Sunday, November 27, 2022

तेरी आँखों में मेरा चेहरा



सुबह के कान में धीरे से कहा, 'मन नहीं लग रहा यार'. सुबह ने पलकें झपकायीं, सर पर हाथ फेरा और अपनी बाहें फैला दीं. उन बाहों में समाती गयी और मन का लगना जाने कहाँ गुम हो गया. कासे के लहराते फूल, पानी की मीठी सी आवाज़, लाल पंख और सफ़ेद धारी वाली चिड़ियों की शरारतें, सिर्फ मोहब्बत के आगे झुकने वाले पहाड़ों पर गिरता सुबह की धूप का टुकड़ा. कुदरत का एक ऐसा कोलाज कि उदास रातों को इस कोलाज के आगे पनाह मिले.

एक बार एक दोस्त ने कहा था कि हर आने वाले लम्हे का उत्सुकता से इंतज़ार करता हूँ कि न जाने उसकी मुठ्ठी में क्या हो. अब मैं भी वही करती हूँ. आने वाले लम्हों की आहटों पर कान लगाये रहती हूँ, उम्मीद के काँधे पर सर टिकाये ज़िन्दगी के खेल देखती हूँ. वो ज़िन्दगी है, हैरान करने का हुनर उसे खूब आता है. कब कौन सा रास्ता बदल दे, कब कहाँ से उठाकर कहाँ पहुंचा दे कुछ कह नहीं सकते. बस कि खुद को ज़िन्दगी के हवाले करना होता है और उसके सारे रंगों से मोहब्बत हो ही जाती है.

मैं ज़िन्दगी की आँखों में झाँककर मुस्कुराती हूँ, वहां मेरी ही सूरत नज़र आती है.

Saturday, November 26, 2022

सुबह का बोसा


जंगल के पास जीवन के बड़े राज हैं. कभी उनके क़रीब जाना और चुपके से किसी दरख्त की पीठ से टिककर बैठ जाना. जंगल अपने राज यूँ ही नहीं खोलते, वो तुम्हें देख मुस्कुरा देंगे. जंगल की बात सुनने के लिए मौन की भाषा सीखनी होगी. दृश्य के भीतर जाने के लिए दृश्य के पार देखना सीखना होगा. अपना तमाम 'मैं' उतारकर उनके क़रीब जाना होगा और तब देखना कोई जादू घटेगा. अपने ही गालों पर कुछ सरकता सा महसूस होगा. वो सुख होगा. आँखों के रास्ते गालों तक पहुँचता सुख.
 
हरे रंग की यात्रा पूरी कर चुकी पत्तियां तुम्हारे आसपास कोई सुनहरा घेरा बना देंगी. उन पीली पत्तियों के पास जीवन के हर सवाल का जवाब मिलेगा. किसी भी पेड़ पर चढ़कर इतराती, खिलखिलाती लताओं में इकसार होकर निखरने का मन्त्र मिलेगा. अपनी हथेलियों में सूरज की किरनें सहेजे जंगल से पूछना कभी उम्मीद के उन जुगनुओं की बाबत जो कैसे भी गाढे अँधेरे में चमकते रहते हैं.

जंगल से गुजरना जंगल के क़रीब होना नहीं है ठीक वैसे ही जैसे किसी व्यक्ति के पास होना उसके क़रीब होना नहीं है. अपनी सुबहों में कुछ खुद को खो रही हूँ, कुछ खुद से मिल रही हूँ. 

सूरज की पहली किरन का बोसा मुझे लजा देता है. मेरे चलने की रफ्तार तनिक धीमी पड़ती है...फिर आसमान देखती हूँ और मुस्कुराकर रफ्तार थोड़ी सी बढ़ा लेती हूँ. चलने की नहीं, जीने की.   

Friday, November 25, 2022

श्रद्धा के बहाने कुछ जरूरी सवाल



वो संभावनाओं से, सपनों से और प्रेम से भरी एक लड़की थी। वो इस बड़ी सी दुनिया में अपने सपनों को बोना चाहती थी। वो इस धरती को प्रेम से भर देना चाहती थी। घर, शहर की दहलीज लांघकर उसने बड़े शहर के बड़े से आसमान पर अपना नाम लिखने का हौसला थामा हुआ था। कुछ डर, कुछ उपेक्षाएं, अपनों की कुछ नाराजगी साथ लेकर भी वो अपने सपनों के सफर पर निकल पड़ी थी। हाँ, वो घर से प्रेम करने नहीं करियर बनाने ही निकली थी कि उसके कंधे पर किसी ने हौसले से भरा हाथ रखा। जैसे कहा हो, ‘मैं हूँ तुम्हारे साथ’. थोड़ा सा ख्याल रखा जैसे कहा हो, ‘तुम बेफिक्र आगे बढ़ो मैं हूँ न’। लड़की उस सार-सहेज को प्रेम समझ बैठी और एक दिन उसी प्रेम के नाम पर छली गयी। क्रूरता की तमाम हदें पार करते हुए उसे मौत के घाट उतार दिया उसी ने जिसे वो प्रेमी समझ बैठी थी। उसकी नफरत की शिकार हुई जिसे वो प्रेम समझ बैठी थी। हाँ, यह कहानी मुम्बई की श्रृद्धा की है लेकिन क्या सच में यह कहानी सिर्फ मुम्बई की श्रृद्धा की ही है।

मुंबई की श्रद्धा के साथ दिल्ली में जो कुछ भी हुआ वह दिल दहला देने वाला है। लेकिन यह समय उन कारणों को जानने, समझने और महसूस करने का है कि आखिर कौन सी हैं वो वजहें जो लड़कियों को ऐसे मुश्किल रिश्तों में उलझा रही हैं। बात सिर्फ श्रृद्धा की ही नहीं उन तमाम लड़कियों की भी है जो प्रेम के नाम पर रिश्ते की ओर बढीं और एक अब्यूजिव रिलेशन में फंस गयीं, फंसी ही हुई हैं। क्यों वे परिवार की नसीहतों को पीछे छोड़ किसी अजनबी में ढूँढने लगती हैं प्रेम, सहारा, सुरक्षा। कैसे कोई अजनबी उनके मन के उन कोनों को रोशन करने लगता है जिन कोनों की अब तक किसी ने सुध ही नहीं ली। ये रिश्ते उनका दैहिक, आर्थिक और भावनात्मक दोहन करते हैं और वो उसमें से निकल नहीं पातीं। क्या श्रृद्धा ने अपनी उलझनों के बीच कोई आवाज न दी होगी किसी को, या फिर हम एक समाज के, व्यक्ति के और परिवार के तौर पर उस आवाज को सुन पाने में असमर्थ रहे।

केयर करना प्रेम नहीं होता -


कोई अजनबी उम्र के नाजुक दौर में क़रीब आता है, थोड़ा प्रेम देता है, थोड़ा सहारा देता है, थोड़ी केयर करता है तो उन्हें महसूस होता है कि ऐसा तो उन्हें किसी ने कभी एहसास ही नहीं कराया। वो उस सार सहेज को प्रेम समझ उसकी ओर बढ़ने लगती हैं। और अक्सर ऐसे रिश्तों में उलझ जाती हैं जिनका अंजाम आगे चलकर अच्छा नहीं होता। असल में परिवार को वो जगह होना था जहाँ लड़कियां सिर्फ पलती और बढती नहीं बल्कि प्रेम, सुरक्षा, अपनेपन और आत्मविश्वास से लबरेज होकर बाहर निकलतीं। भावनात्मक रूप से मजबूत होकर बाहर निकलतीं। लकिन अफ़सोस कि अभी परिवार संस्था ने परवरिश के असल मर्म को समझना शुरू ही नहीं किया है।

परिवार, परवरिश और हम -

बच्चे कोई भी गलती करें एक उंगली परिवार की ओर भी उठती है। सवाल उठते हैं। कई बार वाजिब और कई बार गैर वाज़िब भी। लेकिन परवरिश सिर्फ परिवार में नहीं होती बच्चे की परवरिश इस समाज में होती है जिसमें माता पिता भाई बहन के अलावा दोस्तों, रिश्तेदारो और पड़ोसियों तक की भूमिका होती है। बच्चे की उपलब्धि को सब लपक लेना चाहते हैं और उनकी मुश्किल को या तो बच्चों के मत्थे उनकी गलती कहकर मढ़ देना चाहते हैं या परिवार की ओर ऊँगली उठाते हैं। मौजूं सवाल यह है कि परिवार और समाज की तैयारी नहीं है परवरिश की। अच्छे स्कूल, ज्यादा नम्बर, बढ़िया पैकेज की नौकरी के सपने देखने वाले परिवार बच्चों की आर्थिक जरूरतों को पूरा करने को ही परवरिश मान बैठते हैं। बच्चों के सपने, उनकी भावनात्मक जरूरतों को समझने की तो जैसे कोई तैयारी है ही नहीं। पैरेंट्स समझ ही नहीं पाता कि इतने लाड प्यार के बावजूद कैसे बच्चा इतना इग्नोर्ड फील करता रहा। अगर किसी बच्चे ने इस बाबत बात की तो उसे डपट दिया गया, ‘इतना कुछ कर रहे हैं तुम्हारे लिए’ के जुमले बच्चे लिए घूमते हैं। इसी के साथ जब बच्चे खासकर लड़कियां जब बाहर निकलती है तो उलझे हुए रिश्तों के मकडजाल में फंस जाती हैं। बात-बात पर अपने निर्णय थोपने वाले, गुस्सा करने वाले परिवार से वे दूरी बना लेना चाहती हैं।

भावनात्मक सपोर्ट जरूरी है -

जब बच्चियां बड़ी होती हैं तो पढ़ाई के लिए बाहर जाती हैं। पैरेंट्स उनकी पढ़ाई की एकेडमिक और फाइनेंशियल तैयारी तो करते हैं लेकिन उन्हें भावनात्मक रूप से तैयार नहीं करते हैं क्योंकि पैरेंट्स को ही तरीका नहीं पता है। पहले पैरेंट्स इसके लिए तैयार हों और बच्चियों को समझाएं कि बाहर निकलने पर दोस्त और रिलेशन बनेंगे लेकिन कब स्वीकार करना या कब तक सहन करना आदि भी बच्चियों को आना चाहिए। उनमें भी यह समझ विकसित करने की जरूरत है।

पैरेंटस सुनना स्वीकारें-


अक्सर देखा जाता है कि परिवार में बच्चों की बातों को ज्यादा तवज्जों नहीं दी जाती है। यह समझना जरूरी है कि क्या परिवार, रिश्ते वो जगह है जहाँ बच्चियां अपनी ज़िंदगी के सारे सुख, दुःख यहाँ तक कि लिए गए गलत निर्णय भी सहज ढंग से बिना किसी डर के साझा कर सकें। परिवारों को बच्चों के मन का डस्टबिन होना चाहिए जहाँ बच्चे सब कुछ उड़ेल सकें और खाली हो सकें। लेकिन बतौर समाज हम विवाह संस्था हो या परिवार संस्था इनके ग्लोरिफिकेशन का काम तो खूब करते हैं लेकिन इनके भीतर की दिक्कतों पर बात नहीं करते। इन संस्थाओं की पुनर्निर्मिति का समय है, इनके ढाँचे को री-डिज़ाइन करने का समय है।

जजमेंटल न हो-

जब बच्चा कुछ कहता है तो पैरेंट्स तुरंत जजमेंटल हो जाते हैं कि लडक़ा या लडक़ी गलत बोल रही है। वह गलत कर रही है। ऐसे में बच्चे अपनी बातों को छिपाने लगते हैं। एक समय के बाद बच्चे आत्मनिर्भर बनना चाहते हैं, उन्हें होना भी चाहिए। इसके लिए लोगों की पहचान करना, किससे रिश्ता रखें या नहीं वे अपनी पसंद के हिसाब से तय करना चाहते हैं। ऐसे में पैरेंट्स उनकी मदद करें।

कुछ सवाल खुद से भी-

देखने में आता है कि कोई बच्चा या कोई दोस्त आपकी पसंद का काम नहीं कर रहा है तो पैरेंट्स-दोस्त उसको अकेला छोड़ देते हैं। यह वही समय है जब उन्हें आपकी ज्यादा जरूरत होती है। रिलेशनशिप में श्रृद्धा के साथ मारपीट होती थी, लेकिन वह उससे अलग नहीं हो पाती थी। इसकी क्या यह वजह है कहीं वह स्टॉकहोम सिंड्रोम का शिकार तो नहीं थी, या ऐसा तो नहीं वो अब भी उस टॉक्सिक रिलेशनशिप को बचाने की कोशिश कर रही थी, उसने उम्मीद नहीं छोड़ी थी, पता नहीं। वो किस दौर से गुजर रही थी क्या उसके पास सब कुछ बता सके ऐसी कोई जगह थी? कहीं इसमें बचपन से जवाब न देना, सहना, कुछ बुरा हो तो उसे इग्नोर करना, रिश्तों को किसी भी हाल में बचाकर रखने जैसी नसीहतें और आसपास देखे अनुभवों की भूमिका तो नहीं थी। यह वो असुरक्षा कि इस रिश्ते से बाहर जायेगी तो लोग क्या कहेंगे? न जाने कितने डर होंगे न जाने कितनी उलझनें और न जाने कितनी कोशिशें हम नहीं जानते। क्या सचमुच बच्चों की गलतियों को अपनाने को, उन्हें जज न करने को तैयार परिवार और समाज हैं हम? अगर होते तो सवाल उस बच्ची पर नही होता, उसकी गलतियाँ नहीं ढूंढ रहे होते हम।

समय की नब्ज़ को समझना होगा-


अब समय बदल रहा है। लेकिन समय की इस बदली हुई नब्ज़ को हम समझ नहीं पा रहे। मॉर्डन होने का ढोंग कर रहे हैं बाहरी आवरण में लेकिन भीतर से पुराने ही किसी खोल में दुबके हुए हैं। ये घटनाएँ बच्चियों को डराने के उदाहरण न बनें बल्कि उन्हें सतर्क, साहसी और आत्मविश्वास से भरने की ओर प्रेरित करें। उन्हें सहानुभूति, केयर और प्रेम के अंतर को समझने में मदद करें और समाज के तौर पर हम सबको अपने बच्चों पर भरोसा करना, उनके साथ हमेशा हम हैं वो अकेले नहीं है यह भरोसा भरना सिखाये ताकि हमारी बच्चियों के मन में डर नहीं साहस भरे ताकि ऐसे रिश्तों में उलझने की बजाय उनका ध्यान हो उस ऊंचे आसमान पर जिसे उनकी उड़ान का इंतज़ार है।

(हेमंत पांडे द्वारा की गयी बातचीत पर आधारित)


राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित- https://epaper.patrika.com/Home/ArticleView?eid=147&edate=23/11/2022&pgid=603198

भरोसा



भरोसा
दुनिया का सबसे ज्यादा
छला गया शब्द है
फिर भी
उसके ही कांधों पर है
इस दुनिया को
सँवारने की जिम्मेदारी.

Thursday, November 24, 2022

हम बस खुलकर रोना चाहते हैं


ऋषभ गोयल से जब कई बरस पहले कविता के एककार्यक्रम में मुझे मिली थी तो मुझे उसकी आँखों की चमक और चेहरे की मुस्कान ने सम्मोहित किया. सपनों और उम्मीदों से भरी उन आखों में एक संवेदनशील दुनिया का सपना था. उसकी मुस्कान में एक निश्चितता कि इस दुनिया को बेहतर बनाना संभव है. फिर ऋषभ एक प्यारा दोस्त बन गया. हर कदम पर उसको निखरते देखती हूँ और ख़ुश होती हूँ. ऋषभ ने अंतर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस के बहाने कुछ बहुत जरूरी बात कही है जिसे राजस्थान पत्रिका ने प्रकाशित किया है. उस जरूरी बात को यहाँ सहेज रही हूँ. -प्रतिभा 


मैं करीब 11 साल का था जब किचन में माँ का हाथ बँटाते हुए मामा ने पीछे से टोक दिया था कि क्या हरदम किचन में घुसा रहता है, जा बाहर जाकर खेल. मुझे आज तक यह वाकिया इसलिए याद है, क्योंकि उनके लहजे में मेरे लिए परवाह नहीं थी, बल्कि एक घिन्न थी, जैसे मैं कोई दोयम दर्जे का काम कर रहा हूँ. उसके बाद किचन में वापस कदम रखने में मुझे कई साल लग गए थे. बड़ा हुआ तो एहसास हुआ कि दिक्कत मेरे किचन में काम करने से नहीं थी, मामा की सोच में थी, वही सोच जो हमें समाज में अक्सर देखने को मिलती है, वही पितृसत्तात्मक सोच जो लड़कियों के गाड़ी चलाने और वज़न उठाने पर नाक-भौं सिकोड़ लेती है.

भले ही पितृसत्ता, ‘पितृ’ यानी पुरुषों की देन है, लेकिन इस सोच ने जितना नुकसान महिलाओं का किया है, उतना ही पुरुषों का भी किया है. बचपन से ही तय कर दिया जाता है कि अगर आप एक पुरुष हैं, तो आपको ऐसा बर्ताव करना है, आप ये शौक रख सकते हैं और ये नहीं, आपको ये चीज़ें खानी हैं और ये नहीं, यहाँ तक कि एक पुरुष किस रंग के कपड़े पहन सकता है, यह भी पितृसत्ता ही तय करती है. क्या कहा, आप नहीं मानते? तो याद कीजिए कि पिछली बार जब आपने किसी लड़के को गोल-गप्पे खाते, खुलकर हँसते-रोते, कत्थक करते, चटक गुलाबी शर्ट पहने देखा था, तो आप उतने ही असहज नहीं हुए थे जितने आप एक लड़की को बाइक चलाते हुए देखकर हुए थे? या जब कोई पति किचन में अपनी पत्नी का हाथ बँटाता है, तो उसे ‘सपोर्टिव’ या ‘केयरिंग’ जैसे तमगों से क्यों नवाज़ा जाता है, जबकि वह तो सिर्फ़ अपने घर का काम कर रहा होता है.

अगर हम गौर से देखें, तो यह सोच हम पुरुषों को अंदर से खोखला कर देती है, क्योंकि हम महसूस तो बहुत कुछ करते हैं, लेकिन समाज के खाँचे में फ़िट होने के चक्कर में कुछ भी खुलकर व्यक्त नहीं कर पाते. न खुलकर रो पाते हैं, न खुलकर हँस पाते हैं, न खुलकर प्यार कर पाते हैं और न अपने स्वास्थ्य, अपने चेहरे और शरीर का खयाल ही रख पाते हैं. भावनाओं को व्यक्त न कर पाने की वजह से ही हम बेटों की अपने पिता से बात सिर्फ़ मौसम, एग्ज़ाम और नौकरी तक सीमित होकर रह जाती है, जबकि हम उनसे पूछना चाहते हैं कि पापा आप ठीक तो हो न, दवाई समय पर ले रहे हो न, और उन्हें गले लगाकर बताना चाहते हैं कि हम उनसे कितना प्यार करते हैं, लेकिन हमने ऐसा करते कभी अपने पिता को ही नहीं देखा होता, तो ऐसा करने की हिम्मत ही नहीं होती. बड़े होते हैं, तो पिता के साथ एक अजीब सा रिश्ता कायम हो जाता है, जिसमें दो पुरुष होते हैं, जो एक दूसरे के लिए जान दे सकते हैं, लेकिन एक दूसरे को ‘आई लव यू’ नहीं कह सकते. बेटों की पिताओं से यह भावनात्मक दूरी भी पितृसत्ता की ही देन है.

हमें बचपन से यही सिखाया जाता है कि अगर आप पुरुष हैं, तो आप मज़बूत हैं, ताकतवर हैं, आपमें मर्दानगी कूट-कूटकर भरी होनी चाहिए और यही झूठी मर्दानगी हम पुरुषों की कुंठा का कारण बनती है, क्योंकि इस कंडीशनिंग की वजह से हमारे लिए रिजेक्शन झेलना, किसी काम में फ़ेल होना, किसी रिश्ते में फ़ेल होना बहुत मुश्किल हो जाता है, क्योंकि भावनात्मक रूप से ताकतवर होने की बातें तो हमें कभी बताई ही नहीं जातीं. शायद यही कारण है कि हमारे देश में हर गली-नुक्क्ड़ पर मर्दाना कमज़ोरी के दवाखाने खुले हुए हैं, लेकिन पुरुषों के लिए भावनात्मक कमज़ोरी के दवाखाने कहाँ हैं? और अगर हैं भी, तो हम वहाँ जाना नहीं चाहते हैं. ऐसा मैं नहीं नेशनल लाइब्रेरी ऑफ़ मेडिसिन के आंकड़े बताते हैं, जिनके अनुसार पुरुषों के आत्महत्या करने की संभावना महिलाओं से 1.8 गुना ज़्यादा होती है, लेकिन उनके मेंटल हेल्थ से जुड़ी मदद लेने की संभावना महिलाओं से काफ़ी कम होती है. यानी हम भावनात्मक रूप से बीमार तो हैं, लेकिन हमारी कंडीशनिंग हमें मदद लेने से भी रोकती है, क्योंकि हम मदद माँगने को भी कमज़ोरी समझते हैं और मर्द क्या कभी कमज़ोर हो सकता है!

लेकिन निराश मत होइए, अभी हालात इतने भी नहीं बिगड़े हैं, इस अंधेरी सुरंग के छोर पर रोशनी की एक किरण दिखने लगी है। आज की पीढ़ी पुरुषों की समस्याओं को लेकर ज़्यादा सजग नज़र आती है। वह पुरुषों के फ़ैशन से लेकर उनकी मेंटल हेल्थ तक के बारे में खुलकर बात करती है। आज फ़िल्मो और टीवी शोज़ में 'एंग्री यंग मेन' के साथ-साथ सेंसटिव और वल्नरेबल मेन भी देखने को मिलते हैं और सराहे भी जाते हैं। ये सब अच्छे संकेत हैं, लेकिन याद रखिए कि पितृसत्ता की जड़ें बहुत गहरी हैं और उन्हें काटने में समय तो लगेगा, बस हमें निरंतर कोशिश करनी होगी। आपको और मुझे बार-बार याद रखना होगा कि भले पितृसत्ता से सिर्फ़ महिलाओं का नुकसान नहीं होता, पुरुषों का भी होता है।

Wednesday, November 23, 2022

कि बस मर जाना चाहती हूँ...


ढलने को होती है कोई रात
उसके आगे सूरज की किरणें बिछा देती हूँ
बिखर चुकने को होती है कोई खुशबू  
उसके आगे हथेलियां बढ़ा देती हूँ
मुरझाने को होती है कोई उम्मीद
कि एक पौधा लगाने लगती हूँ
दिल घबराता है जब भी 
जूते की फीते बाँधने लगती हूँ
इस कदर जीना चाहती हूँ 
कि बस मर जाना चाहती हूँ....

Tuesday, November 22, 2022

अफ़ीमी है तेरा मेरा प्यार


जब हम देखना बंद करते हैं तब दिखना शुरू होता है. पिछले कुछ दिन जब मेडिकल रीज़न से दिखना बंद हुआ तब महसूस हुआ कि कितना कुछ देखने से छूटा हुआ था. दृश्यों की भीड़ में गुम हो गयीं स्मृतियाँ बंद आँखों में रोशन हो उठी थीं. हम डी-टौक्स करने के तरह तरह के तरीके अपनाते हैं, कभी हमें दृश्यों से, आवाजों से भी खुद को डी-टाक्स करने का ख्याल क्यों नहीं आता.

एक बात के ऊपर दूसरी-तीसरी बात जम्प करती रहती है. हम बातों और दृश्यों के ढेर में लगातार गुम होते जाते हैं. कुछ करने जाते हैं और कुछ और करने लगते हैं क्या करने आये थे भूल जाते हैं. क्या कहना था, ज़ेहन से निकल जाता है और न जाने क्या-क्या बोलते जाते हैं. हमसे कुछ हमारा ही खो सा गया है. कैसा सैलाब है ये. कुछ अच्छा नहीं लगता. फिर अचानक चलना शुरू कर देती हूँ. चलती जाती हूँ. कुछ सोचना नहीं चाहती, यह सोचते हुए न जाने क्या-क्या सोचती जाती हूँ.

दृश्यों से दूरी वाले दिनों में कुछ उजाला क़रीब आया हुआ महसूस हुआ. लेकिन अजीब सी फितरत है कि सुख को हाथ लगाते डर लगता है. ख़ुशी थोड़ी दूरी पर रखी हुई ही भली लगती है कि हम एक-दूसरे के देख मुस्कुरा सकें. लेकिन जब हम उठकर चल दें विपरीत दिशाओं में तो कुछ टूटे नहीं.

यह थोड़ा मुश्किल है लेकिन इन दिनों यही ठीक लग रहा है. ख़्वाब जब तक आँखों में थे सुंदर थे, जैसे ही वो हकीकत की हथेली पर उतरे उनके बिखरने का डर भी साथ चला आया. ऐसे ही एक रोज दोस्त से मजाक में कहा था, 'मुझे सुख से डर लगता है, वो क़रीब आता है तो सोचती हूँ अभी इसके पीछे-पीछे आता होगा दुःख भी.' फिर हम देर तक हंसे थे.

कोई फांस धंसी हुई हो जैसे. जीने की इच्छा और जी लेने के बीच. बावजूद इसके जीने की इच्छा को सबसे ऊपर रखती हूँ और खुद को ज़िन्दगी के हवाले कर देती हूँ.

सूरज इस कदर आँखों में कूदने को व्याकुल है कि आंखें चुंधिया जाती हैं. मैं हंस पड़ती हूँ. खुद से किये वादे को दोहराती हूँ कि ख़ुश रहूंगी. खुश रहना भी साधना है. खुश दिखने से यह अलग होता है. इसके रास्ते में तमाम उदासी के पहाड़, नदियाँ जंगल आते हैं उन्हें पार किये बिना यह संभव नहीं.

हथेलियाँ आगे करती हूँ तो जूही खिलखिला पड़ती है. कानों में एक गीत बज उठता है, 'अफीमी अफीमी अफीमी है ये प्यार...' हाँ ज़िन्दगी से प्यार अफ़ीमी ही तो है.

Monday, November 21, 2022

इस सुबह में मैं खिल उठी हूँ


हमेशा से जानती हूँ कि हर रात की हथेली पर एक सुबह का इंतज़ार है. यह भी कि सुबहों की मुठ्ठियों में कोई नामालूम सी उम्मीद खिलती है. फिर भी जब-तब अपनी सुबहें गुमा बैठती हूँ. फिर कोई दोस्त मुझे आलस और उदासी के मिले जुले प्रकोप से निकालता है और सुबहों को हथेलियों पर रख देता है. इन दिनों फिर सुबहों से यारी हो चली है. 

मैं सुबहों से कुछ कहती इसके पहले वो मुझसे पूछ बैठती हैं, 'नींद पूरी हो गयी?'मैं पलकें झपका देती हूँ. क्या सुबहों को मेरे और नींद के बिगड़े रिश्ते की बाबत मालूम होगा मन ही मन सोचती हूँ कि चिड़ियों का एक रेला गुजरता है सर के ऊपर से.

धरती पर रात खिली जूही और रातरानी बिखरी हुई है. जो फूल धरती पर हैं वो मुस्कुरा रहे हैं जो डालों पर अटके हैं वो ऊंघ रहे हैं. मैं इस सुबह में बिखर जाना चाहती हूँ. यह सोचते ही रुलाई का कोई भभका फूटने को होता है और मैं मुस्कुरा देती हूँ. सोचती हूँ सुबहों ने मेरे भीतर प्रवेश करना शुरू कर दिया है शायद कि रोना बढ़ गया है इन दिनों. अच्छा लगना भी बढ़ गया है और उदास होना भी.

कल एक दोस्त ने पूछा था जब सारा दिन अच्छा बीता तो शाम तक बिखर क्यों गयी तुम, कहाँ से लाती हो इतनी उदासी. मैं उसकी बात सुन मुस्कुरा दी. मन में सोचा जिन्दगी से.

उदासी को इतना बुरा क्यों समझते हैं लोग. वो भी जीवन का हिस्सा है. आंसू भी. उसका हमारे भीतर बचे रहना शुभ है. कौन है ऐसा जो हमेशा खुश रहता होगा. हमेशा खुश रहने का सपना कितना बोरिंग है.
फ़िलहाल खूब रो चुकने के बाद मैंने अपने चेहरे पर ढेर सारी धूप मल ली है. थोड़ी सी ओस पलकों पर रख ली है. थोड़ा सा आसमान आँखों में भर लिया है.

बहुत दिनों से पढ़ने का रुका हुआ सिलसिला फिर शुरू करने का मन है. सिरहाने रखी किताब 'सरे चाँद थे सरे आसमां' इस सुबह में मुस्कुरा रही है.

Sunday, November 20, 2022

|| એ જ વાત || वही बात

એમની પાસે હતી બંદૂકો
એમને બસ ખભા જોઈતા હતા
એમને બસ છાતીઓ જોઈતી હતી
એમના હાથોમાં તલવારો હતી
એમની પાસે અનેક ચક્રવ્યૂહ હતા
એ લોકો શોધતા હતા નિર્દોષ અભિમન્યુ
એમની પાસે હતા ક્રૂર અટ્ટહાસ્ય
અને બિભત્સ મુસ્કાન
એ લોકો શોધતા હતા દ્રૌપદી
એમણે અમને જ પસંદ કરી
અમને મારવા માટે
અમારી છાતી પર
અમારા દ્વારા જ ચલાવી તલવાર
અમને જ ઊભી કરી
અમારી જ વિરુદ્ધ
અને એ લોકો જીતી ગયા
એમણે બસ એટલું કહ્યું
સ્ત્રીઓ જ હોય છે
સ્ત્રીની દુશ્મન
કાયમ..
- પ્રતિભા કટિયાર
- હિંદી પરથી અનુવાદ : ભગવાન થાવરાણી

Friday, November 18, 2022

|| એક દિવસ ||- एक रोज


प्यार की कोई बूंद कविता में ढली थी एक रोज, फिर एक रोज किसी ने उसे स्नेह से पढ़ा और चाहा कि भाषाओं के पार जाये प्रेम की यह एक बूँद. ભગવાન થાવરાણી जी बहुत सारे हिंदी कवियों की कविताओं को गुजराती के पाठकों तक पहुंचा रहे हैं. मुझे ख़ुशी है उन्होंने मेरी इस कविता को भी अनुवाद के लिए चुना. शुक्रिया उन सभी पाठकों का जिन्होंने इसे गुजराती अनुवाद में पढ़ा और प्यार दिया.-प्रतिभा 
 


એક દિવસ
હું વાંચતી હઈશ
કોઈક કવિતા
બરાબર એ જ સમયે
ક્યાંકથી કોઈક શબ્દ
કદાચ કોઈક કવિતા કનેથી ઊછીનો લઈ
મારા અંબોડામાં ખોસી દઈશ તું !
એક દિવસ
હું લખતી હઈશ ડાયરી
બરાબર એ જ વખતે
પીળા પડી ગયેલા
ડાયરીના જરીપુરાણા પાનાઓમાં
મારું મન બાંધીને
ઉડાડી જઈશ
આઘેરા આભના છાંયડે
એક દિવસ
જ્યારે કોઈક અશ્રુ આંખમાં
આકાર લઈ રહ્યું હશે
બરાબર એ વખતે
તારા સ્પર્શની હુંફથી
એને મોતી બનાવી દઈશ તું
એક દિવસ
પગદંડી પર ચાલતાં
જ્યારે લથડશે કદમ
તો તારા સ્મિતથી
સંભાળી લઈશ તું મને
એક દિવસ
સંગીતની મંદ લહેરખીઓને
વચ્ચે રોકીને
તું બનાવી લઈશ રસ્તો
મારા લગી પહોંચવાનો
એક દિવસ
જ્યારે મારી આંખો મીંચાતી હશે
કાયમ માટે
ત્યારે કોણ જાણે કઈ રીતે
તું ખોલી નાખીશ જીવનના બધા રસ્તા
આપણે સમજી નહીં શકીએ તો પણ
દુનિયા કદાચ એને
પ્રેમનું નામ આપશે
એક દિવસ..
- પ્રતિભા કટિયાર
- હિંદી પરથી અનુવાદ : ભગવાન થાવરાણી

हिंदी में यह कविता-

एक रोज़
मैं पढ़ रही होऊँगी
कोई कविता
ठीक उसी वक़्त
कहीं से कोई शब्द
शायद कविता से लेकर उधार
मेरे जूड़े में सजा दोगे तुम ।

एक रोज़
मैं लिख रही होऊँगी डायरी
तभी पीले पड़ चुके डायरी के पुराने पन्नों में
मेरा मन बाँधकर
उड़ा ले जाओगे
दूर गगन की छाँव में ।

एक रोज़
जब कोई आँसू आँखों में आकार
ले रहा होगा ठीक उसी वक़्त
अपने स्पर्श की छुअन से
उसे मोती बना दोगे तुम ।

एक रोज़
पगडंडियों पर चलते हुए
जब लड़खड़ाएँगे क़दम
तो सिर्फ़ अपनी मुस्कुराहट से
थाम लोगे तुम ।

एक रोज
संगीत की मंद लहरियों को
बीच में बाधित कर
तुम बना लोगे रास्ता
मुझ तक आने का ।

एक रोज़
जब मैं बंद कर रही होऊँगी पलकें
हमेशा के लिए
तब न जाने कैसे
खोल दोगे ज़िंदगी के सारे रास्ते
हम समझ नहीं पाएँगे फिर भी
दुनिया शायद इसे
प्यार का नाम देगी एक रोज़.
-प्रतिभा कटियार 

Thursday, November 17, 2022

याद का मौसम



याद का मौसम बदल रहा है 
याद अब भी आती है
लेकिन अब वो उदास नहीं करती
चुपचाप बैठी रहती है काँधे पर सर टिकाये
गुनगुनाती है मीठी धुन
मुस्कुराती है हौले से

याद ने अब सीख लिए हैं ढब
फूलों की खुशबू में ढलकर महक उठने के
सुबह की किरणों में समाकर बिखर जाने
धरती के इस छोर से उस छोर तक

इंतजार की आहटों में नहीं रहती याद
उसने खोज निकाले हैं रास्ते
नदियों की रवानगी में ढल जाने के
फूलों के संग खिलने के
परिंदों की ऊंची उड़ान में शामिल होने के

सिरहाने जो उम्मीद की शाख रख गए थे न तुम
वो मुरझाई नहीं है अब तक
उस पर उगती रहते हैं तेरी याद के गुंचे

जाना एक क्रिया है पढ़ा था हमने
जाने के भीतर जो रह जाना है वो तो जाना है अब
और यह जो रह जाना है
यही तो है इश्क़ की खुशबू

अब जबकि कि तू नहीं, तेरी जुस्तजू भी नहीं
पर ये जो मैं हूँ ये क्या हूँ
तेरी याद की खुशबू में रची-बसी.

Thursday, November 10, 2022

સાધના છે પ્રેમનો રાગ -गुजराती में अनुवाद


જ્યારે જોઉં છું તારી તરફ
ત્યારે ખરેખર
હું જોઈ રહી હોઉં છું પોતાના એ દુખ ભણી
જે તારામાં ક્યાંક આશરો પામવા ઇચ્છે છે
જ્યારે લંબાવું છું તારી તરફ પોતાનો હાથ
ત્યારે પકડવા ચાહું છું
આશાના એ અંતિમ તંતુને
જે તારામાંથી પસાર થાય છે
જ્યારે ટેકવું છું મારું મસ્તક તારા ખભે
ત્યારે ખરેખર તો મુક્તિ પામું છું
સદીઓના થાકમાંથી
તને ચાહવું ખરેખર તો છે
શોધવું સ્વયંને આ સૃષ્ટિમાં
વાવવું ધરતીમાં પ્રેમનું બીજ
અને સાધના છે પ્રેમનો રાગ..
-,પ્રતિભા કટિયાર

- હિંદી પરથી અનુવાદ : ભગવાન થાવરાણી

हिंदी कविता- साधना है प्रेम का राग 

जब देखती हूँ तुम्हारी ओर
तब दरअसल
मैं देख रही होती हूँ अपने उस दुःख की ओर
जो तुममें कहीं पनाह पाना चाहता है ।

जब बढ़ाती हूँ तुम्हारी ओर अपना हाथ
तब थाम लेना चाहती हूँ
जीवन की उस आख़िरी उम्मीद को
जो तुममे से होकर आती है ।

जब टिकाती हूँ अपना सर
तुम्हारे कन्धों पर
तब असल में पाती हूँ निजात
सदियों की थकन से

तुम्हें प्यार करना असल में
ढूँढ़ना है ख़ुद को इस सृष्टि में.
बोना है धरती पर प्रेम के बीज
और साधना है प्रेम का राग...

- प्रतिभा कटियार

नवम्बर की कलाई पर प्यार


नवम्बर की अंजुरियों में
धूप खिलने लगी है
उम्मीद की शाखें भर उठी हैं
ख्वाबों से
मुसाफिर फिर से व्याकुल हैं
रास्तों से भटक जाने को
नीले पंखों वाली चिड़िया
मीर के दीवान से सर टिकाये बैठी है
मध्धम सी आंच पर
पक रहा है इंतज़ार
एक ज़िद है कि
झरने से पहले समेट लेनी है
लम्हों की ख़ुशबू
नवम्बर की कलाई पर
बांधना है प्यार. 

Tuesday, November 8, 2022

हिंसा तो उपेक्षा भी है


-प्रतिभा कटियार

‘अम्मू’ फिल्म देखकर खत्म की है. लेटी हूँ. ख़ामोशी पसरी हुई है. भीतर भी, बाहर भी. ‘अम्मू’ की कहानी नयी नहीं है लेकिन नयी न होने से क्या कहानी नहीं रहती, क्या उस कहानी की तासीर कम हो जाती है. ‘डार्लिंग्स’ देखी थी तब ऐसी ख़ामोशी महसूस नहीं हुई थी. इस ख़ामोशी को बुरा लगने से जोड़कर देखना ठीक नहीं है. क्योंकि दोनों ही फिल्मों के अंत में बुरा महसूस नहीं होता लेकिन कुछ महसूस होता है. यह कुछ महसूस होना फिल्म की ताकत है.

कुछ लोग कहेंगे कि ‘डोमेस्टिक वायलेंस. क्या यह अब भी होता है?’ इनमें महिलाएं भी होंगी. खासकर मध्य वर्ग की महिलाएं. कुछ कहेंगी ‘मेरे ‘ये’ तो कभी तेज़ आवाज़ में बात भी नहीं करते.’ कुछ और इतरा के कहेंगी ‘मेरे ये तो मुझे किसी काम को करने से नहीं मना करते.’ कुछ पुरुष कहेंगे ‘भई, हमने कोई रोक-टोक नहीं की किसी तरह की. जैसे चाहें जियें, जो चाहें करें.’ इन संवादों के भीतर न जाने कितनी परतें हैं जिन तक उनकी खुद की भी नजर नहीं जाती. लेकिन अम्मू देखने के बाद मेरे मन में कुछ और ही बातें चल रही हैं और मुझे ‘थप्पड़’ फिल्म की याद बेतरह आ रही है.

जहाँ खुली हिंसा है, मारपीट है वहां भी लड़ाई कितनी मुश्किल है, स्त्रियाँ बार-बार बिना मांगी गयी माफियों को माफ़ करके उदार होती रहती हैं. परिवार को बचाने की कोशिश करती रहती हैं. सोचती रहती हैं, गुस्सा आ गया होगा किसी बात पर वैसे तो बहुत प्यार करते हैं, अम्मू भी यही कहती है, ज्यादा दिन तो अच्छे ही गुजरते हैं थोड़े ही दिन मारपीट वाले होते हैं. उन पर काम का दबाव रहा होगा शायद. फिर हिंसा का सिलसिला बढ़ता जाता है और जीवन और फिल्म दोनों अपने रास्ते तलाशते हैं.

‘थप्पड़’ फिल्म इसलिए ज्यादा करीब की लगी थी कि ‘सिर्फ एक थप्पड़ ही तो है’ कहकर रिश्ते को बचाने के लिए उसे सह जाने के खिलाफ खड़ी यह फिल्म थोड़ा ज्यादा बड़ा आसमान खोलती थी. लेकिन मेरे मन में लगातार कुछ सवाल हैं. क्या है हिंसा. कब कोई व्यवहार, कोई बर्ताव हिंसक होता है, कब नहीं.

लगभग हर दूसरी स्त्री अलग-अलग तरह की व्यवहारगत हिंसा का सामना कर रही है. हर रोज. सुबह से शाम तक, शाम से सुबह तक लेकिन यह सब हिंसा के दायरे में आता ही नहीं.

अक्सर पति अपनी पत्नियों के प्रति उपेक्षा का भाव रखते हैं. उन्हें याद ही नहीं रहता कि उनकी पत्नी कितनी सुंदर दिखती है. वो प्रशंसा करना तो भूल ही चुके होते हैं लेकिन मजाकिया लहजे में अपमानित करना उन्हें खूब आता है. ‘कैसी दिखने लगी हो, कितना खाती रहती हो? ठूंस लो, फ़ैल तो रही ही हो? सजने से क्या लगता है तुम सुंदर लगने लगोगी? क्या घर में पड़ी रहती हो? ऑफिस जाती हो तो क्या अनोखा काम करती रहती हो इतना क्या इतराती रहती हो.’ दोस्तों से कहना, ‘अरे बीवी की तो आदत है किच किच करने की, अब क्या करें.’

पत्नियाँ जानती हैं कि पति ने न जाने कितने नए एप पर कितने अलग नामों से अपने सुख के कोने तलाश रखे हैं, लेकिन वो इग्नोर करती रहती हैं. सामने मिले एविडेंस को मुस्कुरा कर उपेक्षित करती हैं. और अगर झगड़ा करती हैं तो उन्हें ही बेकार की शक्की औरत के रूप में साबित करके नयी कहानियां गढ़कर उन्हें ही अपराधी बना देना बिलकुल भी नया नहीं है.

स्त्रियाँ सहती हैं और खुद ही अपराधबोध में मरी जाती हैं.

सोचती हूँ क्या यह सब हिंसा नहीं है? उनके काम को एप्रिशिएट न करना, उनके गुणों के बारे में बात न करना, उपहास करना, ताना देना, या हर बात के जवाब में चुप लगा जाना, घर की कलह का दोष उनके सर मढ़कर दूसरे रिश्तों क खोज में निकल पड़ना क्या यह सब हिंसा नहीं.

हर दिन ऐसी हिंसा का सामना करने वाली स्त्रियाँ राहत की सांस लेते हुए जब इतराकर करवा चौथ का व्रत रखकर खुश होती हैं और यह कहती हैं कि ‘मेरे ये तो कभी हाथ नहीं उठाते’ तो उनकी मासूमियत पर न हंसी आती है, न रोना.

विवाह संस्था इस कदर दमघोंटू है कि अक्सर इसके भीतर ऑक्सीजन की कमी होने लगती है. बहुत सारे रिश्ते वेंटिलेटर पर चल रहे हैं. दुःख इस बात का है कि खुद वेंटिलेटर पर चल रहे रिश्ते में जूझ रहे लोग दूसरों को शादी न करने पर ताने देने से, उपहास करने से बाज नहीं आते.

समय आ गया है कि विवाह संस्था को या तो खारिज किया जाय या इसकी पुनर्निर्मित हो. वरना अम्मू, डार्लिंग्स पर तो फिर भी बात हो जायेगी, थप्पड़ पर भी हो जायेगी लेकिन वो लोग घेरे में नहीं आयेंगे जो बिना मारे हर वक्त अपने साथी के सम्मान को, उनके आत्मविश्वास को चोटिल करते रहते हैं.

व्यवहारगत हिंसा को भी हिंसा के दायरे में लाना जरूरी है जिसमें उपेक्षा, उपहास और धोखेबाजी भी शामिल है.

Saturday, November 5, 2022

उसका नाम ख़्वाब रखा मैंने



मैं आवाज़ को नहीं पहचानती, ख़ामोशी को पहचानती हूँ. चेहरे में मुझे सिर्फ आँखें दिखती हैं, आँखों में दिखता है वो पानी जिसमें असल पहचान होती है. चेहरे पर लाख चेहरे रख ले कोई आँख के पानी को बदल पाना अभी सीखा नहीं मनुष्य ने. मैंने हमेशा संवादों के बीच से खामोशियाँ चुनी हैं आहिस्ता, शाइस्ता ढंग से. जैसे मृत्यु के बाद चुनते हैं राख से अस्थियाँ. उँगलियों से जब टकराता है अस्थि का कोई टुकड़ा तो सिहरन होती है, कंपकपी. याद का भभका रुलाई बन फूटता है कि राख के भीतर छुपा अस्थि का यह टुकड़ा कभी गले में पड़ी बांह थी.

अल्फाज़ की लरजिश ने कभी भरमाया नहीं, ख़ामोशी की तासीर ने पुकारा हमेशा. जब सोचती हूँ किसी के बारे में तो उसका चेहरा नहीं, आँखें दिखती हैं. उन आँखों का पानी दिखता है. देखने का अंदाज नहीं देखने की जुम्बिश दिखती है. स्मृतियों में जो आँखें हैं उनकी जुम्बिश थामे रहती है. किसी सुख से भरती है. उदासी से भी.

सुख और उदासी क्या अलग शय हैं? प्रेम और विछोह क्या अलग शय हैं?

कल यूँ ही एक बच्चा करीब आकर लिपट गया. वो मुझे नहीं जानता था. मैं भी उसे नहीं जानती थी. जब यह लिख रही हूँ तो पास में बैठी हुई विनोद कुमार शुक्ल की कविता 'हताशा में आदमी' मुस्कुरा रही है. मैंने कविता को देख पलकें झपकायीं और बच्चे को मुस्कुराकर देखा, बच्चे ने मुझे. मैंने कहा, 'कैसे हो', उसने हंसकर कहा, 'बहुत अच्छा हूँ.' मैंने उसकी आँखों में खुद को टिका दिया और पूछा, 'ये बहुत अच्छा कितना बड़ा होता है'. उसने अपने नन्हे हाथों को भरसक बड़ा करते हुए फैला दिया...'इतना'. हम दोनों हंस दिए. मैंने उसके गाल थपथपाए उसने अपनी बाहें मेरे गले में डाल दीं. सच कहूँ, मेरी आँखें भीग गयीं. शायद अरसे से किसी के गले लगने की इच्छा को ठौर मिला था. मैंने उसे भींच लिया. वो पलकें झपकाकर चला गया. 
क्या वो बच्चा जीवन था या ख़्वाब?
वो खेल के मैदान में गेंद के पीछे भागने लगा था और मेरा मन उसकी आँखों में डूबा था.

ज़िन्दगी किस कदर रहस्यों से भरी है, हम नहीं जानते. मैं देर रात तक उन नन्हे हाथों के बारे में सोचती रही जिसने बताया था कि बहुत अच्छा होना कितना बड़ा होता है. यही सोचते हुए सोने की कोशिश की तो आँखों में एक मुस्कान खिल गयी.

सुबह उठी तो जूही की डाल फूलों से भरी हुई थी.

मुझे उस बच्चे का नाम ख़्वाब रखना का जी चाहा. ख़्वाब जो जियाये रहते हैं...थामे रहते हैं.