Wednesday, March 30, 2022

थोड़ा और बेहतर मनुष्य होना सिखाती है कथा नीलगढ़





- प्रतिभा कटियार

यह कथा नीलगढ़ है. इस कथा में मासूम पगडंडियां हैं, कुछ अनचीन्हे रास्ते हैं, अभाव में भी खुश रहने का योग सीख रहे लोग हैं, ढेर सारा प्रेम है और है एक-दूसरे पर भरोसा. महानगरीय जीवन जीते हुए, खबरें पलटते हुए, विचार विमर्श के मुद्दों संग अठखेलियाँ करते हुए जरा थमकर कथा नीलगढ़ सुनी जानी चाहिए. एक ही देश में जीते हुए इसी देश के किसी कोने के बारे में, वहां के लोगों के बारे में, उनके सुख-दुःख, संघर्षों के बारे में जानना किसी कथा सरीखा लग सकता है. यह विडम्बना नहीं तो और क्या है. देश की जीडीपी ग्रोथ से नीलगढ़ का कोई लेना-देना नहीं, विश्व के मानचित्र में कहाँ है भारत की विकास यात्रा का रथ इससे उसका कोई ताल्लुक नहीं उसे तो अपने दो वक्त के चूल्हा जलने की ही फ़िक्र है बस. रोजमर्रा के जीवन की ढेर सारी फिक्रों के बीच अजब सी बेफ़िक्री है नीलगढ़ में. यह बेफिक्री इस गाँव का मिजाज़ है जहाँ से आता है यह भोला सा मधुर वाक्य जो हाल-चाल पूछने पर लगभग सबके ही मुंह से बा तसल्ली निकलता है कि ‘सब मजेदारी है.’

यह कथा शुरू होती है फ्लैशबैक में जब ज़िन्दगी की बुनियादी चीज़ों के लिए संघर्षरत इस गाँव में दिल्ली से एक नवयुवक अनंत आता है. वो आता है अपने रिसर्च पेपर को लेकर किये जाने वाले शोध के सिलसिले में लेकिन इस गाँव में स्नेह का जो बिरवा मिला उस नवयुवक को संघर्षों की जो तपिश देखि उसने गांववालों के जीवन में कि वो वापस लौटकर जा न सका. यहाँ के लोगों का अभाव इस युवक को सालने लगा. उसे लगा उसका शोध तो पूरा हो जायेगा लेकिन इन गाँव के लोगों के जीवन में क्या बदलेगा भला. विचारों के झंझावत में उलझा यह युवा एक रोज अपने शोधपत्र के पन्नों को पुर्जा-पुर्जा कर हवा में बिखेर देता है. अपने चमचमाते भविष्य के सपने को किनारे करता है और नीलगढ़ के लोगों से दिल लगा बैठता है. उनके जीवन में कुछ सकारात्मक बदलाव कर सके ऐसी इच्छा के साथ गाँव में आकर बस जाता है. फिर क्या-क्या होता है, कैसे-कैसे होता है यही है समूची कथा.

इसे अगर किताब की तरह पढ़ेंगे तो सिर्फ खूबसूरत भाषा, शैली, व्यंजनात्मक लहजे में लिखे 33 अध्याय मिलेंगे जिन्हें पढ़ते हुए आपको निसंदेह बहुत अच्छा लगेगा. लेकिन अगर इसके पन्नों का हाथ थाम नीलगढ़ की यात्रा पर निकलेंगे तो नीलगढ़ की खुशबू मिलेगी, नदियाँ मिलेंगी, पोखर मिलेंगे. चिकना पत्थर मिलेगा, भूख मिलेगी, तीन दिन की भूख के बाद गुड़ की डली का स्वाद जबान पर महसूस होगा. त्यौहार मिलेंगे, शादी ब्याह मिलेंगे, गाँव की बिटिया की विदाई के वक़्त की रुलाई में फफक उठेंगे आप. इस किताब को पढ़ते हुए मिलेंगे ढेर सारे ऐसे वाकये जो अब तक के जाने समझे से कहीं आगे ले जाकर खड़ा कर देंगे.

हाँ, यह अचरज की ही तो बात है कि जब हर कोई सुंदर और सुरक्षित भविष्य के लिए जी तोड़ मेहनत कर रहा है कोई युवक नीलगढ़ से इश्क़ कर बैठता है. और जब इश्क़ किया तो फिर हद कैसी, भूख प्यास क्या, अपमान क्या और मान क्या. सिनेमा के दृश्यों की तरह खुलती है कथा नीलगढ़. इसकी गढ़न ऐसी है कि कभी चलते-चलते दुःख गए पांवों को आराम मिलता है इस कथा की छाँव में बैठकर. कभी किस्सागोई का स्वाद मिलता है, कभी कविता की नरमाई. कभी-कभी एहसास होता है कि हम किसी उपन्यास को पढ़ रहे हैं और आगे क्या होगा का भाव किताब छोड़ने ही नहीं देता. अगर यह फिक्शन होता तो कमाल का फिक्शन होता लेकिन यह फिक्शन नहीं है. यह समूचा जिया गया जीवन है. इसमें पाँव की जो बिंवाइयां हैं, भूख है, तकलीफें हैं, अभाव हैं, अपमान हैं वो लेखक की कल्पना का संसार नहीं इस देश के एक कोने का सच है. लेखक खुद इस किताब में कही जा रही कथा का नायक है हालाँकि लेखक ने खुद को नहीं नीलगढ़ के लोगों को, वहां के जीवन को ही नायक बनाया है.

अगर कोई नीलगढ़ में जाकर बस गये और उस गाँव में बदलाव के लिए कार्य करने वाले युवा अनंत गंगोला से बात करके यह किताब लिखता तब इतनी सुगढ़, परिमार्जित और साहित्यिक दृष्टि से भी समृद्ध किताब की कल्पना करना आसान था लेकिन चूंकि यह किताब खुद अनंत गंगोला ने लिखी है इसलिए कई बार हैरत भी होती है कि एक व्यक्ति कितना समृद्ध हो सकता है जीवन जीने के सलीके को लेकर भी उस सलीके की बाबत बात करने की बाबत भी और उसे किताब के रूप में दर्ज करने को लेकर भी. यह किताब साहित्य की तमाम विधाओं को अपने भीतर समेटने को आतुर दिखती है. कविता, कहानी, उपन्यास, डायरी, संस्मरण, यात्रा वृत्त.

कथा नीलगढ़ पढ़ते हुए यह समझा जा सकता है कि शिक्षा में काम करते हुए क्या नहीं करना है और क्या करना है. बहुत जानना अच्छे शिक्षक की निशानी नहीं बल्कि बच्चों को समझना, उनके मन को, उनके परिवेश को समझना, उनके भीतर की सीखने की इच्छा को सहेजना पहली जरूरत है. बच्चों को एक पूरा नागरिक मानना, उनकी इच्छा को उनकी सहमति असहमति को निर्णयों में शामिल करना और उन्हें सम्मान देना कितना जरूरी है यह बात शिक्षा के बड़े परिदृश्य से गायब ही दिखती है. बच्चों की गलतियों को किस तरह देखना है, उन्हें गलती करने के अवसर देना कितना जरूरी है और उन गलतियों से सीखना है हम बड़ों को, गलतियों के कारणों को जानकर उन कारणों पर काम करना है हम बड़ों को यह सिखाती है कथा नीलगढ़. असल में यह किताब एक बेहतर मनुष्य होना सिखाती है, बताती है कि अगर ठान ही लें हम कुछ करना तो राहें खुलती जाती हैं. एकला चलो रे...से शुरु हुए अनंत गंगोला के सफर में धीरे-धीरे तमाम लोग जुड़ते गए और यह एक कारवां बनता गया.

यह अचरज सहेज लिए जाना वाला है कि जिस गाँव के लोगों ने स्कूल का नाम भी नहीं सुना, जिन्हें खाने, पहनने की चुनौतियों से ही फुर्सत न थी उनसे जब पूछा गया कि इस गाँव में क्या बदलाव चाहते हैं तो वो कहते हैं, ‘स्कूल’. बतौर शिक्षक हर किसी को अपनी जिम्मेदारी की सघनता से जोड़ता है नीलगढ़वासियों का यह कहना. शिक्षा की जरूरत को समझने लगा है समाज का आखिरी व्यक्ति. अब जिम्मेदारी है शिक्षक की उस जरूरत को अपने होने से सहेज ले. शिक्षा की ओर कदम बढ़ा रहे पहली पीढ़ी के बच्चों का हाथ थाम सम्मान के साथ उन्हें मुख्यधारा में लायें. अगर संसाधनों से रहित एक गाँव में एक युवक उस गाँव के बच्चों को शिक्षित करने के लिए खुद के जीवन को झोंक सकता है बिना किसी वेतन के, बिना किसी सुविधा के तो जो पेशेवर शिक्षक हैं वो क्या नहीं कर सकते.

शिक्षक होना सिर्फ बच्चों को पढ़ाना नहीं होता, उनके अभिभावकों से जुड़ना, उनके दुःख-सुख में शामिल होना उनके जीवन की छोटी-छोटी लड़ाइयों में उनका साथ देना होता है. कोई कह सकता है कि किताब के लेखक अनंत गंगोला ने एक सनक की तरह नीलगढ़ में रहना चुना और वहां काम करना शुरू किया यह सबके लिए संभव नहीं. लेकिन अगर हम इस समाज में सचमुच कुछ सकारात्मक बदलाव चाहते हैं, देश समाज में जो हो रहा है उस पर चाय पीते हुए चर्चा करने से आगे बढ़कर कुछ करना चाहते हैं तो हम पायेंगे कि हमारे आसपास तमाम नीलगढ़ हैं. हम सबको अपने भीतर के उस अनंत को तलाशना है जो जीवन पर, प्रेम पर मनुष्यता पर भरोसा करता है और उसी भरोसे की उंगली थाम बदलाव के सफर पर चल पड़ता है.

इस किताब को पढ़ते हुए हमें अपने भीतर की उस यात्रा पर निकलने का अवसर मिलता है जीवन की आपाधापियों में जहाँ जाना हमसे छूट गया था. कथा नीलगढ पढ़ते हुए कई बार रोयें खड़े होते हैं, कई बार मन गुस्से से भर उठता है और कई बार बुक्का मारकर रोने का दिल करता है.

एक और बात इस किताब को ख़ास बनाती है वो है इसका प्रोडक्शन. एकलव्य प्रकाशन से प्रकाशित हुई इस किताब की बुनावट, बनावट बहुत ही कलात्मक है, बहुत सुंदर है.

किताब- सब मजेदारी है! कथा नीलगढ़
लेखक- अनंत गंगोला
प्रकाशक- एकलव्य प्रकाशनमूल्य- 175 रुपये

Sunday, March 27, 2022

टर्निंग प्वाइंट




जब आँखें नींद से बोझिल होने लगती हैं ठीक उसी वक़्त नींद न जाने कहाँ चली जाती है. फिर उन सपनों को टटोलते हूँ जिन्हें असल में नींद में आना था. उन सपनों में एक सपना ऐसा भी है जिससे बचना चाहती हूँ. लेकिन जिससे बचना चाहते हैं हम वो सबसे ज्यादा सामने आ खड़ा होता है. उस अनचाहे सपने से मुंह चुराने की कोशिश में रात बीतती है और सुबह होते ही कोयल जान खाने लगती है.
 
बालकनी की खिड़की खोलते ही मंजरियों की ख़ुशबू घेर लेती है. पूरा शहर इस ख़ुशबू में डूबा है इन दिनों. इस ख़ुशबू में एक दीवानगी है, उम्मीद है. कुछ रोज में ये शाखें जो मंजरियों से लदी पड़ी हैं फलों के बोझ से झुकने लगेंगी. फिर शहर फलों की ख़ुशबू में डूब जाएगा.

इन सबके बीच मैं नींद तलाशते हुए कोयल से झगड़ा करुँगी.

उसे अपनी कशमकश की बाबत कुछ नहीं बताउंगी. किसी को नहीं बताउंगी कि मुझे किसी से कोई भाषण नहीं सुनना. हाँ, जानती हूँ कि जिदंगी एक ब्लाइंड टर्न पर है, उस पार न जाने क्या होगा की धुकधुकी, उदासी, उम्मीद सब मिलजुल कर मन का ऐसा कॉकटेल बना रहे हैं कि क्या कहूँ. सोचती हूँ, कहीं छुप जाऊं, दूर से देखूं खुद को. इस मोड़ के पार होने तक आँखें बंद किये रहूँ लेकिन आँखें बंद करने का ऑप्शन नहीं है. खुली आँखों से यह मोड़ पार करना है...उस पार क्या पता मीठी नींद हो, थोड़ी कम बेचैनी हो और हो कुछ ऐसा जिसे देख दिल कहे, अरे, यही...बस इसी की तो तलाश थी...

रात गुज़ारिश के 'ये तेरा ज़िक्र है या इत्र है' के साए में बीती और सुबह 'सौ ग्राम ज़िन्दगी' गुनगुना रही है.
मैं उम्मीद के काँधे पर सर टिकाये हूँ और कोयल कमबख्त जली जा रही है, कूके जा रही है...

https://www.youtube.com/watch?v=saH2Shlup1Q

Saturday, March 19, 2022

बेआवाज टूटता है कोई दुःख


यूँ ख़ुशी के साथ हल्की उदासी की रेख हमेशा ही चलती है. इन दिनों यह बढ़ गया है. एक युवा अचानक उठकर चल दिया अनंत की यात्रा पर. क्या दुनिया का कोई शब्द, कोई बात उसे जरा भी कम कर पाने में सक्षम है. दुनिया की तमाम इबारतें, तमाम शब्दकोष रुआंसे हैं, मौन हैं, उस दुःख के आगे सजदे में हैं. कोई लौटा नहीं सकता उसे जो अब स्मृति के देश का वासी हो गया है. कितने लम्हे जीने थे अभी साथ में, कितने सपने साथ देखने थे, कितना कुछ था जो छूट गया. जैसे बजते हुए एक मीठा राग अचानक साज बिखर गया, टूट गया. वह राग टूटा ही रहेगा अब.

कितना कुछ होना था इस जीवन में
जो हुआ ही नहीं
कितना कुछ था जो अधूरा छूट गया
कितनी शिकायतें
जिनकी कभी सुनवाई न हुई
कितने रास्ते पथिकों के इंतजार में रहे
कितने सुख रखे-रखे ऊंघते रहे
और एक दिन उनके गालों पर
झुर्रियां उग आयीं
कितनी चुप्पियाँ शब्दों के ढेर के नीचे
बेआवाज कराहती रहीं

कितना कुछ होना था इस जीवन में
जो हुआ ही नहीं
कि ढेर सपने होने थे सबकी आँखों में
प्रेम के, मनुहार के, मेलजोल के
और उनमें झोंक दी गयी हिंसा, घृणा, लिप्सा
कितने कदम चलना था साथ एक लय में
और बिना किसी लय के भागते ही रहे कदम
किसी के दुःख में बैठना था
उसके काँधे से सटकर चुपचाप
और हम तलाशते रहे शब्द
हम एक जरा सी दूरी तय न कर सके
जबकि कोई लांघकर चला गया
समूचा जीवन, समूचा मोह

होना तो यह था कि
उदास हथेलियों को लेकर अपने हाथ में
कोई कहता कि मैं हूँ न...
और सचमुच जीवन में
खिल उठता बसंत इन्हीं तीन शब्दों से
लेकिन तमाम उम्र उम्मीद के
टूटने की आवाजें बटोरने में गुजर गयी
कितना कुछ होना था इस जीवन में
जो हुआ ही नहीं.

Wednesday, March 16, 2022

प्रेम के प्रेम में होना


इस तस्वीर को देखती हूँ तो भीतर कुछ भरावन सी महसूस होती है. सघन प्रेम का स्वाद है इस तस्वीर में. जैसे जिए जा रहे एक लम्हे में डूबे हुए दो लोगों की कोमल छवि को सहेज लिया हो किसी ने. इतने सुभीते से कि जिए जा रहे लम्हे को ख़बर भी न हो.

इस तस्वीर में तीन प्रिय लेखक हैं. एक हैं मेरे प्रिय लेखक मानव, दूसरे हैं मेरे प्रिय लेखक विनोद कुमार शुक्ल और तीसरे जो कि असल में पहले हैं मानव के प्रिय लेखक. पाठक इस तरह अपने लेखक के साथ खुद को जोड़ता चलता है जहाँ एक त्रयी बनती है, अपनेपन की एक धुन बनती है.

मानव को उनकी पहली पुस्तक के प्रकाशन के बहुत पहले से पढ़ रही हूँ. वो मुझे बहुत अपने से लगते हैं. उनके लिखे में एक ख़ास बात है वो यह कि ज़िन्दगी की तमाम उलझनों के बीच जब-जब पढ़ने-लिखने की खिड़की बंद हुई, कुछ भी लिखना पढ़ना स्थगित हुआ, सोचना समझना मुश्किल हुआ तब भी मानव को पढ़ने की राह खुली ही मिलती थी. उनकी ब्लॉग पोस्ट्स को कई-कई बार पढ़ा है. उनके नाटकों को पढ़ा है, नाटकों को देखा है, कविताओं से बातें की हैं. ऐसे ही शायद मानव ने विनोद कुमार शुक्ल को पढ़ा होगा. शायद नहीं यकीनन. इससे ज्यादा ही शायद.

आत्मीयता की ऐसी गढ़न, ऐसी खुशबू बेहद स्वाभाविक होती है. इसे चाहकर रचा नहीं जा सकता. जैसे किसी को चाहकर प्रेम नहीं किया जा सकता. वो तो बस हो जाता है. यह उसी हो गये प्रेम की तस्वीर है. इस तस्वीर में उस पाठक के सुख की बाबत लिखा नहीं जा सकता जो इन दोनों के प्रेम में हो.

ऐसा ही अनुभव मुझे मारीना और रिल्के की बाबत हुआ था. मेरी प्रिय लेखिका मारीना और मेरे प्रिय लेखक रिल्के. जब मुझे मारीना और रिल्के के पत्र पहली बार पढ़ने को मिले थे मैं ख़ुशी से झूम उठी थी. नाचती फिरती थी. जैसे कोई खजाना मिल गया हो. मुझे याद है मारीना किताब पर काम का सबसे पहला हिस्सा उन्हीं पत्रों से शुरू हुआ था. यह अजब सी ख़ुशी होती है. इस ख़ुशी में एक गढ़न होती है, एक खुशबू होती है, कोई संगीत होता है. इस ख़ुशबू में रच-बस जाने का मन करता है. इस संगीत में डूबे रहने का जी चाहता है.

विनोद जी के स्नेहिल एक्सप्रेशन और मानव का उनके लाड़ में लिपटा हुआ होना. विनोद जी से मिलने की मेरी इच्छा को कुछ ठौर मिलता है इस तस्वीर में. मैं इस तस्वीर के प्रेम में हूँ.

चाय की तलब ज़िन्दगी की तलब है

सुख की परत बहुत हल्की सी होती है. लेकिन बहुत आकर्षण होता है उसमें. हम खिंचे चले जाते हैं उसकी ओर. उसके भीतर गाढ़ा दुःख जमा होता है. वो दुःख हमारे साथ हो लेता है. हम उसके साथ हो लेते हैं. शुरू-शुरू में उस दुःख में भी सुख की ख़ुशबू मौजूद मिलती है. धीरे-धीरे वो ख़ुशबू विलीन होती जाती है. दुःख की अपनी ख़ुशबू उगने लगती है. हमें वो अच्छी लगने लगती है. हमें दुःख की आदत होने लगती है. तब भी जब हम उस दुःख से निकलना चाहते हैं अनजाने कहीं इच्छा रहती है कि वो दुःख हममें बचा रहे, चाहे थोड़ा सा ही. एक रोज एहसास होता है कि इस दुःख के बिना तो हमारा अस्तित्त्व ही नहीं रहा. इसके बिना हम रहेंगे कैसे, जियेंगे कैसे. फिर हम कंधे चौड़े करते हैं, खुद को दुःख से मुक्त करने के लिए तैयार करते हैं और एक रोज...

...एक रोज हम सच में दुःख से आज़ाद हो जाते हैं. अब न कोई इंतज़ार, न कोई पीड़ा न कोई मुक्ति की इच्छा. जीवन एकदम खाली हो जाता है. इतना खाली जिसकी न हमें आदत थी न अनुभव. खाली पड़े पेड़ों की शाखों की तरह इस उम्मीद में कि कोई कोंपल फूटेगी...

फिर हम उस दुःख की याद को याद करते हैं. वो याद नहीं आता, वो जा चुका है. 

जब जीवन से सुख और दुःख दोनों जा चुके हों तब जीवन कितना मुश्किल होता है यह जीकर ही जाना जा सकता है. अब स्मृतियों को खुरचने से भी दुःख वापस नहीं आता...खाली आँखों में न कोई सपना, न कोई आंसू.

देह जैसे साँसों का बोझ ढो रही हो. कि सांस है तो जीने की जिम्मेदारी है जिसे सलीके से जीना है. जीना क्यों है लेकिन...इसका जवाब मिलता है कि मरना भी क्यों है आखिर. इस सबके बीच जीवन दूर कहीं मुस्कुरा रहा होता है. हमें सुख और दुःख के खेल में उलझाकर वो रामनारायण की टपरी पर चाय सुड़क रहा है. 

कदम चाय की टपरी की ओर अनायास बढ़ने लगते हैं लेकिन रामनारायण की टपरी जिस क्षितिज पर है वहां पहुँचने की यात्रा अनवरत चलते जानी है...चाय की तलब असल में ज़िन्दगी की तलब है.  

Monday, March 7, 2022

सीख रही हूँ

कितनी खुशनुमा होती हैं वो सुबहें जब आँख खुले और इनबॉक्स पाठकों के प्यार से इतराता हुआ मिले. ढेर सारे ख़त, ढेर सारा प्यार. यही अमानत है.
 
अपनी ही राख से फिर-फिर उगना
उगाती रही जो फसलें जतन से
उन फसलों को काटना भी खुद
और मोल तोल कर दाम भी लेना
सीख रही हूँ
 
लज्जा, विनम्रता, सहनशीलता के जो गहने
लाद दिए थे न मुझ पर
उनके बोझ से मुक्ति पाकर
आज़ादी की सांसें लेना
अपने लिए खुद ही रास्ते चुनना
उन पर सरपट भागते फिरना
ठोकर खाना, उठना, फिर चलना
सीख रही हूँ

मिसेज फलां-फलां वाली पट्टी को
झाड़ पोंछकर
अपने नाम को सजाकर लिखना
बच्चों के दस्तावेजों में
एक तुम्हारे नाम की खातिर
तुम संग रहने, हर पल सहने
से बाहर आना सीख रही हूँ

तुम्हारी कहानियों, कविताओं,
उपन्यासों की नायिका बनकर
बहुत रह चुकी, ऊब चुकी
अब खुद की रचनाओं की
नायिका बनना
अपने लिखे पर अपने ही
हस्ताक्षर करना सीख रही हूँ

अपनी सुबहों, अपनी शामों को
अपने ही नाम करना
खुद संग जीना, खुद संग रहना
सूरज की किरनों को ओढ़ देर तक
समन्दर की लहरों को तकना सीख रही हूँ...

(आज के दैनिक जागरण में प्रकाशित)

Saturday, March 5, 2022

कहानी- सात बजकर दस मिनट



-ज्योति नंदा
घड़ी में सात बजकर दस मिनट हुए थे जब माँ अपने मायके जाने के लिए घर से निकली थी। जब सूचना मिली ‘नानाजी की तबियत ठीक नहीं है आकर मिल लो’ तब भी घड़ी में सात बजकर दस मिनट हो रहे थे। माँ के कमरे में रखी उस टेबल क्लॉक में तब भी सात बजकर दस मिनट और तेरह सेकंड बजते थे जब वह स्कूल से घर लौटने की प्रतीक्षा करते हुए मेरे लिए पसंदीदा पकवान बना रही होती थी। पूजा करते, सफाई करते, गमलों की देखभाल करते, बाजार से सामान खरीदते वक्त, हर काम सात बजकर दस मिनट पर। उसके हल्के रंग की साड़ियों से मैच करते आसमान में तपता सूरज हो या मेरी ड्रॉइंग कॉपी में सावन और बसंत के गाढ़े रंगों वाली सीनरी जैसी चमक का मौसम, उसने कभी किसी से नहीं पूछा कि समय क्या हो रहा है।

समय को बीतने के लिए घड़ी की जरूरत नहीं होती।

कक्षा दस तक मेरे पास घड़ी नहीं थी, जरूरत ही नहीं महसूस हुई। कलाई घड़ी मिली मगर जरूरत की वजह से नहीं बल्कि मेरे जन्मदिन पर उपहार स्वरूप मामाजी ने दी थी। उस घड़ी माँ की आवाज में जो औपचारिकता और दयनीयता थी वो मुझे नहीं भूलती, ‘इसकी क्या जरूरत थी भाईसाब, आपका आशीर्वाद ही काफी है।’ मामा ने बहुत लाड़ से कहा था ‘मेरा भांजा है उसे गिफ्ट नहीं दे सकता क्या,

सात बजकर दस मिनट बताने वाली घड़ी के अलावा अब मेरी दराज में रखी रिस्ट वॉच भी थी जो सिर्फ दोस्तों में रौब जमाने काम आती थी।

स्कूल जाने के लिए माँ मुझे सुबह उठा देती थी। और शाम को खेलने कब जाना है, ये खुद समझ आ जाता था जब वो हर दिन घर के सारे काम निपटाकर, थकान उतारने के लिए अपने कमरे में जाती और दोपहर की एक तय झपकी के बाद उठती थी और बाजार जाने के लिए निश्चित समय पर तैयार होती। मैं समझ जाता था कि मेरे खेलने का समय हो गया।

स्कूल की पढ़ाई पूरी होने तक हम दोनों एक-दूसरे का समय थे।
इंजीनियरिंग कॉलेज में आने तक मेरा और घड़ी का नाता दूर का ही रहा। माँ के सात बज कर दस मिनट पर जीवन सुरक्षित था।
एक दिन वो भी आ गया जो हर एक मध्यवर्गीय नौजवान के जीवन मे कभी न कभी आता ही है। वास्तव में बेटों को पाला ही जाता है इसी दिन के लिए।

मैं भी पहली नौकरी के लिए दूसरे शहर जाने को तैयार था। घड़ी में सात बजकर दस मिनट हो रहे थे मैंने माँ से कहा ‘ये टेबिल क्लॉक बनवा दूँ।‘

अपनी अनुपस्थिती को टिक-टिक से भरने की कोशिश थी शायद। माँ ने मुझे यूँ देखा जैसे मैंने ऐसी इच्छा जाहिर कर दी जिसे वो चाहकर भी पूरा नहीं कर सकती। जान से ज्यादा प्यारी इकलौती संतान की छोटी सी इच्छा चाहकर भी पूरी न कर पाने का दर्द उसकी आँखों में मुझसे देखा न गया और मैंने मुँह फेर लिया। उसने मेरा मन रखने के लिए कह दिया ‘बैठक में एक घड़ी टाँग दे’ मैंने वैसा ही किया और चला गया।

दूसरे शहर आकर मैं चकित सा होने लगा हूँ। मेरी घड़ी में अब रोज सुबह के नौ बजते हैं। कभी कभी शाम के छः बजते हैं। जब ऑफिस का काम जल्दी निपट जाता है। ऐसे ही एक रोज नये शहर का आसमान ताकते झील किनारे टहलते हुए अचानक घड़ी पर नजर गई ठीक सात बजकर दस मिनट हो रहे थे । मुझे लगा मेरी घड़ी बंद पड़ गयी है। फिर टिक टिक सुनी पर घबराहट और बढ़ गई। दिमाग खुद को समझाने मे उलझता जाता कि क्यों परेशान हो, ये वक्त घड़ी में पहली बार तो नहीं बजा है, लेकिन ये इस घड़ी में क्यों बजा ये तो माँ का समय है। जाने कैसी बेचैनी, कितने सवाल, ढेरों जवाब सीने में उफनती धड़कन और टिक-टिक सब गड्मड्...। लगा अब एक कदम भी आगे नही बढ़ा पाऊँगा, सब ठहर जायेगा मेज घड़ी की तरह । घबराहट में कलीग को बुला लिया। बहुत मुश्किल से खुद को संयत कर झील किनारे बेंच पर बैठे हुए उसके कदमों को अपनी ओर बढ़ते हुए देख रहा हूँ ऐसा लग रहा है घड़ी की सुइयाँ चल रही हैं। सुचित्रा के आते ही कब साढ़े नौ बज गये पता नहीं चला।

उस दिन के बाद से समय दौड़ने लगा। हर काम जल्दी-जल्दी निपटा कर शाम का इंतज़ार करने लगा। एक बार फिर साबित हुआ कि समय को बीतने और ठहरने के लिए घड़ी की जरूरत नहीं होती। सात बजकर दस मिनट कब बजे ध्यान नहीं जाता। माँ की चिन्ता होती तो फुर्र से उड़कर उनके पास पहुँच जाता। ये सुनिश्चित कर वापस लैाट आता था कि दीवार घड़ी की टिक टिक ने माँ से सात बजकर दस मिनट को कोई नुकसान नहीं पहुँचाया है।

मेरी दुनिया में कुछ नयी घड़ियाँ शामिल हो गई हैं। उनमें से सुचित्रा की घडियाँ दिल के करीब आ गईं हैं। अक्सर इतवार का दिन उसके घर ही बीतने लगा। उस घर में ढेर सारी घड़ियाँ हैं। दीवार पर, मेज पर, कोने में सजी संवरी, आधुनिक ऐंटीक हर तरह की समय के साथ चलती हुई घड़ियाँ। एक दीवार पर वो पेंटिग भी है जिसमें पेंटर ने घड़ी को पिघलते हुए चित्रित किया है। उसकी माँ से मिलकर बहुत अलग अनुभव होता है, माँ ऐसी भी होती है। दोस्त जैसी। सुचित्रा से बातों के दौरान पहली बार सुना ‘सिंगल पैरेंट’। ये दो शब्द अपने जीवन से जुड़े भी लगे और नहीं भी। सुचित्रा की माँ ने उसे अकेले पाला था, जैसे ‘तुम्हारी माँ ने तुम्हें’ वो अक्सर कहती थी। पर मैं यह बात अपने बारे में निश्चित तौर पर नहीं कह सकता था। हमारे साथ सात बजकर दस मिनट भी था हर समय प्रॉक्सी पैरेंट की तरह।

सुचित्रा बताती है माँ को घड़ियों का बहुत शौक है। ये जो क्लासिक घड़ी मेरी कलाई पर देख रहे हो ये उन्हीं के कलेक्शन से है। उसने अपनी सुडौल कलाई दिखाते हुए कहा। ‘ये भी अजीब शौक है फिजूलखर्ची वाला। सारी घड़ियाँ एक वक्त पर एक समय बताती हैं’ मैंने ईर्ष्या से कहा। उसने समझाया ‘हाँ! पर ये उन्हें पसंद है। जैसे अधिकतर औरतों को गहनों का शौक होता है उसी तरह उन्हें घड़ियाँ पहनना और घर में सजाना अच्छा लगता है। माँ अपने शौक को लेकर बहुत पर्टिकुलर है। किसी से नहीं पूछती, किसी पर निर्भर नहीं हैं. वो बोलती जा रही थी....’ममा ने मुझे बचपन में भी कभी ये कह कर नहीं डराया ‘कर लो शैतानी जितनी करनी है नौ बजने दो आने दो पापा को फिर पता चलेगा...’

मैं अपनी माँ के बारे में सोचने लगा। माँ के शौक भी होते हैं ‘मेरी माँ को क्या पसंद था’.
‘पता नही।’
बहुत जोर डालने पर भी नहीं याद आया ऐसा कुछ भी जिसे शौक कहा जा सके। एक बार उन्हें शहर घुमाने ले गया था, मुझे लगा उन्हें अच्छा लगेगा। पर मैंने महसूस किया उनका मन तो वहीं अटका था। देाबारा मैंने भी जानने की कोशिश नहीं की कि उन्हें क्या पसंद है क्या नहीं हर हफ्ते मिलने चला जाता और फिर चुपचाप अपने काम पर लौट आता। धीरे- धीरे समय की कमी होने लगी है मुझे। अब केवल छुट्टियों में ही माँ के पास आना होता है। कभी-कभी माँ पर गुस्सा भी आने लगा है। झगड़ा करने को मन करता। क्या है ये ‘बस हर समय सात बजकर दस मिनट, लेकिन माँ से झगड़ा करना तो क्या, किसी तरह की असहमति की संभावना भी नहीं थी क्योंकि वो मेरी हर बात से सहमत थी। मैं अपने अंदर पनपते गुस्से और उठते सवालों पर अपराधबोध से भर जाता हूँ। क्यों माँ से नाराज होने लगा हूँ, वो माँ जिसने कभी किसी गलत आदत या झूठ बोलने पर भी पीटना तो दूर की बात डाँटा तक नहीं। यहाँ तक कि एक बार चोरी की लत लग गई और माँ को पता तब चला जब टीचर ने उन्हें बुलाकर शिकायत की। तब भी उसने ऐसे दिखाया जैसे कुछ पता ही न हो। ऐसी सीधी-सादी बेचारी माँ पर गुस्सा कैसे किया जाय।

जबकि सभी लोग उनसे बहुत हमदर्दी रखते थे। और अब सोचता हूँ कि माँ को इस दया से कभी कोई दिक्कत क्यों नही थी।
माँ ने कभी नहीं कहा कि मेरे जाने से घर सूना लगता है। नौकरी के साल भर होते-होते मैंने देखा उनकी सेहत गिर रही है। दुबला पतला शरीर और ज्यादा मुरझाया, बेजान सा दिखने लगा। मामा ने डाँटते हुए समझाया ‘वो तो ऐसी ही है कुछ कहती नहीं तो क्या तुम्हें दिखता नहीं तुम्हें पालपोस कर बड़ा करने में कितनी तपस्या की है उसने अब जवान बेटे के कंधों का सहारा उसका हक़ है।’ एक बार फिर ग्लानि से भर गया। अधिकारियों से माँ की बीमारी और अकेलेपन की दुहाई दे किसी तरह तबादला वापिस अपने शहर में करा लिया। और साथ ही सुचित्रा के साथ शादी का फैसला भी। माँ आज मुस्कुराई शायद पहली बार उसकी आँखो में पनीली सी चमक दिखी।

बारात चढ़ने का समय हो रहा था माँ अपने कमरे में सात बजकर दस मिनट के सामने खड़ी बुदबुदा रही थी ‘ऐसी भीड़भाड़ और शोर इक्कीस बरस पहले हुई थी।’ मामी उन्हें ढूढँते हुए ठीक समय कमरे में पहुँची और सुन लिया। नाराज भी हुईं कि उन्होने शुभ मौके की बराबरी अनहोनी से क्योंकि, बात कमरे से बाहर भी कुछ लोगों तक पहुँच गई सभी के मन में माँ के लिए आश्चर्य मिश्रित दया भर गई। वे सब नहीं जानते कि जब पूरी ज़िन्दगी सात बजकर दस मिनट तेरह सेकंड पर बीत रही है तो ये अवसर कैसे साझा नहीं होगा। इ..ई ’माँ ने बेहोश होने से पहले कहा कुछ देर में डॉक्टर माँ को होश में ले आये। उनकी बहू ने घबराकर बताया ‘आज शाम ही घड़ी रिपेयर करने को देकर आई हूँ, बंद घड़ी का घर में होना अशुभ होता है।’ उस रात मैं माँ के पास ही रहा। बार-बार उनकी धड़कनें सुनता और टबल क्लॉक की खाली जगह देखकर खो जाता जैसे किसी ने समय मे सेंध लगा दी हो। मैं तो नई घड़ियों का अभ्यस्त हो गया हूँ पर माँ सोचते- सोचते आँख लग गई।

अगली सुबह मैं और सुचित्रा जगे पर माँ नहीं। जैसे इक्कीस बरस पहले पिताजी की सांसें टूट गईं थी और उनकी र्निजीव देह भहराकर गिरते हुए मेज की उस खाली जगह पर रखी घड़ी से टकराई थी सात बजकर दस मिनट तेरह सेकंड पर।

(लेखिका ने कई वर्षों तक विभिन्न हिन्दी अखबारों हिन्दुस्तान, स्वतंत्र भारत, जनसत्ता, नई दुनिया आदि में स्वतंत्र लेखन किया। थोड़े समय र॔गमंच से जुड़ाव। 2017 से फिल्म निर्माण के क्षेत्र में कथा पटकथा लेखन जारी। "रंगम फिल्मस" से जुड़कर ‘कॉटन कैंडी’ ‘वाशरूम’ ‘दोहरी सोच’ तथा एक निर्माणाधीन शॉर्ट फिल्म की पटकथा भी लिखी। 2020 मे उपन्यास A son never forgets का हिन्दी अनुवाद ("पदचिह्न") प्रकाशित। लेखन के साथ वर्तमान में आकाशवाणी लखनऊ में समनुदेशी उद्घोषिका के रूप में कार्यरत।)

Wednesday, March 2, 2022

उदास समय और बदली हुई लड़ाइयाँ


- प्रतिभा कटियार
बहुत दिन हुए कि बहुत दिन नहीं हुए. ऐसा लगता है समय कहीं ठहरा हुआ है. फिर लगता है ठहरा ही रहता तो भी ठीक होता शायद. कभी-कभी समझ में नहीं आता दुःख है या उदासी. या दोनों ही हैं. हाँ, वही वजह जो होते हुए भी नहीं है. हिज़ाब का मुद्दा. अपनी भूमिका को तलाशती हूँ. क्या सोचती हूँ, क्या चाहती हूँ, किस तरफ हूँ. जाहिर है मैं किसी भी तरह की पर्देदारी की तरफ नहीं हूँ चाहे वो घूँघट हो नकाब. मैं किसी भी तरह के ऐसे परम्परागत पहनावे का समर्थन इसलिए नहीं करती क्योंकि उसे समाज ने ठीक माना है. जिसे जो पहनना है, जैसे रहना है यह नितांत निजी मसला है. लेकिन जैसे ही यह ‘निजी’ की बात आती है इसमें ढेर सारी कंडीशनिंग आ जाती है, ढेर सारा सामाजिक हिसाब-किताब, दबाव. और फिर वही बात कि हम नहीं जानते कि हमारी मर्जी बनकर जो हमारे भीतर है वो असल में समाज की पहले से सोची हुई तय की हुई बात है, व्यवहार है. तो इस लिहाज से हिजाब के समर्थन या न समर्थन की बात ही नहीं, जिसकी जो मर्जी हो वो पहने. लेकिन जिसकी मर्जी न हो उस पर कोई दबाव भी न बनाये.

अगर सच में कोई बदलाव चाहिए तो मर्जी को सच में उनकी ही मर्जी होने देना होगा. हम सब इसके शिकार हैं. हमारा पूरा आचरण, व्यवहार, खान-पान भाषा, बोली, लिबास, संस्कृति, त्योहार सब इसके दायरे में है. आज जब हिजाब को राजनैतिक उपयोग के लिए इस तरह चर्चा में लाया गया है तो उन सबके साथ ही पाती हूँ जो हिजाब पहनने को अपना हक मानती हैं. यह बिलकुल वैसा ही है जैसे सबरीमाला मंदिर में स्त्रियों के प्रवेश को लेकर बात थी. तब भी समझ नहीं आ रहा था कि मैं इन स्त्रियों के मंदिर में जाने की लड़ाई में साथ क्यों हूँ जबकि मेरी तो किसी मन्दिर-मस्जिद, चर्च, गुरूद्वारे में कोई आस्था है नहीं. बात वही सबके बराबर के हक की. लोकतांत्रिक व्यवहार की. हिजाब के खिलाफ जो हैं वो क्या घूँघट के खिलाफ भी हैं? वो क्या चूड़ियों और सिन्दूर के खिलाफ भी हैं. और क्यों होना है खिलाफ? समझ विकसित करनी है जिसके लिए शिक्षा की जरूरत पड़ेगी. शिक्षा जो बायस्ड न हो, अपनी मर्जी के मायने समझाए, सवाल करना, तर्क करना सिखाये.

फिर खुद पर हैरत होती है. क्या इतने बड़े राजनैतिक स्टंट का ऐसे मासूम सवालों से मुकाबला किया जा सकता है. होना तो यह था कि इल्म की रौशनी में हम सबको ऐसी तमाम रूढ़ियों, परम्पराओं से मुक्त होना था जिनका कोई अर्थ नहीं लेकिन हुआ यह कि उन्हीं रूढ़िगत ढांचों को जिन्हें गिराना था उनकी पैरवी करनी पड़ रही है कि भाई पहनने दो हिजाब, जाने दो मंदिर. कोई जरूरी नहीं कि जो हिजाब में है उसकी सोच स्वतंत्र न हो, बिलकुल वैसे ही जैसे कोई जरूरी नहीं कि जो लिबास और जबान से मॉर्डन दिख रहा है वो विचारों में, सोच में भी मॉर्डन हो.

यही है असल राजनीति. हमारी लड़ाई ही बदल दे जो. हमारी खड़े होने की दिशा ही बदल दे. कि जब हमें एक-दूसरे को समझना हो. एक-दूसरे के दुःख पर मरहम रखना हो तब हम एक-दूसरे के प्रति नफरत से भर उठें.

रवीश कुमार ने अपनी एक पोस्ट में लिखा कि एक बच्ची का उनके पास मैसेज आया कि छात्रों के वाट्स्प समूह में वो शिक्षिका सांप्रदायिक भेदभाव वाले मैसेज फॉरवर्ड करती हैं. शिक्षिका हैं वो उन्हें तो इन दीवारों को तोड़ना था वो मजबूत कर रही हैं, नयी दीवारें खड़ी कर रही हैं. इन्हीं जैसे शिक्षकों के विद्यार्थी होंगे वो जो भगवा लहराते हुए हिज़ाब की खिलाफत कर रहे थे. दुःख होता है, उदासी होती है. कैसे हो गए हम, हमें ऐसा तो नहीं होना था.

हमारी लड़ाइयाँ तो कुछ और होनी थीं और उन्हें बना कुछ और दिया गया है. हम न लड़ें तब भी उन्हीं की जीत है और हम बदल दिए गए हालात में बदले हुए मुद्दों के लिए लड़ें तो भी जीत उन्हीं की है.

इस उदासी में एक ही उम्मीद है शिक्षा व शिक्षक. शिक्षकों को अपनी असल भूमिकाओं को समझना होगा, अपने व्यवहार, सोच और तरीकों को पलट-पलट कर देखना होगा कि कहीं, जाने-अनजाने वो ऐसा कोई व्यवहार तो नहीं कर रहे जो एक पूरी पीढ़ी को उलझा रहा हो.

शिक्षा सिर्फ मार्कशीट में दर्ज नम्बर भर नहीं होती वो होती है जीवन को देखने की दृष्टि, मनुष्य होने की संवेदना. क्या हममें वो है? इस प्रश्न पर हम सब पढ़े-लिखे लोगों को एकांत में सोचने की जरूरत है, वरना पब्लिक फोरम में तो सबसे ज्यादा असंवेदनशील लोगों ने अपने भाषणों से लोगों को खूब रुलाया है और तालियाँ बटोरी हैं.