बागीचे में खुलती है. फूलों की लताएँ खूब बढ़ आई हैं और उन्होंने बालकनी को लगभग ढंक लिया है.
 
एक बात बताऊँ यहाँ का शाकाहारी बहुत अजीब सा है. और यहाँ प्राग में इतनी ज्यादा ठंड है कि पास में जो पानी का पोखर है वो लगभग जम चुका है. मेरी बालकनी के सामने फूल धीरे-धीरे खिल रहे हैं. यहाँ इस बागीचे में सूरज की रौशनी खूब अच्छे से आती है शायद इस कारण भी फूलों की खिलने की अलग ही रंगत है. छिपकलियाँ, चिड़ियाँ अक्सर यहाँ मेरे आसपास टहलती रहती हैं. मैं तुम्हें यहाँ के बारे इस शहर के बारे में सब कुछ विस्तार से बताना चाहता हूँ. तुमने अपने पिछले ख़त में लिखा था कि तुम्हें सांस लेने में कुछ परेशानी हो रही है. मुझे लगता है तुम अगर यहाँ हो तो तुम्हें बहुत राहत मिलेगी.

बहुत सारे प्यार के साथ!
फ्रान्ज़ काफ्का

Monday, August 1, 2022

इठारना- बादलों का गांव और धुंध से उठती धुन



और एक बार फिर मैंने ब्लैंक स्क्रीन पर नज़रें टिकायीं...उसमें मुझे उगते बादल नज़र आने लगे...पहाड़ियां...हरियाली...रास्ता...एक धुन...एक धुंध...मैंने स्क्रीन ऑफ कर दिया. मैं इन सबके बारे में नहीं लिखना चाहती. मैं लिख सकती भी नहीं. हम दृश्यों के बारे में लिख सकते हैं लेकिन खुशबू को कोई कैसे लिख सकता है. जबसे लौटी हूँ दुनिया की हर चीज़ पर ध्यान टिकाने की कोशिश कर रही हूँ कि जो नशा तारी है मुझ पर वो जरा कम हो लेकिन नशे की यही तो तासीर है कि वो आपको किसी और का होने नहीं देगा, किसी और बारे में सोचने नहीं देगा.


कोई उदास सी उदासी थी-
कई दिन हुए कि कहीं मन नहीं लग रहा था. कई दिन हुए कि लग रहा था दिन हो ही नहीं रहे हों जैसे. सब ठहरा ठहरा सा. रुका-रुका सा. सुख और दुःख के बीच एक खाली स्पेस होता है जिसके बीच हम सरकते रहते हैं. कभी सुख के करीब, कभी दुःख के. असल में हम न सुख के एकदम करीब कभी पहुँच पाते हैं न दुःख के ही. बस उसके आसपास होने को ही अंतिम सत्य मानकर अपनी ताकत सुख की ओर भागने में लगा देते हैं. जबकि सुख और दुःख दोनों ही अपनी जगह पर बैठे एक साथ मुस्कुराते हैं. हम कठपुतली के तरह नाचते जाते हैं. मैं भी उनमें से ही हूँ नाचने वालों में से ही. लेकिन कभी-कभी थक जाती हूँ फिर दुःख और सुख दोनों के एकदम बीच में खुद को रखते हुए जब आसमान देखती हूँ तब एहसास होता है कि यह दौड़ किस कदर बेवजह है. ऐसे ही एक अनमने से दिन में यूँ ही अचानक बैगपैक कर इठारना का रुख कर लिया कि इस भागमभाग से कुछ ब्रेक चाहिए था.

 खुद से मिलना यूँ जैसे मिलना मोहब्बत से-
क़ुदरत हमेशा हमें अपने क़रीब ले जाने का काम करती है. अगर हमने सच में यात्रा करना सीखा है तो यात्राएं हमारी वो हमसफर बनती हैं कि जब ज़िन्दगी साथ छोड़ने लगे तब खुद को किसी यात्रा पर रख दीजिये, अपने तमाम ‘मैं’, ‘जोड़’, ‘हिसाब-किताब’ बिसराकर. यात्राएं आपको झाड़-पोंछकर, चमकाकर, निखारकर, प्यार से अपनेपन से सराबोर करके वापस भेजती हैं. जब घर से निकली थी तो मन में असंतोष, बेचैनी, उलझनें, असुरक्षा के भाव न जाने क्या-क्या साथ थे. थोड़ा गुस्सा भी था लेकिन जैसे-जैसे रास्तों पर आगे बढ़ते गए एक-एक कर ये सारे आवरण उतरते गए. जैसे-जैसे हम आगे बढ़ रहे थे कोई जादू सा खुल रहा था आँखों के सामने. इठारना की खूबसूरती के बारे में सुना खूब था लेकिन कह सकती हूँ कि जितना भी सुना था, सब बहुत कम था.

मैं इठारना की बाबत क्या लिखूंगी कि वह इस कदर खूबसूरत है, इस कदर मोहक. कल्पनातीत सौन्दर्य. जैसे-जैसे हम रास्तों पर बढ़ रहे थे, शब्द पीछे छूटते जा रहे थे. एक मीठा मौन पूरे सफर में हमारी कलाई थामे बैठा था. बीच-बीच में मेरे होंठ बुदबुदा रहे थे...उफ्फ्फ मैं मर जाऊंगी...मेरी आँखें लगातार बह रही थीं. मेरे हाथ कार के बाहर मौसम को थाम लेने को बेताब थे जबकि मौसम कार के भीतर ही नहीं, हमारे भीतर आ चुका था. मेरे गालों को छूकर हवा के झोंकों ने मानो कहा हो, ‘प्रतिभा यह सब तुम्हारे ही लिए है. सिर्फ तुम्हारे लिए.’ हाँ मैंने यह आवाज़ सुनी, सच में. मैंने अपनी सिसकी की आवाज़ को सुना और आँखें बंद कर लीं. इतना मोहक सौन्दर्य, कुदरत की इतनी सारी नेमतें मेरे लिए? सिर्फ मेरे लिए? और क्या चाहिए मुझे जीवन में...मेरे भीतर की नदी का वेग बढ़ चुका था, मेरे भीतर का जंगल बाहर के जंगल से मिलने को बेताब था. मैंने अपनी सिसकी की आवाज़ को सुना और मुस्कुरा दी.

 जीवन वहीं कहीं था-
स्कॉटलैंड के पहाड़ों को देखते हुए जब मैंने उत्तराखंड के पहाड़ों को याद किया था तब यह नहीं सोचा था कि एक रोज उत्तराखंड के पहाड़ों से गुजरते हुए स्कॉटलैंड और गुलमर्ग को इतनी शिद्दत से याद करूंगी. मैं आध्यात्मिक नहीं हूँ. मेरे लिए कुदरत ही ईश्वर है और मानवता ही धर्म. लेकिन यह जानती हूँ कि जीवन में पहली बार दिव्यता के ऐसे एहसास से गुलमर्ग के रास्तों में सामना हुआ था. शायद इसे ही ईश्वर के दर्शन होना कहते होंगे धार्मिक लोग. कि सच में हम खुद से छूटने लगते हैं. हममें हमारा है ही क्या. इस जीवन का अर्थ क्या है आखिर...बेहद हरे जंगल, पहाड़ों पर बादलों की मटरगश्ती और वादियों में गूंजती एक खामोश धुन इन सबको जंगल की खुशबू में डुबोकर बस बूँद भर चख लीजिये ज़िन्दगी के तमाम मसायल हल हो जायेंगे. सच में.

हम जीवन को कहाँ-कहाँ ढूंढते फिरते हैं जबकि होता है वो वहीं, एकदम करीब आपकी बांह थामे मंद-मंद मुस्कुराते हुए. मैंने जीवन को देखा और झूठमूठ के गुस्से से भरकर कहा, ‘अब तक कहाँ थे’? उसने कनखियों से मुझे देखते हुए पहाड़ पर मंडराते बादलों पर नजरें टिकाते हुए कहा, ‘यहीं तुम्हारे एकदम करीब. तुमने देखा ही नहीं’. जीवन को आते हैं सब ढब. गुस्सा दिलाने के भी और गुस्सा दूर करने के भी. उसकी इन्हीं कारस्तानियों के चलते उसी से शिकायत भी बहुत है और उसी से मोहब्बत भी शदीद.


हमारे बीच कोई नहीं था-
इठारना...अब यह जगह नहीं एहसास का नाम है. मुझे हमेशा लगता रहा है कि पहाड़ों को बारिशों में देखना चाहिए. बादलों की ऐसी चपलता, इठलाना, शरारत करना हरे रंग के जादू में लिपटे सुफेद मखमली बादल उफ्फ्फ....मैं उस मंजर को कैद नहीं कर पा रही थी. यही वो समय होता है जब कुदरत कहती है तुम्हारे आईफोन, डीएसएलआर के बस का नहीं है मुझे कैद करना. अरे सबके बस का तो यहाँ आकर भी मुझसे मिलना नहीं है. कि आओ मेरे करीब अपने तमाम आवरण उतारकर...जैसे इबादत में होने से पहले उतारने होते हैं तमाम छल प्रपंच. मेरे मौन के भीतर शब्द की एक कंकड़ी भी जब तक बची रही मेरे और कुदरत के बीच तनिक दूरी बनी रही शायद. लेकिन कुदरत का मेरा रिश्ता जग जाहिर है. कुदरत मेरा साथ कभी नहीं छोड़ती, बारिशें हमेशा मेरे सर पर आशीष बरसाने को व्याकुल रहती हैं. यात्रा के ठीक बीच में बूंदों के सैलाब ने मुझे खींचकर कार के बाहर निकाल लिया और शब्द की आखिरी कंकड़ी भी उठाकर दूर कहीं वादी में उछाल दी. अब मेरे और कुदरत के बीच कोई नहीं था...कोई नहीं. प्रेम टुकुर-टुकुर मुझे देख रहा था. हम तीनों हंस रहे थे, हम तीनों एक दूसरे में इकसार हो चुके थे. कोई आवाज़ नहीं, कोई बात नहीं बस कुदरत की दिव्यता के आगे सजदे में झुका हमारा सर और झर झर झरती बूंदों की ओढ़नी.

इतनी ख़ामोशी सुने जमाना हुआ था. इस ख़ामोशी के सुर में संगत थी नदी की कलकल और चिड़ियों की आवाज की. ऐसा संगीत, ऐसी भव्यता कि अपने कदमों की आवाज़ भी उसी सुर में ढलने लगे, धड़कनों की आवाज़ भी. मैंने ध्यान लगाकर सुना तो मेरी नब्ज़ भी उसी मध्धम सुर में ढलने लगी थी.

दुःख और उदासी के बीच एक रौशनी होती है-
जीवन सच में बेहद खूबसूरत है और ये हमारे बहुत करीब ही है. हमने दुनियादारी के शोर में इसे बिसरा दिया है. और इसे ही खोजते फिर रहे हैं. सुख और दुःख के बीच ही नहीं दुःख और उदासी के बीच भी एक रौशनी होती है. हम उस रौशनी को देख नहीं पाते. वो रौशनी हमारे अंतस को उजला करती है. हमें और परिष्कृत करती है, और बेहतर मनुष्य बनाती है. मैंने हर यात्रा के दौरान खुद के भीतर कुछ टूटता हुआ महसूस किया है. कुछ गिरता हुआ. और हर यात्रा से वापसी के दौरान खुद को थोड़ा और हल्का पाया है. यात्राओं के बाद ज्यादा प्रेम से भरकर लौटती हूँ. इस यात्रा के मध्य में ही यह सुर मुझे मिल गया था. अचानक. मैंने हैरत से खुद को देखा, ये मैं थी क्या? मैं ही थी क्या? चीज़ों के मोह में निब्ध्ध, उनके छूटने के दुःख से उदास....लेकिन यह क्या कि कोई मोह बचा ही नहीं, न कोई दुःख. सब एकदम से आसान होता गया. सिर्फ एक सुखद ख़ामोशी और जीवन के प्रति आश्वस्ति थी मेरे पास. रेखाओं से खाली हथेलियाँ बारिश की बूंदों से भर उठी थीं. मेरे पाँव थिरक उठे थे, कामनाओं का जादू उभार पर था और बारिश उसी थिरकन के साथ लहरा-लहरा के समूची वादी को भिगो रही थी. मैंने हमेशा जब भी बारिश चाही है, जिस भी शहर में, जिस भी मौसम में चाही है जाने कैसे हुआ ये अचरज कि वो मुझसे मिलने आई है. हर बार मैं इस इत्तिफाक पर मुस्कुराती हूँ, और नए इत्तिफाक के इंतज़ार पर निगाहें टिका देती हूँ. लेकिन बारिश मुझे कभी निराश नहीं करती. इस बार भी नहीं किया. वह ठीक उस वक्त आई जब हम पैदल घूमकर थक चुके थे और चाय की प्याली लिए सुस्ता रहे थे. बारिश अपने तमाम करिश्मे लिए आ गयी. हम चाय पीते पीते बारिश के करिश्मों से चमत्कृत होते रहे. मैंने अपनी सपनों से भरी आँखें और प्रेमिल हथेलियाँ बारिशों को सौंप दीं...मेरी देह ही नहीं इस बारिश में मेरी आत्मा भी भीग रही थी...


सुबहों की कौन कहे-
कभी दूर से से देखते थे बादल और खुश होते थे लेकिन अगर वही बादल आये और आकर लिपट जाए तो. हम बादलों के बीच में थे. एकदम बीच में. वादी से उड़ता हुआ बादल आकर हमारे काँधे पर बैठा था कोई बादल चाय के प्याले को घेर रहा था कोई सर पर हाथ फिरा रहा था. जब हम टहलने लगे तो हमने पाया कि हम अकेले नहीं हैं, बादल भी है हमारे साथ. उस दूधिया बादल का हाथ थाम चलते जाने का सुख अद्भुत था. मैं बादल हो गयी थी मैंने बादल से कहा था, 'तुम भी प्रतिभा हो जाओ न.' वो मुस्कुरा दिया...हम एक ही थे...सारे रास्ते बादल साथ चलते रहे. सर पर हाथ फिराते हुए कहते रहे, 'सब कुछ होना बचा रहेगा, परेशान न हो.' और सच में मैं परेशान नहीं थी.

जब मैं जा रही थी तब कोई और थी और जब लौट रही थी तब कोई और हो चुकी थी. जिन उदासियों को काटने के लिए यह यात्रा चुनी थी यात्रा के मध्य में पाया कि वो उदासी तो थी ही नहीं. वो तो एक वहम थी. लौटते समय हमने  जानबूझकर अपने रास्ते खो दिए और बारिशों को गले से लगाये सड़कों पर पसरे रहे. लौटना सिर्फ एक वहम होता है हम वहीं कहीं छूट गये हैं. लौट आई देह के भीतर कितना कुछ नया उग आया है. देह के भीतर का जंगल और घना हुआ है, नदी थोड़ी और चंचल हुई है, मन तनिक और निर्मल हुआ है...

ओ इठारना, तुम जीवन में शामिल हो गये हो साँसों की तरह, प्रेम की तरह, उम्मीद की तरह...


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