हम अमरकंटक गए थे तितलियाँ देखने लेकिन वो मुझे मिली घर में ही. जब लौटकर आई तो देखा ड्राइंगरूम में लगे पाम के पेड़ में तितली ने जन्म लिया है. उसका नाम हमने सोना रखा. दो दिन बाद सोना ने अपने जन्म की टहनी छोड़ी और कमरे में टहलना शुरू किया. जब भी दफ्तर से लौटती वो मुझे नयी जगह पर बैठी मिलती. उसके पंख बेहद चमकीले थे और चाल ठीक वैसी ही जैसे बच्चे सीखते हैं चलना.
एक रोज जब मैं ऑफिस में थी बेटू का फोन आया. उसकी आवाज़ में चहक थी. उसने हँसते हुए बताया ‘तुम्हारी सोना उड़ गयी...’ मैंने पूछा, ‘कहाँ’ उसने कहा ‘उड़कर खिड़की से बाहर चली गयी.’ वो देर तक हंसती रही.
उस रोज जब मैं वापस लौटी तो सोना को न पाकर उदास थी. तब बेटू ने कहा, ‘वो तितली है, उसे जंगल में ही जाना चाहिए.’ मैंने इस बात को सुना और अपने भीतर सहेज लिया.
कानों में न जाने कितनी तितलियाँ पहनीं हैं मैंने, उनमें से न जाने कितनी उड़ गयीं. कलाई पर तितली का टैटू बनाने की इच्छा मन में कबसे दबाये हूँ. लेकिन इन सब बातों का कोई कनेक्शन नहीं उस तितली से जो इस वक़्त मेरे हाथ में है. मानव कौल की तितली. मानव के लिखे में भी तितली का जिक्र बार-बार पहले आता रहा है लेकिन इस तितली के रंग अलग हैं, उड़ान अलग है.
मानव का लिखा मुझे इसलिए भर प्रिय नहीं कि वो बहुत अच्छा लिखते हैं बल्कि इसलिए कि मानव का लिखा हमेशा, हर उलझन में, हर बेचैनी में अपने भीतर आने की जगह देता है. और मेरे भीतर कुछ बदलने लगता है, कुछ सहज होने लगता है. शायद यही कारण है कि मैंने उन्हें कई-कई बार पढ़ा है, सुना है. हर बार कुछ नए की ध्वनि के साथ.
तितली उपन्यास का मुझे तबसे इंतज़ार था जब यह लिखे जाने की यात्रा में था, या शायद तबसे जब मानव इस उपन्यास के रियाज़ के लिए पहला ‘स’ साध रहे थे.
उस रोज ढेर सारे कामों वाले थके से चिड़चिडे से दिन के बाद जब कार में बैठी तो ड्राइवर ने एक पैकेट दिया. मैंने अनमने मन से पैकेट ले लिया. देखा तो हिन्द युग्म दिखा. ओह, यह तो तितली है...मन चिहुंक उठा. अचानक दिन का सारा चिडचिडापन फुर्रर हो गया.
जाने क्यों लेकिन बहुत दिनों से लग रहा था कि इस वक़्त मुझे जो पढ़ने की जरूरत है वो तो अभी लिखा जा रहा है. और अब वह लिखा हुआ मेरे हाथों में था. उस रोज दोस्तों की पार्टी थी घर में लेकिन मैं होकर भी उसमें शामिल नहीं हो पा रही थी. मैं तितली की खुशबू में थी. दोस्त ने कहा, ’इतनी खुश तो तुम अपनी किताब आने पर भी नहीं थी.’ मैं हंस दी. दोस्त सच कह रहा था.
मैंने एक धुकधुकी के साथ किताब खोली और नाज़ा की वो कविता पढ़ी जो किताब की शुरुआत में है. अपनेपन की मिठास में डूबी सादी, सरल कविता. मैंने उसे एक ही बार में चार पांच बार पढ़ा. एक लेखक और एक पाठक के बीच का अपनापन, एक लेखक का दूसरे लेखक के बीच का अपनापन. कविता के शब्दों में जो तरलता है उसमें वही आकर्षण है जो झरने के पानी का होता है.
मैंने किताब सिरहाने सजाई और सो गयी. किताब मेरे साथ हर वक़्त रहने लगी. लेकिन जाने क्यों मैं उसे पढ़ नहीं रही थी. पलट रही थी. क्यों नहीं पढ़ रही थी पता नहीं. शायद पानी के किनारे बैठी थी और छलांग लगाने से हिचक रही थी. मैंने इसका पहला पैराग्राफ कम से कम 7 या 8 बार पढ़ा और उसके बाद किताब बंद कर दी.
शायद मैं जानती थी कि क्या होने वाला है, शायद मैं नहीं जानती थी कुछ भी...
शनिवार की रात देर तक मैं तितली को सिरहाने रखे उसे पढ़ना टालते हुए एक बेकार सी वेब सीरीज देखती रही. कुछ दोस्तों से बात करती रही और सोने की तैयारी करने लगी. मन उलझा हुआ था, थोड़ा उदास था तो मानव का एक पुराना इंटरवियु सुनने लगी. उसे सुनते हुए जाने क्या हुआ कि मैंने पाया कि मैं तितली खोलकर बैठी हूँ. अब मानव का इंटरवियु नेपथ्य में चला गया. तितली सामने उड़ने लगी.
मैं नाज़ा के बारे में मानव से सुन चुकी थी. नाज़ा को नेट पर सर्च किया और देर तक उन्हें खंगालती रही. कुछ किताबें ऑर्डर करने की लिस्ट बनाई. जिनमें सिमोन की A very easy death भी शामिल हुई.
किताब बेहद इंटेंस है. एक किताब में न जाने कितनी किताबें हैं. मृत्यु की बाबत बात करना जितना मुश्किल होता होगा शायद मृत्यु उतनी ही सरल होती है. जैसे देह कोई डाल हो और जीवन कोई तितली. एक रोज अचानक उठकर खिड़की से बाहर, फुर्रर्र...
मैंने मृत्यु की बाबत काफ्का का लिखा जब पढ़ा था तब ऐसा लगा था कि मृत्यु से प्रेम होने लगा है. तितली पढ़ते हुए काफ़्का बेतरह याद आ रहे हैं.
बहरहाल मध्य रात्रि तक तितली के मध्य में पहुंचकर बेमन से किताब बंद करके सोने की कोशिश करने लगी. देर तक नाज़ा, कार्ल, शायर और देवदार सपने में घूमते रहे.
ऊपर पहाड़ों पर बर्फ पड़ी है, देहरादून में मध्धम धूप उग रही है. चाय पीते हुए मैं कार्ल के बारे में सोच रही हूँ, नाज़ा के बारे में सोच रही हूँ.
इति, उदय, कैथरीन, जंग हे ऐसा लग रहा है सब मेरे साथ हैं इस यात्रा में. नाज़ा के गले से लिपट जाने की इच्छा से भर उठी हूँ और तितली को गले से लगा लेती हूँ.
तितली पढ़ना शुरू करने से पहले जो बेचैनी थी वो अब नहीं है. एक वाक्य रात भर किसी सिम्फनी की तरह बजता रहा वो इस सुबह का हासिल है. ’जो हम चाहते हैं वो एक बार पा जाएँ तो उसके बाद सारा जीवन कितना सुखद बीतेगा. पर जो चाहते हैं उसका पाना सबसे बड़ी त्रासदी है...’
किताब के बारे में तफसील से लिखूंगी बाद में अभी तो खुद को सहेज रही हूँ इसे पढ़ते हुए. यूँ लग रहा है कि बस बिखरने ही वाली थी कि किसी ने हाथ बढ़ा दिया है...