Tuesday, December 27, 2022
चलो न खो जाते हैं...
अरे कहाँ गया, यहीं तो रखा था. ऐसे कैसे खो जाता है कुछ भी. अभी-अभी तो यहीं था, अभी नहीं है. ऐसा ही होता है हमेशा, कभी भी कुछ भी खो जाता है.
स्कूल में खो जाती थी पेन्सिल और इरेज़र भी. पेन्सिल खोने के साथ ही खो जाती थीं उससे लिखी जानी वाली न जाने कितनी ही इबारतें, इरेजर खोने के साथ खो जाती थी सम्भावना लिखी गयी इबारत को दुरुस्त कर पाने की.
कुछ किताबें खोयीं, खोये दोस्त कुछ. बचपन के कुछ खेल खोये, धौल धप्पे, शरारतें खोयीं. खोये कुछ रंग ओढ़नी के. पाज़ेब की रुनझुन खोई, रहट की आवाज़ खोई, नीम की पत्तियों के झरने की आवाज के साये तले शीशम के पेड़ से लिपट जाने के याद खोई. नहर में पाँव डालकर घंटों आसमान ताकने वाली फुर्सत खो गयी एक रोज.
आँखों का काजल खोया था जिस रोज, एक ख़्वाब भरी रात भी खो गई थी. एक झुमका खो गया था और उसका जोड़ी झुमका न जाने कितने बरस अपने साथी झुमके की ख़ुशबू बिखेरता रहा.
खोये कुछ सावन, धूप खो गयी थी सर्द दिनों में. किसी उदास शाम में एक रोज गुलमोहर की याद खो गयी. ग़ालिब का दीवान खो गया एक रोज, बेगम अख्तर की आवाज़ खो गयी.
खोया चश्मा तो देख सके कि न जाने कितने लम्हे खो गये हैं. यहीं हथेली पर तो रखे थे वो नर्म, खुशनुमा लम्हे. ख़्वाब खो गए कुछ और कुछ ख़्वाबों की तो याद भी खो गयी. एक चांदनी रात खो गई जिसके साये तले देर तक, दूर तक टहलते रहे थे हम रात भर.
कोहरे की वो ख़ुशबू खो गयी जो समेट लेती थी सारे सुख दुःख अपने भीतर.
नीले आसमान में टांगा था आरजुओं का जो थैला वो थैला भी गुम गया, देखा ध्यान से एक रोज तो आसमान भी गुमशुदा ही मिला.
नीली नदी के किनारे एक धुन खो आई थी उस रोज जब मिलके लौटी थी प्रेम से. धुन बस प्रेम में जीने और प्रेम में ही मर जाने की. हथेलियों की लकीरें खो गयीं न जाने कितनी ही कि शफ्फाक हथेलियों में लकीर कोई भी नहीं.
समन्दर के किनारे एक रोज खुद को ही खो आई थी. बंजारा बस्तियों में अपनी आवारगी खो आई थी. चलते-चलते एक रोज खो गया था जीवन का रास्ता भी. भटके हुए रास्ते में अब खुद को खो देने की तमन्ना लिए बैठी हूँ कि कोई हाथ बढ़ाये और खुद को खो दूँ.
अम्मा ठीक कहती थीं, ‘बड़ी लापरवाह है लड़की देखो न कुछ भी तो संभालकर नहीं रखती.’
किसी रोज ज़िंदगी भी खो दूँगी यूँ ही सोचते हुए मुस्कुराती हूँ. मुस्कुराहट में होती थी जो चमक वो भी न जाने कहाँ खो आई हूँ.
जाते दिसम्बर की उदास हथेली अपनी हथेलियों में लेती हूँ, कहती हूँ, ‘चलो न, हम दोनों खो जाते हैं.’ दिसम्बर पलकें झपका देता है.
Saturday, December 24, 2022
24 दिसम्बर
जो बीत चुका है
वो जाने कितने बरसों से बीत रहा थाअपनी धीमी गति से बीतने से
वो खुद ऊबने लगा था
यूँ जब वो बीता नहीं था
तब भी उसमें जीवन की
चमक नहीं थी
हाँ, उसमें दुनियादारी की चमक थी
रीति-रिवाजों की दमक थी
सोचा था दुनियावी चमक से खींचकर
एक रोज उसे
अपनी दुनिया में ले जाऊंगी
खींचते-खींचते मेरी इच्छाएं
जख्मी होने लगीं
सपनों से भरी आँखें
थकने लगीं
और एक रोज
मैं थककर बैठ गयी
उसी दिन से वो बीतने लगा था
उसे बीतते हुए देखना
उदास करता रहा
बरसों लगता रहा
एक रोज यह बीतना रुक जायेगा
बीतने की उदास खुशबू में
'आखिर हमने बचा लिया' की
उम्मीद का रंग घुल जायेगा
उम्मीद का रंग कैसा होता है
जाने बगैर उस रोज मैंने
अपनी हथेलियों पर
एक बादल बनाया था.
आगे बढ़ते हुए
अपनी हथेलियों को कसकर बांधे थी
बरसों से बीत रहे को
बीत चुका है की मुहर लगने को है
मैंने महसूस किया कि
हथेलियों से टूटकर
एक लकीर वहीं कहीं
गिर गयी है.
क्या कोई ख़ुशबू
कहीं उग रही होगी?
Tuesday, December 20, 2022
झरता है प्यार
उजले दिन की हथेली पर
झरती है श्यामल रातरात के आँचल में
झरती है
सुफेद फूलों की ख़ुशबू
पलकों पर
हौले से झरती है नींद
नींद में झरता है
कोमल सा एक सपना
सपने में झरती है स्मृति
स्मृति के चेहरे पर झरती है
मीठी मुस्कान
खोलती हूँ पलकें
तो माथे पर झरती हैं
सूरज की किरनें
सूरज की किरनों से
झरती है उम्मीद
सारी धरती पर झरता है प्यार…
Wednesday, December 14, 2022
उपलब्धियों की बाबत
क्या तुमने उपलब्धि का चेहरा देखा है
वो कैसा होता है
क्या उसके चेहरे पर होती है
कोई गर्व की लकीर
आँखों में होती है चमक
और गर्दन पर पड़ता है
एक अलग किस्म का बल
थोड़ा इतराया
थोड़ा सकुचाया
क्या उपलब्धि का व्यक्तित्व बनता है
प्रशंसाओं से, बधाइयों से
तालियों के शोर से
हंगामाखेज खबरों से
स्पॉटलाईट से
कैमरों की चकाचौंध से
वो कैसा होता है
क्या उसके चेहरे पर होती है
कोई गर्व की लकीर
आँखों में होती है चमक
और गर्दन पर पड़ता है
एक अलग किस्म का बल
थोड़ा इतराया
थोड़ा सकुचाया
क्या उपलब्धि का व्यक्तित्व बनता है
प्रशंसाओं से, बधाइयों से
तालियों के शोर से
हंगामाखेज खबरों से
स्पॉटलाईट से
कैमरों की चकाचौंध से
क्या उपलब्धि की फितरत है
कि वो आये और हाथ पकड़कर ले जाय
उस जमीन से उठाकर
जहाँ तुम पहले थे
कुछ माइक थमा दे
कुछ मंच
कि वो आये और हाथ पकड़कर ले जाय
उस जमीन से उठाकर
जहाँ तुम पहले थे
कुछ माइक थमा दे
कुछ मंच
और कुछ शब्द गुच्छ
तो मैं किसी उपलब्धि को नहीं जानती
क्या उसे ग्रहण करना होता है
विनम्रता का परिधान पहनकर
और लगाना होता है सहजता का इत्र
मेरे लिए तो उपलब्धि थी
उस गड़रिये का मेरे पास आना
मुझे कुछ गन्ने देना
उस गड़रिये का मेरे पास आना
मुझे कुछ गन्ने देना
जो लाया था वो
किसी किसान से मांगकर
कि एक रोज उसने पढ़ी थी मेरी कविता
समोसे में लिपटे अख़बार में
जो लिखी गयी थी गड़रिये पर
वो बस मुझे एक बार छूना चाहता था
उस गड़रिये की प्रेमिल आँखें
किसी किसान से मांगकर
कि एक रोज उसने पढ़ी थी मेरी कविता
समोसे में लिपटे अख़बार में
जो लिखी गयी थी गड़रिये पर
वो बस मुझे एक बार छूना चाहता था
उस गड़रिये की प्रेमिल आँखें
हैं मेरे लिए उपलब्धि का चेहरा
लाल रिबन से सजी स्कूल जाती लड़कियाँ
जिनकी आँखों में भरे थे सपने
आसमान में उड़ने के
न कि किसी सफेद घोड़े वाले राजकुमार के
उनकी उस अल्हड़ चाल
लाल रिबन से सजी स्कूल जाती लड़कियाँ
जिनकी आँखों में भरे थे सपने
आसमान में उड़ने के
न कि किसी सफेद घोड़े वाले राजकुमार के
उनकी उस अल्हड़ चाल
और खिलंदड़अंदाज का चेहरा
मिलता है जीवन की उपलब्धि के चेहरे से
वो स्त्रियाँ जब भर उठती हैं कराह से
दौड़ते-भागते
थमती हैं पल भर को
किसी सुबह को जगाकर कहती हैं, 'तुम मेरी हो'
अहीर भैरव गूँज उठता है फिज़ाओं में
चाय में घुलने लगता है
खुद से की गयी मोहब्बत का रंग
वो लम्हा, हाँ बस वही लम्हा
जीवन की उपलब्धि लगता है
किसी के सीने से लिपट जाने की
जी भर के रो लेने की इच्छा
प्रेम से भर उठने और
प्रेम में डूबे रहने की इच्छा
किसी के दिल में बस जाने
किसी को दिल में बसा लेने की इच्छा
का चेहरा मिलता है उस उपलब्धि से
जिसे मैं जानती हूँ
कि जब कोई प्रशंसाओं के गुलदस्ते और
तालियों के शोर की ट्रॉफी लिए
करीब आता है
तो आँखें भर आती हैं
कि कहीं छुप जाना चाहती हूँ
पैर के अंगूठे से कुरेदती हूँ जमीन
संकोच से काँप उठती हूँ
भाग जाना चाहती हूँ दूर कहीं...
मिलता है जीवन की उपलब्धि के चेहरे से
वो स्त्रियाँ जब भर उठती हैं कराह से
दौड़ते-भागते
थमती हैं पल भर को
किसी सुबह को जगाकर कहती हैं, 'तुम मेरी हो'
अहीर भैरव गूँज उठता है फिज़ाओं में
चाय में घुलने लगता है
खुद से की गयी मोहब्बत का रंग
वो लम्हा, हाँ बस वही लम्हा
जीवन की उपलब्धि लगता है
किसी के सीने से लिपट जाने की
जी भर के रो लेने की इच्छा
प्रेम से भर उठने और
प्रेम में डूबे रहने की इच्छा
किसी के दिल में बस जाने
किसी को दिल में बसा लेने की इच्छा
का चेहरा मिलता है उस उपलब्धि से
जिसे मैं जानती हूँ
कि जब कोई प्रशंसाओं के गुलदस्ते और
तालियों के शोर की ट्रॉफी लिए
करीब आता है
तो आँखें भर आती हैं
कि कहीं छुप जाना चाहती हूँ
पैर के अंगूठे से कुरेदती हूँ जमीन
संकोच से काँप उठती हूँ
भाग जाना चाहती हूँ दूर कहीं...
गाड़ी, बंगला, बैंक बैलेंस
सपनों का राजकुमार
मेरे लिए उपलब्धियों से मेल नहीं खाता
कि वो तो बस सुबह का बोसा
मोगरे की ख़ुशबू,
बारिश की बूँदें और
अजनबी लोगों के दुःख में
शामिल हो पाने की इच्छा
से बनता है.
से बनता है.
Sunday, December 11, 2022
शुभा मुद्गल जी की आवाज़ और मेरे अल्फाज़
वो छुटपन के दिन थे जब शुभा जी को ब्लैक एंड व्हाइट टीवी पर सुना करती थी 'अली मोरे अंगना दरस दिखा'. घंटों झूमा करती थी. उनको सुनते हुए बड़ी हुई. क्या ख़बर थी एक एक रोज मेरी अनगढ़ सी लिखाई उनकी आवाज़ में ढलकर लौटेगी.
उन्होंने और अनीश जी ने जब 'ओ अच्छी लड़कियों' कविता को संगीतबध्ध किया था तब भी मन भावुक था. गोवा की वो शाम जब उनकी हथेलियों को अपनी हथेलियों में थामे 'ओ अच्छी लड़कियों' को मंच पर देख रही थी.
इस बार जब दिल्ली में उदयोत्सव में उन्होंने मेरी एक दूसरी कविता 'इन दिनों अच्छी लगने वाली चीज़े मुझे अच्छी नहीं लगतीं को अपनी आवाज़ दी तो मैं वहां नहीं थी लेकिन ख़्वाहिश थी वहां और देवयानी थी.
आज यह रिकॉर्डिंग आप सबसे साझा कर रही हूँ. अपने लिखे को लेकर संकोच के साथ और शुभा जी की गायकी को लेकर गर्व के साथ.
अपने लिखे को इस तरह सुनना कितना सुंदर है जैसे ये किसी और की लिखावट हो.
शुक्रिया शुभा जी!
https://drive.google.com/file/d/1mQonG8EX6893CE7BBvzFm5a4dgeiJ3xf/view
Friday, December 9, 2022
कोई ख़ुशबू उग रही है
ढेर सारे कचनार खिले देखकर मेरा मन एकदम खिल उठा था. इन दिनों जिस शहर में रहती हूँ वहां कचनार इस तरह नहीं खिलते. वहां बुरांश खिलते हैं. वो भी मुझे पसंद हैं लेकिन जो रिश्ता कचनार से है उसमें एक अलग सी ही खुशबू है. कचनार से रिश्ता कचनार से रिश्ता होने जैसा ही है उसे बुरांश से रिश्ता होने की तरह नहीं सोचा जा सकता. यह सोचते हुए मैंने अपनी हथेलियाँ फूलों से भरी कचनार की डाल के नीचे रख दीं. उन्हें तोड़ने के लिए नहीं, बिना तोड़े उन फूलों से अपनी हथेलियाँ और उनकी खुशबू से अपने जीवन को भर लेने के लिए. मैंने ढेर सारी साँसें लीं. गहरी साँसें. नीचे गिरे एक फूल को उठाया और उसे जूड़े में टांक लिया. ऐसा लगा मैं भी थोड़ी सी कचनार हो गयी हूँ. बस जरा सी. कुछ देर पहले मैं जिन उदासियों के साथ यहाँ आई थी नदी के इस किनारे पर अब वो उदासी कम हो गयी है ऐसा महसूस हुआ.
उदासी से ऐसा रिश्ता है कि वो कम होती है या दूर जाती है तो लगता है वजूद का कोई हिस्सा दूर जा रहा हो. लेकिन वो इस कदर साथ रहती है कि उससे आजिज़ आ जाती हूँ और सोचती हूँ कि यह जाए कहीं तो साँस आये. अरे, कहीं घूम ही आये थोड़ी देर को.
अभी इस पल में कचनार और मैं मिलकर उदासी को तनिक दूर टहलने भेजने में कामयाब हो गए हैं. चाय पीने की इच्छा को मन में ही थामे जब नदी में गिरते सूरज को देख रही थी तो जाने कैसे उस शाम की खिड़की खुल गयी जब हमने साथ में एक रोज डूबते सूरज को देखा था.
‘साथ में’, ‘किसके साथ में’ के बगैर कितना अधूरा लगता है न? यह ‘किसके’ हालाँकि हमेशा अधूरा ही होता है फिर भी.
एक रोज इसी नदी के किनारे नदी में गिरते सूरज के सामने उसने मुझे चूम लिया था. सूरज का तमाम लाल रंग मेरे गालों पर उतर आया था और नदी का सारा पानी मेरी आँखों में. देह काँप उठी थी. बहुत देर तक बल्कि कई दिनों तक समझ नहीं आया कि मुझे अच्छा लगा था या बुरा.
कुछ समय बाद इतना समझ आया कि बुरा तो नहीं लगा था. लेकिन अच्छा लगा था यह समझने में सच में काफी समय लगा. फिर हमारी शामों में नदी का पानी बढ़ने लगा और गालों पर कचनार की रंगत खिलने लगी. एक रोज जब हम यूँ ही नदी के किनारे टहल रहे थे मैंने उससे कहा, ‘कचनार के फूल बारह महीने क्यों नहीं खिलते.’ वो चुप रहा.
और इस तरह एक सुंदर चुप के साथ एक रिश्ता पूरा हुआ.
इतने बरसों बाद कचनार देखते हुए क्या मुझे उस सम्बन्ध की याद आ रही है? वो क्या होता है किसी सम्बन्ध में जो किसी को याद आता है. बहुत बाद में यह बात समझ में आई कि वो होता है अधूरापन.
अधूरापन बहुत खूबसूरत होता है, उसमें असीम संभावनाएं होती हैं, उसमें एक मीठी कसक होती है जो स्मृति के पोखर में रंग बनकर घुल जाती है. हल्का सा कसैलापन भी होता है...कुछ वैसा जैसा सिगरेट पीने के बाद मुंह में घुला रह जाता है.
मुझे उस कसैलेपन से प्यार है यह बात देर में समझ में आई.
हर नए सम्बन्ध में उस कसैलेपन की ख़ुशबू आती है. वो अधूरापन खींचता है जिसमें पूरा होने की आशा छुपी है. यह जानते हुए भी पूर्णता कुछ भी नहीं सिवाय ऊब के हम उसी की तलाश में जाने क्यों भटकते रहते हैं. बदलते मौसम के साथ जब शाखों पर कोंपलें फूटती हैं मुझे लगता है इन शाखों पर कोई अधूरापन उग रहा है, वही कसैली ख़ुशबू जिसकी तलब जीवन को रहती है.
उदासी हर रिश्ते की ऊँगली थामे चलती है कभी पास, कभी दूर. वो जानती है जब दिन और रात का, खुशबू और नदी का यह खेल थमेगा तब उसे ही सहेजना होगा सबकुछ.
मैंने उदासी से नज़रें चुराकर एक कंकड़ी नदी की तरफ उछाल दी थी. कुछ छींटे मुझ तक उड़कर आये. जीवन के कुछ छींटे. उदासी दूर बैठकर मुझे टुकुर-टुकुर देख रही थी. उसके चेहरे पर मुस्कान थी, मेरे भी.
Tuesday, December 6, 2022
मैं तो प्यार हूँ
मैं तो सितारों से बात कर लूंगी
चाँद को सुना दूँगी दिल की तमाम बातें
मैं किरणों को गले से लगा लूंगी
राह चलते मिले पत्थरों के
सीने से लगकर रो लूँगी
नदियों की रवानगी में बहा दूँगी
अपनी ऊर्जा की कलकल करती तासीर
मेरा क्या है
मैं तो गेहूं की बालियों के संग
उगते खर-पतवार के संग उग आऊंगी
बिल्लियों के बच्चों को गोद में लेकर खिलखिला लूंगी
पलट कर देखूंगी तुम्हें
और आगे बढ़ जाऊंगी
उगते खर-पतवार के संग उग आऊंगी
बिल्लियों के बच्चों को गोद में लेकर खिलखिला लूंगी
पलट कर देखूंगी तुम्हें
और आगे बढ़ जाऊंगी
हिमालय की दिपदिप करती पहाड़ियों की ओर
जंगली फूलों को बालों में लगाकर झूम उठूँगी
सराबोर होउंगी बेमौसम बरसातों में भी
और हरारत होने पर खा लूंगी पैरासीटामाल
तुम्हारा जाना
तुम्हारे जीवन में क्या लाएगा नहीं जानती
मेरा क्या है
मैं तो प्यार हूँ
मुस्कुराऊंगी और धरती मुस्कुरा उठेगी...
जंगली फूलों को बालों में लगाकर झूम उठूँगी
सराबोर होउंगी बेमौसम बरसातों में भी
और हरारत होने पर खा लूंगी पैरासीटामाल
तुम्हारा जाना
तुम्हारे जीवन में क्या लाएगा नहीं जानती
मेरा क्या है
मैं तो प्यार हूँ
मुस्कुराऊंगी और धरती मुस्कुरा उठेगी...
Sunday, November 27, 2022
तेरी आँखों में मेरा चेहरा
सुबह के कान में धीरे से कहा, 'मन नहीं लग रहा यार'. सुबह ने पलकें झपकायीं, सर पर हाथ फेरा और अपनी बाहें फैला दीं. उन बाहों में समाती गयी और मन का लगना जाने कहाँ गुम हो गया. कासे के लहराते फूल, पानी की मीठी सी आवाज़, लाल पंख और सफ़ेद धारी वाली चिड़ियों की शरारतें, सिर्फ मोहब्बत के आगे झुकने वाले पहाड़ों पर गिरता सुबह की धूप का टुकड़ा. कुदरत का एक ऐसा कोलाज कि उदास रातों को इस कोलाज के आगे पनाह मिले.
एक बार एक दोस्त ने कहा था कि हर आने वाले लम्हे का उत्सुकता से इंतज़ार करता हूँ कि न जाने उसकी मुठ्ठी में क्या हो. अब मैं भी वही करती हूँ. आने वाले लम्हों की आहटों पर कान लगाये रहती हूँ, उम्मीद के काँधे पर सर टिकाये ज़िन्दगी के खेल देखती हूँ. वो ज़िन्दगी है, हैरान करने का हुनर उसे खूब आता है. कब कौन सा रास्ता बदल दे, कब कहाँ से उठाकर कहाँ पहुंचा दे कुछ कह नहीं सकते. बस कि खुद को ज़िन्दगी के हवाले करना होता है और उसके सारे रंगों से मोहब्बत हो ही जाती है.
मैं ज़िन्दगी की आँखों में झाँककर मुस्कुराती हूँ, वहां मेरी ही सूरत नज़र आती है.
Saturday, November 26, 2022
सुबह का बोसा
हरे रंग की यात्रा पूरी कर चुकी पत्तियां तुम्हारे आसपास कोई सुनहरा घेरा बना देंगी. उन पीली पत्तियों के पास जीवन के हर सवाल का जवाब मिलेगा. किसी भी पेड़ पर चढ़कर इतराती, खिलखिलाती लताओं में इकसार होकर निखरने का मन्त्र मिलेगा. अपनी हथेलियों में सूरज की किरनें सहेजे जंगल से पूछना कभी उम्मीद के उन जुगनुओं की बाबत जो कैसे भी गाढे अँधेरे में चमकते रहते हैं.
जंगल से गुजरना जंगल के क़रीब होना नहीं है ठीक वैसे ही जैसे किसी व्यक्ति के पास होना उसके क़रीब होना नहीं है. अपनी सुबहों में कुछ खुद को खो रही हूँ, कुछ खुद से मिल रही हूँ.
सूरज की पहली किरन का बोसा मुझे लजा देता है. मेरे चलने की रफ्तार तनिक धीमी पड़ती है...फिर आसमान देखती हूँ और मुस्कुराकर रफ्तार थोड़ी सी बढ़ा लेती हूँ. चलने की नहीं, जीने की.
Friday, November 25, 2022
श्रद्धा के बहाने कुछ जरूरी सवाल
वो संभावनाओं से, सपनों से और प्रेम से भरी एक लड़की थी। वो इस बड़ी सी दुनिया में अपने सपनों को बोना चाहती थी। वो इस धरती को प्रेम से भर देना चाहती थी। घर, शहर की दहलीज लांघकर उसने बड़े शहर के बड़े से आसमान पर अपना नाम लिखने का हौसला थामा हुआ था। कुछ डर, कुछ उपेक्षाएं, अपनों की कुछ नाराजगी साथ लेकर भी वो अपने सपनों के सफर पर निकल पड़ी थी। हाँ, वो घर से प्रेम करने नहीं करियर बनाने ही निकली थी कि उसके कंधे पर किसी ने हौसले से भरा हाथ रखा। जैसे कहा हो, ‘मैं हूँ तुम्हारे साथ’. थोड़ा सा ख्याल रखा जैसे कहा हो, ‘तुम बेफिक्र आगे बढ़ो मैं हूँ न’। लड़की उस सार-सहेज को प्रेम समझ बैठी और एक दिन उसी प्रेम के नाम पर छली गयी। क्रूरता की तमाम हदें पार करते हुए उसे मौत के घाट उतार दिया उसी ने जिसे वो प्रेमी समझ बैठी थी। उसकी नफरत की शिकार हुई जिसे वो प्रेम समझ बैठी थी। हाँ, यह कहानी मुम्बई की श्रृद्धा की है लेकिन क्या सच में यह कहानी सिर्फ मुम्बई की श्रृद्धा की ही है।
मुंबई की श्रद्धा के साथ दिल्ली में जो कुछ भी हुआ वह दिल दहला देने वाला है। लेकिन यह समय उन कारणों को जानने, समझने और महसूस करने का है कि आखिर कौन सी हैं वो वजहें जो लड़कियों को ऐसे मुश्किल रिश्तों में उलझा रही हैं। बात सिर्फ श्रृद्धा की ही नहीं उन तमाम लड़कियों की भी है जो प्रेम के नाम पर रिश्ते की ओर बढीं और एक अब्यूजिव रिलेशन में फंस गयीं, फंसी ही हुई हैं। क्यों वे परिवार की नसीहतों को पीछे छोड़ किसी अजनबी में ढूँढने लगती हैं प्रेम, सहारा, सुरक्षा। कैसे कोई अजनबी उनके मन के उन कोनों को रोशन करने लगता है जिन कोनों की अब तक किसी ने सुध ही नहीं ली। ये रिश्ते उनका दैहिक, आर्थिक और भावनात्मक दोहन करते हैं और वो उसमें से निकल नहीं पातीं। क्या श्रृद्धा ने अपनी उलझनों के बीच कोई आवाज न दी होगी किसी को, या फिर हम एक समाज के, व्यक्ति के और परिवार के तौर पर उस आवाज को सुन पाने में असमर्थ रहे।
केयर करना प्रेम नहीं होता -
कोई अजनबी उम्र के नाजुक दौर में क़रीब आता है, थोड़ा प्रेम देता है, थोड़ा सहारा देता है, थोड़ी केयर करता है तो उन्हें महसूस होता है कि ऐसा तो उन्हें किसी ने कभी एहसास ही नहीं कराया। वो उस सार सहेज को प्रेम समझ उसकी ओर बढ़ने लगती हैं। और अक्सर ऐसे रिश्तों में उलझ जाती हैं जिनका अंजाम आगे चलकर अच्छा नहीं होता। असल में परिवार को वो जगह होना था जहाँ लड़कियां सिर्फ पलती और बढती नहीं बल्कि प्रेम, सुरक्षा, अपनेपन और आत्मविश्वास से लबरेज होकर बाहर निकलतीं। भावनात्मक रूप से मजबूत होकर बाहर निकलतीं। लकिन अफ़सोस कि अभी परिवार संस्था ने परवरिश के असल मर्म को समझना शुरू ही नहीं किया है।
परिवार, परवरिश और हम -
बच्चे कोई भी गलती करें एक उंगली परिवार की ओर भी उठती है। सवाल उठते हैं। कई बार वाजिब और कई बार गैर वाज़िब भी। लेकिन परवरिश सिर्फ परिवार में नहीं होती बच्चे की परवरिश इस समाज में होती है जिसमें माता पिता भाई बहन के अलावा दोस्तों, रिश्तेदारो और पड़ोसियों तक की भूमिका होती है। बच्चे की उपलब्धि को सब लपक लेना चाहते हैं और उनकी मुश्किल को या तो बच्चों के मत्थे उनकी गलती कहकर मढ़ देना चाहते हैं या परिवार की ओर ऊँगली उठाते हैं। मौजूं सवाल यह है कि परिवार और समाज की तैयारी नहीं है परवरिश की। अच्छे स्कूल, ज्यादा नम्बर, बढ़िया पैकेज की नौकरी के सपने देखने वाले परिवार बच्चों की आर्थिक जरूरतों को पूरा करने को ही परवरिश मान बैठते हैं। बच्चों के सपने, उनकी भावनात्मक जरूरतों को समझने की तो जैसे कोई तैयारी है ही नहीं। पैरेंट्स समझ ही नहीं पाता कि इतने लाड प्यार के बावजूद कैसे बच्चा इतना इग्नोर्ड फील करता रहा। अगर किसी बच्चे ने इस बाबत बात की तो उसे डपट दिया गया, ‘इतना कुछ कर रहे हैं तुम्हारे लिए’ के जुमले बच्चे लिए घूमते हैं। इसी के साथ जब बच्चे खासकर लड़कियां जब बाहर निकलती है तो उलझे हुए रिश्तों के मकडजाल में फंस जाती हैं। बात-बात पर अपने निर्णय थोपने वाले, गुस्सा करने वाले परिवार से वे दूरी बना लेना चाहती हैं।
भावनात्मक सपोर्ट जरूरी है -
जब बच्चियां बड़ी होती हैं तो पढ़ाई के लिए बाहर जाती हैं। पैरेंट्स उनकी पढ़ाई की एकेडमिक और फाइनेंशियल तैयारी तो करते हैं लेकिन उन्हें भावनात्मक रूप से तैयार नहीं करते हैं क्योंकि पैरेंट्स को ही तरीका नहीं पता है। पहले पैरेंट्स इसके लिए तैयार हों और बच्चियों को समझाएं कि बाहर निकलने पर दोस्त और रिलेशन बनेंगे लेकिन कब स्वीकार करना या कब तक सहन करना आदि भी बच्चियों को आना चाहिए। उनमें भी यह समझ विकसित करने की जरूरत है।
पैरेंटस सुनना स्वीकारें-
अक्सर देखा जाता है कि परिवार में बच्चों की बातों को ज्यादा तवज्जों नहीं दी जाती है। यह समझना जरूरी है कि क्या परिवार, रिश्ते वो जगह है जहाँ बच्चियां अपनी ज़िंदगी के सारे सुख, दुःख यहाँ तक कि लिए गए गलत निर्णय भी सहज ढंग से बिना किसी डर के साझा कर सकें। परिवारों को बच्चों के मन का डस्टबिन होना चाहिए जहाँ बच्चे सब कुछ उड़ेल सकें और खाली हो सकें। लेकिन बतौर समाज हम विवाह संस्था हो या परिवार संस्था इनके ग्लोरिफिकेशन का काम तो खूब करते हैं लेकिन इनके भीतर की दिक्कतों पर बात नहीं करते। इन संस्थाओं की पुनर्निर्मिति का समय है, इनके ढाँचे को री-डिज़ाइन करने का समय है।
जजमेंटल न हो-
जब बच्चा कुछ कहता है तो पैरेंट्स तुरंत जजमेंटल हो जाते हैं कि लडक़ा या लडक़ी गलत बोल रही है। वह गलत कर रही है। ऐसे में बच्चे अपनी बातों को छिपाने लगते हैं। एक समय के बाद बच्चे आत्मनिर्भर बनना चाहते हैं, उन्हें होना भी चाहिए। इसके लिए लोगों की पहचान करना, किससे रिश्ता रखें या नहीं वे अपनी पसंद के हिसाब से तय करना चाहते हैं। ऐसे में पैरेंट्स उनकी मदद करें।
कुछ सवाल खुद से भी-
देखने में आता है कि कोई बच्चा या कोई दोस्त आपकी पसंद का काम नहीं कर रहा है तो पैरेंट्स-दोस्त उसको अकेला छोड़ देते हैं। यह वही समय है जब उन्हें आपकी ज्यादा जरूरत होती है। रिलेशनशिप में श्रृद्धा के साथ मारपीट होती थी, लेकिन वह उससे अलग नहीं हो पाती थी। इसकी क्या यह वजह है कहीं वह स्टॉकहोम सिंड्रोम का शिकार तो नहीं थी, या ऐसा तो नहीं वो अब भी उस टॉक्सिक रिलेशनशिप को बचाने की कोशिश कर रही थी, उसने उम्मीद नहीं छोड़ी थी, पता नहीं। वो किस दौर से गुजर रही थी क्या उसके पास सब कुछ बता सके ऐसी कोई जगह थी? कहीं इसमें बचपन से जवाब न देना, सहना, कुछ बुरा हो तो उसे इग्नोर करना, रिश्तों को किसी भी हाल में बचाकर रखने जैसी नसीहतें और आसपास देखे अनुभवों की भूमिका तो नहीं थी। यह वो असुरक्षा कि इस रिश्ते से बाहर जायेगी तो लोग क्या कहेंगे? न जाने कितने डर होंगे न जाने कितनी उलझनें और न जाने कितनी कोशिशें हम नहीं जानते। क्या सचमुच बच्चों की गलतियों को अपनाने को, उन्हें जज न करने को तैयार परिवार और समाज हैं हम? अगर होते तो सवाल उस बच्ची पर नही होता, उसकी गलतियाँ नहीं ढूंढ रहे होते हम।
समय की नब्ज़ को समझना होगा-
अब समय बदल रहा है। लेकिन समय की इस बदली हुई नब्ज़ को हम समझ नहीं पा रहे। मॉर्डन होने का ढोंग कर रहे हैं बाहरी आवरण में लेकिन भीतर से पुराने ही किसी खोल में दुबके हुए हैं। ये घटनाएँ बच्चियों को डराने के उदाहरण न बनें बल्कि उन्हें सतर्क, साहसी और आत्मविश्वास से भरने की ओर प्रेरित करें। उन्हें सहानुभूति, केयर और प्रेम के अंतर को समझने में मदद करें और समाज के तौर पर हम सबको अपने बच्चों पर भरोसा करना, उनके साथ हमेशा हम हैं वो अकेले नहीं है यह भरोसा भरना सिखाये ताकि हमारी बच्चियों के मन में डर नहीं साहस भरे ताकि ऐसे रिश्तों में उलझने की बजाय उनका ध्यान हो उस ऊंचे आसमान पर जिसे उनकी उड़ान का इंतज़ार है।
(हेमंत पांडे द्वारा की गयी बातचीत पर आधारित)
राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित- https://epaper.patrika.com/Home/ArticleView?eid=147&edate=23/11/2022&pgid=603198
भरोसा
दुनिया का सबसे ज्यादा
छला गया शब्द है
फिर भी
उसके ही कांधों पर है
इस दुनिया को
सँवारने की जिम्मेदारी.
Thursday, November 24, 2022
हम बस खुलकर रोना चाहते हैं
ऋषभ गोयल से जब कई बरस पहले कविता के एककार्यक्रम में मुझे मिली थी तो मुझे उसकी आँखों की चमक और चेहरे की मुस्कान ने सम्मोहित किया. सपनों और उम्मीदों से भरी उन आखों में एक संवेदनशील दुनिया का सपना था. उसकी मुस्कान में एक निश्चितता कि इस दुनिया को बेहतर बनाना संभव है. फिर ऋषभ एक प्यारा दोस्त बन गया. हर कदम पर उसको निखरते देखती हूँ और ख़ुश होती हूँ. ऋषभ ने अंतर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस के बहाने कुछ बहुत जरूरी बात कही है जिसे राजस्थान पत्रिका ने प्रकाशित किया है. उस जरूरी बात को यहाँ सहेज रही हूँ. -प्रतिभा
मैं करीब 11 साल का था जब किचन में माँ का हाथ बँटाते हुए मामा ने पीछे से टोक दिया था कि क्या हरदम किचन में घुसा रहता है, जा बाहर जाकर खेल. मुझे आज तक यह वाकिया इसलिए याद है, क्योंकि उनके लहजे में मेरे लिए परवाह नहीं थी, बल्कि एक घिन्न थी, जैसे मैं कोई दोयम दर्जे का काम कर रहा हूँ. उसके बाद किचन में वापस कदम रखने में मुझे कई साल लग गए थे. बड़ा हुआ तो एहसास हुआ कि दिक्कत मेरे किचन में काम करने से नहीं थी, मामा की सोच में थी, वही सोच जो हमें समाज में अक्सर देखने को मिलती है, वही पितृसत्तात्मक सोच जो लड़कियों के गाड़ी चलाने और वज़न उठाने पर नाक-भौं सिकोड़ लेती है.
भले ही पितृसत्ता, ‘पितृ’ यानी पुरुषों की देन है, लेकिन इस सोच ने जितना नुकसान महिलाओं का किया है, उतना ही पुरुषों का भी किया है. बचपन से ही तय कर दिया जाता है कि अगर आप एक पुरुष हैं, तो आपको ऐसा बर्ताव करना है, आप ये शौक रख सकते हैं और ये नहीं, आपको ये चीज़ें खानी हैं और ये नहीं, यहाँ तक कि एक पुरुष किस रंग के कपड़े पहन सकता है, यह भी पितृसत्ता ही तय करती है. क्या कहा, आप नहीं मानते? तो याद कीजिए कि पिछली बार जब आपने किसी लड़के को गोल-गप्पे खाते, खुलकर हँसते-रोते, कत्थक करते, चटक गुलाबी शर्ट पहने देखा था, तो आप उतने ही असहज नहीं हुए थे जितने आप एक लड़की को बाइक चलाते हुए देखकर हुए थे? या जब कोई पति किचन में अपनी पत्नी का हाथ बँटाता है, तो उसे ‘सपोर्टिव’ या ‘केयरिंग’ जैसे तमगों से क्यों नवाज़ा जाता है, जबकि वह तो सिर्फ़ अपने घर का काम कर रहा होता है.
अगर हम गौर से देखें, तो यह सोच हम पुरुषों को अंदर से खोखला कर देती है, क्योंकि हम महसूस तो बहुत कुछ करते हैं, लेकिन समाज के खाँचे में फ़िट होने के चक्कर में कुछ भी खुलकर व्यक्त नहीं कर पाते. न खुलकर रो पाते हैं, न खुलकर हँस पाते हैं, न खुलकर प्यार कर पाते हैं और न अपने स्वास्थ्य, अपने चेहरे और शरीर का खयाल ही रख पाते हैं. भावनाओं को व्यक्त न कर पाने की वजह से ही हम बेटों की अपने पिता से बात सिर्फ़ मौसम, एग्ज़ाम और नौकरी तक सीमित होकर रह जाती है, जबकि हम उनसे पूछना चाहते हैं कि पापा आप ठीक तो हो न, दवाई समय पर ले रहे हो न, और उन्हें गले लगाकर बताना चाहते हैं कि हम उनसे कितना प्यार करते हैं, लेकिन हमने ऐसा करते कभी अपने पिता को ही नहीं देखा होता, तो ऐसा करने की हिम्मत ही नहीं होती. बड़े होते हैं, तो पिता के साथ एक अजीब सा रिश्ता कायम हो जाता है, जिसमें दो पुरुष होते हैं, जो एक दूसरे के लिए जान दे सकते हैं, लेकिन एक दूसरे को ‘आई लव यू’ नहीं कह सकते. बेटों की पिताओं से यह भावनात्मक दूरी भी पितृसत्ता की ही देन है.
हमें बचपन से यही सिखाया जाता है कि अगर आप पुरुष हैं, तो आप मज़बूत हैं, ताकतवर हैं, आपमें मर्दानगी कूट-कूटकर भरी होनी चाहिए और यही झूठी मर्दानगी हम पुरुषों की कुंठा का कारण बनती है, क्योंकि इस कंडीशनिंग की वजह से हमारे लिए रिजेक्शन झेलना, किसी काम में फ़ेल होना, किसी रिश्ते में फ़ेल होना बहुत मुश्किल हो जाता है, क्योंकि भावनात्मक रूप से ताकतवर होने की बातें तो हमें कभी बताई ही नहीं जातीं. शायद यही कारण है कि हमारे देश में हर गली-नुक्क्ड़ पर मर्दाना कमज़ोरी के दवाखाने खुले हुए हैं, लेकिन पुरुषों के लिए भावनात्मक कमज़ोरी के दवाखाने कहाँ हैं? और अगर हैं भी, तो हम वहाँ जाना नहीं चाहते हैं. ऐसा मैं नहीं नेशनल लाइब्रेरी ऑफ़ मेडिसिन के आंकड़े बताते हैं, जिनके अनुसार पुरुषों के आत्महत्या करने की संभावना महिलाओं से 1.8 गुना ज़्यादा होती है, लेकिन उनके मेंटल हेल्थ से जुड़ी मदद लेने की संभावना महिलाओं से काफ़ी कम होती है. यानी हम भावनात्मक रूप से बीमार तो हैं, लेकिन हमारी कंडीशनिंग हमें मदद लेने से भी रोकती है, क्योंकि हम मदद माँगने को भी कमज़ोरी समझते हैं और मर्द क्या कभी कमज़ोर हो सकता है!
लेकिन निराश मत होइए, अभी हालात इतने भी नहीं बिगड़े हैं, इस अंधेरी सुरंग के छोर पर रोशनी की एक किरण दिखने लगी है। आज की पीढ़ी पुरुषों की समस्याओं को लेकर ज़्यादा सजग नज़र आती है। वह पुरुषों के फ़ैशन से लेकर उनकी मेंटल हेल्थ तक के बारे में खुलकर बात करती है। आज फ़िल्मो और टीवी शोज़ में 'एंग्री यंग मेन' के साथ-साथ सेंसटिव और वल्नरेबल मेन भी देखने को मिलते हैं और सराहे भी जाते हैं। ये सब अच्छे संकेत हैं, लेकिन याद रखिए कि पितृसत्ता की जड़ें बहुत गहरी हैं और उन्हें काटने में समय तो लगेगा, बस हमें निरंतर कोशिश करनी होगी। आपको और मुझे बार-बार याद रखना होगा कि भले पितृसत्ता से सिर्फ़ महिलाओं का नुकसान नहीं होता, पुरुषों का भी होता है।
Wednesday, November 23, 2022
कि बस मर जाना चाहती हूँ...
ढलने को होती है कोई रात
उसके आगे सूरज की किरणें बिछा देती हूँबिखर चुकने को होती है कोई खुशबू
उसके आगे हथेलियां बढ़ा देती हूँ
मुरझाने को होती है कोई उम्मीद
कि एक पौधा लगाने लगती हूँ
दिल घबराता है जब भी
जूते की फीते बाँधने लगती हूँ
इस कदर जीना चाहती हूँ
कि बस मर जाना चाहती हूँ....
Tuesday, November 22, 2022
अफ़ीमी है तेरा मेरा प्यार
एक बात के ऊपर दूसरी-तीसरी बात जम्प करती रहती है. हम बातों और दृश्यों के ढेर में लगातार गुम होते जाते हैं. कुछ करने जाते हैं और कुछ और करने लगते हैं क्या करने आये थे भूल जाते हैं. क्या कहना था, ज़ेहन से निकल जाता है और न जाने क्या-क्या बोलते जाते हैं. हमसे कुछ हमारा ही खो सा गया है. कैसा सैलाब है ये. कुछ अच्छा नहीं लगता. फिर अचानक चलना शुरू कर देती हूँ. चलती जाती हूँ. कुछ सोचना नहीं चाहती, यह सोचते हुए न जाने क्या-क्या सोचती जाती हूँ.
दृश्यों से दूरी वाले दिनों में कुछ उजाला क़रीब आया हुआ महसूस हुआ. लेकिन अजीब सी फितरत है कि सुख को हाथ लगाते डर लगता है. ख़ुशी थोड़ी दूरी पर रखी हुई ही भली लगती है कि हम एक-दूसरे के देख मुस्कुरा सकें. लेकिन जब हम उठकर चल दें विपरीत दिशाओं में तो कुछ टूटे नहीं.
यह थोड़ा मुश्किल है लेकिन इन दिनों यही ठीक लग रहा है. ख़्वाब जब तक आँखों में थे सुंदर थे, जैसे ही वो हकीकत की हथेली पर उतरे उनके बिखरने का डर भी साथ चला आया. ऐसे ही एक रोज दोस्त से मजाक में कहा था, 'मुझे सुख से डर लगता है, वो क़रीब आता है तो सोचती हूँ अभी इसके पीछे-पीछे आता होगा दुःख भी.' फिर हम देर तक हंसे थे.
कोई फांस धंसी हुई हो जैसे. जीने की इच्छा और जी लेने के बीच. बावजूद इसके जीने की इच्छा को सबसे ऊपर रखती हूँ और खुद को ज़िन्दगी के हवाले कर देती हूँ.
सूरज इस कदर आँखों में कूदने को व्याकुल है कि आंखें चुंधिया जाती हैं. मैं हंस पड़ती हूँ. खुद से किये वादे को दोहराती हूँ कि ख़ुश रहूंगी. खुश रहना भी साधना है. खुश दिखने से यह अलग होता है. इसके रास्ते में तमाम उदासी के पहाड़, नदियाँ जंगल आते हैं उन्हें पार किये बिना यह संभव नहीं.
हथेलियाँ आगे करती हूँ तो जूही खिलखिला पड़ती है. कानों में एक गीत बज उठता है, 'अफीमी अफीमी अफीमी है ये प्यार...' हाँ ज़िन्दगी से प्यार अफ़ीमी ही तो है.
Monday, November 21, 2022
इस सुबह में मैं खिल उठी हूँ
हमेशा से जानती हूँ कि हर रात की हथेली पर एक सुबह का इंतज़ार है. यह भी कि सुबहों की मुठ्ठियों में कोई नामालूम सी उम्मीद खिलती है. फिर भी जब-तब अपनी सुबहें गुमा बैठती हूँ. फिर कोई दोस्त मुझे आलस और उदासी के मिले जुले प्रकोप से निकालता है और सुबहों को हथेलियों पर रख देता है. इन दिनों फिर सुबहों से यारी हो चली है.
मैं सुबहों से कुछ कहती इसके पहले वो मुझसे पूछ बैठती हैं, 'नींद पूरी हो गयी?'मैं पलकें झपका देती हूँ. क्या सुबहों को मेरे और नींद के बिगड़े रिश्ते की बाबत मालूम होगा मन ही मन सोचती हूँ कि चिड़ियों का एक रेला गुजरता है सर के ऊपर से.
धरती पर रात खिली जूही और रातरानी बिखरी हुई है. जो फूल धरती पर हैं वो मुस्कुरा रहे हैं जो डालों पर अटके हैं वो ऊंघ रहे हैं. मैं इस सुबह में बिखर जाना चाहती हूँ. यह सोचते ही रुलाई का कोई भभका फूटने को होता है और मैं मुस्कुरा देती हूँ. सोचती हूँ सुबहों ने मेरे भीतर प्रवेश करना शुरू कर दिया है शायद कि रोना बढ़ गया है इन दिनों. अच्छा लगना भी बढ़ गया है और उदास होना भी.
कल एक दोस्त ने पूछा था जब सारा दिन अच्छा बीता तो शाम तक बिखर क्यों गयी तुम, कहाँ से लाती हो इतनी उदासी. मैं उसकी बात सुन मुस्कुरा दी. मन में सोचा जिन्दगी से.
उदासी को इतना बुरा क्यों समझते हैं लोग. वो भी जीवन का हिस्सा है. आंसू भी. उसका हमारे भीतर बचे रहना शुभ है. कौन है ऐसा जो हमेशा खुश रहता होगा. हमेशा खुश रहने का सपना कितना बोरिंग है.
फ़िलहाल खूब रो चुकने के बाद मैंने अपने चेहरे पर ढेर सारी धूप मल ली है. थोड़ी सी ओस पलकों पर रख ली है. थोड़ा सा आसमान आँखों में भर लिया है.
बहुत दिनों से पढ़ने का रुका हुआ सिलसिला फिर शुरू करने का मन है. सिरहाने रखी किताब 'सरे चाँद थे सरे आसमां' इस सुबह में मुस्कुरा रही है.
Sunday, November 20, 2022
|| એ જ વાત || वही बात
એમની પાસે હતી બંદૂકો
એમને બસ ખભા જોઈતા હતા
એમને બસ છાતીઓ જોઈતી હતી
એમના હાથોમાં તલવારો હતી
એમની પાસે અનેક ચક્રવ્યૂહ હતા
એ લોકો શોધતા હતા નિર્દોષ અભિમન્યુ
એમની પાસે હતા ક્રૂર અટ્ટહાસ્ય
અને બિભત્સ મુસ્કાન
એ લોકો શોધતા હતા દ્રૌપદી
એમણે અમને જ પસંદ કરી
અમને મારવા માટે
અમારી છાતી પર
અમારા દ્વારા જ ચલાવી તલવાર
અમને જ ઊભી કરી
અમારી જ વિરુદ્ધ
અને એ લોકો જીતી ગયા
એમણે બસ એટલું કહ્યું
સ્ત્રીઓ જ હોય છે
સ્ત્રીની દુશ્મન
કાયમ..
- પ્રતિભા કટિયાર
- હિંદી પરથી અનુવાદ : ભગવાન થાવરાણી
એમને બસ ખભા જોઈતા હતા
એમને બસ છાતીઓ જોઈતી હતી
એમના હાથોમાં તલવારો હતી
એમની પાસે અનેક ચક્રવ્યૂહ હતા
એ લોકો શોધતા હતા નિર્દોષ અભિમન્યુ
એમની પાસે હતા ક્રૂર અટ્ટહાસ્ય
અને બિભત્સ મુસ્કાન
એ લોકો શોધતા હતા દ્રૌપદી
એમણે અમને જ પસંદ કરી
અમને મારવા માટે
અમારી છાતી પર
અમારા દ્વારા જ ચલાવી તલવાર
અમને જ ઊભી કરી
અમારી જ વિરુદ્ધ
અને એ લોકો જીતી ગયા
એમણે બસ એટલું કહ્યું
સ્ત્રીઓ જ હોય છે
સ્ત્રીની દુશ્મન
કાયમ..
- પ્રતિભા કટિયાર
- હિંદી પરથી અનુવાદ : ભગવાન થાવરાણી
Friday, November 18, 2022
|| એક દિવસ ||- एक रोज
प्यार की कोई बूंद कविता में ढली थी एक रोज, फिर एक रोज किसी ने उसे स्नेह से पढ़ा और चाहा कि भाषाओं के पार जाये प्रेम की यह एक बूँद. ભગવાન થાવરાણી जी बहुत सारे हिंदी कवियों की कविताओं को गुजराती के पाठकों तक पहुंचा रहे हैं. मुझे ख़ुशी है उन्होंने मेरी इस कविता को भी अनुवाद के लिए चुना. शुक्रिया उन सभी पाठकों का जिन्होंने इसे गुजराती अनुवाद में पढ़ा और प्यार दिया.-प्रतिभा
એક દિવસ
હું વાંચતી હઈશ
કોઈક કવિતા
બરાબર એ જ સમયે
ક્યાંકથી કોઈક શબ્દ
કદાચ કોઈક કવિતા કનેથી ઊછીનો લઈ
મારા અંબોડામાં ખોસી દઈશ તું !
એક દિવસ
હું લખતી હઈશ ડાયરી
બરાબર એ જ વખતે
પીળા પડી ગયેલા
ડાયરીના જરીપુરાણા પાનાઓમાં
મારું મન બાંધીને
ઉડાડી જઈશ
આઘેરા આભના છાંયડે
એક દિવસ
જ્યારે કોઈક અશ્રુ આંખમાં
આકાર લઈ રહ્યું હશે
બરાબર એ વખતે
તારા સ્પર્શની હુંફથી
એને મોતી બનાવી દઈશ તું
એક દિવસ
પગદંડી પર ચાલતાં
જ્યારે લથડશે કદમ
તો તારા સ્મિતથી
સંભાળી લઈશ તું મને
એક દિવસ
સંગીતની મંદ લહેરખીઓને
વચ્ચે રોકીને
તું બનાવી લઈશ રસ્તો
મારા લગી પહોંચવાનો
એક દિવસ
જ્યારે મારી આંખો મીંચાતી હશે
કાયમ માટે
ત્યારે કોણ જાણે કઈ રીતે
તું ખોલી નાખીશ જીવનના બધા રસ્તા
આપણે સમજી નહીં શકીએ તો પણ
દુનિયા કદાચ એને
પ્રેમનું નામ આપશે
એક દિવસ..
- પ્રતિભા કટિયાર
- હિંદી પરથી અનુવાદ : ભગવાન થાવરાણી
एक रोज़
मैं पढ़ रही होऊँगी
कोई कविता
ठीक उसी वक़्त
कहीं से कोई शब्द
शायद कविता से लेकर उधार
मेरे जूड़े में सजा दोगे तुम ।
एक रोज़
मैं लिख रही होऊँगी डायरी
तभी पीले पड़ चुके डायरी के पुराने पन्नों में
मेरा मन बाँधकर
उड़ा ले जाओगे
दूर गगन की छाँव में ।
एक रोज़
जब कोई आँसू आँखों में आकार
ले रहा होगा ठीक उसी वक़्त
अपने स्पर्श की छुअन से
उसे मोती बना दोगे तुम ।
एक रोज़
पगडंडियों पर चलते हुए
जब लड़खड़ाएँगे क़दम
तो सिर्फ़ अपनी मुस्कुराहट से
थाम लोगे तुम ।
एक रोज
संगीत की मंद लहरियों को
बीच में बाधित कर
तुम बना लोगे रास्ता
मुझ तक आने का ।
एक रोज़
जब मैं बंद कर रही होऊँगी पलकें
हमेशा के लिए
तब न जाने कैसे
खोल दोगे ज़िंदगी के सारे रास्ते
हम समझ नहीं पाएँगे फिर भी
दुनिया शायद इसे
प्यार का नाम देगी एक रोज़.
मैं पढ़ रही होऊँगी
कोई कविता
ठीक उसी वक़्त
कहीं से कोई शब्द
शायद कविता से लेकर उधार
मेरे जूड़े में सजा दोगे तुम ।
एक रोज़
मैं लिख रही होऊँगी डायरी
तभी पीले पड़ चुके डायरी के पुराने पन्नों में
मेरा मन बाँधकर
उड़ा ले जाओगे
दूर गगन की छाँव में ।
एक रोज़
जब कोई आँसू आँखों में आकार
ले रहा होगा ठीक उसी वक़्त
अपने स्पर्श की छुअन से
उसे मोती बना दोगे तुम ।
एक रोज़
पगडंडियों पर चलते हुए
जब लड़खड़ाएँगे क़दम
तो सिर्फ़ अपनी मुस्कुराहट से
थाम लोगे तुम ।
एक रोज
संगीत की मंद लहरियों को
बीच में बाधित कर
तुम बना लोगे रास्ता
मुझ तक आने का ।
एक रोज़
जब मैं बंद कर रही होऊँगी पलकें
हमेशा के लिए
तब न जाने कैसे
खोल दोगे ज़िंदगी के सारे रास्ते
हम समझ नहीं पाएँगे फिर भी
दुनिया शायद इसे
प्यार का नाम देगी एक रोज़.
-प्रतिभा कटियार
Thursday, November 17, 2022
याद का मौसम
याद का मौसम बदल रहा है
याद अब भी आती है
लेकिन अब वो उदास नहीं करती
चुपचाप बैठी रहती है काँधे पर सर टिकाये
गुनगुनाती है मीठी धुन
मुस्कुराती है हौले से
याद ने अब सीख लिए हैं ढब
फूलों की खुशबू में ढलकर महक उठने के
सुबह की किरणों में समाकर बिखर जाने
धरती के इस छोर से उस छोर तक
इंतजार की आहटों में नहीं रहती याद
उसने खोज निकाले हैं रास्ते
नदियों की रवानगी में ढल जाने के
फूलों के संग खिलने के
परिंदों की ऊंची उड़ान में शामिल होने के
सिरहाने जो उम्मीद की शाख रख गए थे न तुम
वो मुरझाई नहीं है अब तक
उस पर उगती रहते हैं तेरी याद के गुंचे
जाना एक क्रिया है पढ़ा था हमने
जाने के भीतर जो रह जाना है वो तो जाना है अब
और यह जो रह जाना है
यही तो है इश्क़ की खुशबू
अब जबकि कि तू नहीं, तेरी जुस्तजू भी नहीं
पर ये जो मैं हूँ ये क्या हूँ
तेरी याद की खुशबू में रची-बसी.
लेकिन अब वो उदास नहीं करती
चुपचाप बैठी रहती है काँधे पर सर टिकाये
गुनगुनाती है मीठी धुन
मुस्कुराती है हौले से
याद ने अब सीख लिए हैं ढब
फूलों की खुशबू में ढलकर महक उठने के
सुबह की किरणों में समाकर बिखर जाने
धरती के इस छोर से उस छोर तक
इंतजार की आहटों में नहीं रहती याद
उसने खोज निकाले हैं रास्ते
नदियों की रवानगी में ढल जाने के
फूलों के संग खिलने के
परिंदों की ऊंची उड़ान में शामिल होने के
सिरहाने जो उम्मीद की शाख रख गए थे न तुम
वो मुरझाई नहीं है अब तक
उस पर उगती रहते हैं तेरी याद के गुंचे
जाना एक क्रिया है पढ़ा था हमने
जाने के भीतर जो रह जाना है वो तो जाना है अब
और यह जो रह जाना है
यही तो है इश्क़ की खुशबू
अब जबकि कि तू नहीं, तेरी जुस्तजू भी नहीं
पर ये जो मैं हूँ ये क्या हूँ
तेरी याद की खुशबू में रची-बसी.
Thursday, November 10, 2022
સાધના છે પ્રેમનો રાગ -गुजराती में अनुवाद
જ્યારે જોઉં છું તારી તરફ
ત્યારે ખરેખર
હું જોઈ રહી હોઉં છું પોતાના એ દુખ ભણી
જે તારામાં ક્યાંક આશરો પામવા ઇચ્છે છે
જ્યારે લંબાવું છું તારી તરફ પોતાનો હાથ
ત્યારે પકડવા ચાહું છું
આશાના એ અંતિમ તંતુને
જે તારામાંથી પસાર થાય છે
જ્યારે ટેકવું છું મારું મસ્તક તારા ખભે
ત્યારે ખરેખર તો મુક્તિ પામું છું
સદીઓના થાકમાંથી
તને ચાહવું ખરેખર તો છે
શોધવું સ્વયંને આ સૃષ્ટિમાં
વાવવું ધરતીમાં પ્રેમનું બીજ
અને સાધના છે પ્રેમનો રાગ..
-,પ્રતિભા કટિયાર
- હિંદી પરથી અનુવાદ : ભગવાન થાવરાણી
हिंदी कविता- साधना है प्रेम का राग
जब देखती हूँ तुम्हारी ओर
तब दरअसल
मैं देख रही होती हूँ अपने उस दुःख की ओर
जो तुममें कहीं पनाह पाना चाहता है ।
जब बढ़ाती हूँ तुम्हारी ओर अपना हाथ
तब थाम लेना चाहती हूँ
जीवन की उस आख़िरी उम्मीद को
जो तुममे से होकर आती है ।
जब टिकाती हूँ अपना सर
तुम्हारे कन्धों पर
तब असल में पाती हूँ निजात
सदियों की थकन से
तुम्हें प्यार करना असल में
ढूँढ़ना है ख़ुद को इस सृष्टि में.
बोना है धरती पर प्रेम के बीज
और साधना है प्रेम का राग...
- प्रतिभा कटियार
नवम्बर की कलाई पर प्यार
नवम्बर की अंजुरियों में
धूप खिलने लगी हैउम्मीद की शाखें भर उठी हैं
ख्वाबों से
मुसाफिर फिर से व्याकुल हैं
रास्तों से भटक जाने को
नीले पंखों वाली चिड़िया
मीर के दीवान से सर टिकाये बैठी है
मध्धम सी आंच पर
पक रहा है इंतज़ार
एक ज़िद है कि
झरने से पहले समेट लेनी है
लम्हों की ख़ुशबू
नवम्बर की कलाई पर
बांधना है प्यार.
Tuesday, November 8, 2022
हिंसा तो उपेक्षा भी है
-प्रतिभा कटियार
‘अम्मू’ फिल्म देखकर खत्म की है. लेटी हूँ. ख़ामोशी पसरी हुई है. भीतर भी, बाहर भी. ‘अम्मू’ की कहानी नयी नहीं है लेकिन नयी न होने से क्या कहानी नहीं रहती, क्या उस कहानी की तासीर कम हो जाती है. ‘डार्लिंग्स’ देखी थी तब ऐसी ख़ामोशी महसूस नहीं हुई थी. इस ख़ामोशी को बुरा लगने से जोड़कर देखना ठीक नहीं है. क्योंकि दोनों ही फिल्मों के अंत में बुरा महसूस नहीं होता लेकिन कुछ महसूस होता है. यह कुछ महसूस होना फिल्म की ताकत है.
कुछ लोग कहेंगे कि ‘डोमेस्टिक वायलेंस. क्या यह अब भी होता है?’ इनमें महिलाएं भी होंगी. खासकर मध्य वर्ग की महिलाएं. कुछ कहेंगी ‘मेरे ‘ये’ तो कभी तेज़ आवाज़ में बात भी नहीं करते.’ कुछ और इतरा के कहेंगी ‘मेरे ये तो मुझे किसी काम को करने से नहीं मना करते.’ कुछ पुरुष कहेंगे ‘भई, हमने कोई रोक-टोक नहीं की किसी तरह की. जैसे चाहें जियें, जो चाहें करें.’ इन संवादों के भीतर न जाने कितनी परतें हैं जिन तक उनकी खुद की भी नजर नहीं जाती. लेकिन अम्मू देखने के बाद मेरे मन में कुछ और ही बातें चल रही हैं और मुझे ‘थप्पड़’ फिल्म की याद बेतरह आ रही है.
जहाँ खुली हिंसा है, मारपीट है वहां भी लड़ाई कितनी मुश्किल है, स्त्रियाँ बार-बार बिना मांगी गयी माफियों को माफ़ करके उदार होती रहती हैं. परिवार को बचाने की कोशिश करती रहती हैं. सोचती रहती हैं, गुस्सा आ गया होगा किसी बात पर वैसे तो बहुत प्यार करते हैं, अम्मू भी यही कहती है, ज्यादा दिन तो अच्छे ही गुजरते हैं थोड़े ही दिन मारपीट वाले होते हैं. उन पर काम का दबाव रहा होगा शायद. फिर हिंसा का सिलसिला बढ़ता जाता है और जीवन और फिल्म दोनों अपने रास्ते तलाशते हैं.
‘थप्पड़’ फिल्म इसलिए ज्यादा करीब की लगी थी कि ‘सिर्फ एक थप्पड़ ही तो है’ कहकर रिश्ते को बचाने के लिए उसे सह जाने के खिलाफ खड़ी यह फिल्म थोड़ा ज्यादा बड़ा आसमान खोलती थी. लेकिन मेरे मन में लगातार कुछ सवाल हैं. क्या है हिंसा. कब कोई व्यवहार, कोई बर्ताव हिंसक होता है, कब नहीं.
लगभग हर दूसरी स्त्री अलग-अलग तरह की व्यवहारगत हिंसा का सामना कर रही है. हर रोज. सुबह से शाम तक, शाम से सुबह तक लेकिन यह सब हिंसा के दायरे में आता ही नहीं.
अक्सर पति अपनी पत्नियों के प्रति उपेक्षा का भाव रखते हैं. उन्हें याद ही नहीं रहता कि उनकी पत्नी कितनी सुंदर दिखती है. वो प्रशंसा करना तो भूल ही चुके होते हैं लेकिन मजाकिया लहजे में अपमानित करना उन्हें खूब आता है. ‘कैसी दिखने लगी हो, कितना खाती रहती हो? ठूंस लो, फ़ैल तो रही ही हो? सजने से क्या लगता है तुम सुंदर लगने लगोगी? क्या घर में पड़ी रहती हो? ऑफिस जाती हो तो क्या अनोखा काम करती रहती हो इतना क्या इतराती रहती हो.’ दोस्तों से कहना, ‘अरे बीवी की तो आदत है किच किच करने की, अब क्या करें.’
पत्नियाँ जानती हैं कि पति ने न जाने कितने नए एप पर कितने अलग नामों से अपने सुख के कोने तलाश रखे हैं, लेकिन वो इग्नोर करती रहती हैं. सामने मिले एविडेंस को मुस्कुरा कर उपेक्षित करती हैं. और अगर झगड़ा करती हैं तो उन्हें ही बेकार की शक्की औरत के रूप में साबित करके नयी कहानियां गढ़कर उन्हें ही अपराधी बना देना बिलकुल भी नया नहीं है.
स्त्रियाँ सहती हैं और खुद ही अपराधबोध में मरी जाती हैं.
सोचती हूँ क्या यह सब हिंसा नहीं है? उनके काम को एप्रिशिएट न करना, उनके गुणों के बारे में बात न करना, उपहास करना, ताना देना, या हर बात के जवाब में चुप लगा जाना, घर की कलह का दोष उनके सर मढ़कर दूसरे रिश्तों क खोज में निकल पड़ना क्या यह सब हिंसा नहीं.
हर दिन ऐसी हिंसा का सामना करने वाली स्त्रियाँ राहत की सांस लेते हुए जब इतराकर करवा चौथ का व्रत रखकर खुश होती हैं और यह कहती हैं कि ‘मेरे ये तो कभी हाथ नहीं उठाते’ तो उनकी मासूमियत पर न हंसी आती है, न रोना.
विवाह संस्था इस कदर दमघोंटू है कि अक्सर इसके भीतर ऑक्सीजन की कमी होने लगती है. बहुत सारे रिश्ते वेंटिलेटर पर चल रहे हैं. दुःख इस बात का है कि खुद वेंटिलेटर पर चल रहे रिश्ते में जूझ रहे लोग दूसरों को शादी न करने पर ताने देने से, उपहास करने से बाज नहीं आते.
समय आ गया है कि विवाह संस्था को या तो खारिज किया जाय या इसकी पुनर्निर्मित हो. वरना अम्मू, डार्लिंग्स पर तो फिर भी बात हो जायेगी, थप्पड़ पर भी हो जायेगी लेकिन वो लोग घेरे में नहीं आयेंगे जो बिना मारे हर वक्त अपने साथी के सम्मान को, उनके आत्मविश्वास को चोटिल करते रहते हैं.
व्यवहारगत हिंसा को भी हिंसा के दायरे में लाना जरूरी है जिसमें उपेक्षा, उपहास और धोखेबाजी भी शामिल है.
Saturday, November 5, 2022
उसका नाम ख़्वाब रखा मैंने
मैं आवाज़ को नहीं पहचानती, ख़ामोशी को पहचानती हूँ. चेहरे में मुझे सिर्फ आँखें दिखती हैं, आँखों में दिखता है वो पानी जिसमें असल पहचान होती है. चेहरे पर लाख चेहरे रख ले कोई आँख के पानी को बदल पाना अभी सीखा नहीं मनुष्य ने. मैंने हमेशा संवादों के बीच से खामोशियाँ चुनी हैं आहिस्ता, शाइस्ता ढंग से. जैसे मृत्यु के बाद चुनते हैं राख से अस्थियाँ. उँगलियों से जब टकराता है अस्थि का कोई टुकड़ा तो सिहरन होती है, कंपकपी. याद का भभका रुलाई बन फूटता है कि राख के भीतर छुपा अस्थि का यह टुकड़ा कभी गले में पड़ी बांह थी.
अल्फाज़ की लरजिश ने कभी भरमाया नहीं, ख़ामोशी की तासीर ने पुकारा हमेशा. जब सोचती हूँ किसी के बारे में तो उसका चेहरा नहीं, आँखें दिखती हैं. उन आँखों का पानी दिखता है. देखने का अंदाज नहीं देखने की जुम्बिश दिखती है. स्मृतियों में जो आँखें हैं उनकी जुम्बिश थामे रहती है. किसी सुख से भरती है. उदासी से भी.
सुख और उदासी क्या अलग शय हैं? प्रेम और विछोह क्या अलग शय हैं?
कल यूँ ही एक बच्चा करीब आकर लिपट गया. वो मुझे नहीं जानता था. मैं भी उसे नहीं जानती थी. जब यह लिख रही हूँ तो पास में बैठी हुई विनोद कुमार शुक्ल की कविता 'हताशा में आदमी' मुस्कुरा रही है. मैंने कविता को देख पलकें झपकायीं और बच्चे को मुस्कुराकर देखा, बच्चे ने मुझे. मैंने कहा, 'कैसे हो', उसने हंसकर कहा, 'बहुत अच्छा हूँ.' मैंने उसकी आँखों में खुद को टिका दिया और पूछा, 'ये बहुत अच्छा कितना बड़ा होता है'. उसने अपने नन्हे हाथों को भरसक बड़ा करते हुए फैला दिया...'इतना'. हम दोनों हंस दिए. मैंने उसके गाल थपथपाए उसने अपनी बाहें मेरे गले में डाल दीं. सच कहूँ, मेरी आँखें भीग गयीं. शायद अरसे से किसी के गले लगने की इच्छा को ठौर मिला था. मैंने उसे भींच लिया. वो पलकें झपकाकर चला गया.
अल्फाज़ की लरजिश ने कभी भरमाया नहीं, ख़ामोशी की तासीर ने पुकारा हमेशा. जब सोचती हूँ किसी के बारे में तो उसका चेहरा नहीं, आँखें दिखती हैं. उन आँखों का पानी दिखता है. देखने का अंदाज नहीं देखने की जुम्बिश दिखती है. स्मृतियों में जो आँखें हैं उनकी जुम्बिश थामे रहती है. किसी सुख से भरती है. उदासी से भी.
सुख और उदासी क्या अलग शय हैं? प्रेम और विछोह क्या अलग शय हैं?
कल यूँ ही एक बच्चा करीब आकर लिपट गया. वो मुझे नहीं जानता था. मैं भी उसे नहीं जानती थी. जब यह लिख रही हूँ तो पास में बैठी हुई विनोद कुमार शुक्ल की कविता 'हताशा में आदमी' मुस्कुरा रही है. मैंने कविता को देख पलकें झपकायीं और बच्चे को मुस्कुराकर देखा, बच्चे ने मुझे. मैंने कहा, 'कैसे हो', उसने हंसकर कहा, 'बहुत अच्छा हूँ.' मैंने उसकी आँखों में खुद को टिका दिया और पूछा, 'ये बहुत अच्छा कितना बड़ा होता है'. उसने अपने नन्हे हाथों को भरसक बड़ा करते हुए फैला दिया...'इतना'. हम दोनों हंस दिए. मैंने उसके गाल थपथपाए उसने अपनी बाहें मेरे गले में डाल दीं. सच कहूँ, मेरी आँखें भीग गयीं. शायद अरसे से किसी के गले लगने की इच्छा को ठौर मिला था. मैंने उसे भींच लिया. वो पलकें झपकाकर चला गया.
क्या वो बच्चा जीवन था या ख़्वाब?
वो खेल के मैदान में गेंद के पीछे भागने लगा था और मेरा मन उसकी आँखों में डूबा था.
ज़िन्दगी किस कदर रहस्यों से भरी है, हम नहीं जानते. मैं देर रात तक उन नन्हे हाथों के बारे में सोचती रही जिसने बताया था कि बहुत अच्छा होना कितना बड़ा होता है. यही सोचते हुए सोने की कोशिश की तो आँखों में एक मुस्कान खिल गयी.
सुबह उठी तो जूही की डाल फूलों से भरी हुई थी.
मुझे उस बच्चे का नाम ख़्वाब रखना का जी चाहा. ख़्वाब जो जियाये रहते हैं...थामे रहते हैं.
सुबह उठी तो जूही की डाल फूलों से भरी हुई थी.
मुझे उस बच्चे का नाम ख़्वाब रखना का जी चाहा. ख़्वाब जो जियाये रहते हैं...थामे रहते हैं.
Friday, October 7, 2022
बस इतना सा ख़्वाब था...
सुबह की आँख अभी खुली नहीं थी. सपनों की सुनहरी लकीर लड़की की पलकों से छनकर छलक रही थी. लड़की ने अपनी करवट में मुस्कुराते हुए सिसकी ली. उस सिसकी में रुदन नहीं था. उस सिसकी में झरे हुए हरसिंगार की रंगत थी. क़ायनात इस इंतज़ार में थी कि लड़की की आँख न खुले और उसका सपना न टूटे. इसलिए बादलों ने सुबह को छुपाने के तमाम जतन करने शुरू कर दिए.
बादल आये तो आई हवा भी और जब आई हवा तो सोई हुई लड़की के बिखरे हुए बालों को चूमने से खुद को रोक न सकी. लड़की चौंक के जाग गयी. उसे अपनी पलकों पर किसी चुम्बन की आहट मिली. ख़्वाब था शायद....हाँ, ख़्वाब ही होगा. नीम हरारत में सिमटी अनमनी लड़की ने खिड़की के बाहर टंगे बादलों को देखा और वापस नींद की नदी में उतरने को लेट गयी. लेकिन नींद जा चुकी थी. वो टूटे हुए सपने की रानाई में देर तक उलझी रही.
सपना बस इतना सा था कि लड़के ने कहा, 'सुनो आज मैंने तुम्हें सपने में देखा...' लड़की ने पूछा, 'सच'. लड़के ने कहा, 'हाँ सच.' कहते हुए लड़के ने लड़की की पलकों को चूम लिया था. लड़की की आँखें बह निकली थीं कि कोई किसी के ख़्वाब में यूँ ही तो नहीं आता.
डालियों पर अटके हरसिंगार हवा के झोंके के संग झूलकर धरती के गले लग चुके थे. लड़की अब नींद से बाहर थी. चाय के पानी के संग कुछ अल्फ़ाज महक रहे थे रसोई में, 'सुनो आज मैंने तुम्हें सपने में देखा'.
ख़्वाब में ख़्वाब की बातें हसीन होती हैं...है न? लड़की ने आईने से कहा.
मौसम सुहाना था शहर का. अक्टूबर महकने लगा था.
Wednesday, October 5, 2022
अमरकंटक- प्यार से पुकार लो जहाँ हो तुम
सुख जब आता है तो साथ आता है दुःख भी. दो पल के सुख के पीछे कितनी सदियों की उदासी आएगी कोई नहीं जानता. फिर भी उस दो पल के सुख के इंतज़ार में पलक-पांवड़े बिछाये हम लम्हों पर पाँव रखते हुए आगे बढ़ते जाते हैं. उदासी की आदत इतनी है कि वो अपना पक्की सहेली लगती है, तो यह पक्की सहेली कुछ मुद्दत को जो बिछड़ गयी थी वापस मिली और पलकें नम हो गयीं. हम दोनों एक-दूसरे के गले लगे, आँखें बहती रहीं, हम मुस्कुराते रहे. ऐसे ही नम मुस्कुराहटों वाले दिनों में कानों में नर्मदा की आवाज़ झरने लगी. मानो नर्मदा ने कहा हो, ‘आ जाओ तुम दोनों, मेरे पास.’ मैंने पलकों पर अटकी उदासी से पूछा, ‘चलें क्या?’ उसने झट से ‘हाँ’ कह दिया.
नर्मदा...सिर्फ नदी तो नहीं है. वो एक पुकार है. एक तरीका है जीने का. संजय सैलानी और बाबुषा कोहली से नर्मदा के इतने किस्से सुने हैं कि वो सखी सी लगती है. ऐसी सखी जिससे पहली मुलाकात जबलपुर में हुई थी.
नर्मदा का ख़याल आया तो ख़याल आया बाबुषा का. ख़याल आया उस रोज का जब धुआंधार के किनारे हम शाम को रात में और रात को सुबह में बदलते देखते रहे थे. ये ऐसी नदी है जो उलटी दिशा में बहती है. यह वो नदी है जो अपने मंडप से उठकर भागी थी क्योंकि वो अपना प्रेम किसी से बांटना नहीं चाहती थी. कहानियां कई हैं लेकिन हर कहानी में इस प्रेम से भरी, स्वाभिमान से भरी नदी का निखार ही अलग नज़र आता है. इस नदी के सीने में दुनिया की तमाम प्रेमिकाओं का दिल धड़कता है.
ज़िन्दगी इतनी मेहरबान कहाँ हुई कि सुभीते से तयशुदा यात्राएँ हासिल होतीं. अक्सर जिन हालात में यात्राओं ने मेरा हाथ थामा वो ऐसे ही थे जैसे मंडप में बैठी दुल्हन का हाथ थामा हो उसके प्रेमी ने. तमाम उहापोह...बेचैनी...और अंत में प्रेमी का हाथ थाम सब भूलकर मंडप से उठकर भाग जाना. कश्मीर, केरल, लंदन, अंडमान, उदयपुर, बाड़मेर, गोवा सहित तमाम यात्राओं के ऐन पहले के हालात याद आये और लब मुस्कुराये. ‘भाग जा लड़की’, भीतर से आवाज़ आई. और बैग पैक हो गया. कभी यूँ भी हुआ है कि बैग पैक करने का वक़्त भी नहीं मिला. इस बार भी कुछ ऐसा ही हुआ बस ये अच्छा हुआ कि इस बार इस भागने में शामिल हुई ख़्वाहिश भी और संज्ञा भी. मेरा ख़्वाहिश का तो फिर भी कुछ तय था संज्ञा तो सच में एकदम अंत समय में सब दुश्वारियों को काटकर इस यात्रा में शामिल हुई.
साथ होना भी और साथ चलना भी-
संज्ञा, ख़्वाहिश और मैं. हम तीनों यात्रा को निकल पड़े. लेकिन कहना न होगा निकल सके दो वजहों से, एक निकलने की शदीद इच्छा और दूसरी नर्मदा की पुकार. संजय सैलानी कबसे नर्मदा और अमरकंटक के लिए आवाज़ देता रहता है. इस बार संजय ने अमरकंटक में होने ‘तितली महोत्सव’ के बारे में बताया तो उसमें शामिल होने की इच्छा को सहेजकर सिरहाने रख लिया यह कहकर कि इस बार तो संभव नहीं अगली बार जरूर जायेंगे. महोत्सव के ठीक दो दिन पहले जब संजय को इस बाबत बताया तो इस उलझन के साथ कि आने का मन है लेकिन टिकट नहीं मिल रहे. संजय हमारे आने की बात से इतना खुश हुआ कि उसने टिकट की जिम्मेदारी भी ले ली और अगले कुछ घंटों में कन्फर्म टिकट हमारे हाथ में थी. संज्ञा का साथ चलना किसी जरूरी वजह के चलते अटक गया था इसलिए मन में एक कचोट थी. यात्रा के कुछ घंटों पहले संज्ञा ने कहा वह चल रही है. जब उसका फोन आया मैं चाय पी रही थी. मैं ख़ुशी से उछल पड़ी थी. अब यात्रा का सुख महसूस होना शुरू हो चुका था. संज्ञा से ठहरकर मिलने का मन जाने कबसे था. ऐसा मन जो बेजुबान होता है. हम दोनों आपस में बहुत बात नहीं करते लेकिन जुड़े हमेशा रहते हैं. ‘संज्ञा मासी भी साथ चल रही हैं’ सुनकर ख़्वाहिश भी खूब खुश हुई. मुश्किल बस एक थी जरा सी कि क्योंकि हमारी टिकट्स एक साथ नहीं हुई थीं इसलिए हमारी सीट्स अलग-अलग कोच में थीं. लेकिन भरोसा था कि कुछ तो हो ही जाएगा.
स्टेशन पहुंचे तो संज्ञा पहले से मौजूद थी. हम गले लगे तो लगे ही रहे. जैसे हम सच में मिल रहे हैं, सच में साथ एक यात्रा पर जा रहे हैं इसका यक़ीन खुद को दिला रहे हों. बार-बार हम हंस रहे थे, खुश थे, भीतर जमा तमाम उदासी की गिरहों को आराम-आराम से खोलने को रत्ती भर तैयार शायद. मेरे लिए यह यात्रा संज्ञा के संग यात्रा हो चुकी थी. हम दोनों न जाने कितनी यात्राओं के मंसूबे कितने बरसों से बना रहे हैं लेकिन देखो न अचानक हमारा थामने को आ गयी एक छुटकी सी यात्रा जिसके भीतर स्नेह का विशाल समन्दर लहरा रहा था. हमें इस यात्रा की बहुत जरूरत थी. कई बार हम यात्रा को नहीं चुन पाते तो वो हमारे पास आती है और हमें उठाकर साथ ले जाती है, ठीक वैसे ही जैसे ले जाता है प्रेम.
हम तीनों निकल पड़े थे...
स्टेशन पहुंचे तो संज्ञा पहले से मौजूद थी. हम गले लगे तो लगे ही रहे. जैसे हम सच में मिल रहे हैं, सच में साथ एक यात्रा पर जा रहे हैं इसका यक़ीन खुद को दिला रहे हों. बार-बार हम हंस रहे थे, खुश थे, भीतर जमा तमाम उदासी की गिरहों को आराम-आराम से खोलने को रत्ती भर तैयार शायद. मेरे लिए यह यात्रा संज्ञा के संग यात्रा हो चुकी थी. हम दोनों न जाने कितनी यात्राओं के मंसूबे कितने बरसों से बना रहे हैं लेकिन देखो न अचानक हमारा थामने को आ गयी एक छुटकी सी यात्रा जिसके भीतर स्नेह का विशाल समन्दर लहरा रहा था. हमें इस यात्रा की बहुत जरूरत थी. कई बार हम यात्रा को नहीं चुन पाते तो वो हमारे पास आती है और हमें उठाकर साथ ले जाती है, ठीक वैसे ही जैसे ले जाता है प्रेम.
हम तीनों निकल पड़े थे...
कोई तो सुनेगा न बात हमारी-
ट्रेन के अलग-अलग लेकिन अगल-बगल के कोच में हमने अपना सामान रखा. हमारी निगाहें उन लोगों को तलाशने लगीं जो सीट बदल ले और हम तीनों को एक साथ कर दे. उम्मीद भरी नज़रों से हम हर किसी को तलाश रहे थे. कहीं कोई उम्मीद दिखती, फिर बुझ जाती. फिर कोई दिखता उससे बात होती, फिर बात बनते-बनते रह जाती. मन तो अटका हुआ था कि इतनी लम्बी यात्रा अगर हम साथ न हो पाए तो क्या फायदा. क्योंकि यात्रा कहीं पहुचंना नहीं होता साथ चलना होता, लम्हा-लम्हा साथ का बुनना होता है यह हम जानते थे और इसी का उत्साह था. संज्ञा हिम्मत हारने वाली तो है नहीं, वो बराबर कहती रही कुछ तो हो ही जाएगा. और आखिर दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रोफेसर संज्ञा के सम्मान में एक युवक अपनी मर्जी से सीट बदलने को करने को तैयार हो गया. अब एक और उम्मीदवार की तलाश थी. हमारी उलझन बेचैनी, सफर में साथ होने की शिद्दत को देख एक अकेले सफर कर रही लड़की ने खुद आकर कहा, ‘देर से देख रही हूँ आप लोगों को. मैं चली जाती हूँ दूसरे कोच में आप मेरी बर्थ ले लीजिये.’ हमारी ख़ुशी का ठिकाना न रहा. आनन-फानन में सामान की अदला बदली हुई और हम सब साथ-साथ थे...सच में.
सफर अब शुरू हुआ था. चाँद खिड़की पे टंगा हुआ साथ दौड़ रहा था, हमें देख रहा था. मैं और संज्ञा जाने क्या-क्या बोल रहे थे, जाने कितनी चुप्पियों को तोड़ रहे थे. कुछ को सहेज भी रहे थे. संज्ञा मुझे सुन रही थी. मैं उसे देख रही थी. इमली की गोलियां, चना-चबेना, फल, आंटी के हाथ के बने चटपटे आलू और पराठे, चाउमीन, मंचूरियन हम मिलकर टूंगते रहे. रात का ऐसा साथ मुझे इस कदर पसंद है कि मैं भावुक हो उठती हूँ.
ख़्वाहिश सो चुकी थी. हम जाग रहे थे. मुझे बार-बार महसूस हो रहा था कि गले मिलने की, हाथ थामने की, सर काँधे पर रखने की इच्छा को आखिर ठौर मिल ही गया. रात सफर करती रही और हम भी.
पेंड्रा-
पेंड्रा रेलवे स्टेशन से पहले ही संजय का फोन आने लगा था. वो फोन पर ही हमारा उत्साह बढ़ा रहा था. ये जो आपके बाएं से गुजर रहा है इस जंगल में टाइगर मिलते हैं. उस जंगल में हिरन, वहां भालू बहुत होते हैं. यह बहुत ख़ास इलाका है. संजय पेंड्रा स्टेशन पर हमारा इंतजार कर रहा था और फोन पर हमारा गाइड बना हुआ था. जैसे-जैसे वो बताता जा रहा था जगहों के बारे में हमारे लिए उन गुजरती राहों का अर्थ और खुलने लगा था.
ट्रेन थोड़ी देर से पहुंची लेकिन संजय की गर्मजोशी ने देरी को भुला दिया. पेंड्रा का आसमान अब हमारे सर पर था. पेंड्रा के नाम को लेकर बड़ी दिलचस्प सी बात बाद में पता चली कि सम्भवतः किसी से कागजों में इस जगह के नाम को लिखने में स्पेलिंग मिस्टेक हो गयी होगी तो पडेरना का पेंड्रा हो गया होगा क्योंकि आसपास के ज्यादातर बाकी जगहों के नाम बिलकुल अंग्रेजी नाम जैसे नहीं था. बहरहाल जो भी हो मुझे तमाम नामों में जो नाम सबसे ज्यादा मजेदार लगा वो था गौरेला. पता चला यहाँ गायों का रेला गुजरता था इसलिए यह गाँव हुआ गौरेला. है न दिलचस्प.
फिलहाल हम पेंड्रा के एक आलीशान भव्य गेस्ट हाउस में गए. वहीँ हमने वहां का स्वादिष्ट नाश्ता किया जिसमें गीला वड़ा (मटर की भाजी में वड़ा होता है जिसमें भुजिया, चटनी और कटी प्याज पड़ी होती है) और खोये और गुड़ की जलेबी थी. संजय यात्रा का शानदार साथी है. वो चीजों के बारे में जगहों के बारे में लगातार बताता चलता है. उसने बताया यहाँ की स्वादिष्ट मिठाइयों के बारे में. और कुछ ही देर में हमारे मुंह में पेंड्रा का स्वादिष्ट कलाकंद था, एकदम घुलता हुआ स्वाद.
हम अमरकंटक के रास्ते में थे...
आमाडोभ गांव, दीदी और सब्जियां-
रास्ते सुंदर से सुन्दरतम होते जा रहे थे. हम रास्तों का हाथ थामे अपने भीतर की यात्रा पर भी निकल चुके थे. हम साथ-साथ थे लेकिन हम अलग-अलग भी थे. ख़्वाहिश एकदम मौन थी. वो अक्सर यात्राओं में चुप रहना पसंद करती है. संज्ञा और मैं एक-दूसरे का हाथ थामे बैठे थे. ये पानी की जगह है. यहाँ अभी प्रकृति अपने स्वाभाविक रूप में बची हुई है. संजय जगहों के बारे में जानकारी देते जा रहा था और हम ख़ामोशी की धुन पर उसकी बातों को सुन रहे थे.
रास्ते में हम आमाडोभ गाँव पहुंचे. वहां से हमें सब्जियां लेनी थीं. एकदम ऑर्गेनिक सब्जियां और भुट्टे. लेकिन ज्यादा लालच था वहां के लोगों से मिलने का. संजय बता रहे थे कि कैसे गाँव के, समुदाय के लोगों को जोड़ रहे हैं. गाँव में महिलाओं का जो समूह है वो सब्जियां आदि उगाता है और उन्हें सीधे उनसे खरीदकर उपयोग में लाया जाता है. समूह की एक सक्रिय सदस्य होती हैं जो पूरी प्रक्रिया को नेतृत्व देती हैं. उन्हें सक्रिय सदस्य के नाम से ही जाना जाता है. आमाडोभ की सक्रिय सदस्य हैं उमा दीदी.
गाँव से गुजरते हुए, लोगों से मिलते हुए और ताजा सब्जियां लेते हुए तस्वीरें लेते हुए मन में कहीं यह बात भी थी कि अपने ही देश को कितना कम जानते हैं हम. अपने ही देस में किसी टूरिस्ट की तरह आना सुख से तो नहीं भरता कि इन महिलाओं, इन बच्चों के सुख-दुःख में शामिल होना था हमें. चाहो कितना भी छूट ही जाता है न जाने कितना कुछ. आमाडोभ में हम थोड़ी ही देर ठहरे थे लेकिन यह गाँव पूरी ठसक के साथ अपनी स्मृतियां लिए ज़ेहन में काबिज है. हम ताज़ा भुट्टे, खीरे, कद्दू, बरबटी (लोबिया की खूब लम्बी और ताज़ा फली) को समेटकर आगे की यात्रा पर निकल पड़े थे. रास्ते भर हम बरबटी खाते रहे.
घुमक्कड़ी का सुर ठीक लग चुका था. मिजाज़ थोड़ा हरफनमौला होने लगा था.
ईको हिल रिसॉर्ट कबीर चबूतरा-
यूँ था तो कुछ ऐसा कि हर लम्हे पर दिल आ रहा था, चप्पे-चप्पे पर छाई खूबसूरत अपने मौन के संगीत के साथ लुभा रही थी. आत्मिक शान्ति हमारे भीतर उतर रही थी और आँखें प्राकृतिक छटा देखकर अभिभूत थीं. यूँ मैं पहाड़ों पर ही रहती हूँ. देहरादून न सही पहाड़ लेकिन पहाड़ आसपास ही रहते हैं हमेशा. लेकिन यह बात मैंने कश्मीर और हिमाचल की यात्राओं के दौरान जानी कि सारे पहाड़ एक से नहीं होते. हर पहाड़ का मन और मिजाज़ अलग होता है. मैंने पहली बार हिमाचल के पहाड़ देखे थे और मैं घबरा गयी थी. मुझे अब भी याद है मैंने वापस लौटकर उन्हें गर्व से उन्नत, दम्भी पहाड़ कहा था. फिर उत्तराखंड के पहाड़ों ने पास बुलाकर ऐसा दुलार किया कि मैं इन पहाड़ों में बस गयी. इनकी लाडली हो गयी. इसके बाद केरल, कश्मीर, स्कॉटलैंड, डरडल डोर (लन्दन) जाकर पता चला, कितना कम जानती थी मैं पहाड़ों के बारे में, उनकी कैफ़ियत के बारे में. अब भी कहाँ जानती हूँ ज्यादा. लेकिन इस वक़्त सामने जो पहाड़ थे ये तो किसी दोस्त सरीखे थे, न सांस उखड़े, न दम फूले. वो हाथ बढ़ाते हैं और आपको साथ लेकर चल पड़ते हैं. ठीक उसी तरह जैसे चल पड़ता है प्रेम. बस बढ़ी हुई हथेलियों को थाम भर लेने की देर है.
हम तो कबसे अपनी हथेलियाँ किसी की हथेलियों में रखकर मुक्त हो जाने को बेचैन थे. और देखो अमरकंटक और नर्मदा दोनों ने बाहें फैला दीं. हमने खुद को इन पहाड़ों, रास्तों, जंगलों और झरनों के सुपुर्द किया और आज़ाद हो गये.
जंगल से गुजरते हुए संजय ने बताया कि यह जगह मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ का बॉर्डर है. बच्चा छत्तीसगढ़ से बैटिंग करे तो बॉलर को मध्य प्रदेश जाना पड़े फील्डिंग के लिए. कितना रोचक है न यह सुनना. प्रकृति और बच्चे ही तोड़ते हैं सब सीमायें. लेकिन कागज पर खिंची लकीरों का नतीजा यह हुआ कि दोनों ही सरकारों ने इस जगह के बारे में ज्यादा सोचा नहीं.
हमारे ठहरने का इंतज़ाम ईको हिल रिसॉर्ट कबीर चबूतरा में था. मेरा मन रिसॉर्ट पढ़ने का किया ही नहीं मैंने सिर्फ कबीर चबूतरा पढ़ा और खुश हो गयी. मानो यहाँ कबीर से भी मुलाकात हो जायेगी. यूँ कबीर कब साथ नहीं होते. कुछ कबीरी सा मन लिए हमने रिसॉर्ट के कमरे में अपना सामान फेंका और चल पड़े तितलियों का मेला देखने, कुदरत का खेला देखने.
संजय ने कहा था किसी नदी में पाँव डालकर पूड़ी सब्जी खायेंगे, सो वो भी था मन में.
अचानक मार टाइगर रिजर्व-
जाने कैसा तो मन मिला कि हरदम बस खामखां के ख़यालों में गुम रहना चाहता है. जैसे ही कोई भरोसेमंद दोस्त साथ में होता है मैं अपने दिमाग का स्विच ऑफ कर देती हूँ और खुद को उसके हवाले कर देती हूँ. अभी तो संज्ञा, संजय और ख्वाहिश तीन समझदारों के बीच थी. तो यह समझदारी से आज़ाद होने का सही समय था. मेरा खिलंदड़ मन उछलकूद करने लगा था.
संजय दोस्त और गाइड की भूमिका में स्विच करता रहता था. तभी अचानक संजय ने गाड़ी रोकी. अभी तक संजय ने जब भी जितनी भी बार गाड़ी रोकी थी कुछ सुंदर कारण ही सामने मिला था. इस बार सामने था अचानक मार. यह टाइगर रिजर्व फॉरेस्ट है जहाँ बैगा (जनजाति) और बाघ साथ में रहते हैं. हम वहां कुछ देर रुके, तस्वीरें खिंचवायीं और अगली बार ठहरकर देखने की इच्छा को मन में संजोये आगे बढ़े.
रास्ते भर पानी की कलकल की आवाज़ सुनाई दे रही थी. रास्ते भर कोई मीठी धुन हमारे भीतर के खर पतवार को किनारे लगा रही थी.
तितलियाँ उड़ रही थीं पेट में-
हम जहाँ पहुंचे वहां हमें तितलियाँ दिखनी थीं लेकिन हमें आने में तनिक देर हो गयी थी. वो तितलियाँ हैं, वो उड़ती फिरती हैं किसी के इंतज़ार में ठहरती नहीं. तितलियों के दिखने का समय सुबह से दोपहर का होता है दोपहर बाद वो नहीं दिखतीं. शायद सोने चली जाती होंगी मैंने मन में सोचा. अब बीत चुके वक़्त को वापस तो नहीं ला सकते थे लेकिन जो वक़्त सामने था उसे सहेज सकते थे. एक पुल पर खड़े होकर मुझे गुलज़ार की वो लाइनें याद आईं, ‘वो देर से पहुंचा था पर वक़्त पर आया था.’
पानी की तासीर ऐसी है कि वो सब बहा ले जाता है. दुःख भी, उदासी भी, दुनियादारी भी. वो बस जीवन का रहस्य हथेलियों पर रखकर मुस्कुराता है. हमारा मन पानी हो चुका था.
हम कपिल धारा, दूधधारा, पंच धारा की ओर बढ़ चले...
धारा ओ धारा हमें संग ले लो न-
हम जिन रास्तों पर चलते हुए पंचधारा की ओर बढ़ रहे थे वो बेहद खूबसूरत थे. मेरे बालों में न जाने कितने जंगली फूल टंकते जा रहे थे. उन रास्तों पर हम सब चुप थे. सिर्फ नर्मदा की आवाज़, चिड़ियों की आवाज़ और वनस्पतियों की, पेड़ों की ख़ुशबू बोल रही थी. हम उस आवाज़ में खोये हुए थे. अचानक हमारे सामने एक बेहद खूबसूरत झरना आया. जहाँ इस यात्रा के अन्य सैलानियों से मिलना हुआ. वो सब उस झरने पर ठीहा जमाए हुए पूड़ी सब्जी का भोज सजाये थे. झरने की कल कल और सौन्दर्य ने थकान से कहा, ‘तुम जाओ अभी’. संज्ञा का उत्साह ऐसा कि वो आनन-फानन में झरने की गोद में जाकर बैठ गयी एकदम ऊपर. मन तो मेरा भी हुआ लेकिन आगे बढ़ने की हिम्मत नहीं हो रही थी तभी संजय ने हाथ बढ़ाया. संजय की मजबूत हथेलियों में अपनी हथेलियाँ सौंपकर मैं यूँ आज़ाद हो जाती जैसे अब मुझे कुछ होगा ही नहीं जैसे वो कोई जिन हो. पर वो था जिन ही. ऐसे-ऐसे रास्तों पर आसानी से ले गया मुझे जहाँ के बारे में सोच भी नहीं सकती थी. मैं कहती मैं नहीं जाऊंगी आगे और वो फिर हाथ थाम लेता और मैं उस पार खड़ी होती. चाहे पहाड़ चढ़ना हो, नदी पार करनी हो या पहुंचना हो झरने के उद्गम के एकदम करीब. कुछ यूँ हुआ भरोसे का कि जब किसी और ने हाथ बढ़ाया तो मैंने सिर्फ संजय को तलाशा. और वो हमेशा था.
तो संजय की मदद से मैं पहंच गयी संज्ञा के पास. और हमने दूर से दिखने वाले सुख को अंजुरी में अकोर-अकोर के पीना शुरू कर दिया.
तभी बारिश आ गयी. क्या ही सुंदर मंज़र था. किसी को भीग जायेंगे की फ़िक्र नहीं थी, कैमरे और मोबाइल बचाने की फ़िक्र थी. एक साथी ने सारे कैमरे मोबाईल संभाले अपने पास और रेनकोट से उन्हें छुपा लिया. बारिश में ही झरने के ठीक सामने एक पहाड़ी पर दुबक पर मैं संज्ञा, और ख़्वाहिश आलू पूड़ी खाने लगे. हम न खाते लेकिन प्यारी सी मुस्कान के साथ साथी सुधा ने जिस तरह हमें खाने के लिए मना लिया हम मान गए. यूँ इस समय हम जिस मनःस्थिति में थे हम किसी भी बात के लिए आसानी से मान जा रहे थे. तो सुधा ने हमें पूड़ी सब्जी दी खाने को. हरे पत्तों के दोने में खाने का अलग ही एहसास था. पूड़ी सब्जी अपनी रंगत और स्वाद के साथ पेट की भूख के संग बढ़िया जुगलबंदी कर रही थी. हम मुस्कुरा रहे थे ऐसा दिव्य भोज, सामने झरना, ऊपर बारिश, पहाड़ का आसन, हरियाली का साथ...ओओह दिव्य.
कपिल धारा और दूध धारा-
खूबसूरत हरे रास्तों के बीच अचानक रास्ता मुड़ा एक बेहद खूबसूरत दृश्य के सम्मुख. एक बेहद सुंदर जल प्रपात. ओह तो इसी की आवाज़ रास्ते भर साथ थी. जब नर्मदा अपने विवाह के मंडप से गुस्से में उठकर भागी थीं तो यहीं से भागी थीं. ये नर्मदा हैं मंडप से भागी नर्मदा, अपने आत्मसमान को सहेजती नर्मदा, लोगों के दिलों में धड़कती नर्मदा.
सौन्दर्य का ऐसा मंज़र देख मैं मंत्रमुग्ध थी. सब कुछ भूल चुकी थी. मेरा मन हुआ यहीं इसी दृश्य के सम्मुख मैं बैठी रहूँ घंटों धूनी रमाये.
लेकिन मैं भूल गयी थी मेरे साथ संजय था जो मेरे सोचे हुए सुख से बहुत आगे ले जाने को आतुर. ऊबड़-खाबड़ पथरीले रास्तों पर हाथ थामे वो आगे बढ़ने लगा. मैं हर कदम झरने के और क़रीब और क़रीब जा रही थी. जबकि ख़्वाहिश और संज्ञा मुझसे आगे चल रहे थे. फिर हम एक ऐसी जगह थे जहाँ होने का अर्थ था खुद को खो देना. सुख से हमारी आँखें बह निकली थीं. ऐसा तूफानी झरना कि उसकी फुहारों ने हमें अपने आगोश में पूरी तरह समेट लिया था. ऊपर देखते तो विशाल प्रपात दीखता सामने देखते तो प्रपात दिखता. ज़िन्दगी झरना हो गयी थी...हम झरने के ठीक नीचे अपने तमाम दुखों से झर रहे थे...तमाम पीड़ाओं से झर रहे थे...सुख के स्वाद से लबरेज हो रहे थे. हम नायक़ीनी में थे. उस पल में हम थे भी और नहीं भी...यह यात्रा का वह पल था जब कोई राग अपनी उठान पर होता है नि स रे ग... नि स रे ग... नि स रे ग... नि स रे ग...
लौटने का मन था ही नहीं. जैसे खींच के अलग किया जा रहा हो आँखों को प्रियतम से. बेमन से मुड़ मुड़ कर पीछे लौटते हुए हम लौट रहे थे...पर एक मन था जो वहीँ रह गया था.
हम गहरे मौन में धंसे थे...शब्दहीनता के जादुई लिबास में लिपटे.
ढलती शाम, सिंदूरी आसमान और चाय-
जानना अक्सर चीजों के जादू को कम कर देता है. मैं निर्बोध शिशु की तरह दुनिया को देखना चाहती हूँ. देखने के बाद उनके बारे में जानना और चकित करता है. लेकिन इसका कोई नियम नहीं कभी-कभी जानने के बाद देखना और ज्यादा चकित करता है. फ़िलहाल मैं अनभिज्ञ, अनजान सी आगे बढ़ रही थी.
शाम कांधों से आ लगी थी और एक अच्छी सी चाय की इच्छा आसपास टहल रही थी. कुछ देर बाद एक चाय की टपरी पर हम रुके. ज्यादा साथी चले गए जोहिला नदी के उद्गम को देखने, मैं और संज्ञा टहलने लगे उस जालेश्वर गाँव की छोटी सी चाय की टपरी के आसपास. मौन, हाथ में हाथ लिए बस साथ चलते हुए. इस मौन में क्या कुछ नहीं था. इस साथ चलने में कितना ज्यादा साथ होना था यह कहकर बताना मुमकिन नहीं.
जब तक दर्शनार्थी वापस आते हम जाती हुई शाम को अपने हथेलियों में थामे टहलते रहे. सिंदूरी आसमान और चाय की ख़ुशबू इकसार होने लगे थे. चाय सचमुच वैसी थी जैसी उसे होना चाहिए. एकदम स्वादिष्ट, अदरक वाली खूब पकी, कम दूध और कम चीनी वाली. संज्ञा के बैग में रखा मुरमुरा उस चाय को अच्छी संगत दे रहा था. कुछ देर में बाकी लोग भी चाय वाली उस चौपाल में जमा हो गए. मुझे और संज्ञा को एक और चाय पीने की इच्छा थी. हमने संकोच से देखा कि किसी के हिस्से की चाय कम तो नहीं हो जायेगी. आश्वस्ति के बाद हमने एक चाय और ले ली. ये चाय बड़ी राहत थी.
आगे का सफर शुरू हो गया था. एक दिन में कई दिन उग आये थे जैसे कि दिन बीत रहा था लेकिन बीत नहीं रहा था.
राजमेरगढ़ जंगल का जादू और चांदनी रात-
हम राजमेरगढ़ के जंगल की ओर थे. हर वो जगह बेहद खूबसूरत है जहाँ अभी पर्यटकों के पाँव ज्यादा पड़े नहीं. यह भी ऐसी ही जगह है. जंगल की ख़ुशबू मुझे बहुत ज्यादा पसंद है. मैं उस ख़ुशबू में डूबी ही थी कि मैंने देखा हमारे दोनों तरफ जंगल हैं लेकिन दाहिनी तरफ के जंगल उजाले से भरे हैं और बायीं तरफ के जंगल एकदम अन्धकार में डूबे. यानी वो इतने घने थे कि दिन में भी वहां घना अँधेरा था.
हालाँकि जब तक हम पहुंचे अँधेरा झरने लगा था. एक पहाड़ी पर जहाँ से हमें सनसेट देखना था वहां सब जाकर जमा हो गए. जैसे कोई धुन झर रही थी. अँधेरे का ऐसा सौन्दर्य कम ही देखने को मिलता है. अँधेरे की सुंदर बात यह होती है कि वो आपको जज नहीं करता आप जैसे हैं, जैसे भी हैं वो आपको समूचे अपनेपन से गले से लगा लेता है और मुक्त करता है. इस वक़्त यह अँधेरा बेहद कमनीय लग रहा था कि इसकी संगत में बैठे रहने को जी कर रहा था. तभी अनुराग ने मध्धम आवाज में गुनगुनाना शुरू किया, 'बड़े अच्छे लगते हैं...ये धरती ये अम्बर ये रैना...’ आवाज़ में सुर था, शाम में सुर था, जीवन का छूटा हुआ सुर बस क़रीब था कि वो शाम महकने लगी थी. अनुराग ने फिर कई गीत गुनगुनाये, कुछ और लोग भी इसमें शामिल हुए कि तभी इस संगत में शामिल आ गया कोई और भी...हाँ, पूर्णमासी का चाँद. जाने चाँद ज्यादा सुंदर था या रात ज्यादा सुंदर थी लेकिन हम उस चाँद को देख मुस्कुरा दिए. ‘आज तुम आये नहीं हो तुम्हें आना पड़ा है. न आते तो ऐसी खूबसूरत शाम को तुम मिस न कर देते भला, तो आओ और बैठे रहो चुपचाप.’
चाँद चुपचाप वहीँ आसमान पर उकडूं बैठ गया और सुनने लगा गीतों की धुन.
मुझे अली सेठी की तलब लगी, चांदनी रात बड़ी देर के बाद आई है...फिर मुझे फैज़ साहब की तलब लगी...अपनी तलब को समेटे श्रीमान चाँद की तस्वीरें लीं और लौट पड़े मुस्कुराते हुए.
लौटना, समेटना और जी लेना-
चाँद चुपचाप वहीँ आसमान पर उकडूं बैठ गया और सुनने लगा गीतों की धुन.
मुझे अली सेठी की तलब लगी, चांदनी रात बड़ी देर के बाद आई है...फिर मुझे फैज़ साहब की तलब लगी...अपनी तलब को समेटे श्रीमान चाँद की तस्वीरें लीं और लौट पड़े मुस्कुराते हुए.
लौटना, समेटना और जी लेना-
बीती रात से जो सफर शुरू हुआ था वो बस चले जा रहा था. रात खिसककर करीब आ चुकी थी. कमरे में जाकर रिफ्रेश हुए और लेटने को हुए ही थे कि गाने की आवाज़ कान में पड़ी. बाहर कैम्प फायर शुरू हो चुका था. दोपहर को उमा दीदी के पास से जो भुट्टे लाये थे अब कैम्प फायर में कोयले की मध्धम आंच पर उन्हें भूना जा रहा था. हल्की ठंडक, खूब थकान कैम्प फायर का सुख और भुट्टे की खुशबू ने भूख जगा दी थी. मैं और संज्ञा भुट्टे खाते जा रहे थे और गीत संगीत की उस महफ़िल में शामिल थे. चाय भुट्टे, आंच...पूर्णिमा की रात और प्रेमिल साथी.
खाने में थोड़ी देर थे और हमें कहाँ कोई जल्दी थी सो कभी हम आंच किनारे बैठते कभी कबीर चबूतरा के उस रिसॉर्ट में चक्कर लगाते. सर्द हवा और चीड़ के पेड़ों की आवाज़. प्रज्ञा दीदी के भेजे शॉल में खुद को समेटे हम जाने कितने बिखर रहे थे, इस बिखरने का शिद्दत से इंतज़ार था.
आज की रात को बीतने नहीं देंगे जैसा कोई वादा तो नहीं था लेकिन हो कुछ यूँ रहा था कि रात खुद रुकी हुई थी. इस बीच खाना बन गया था. दिन भर की थकन और भूख की जुगलबंदी कमाल हो रखी थी.
बाद मुद्दत हमने जमीन पर बैठकर पत्तल और दोनों में खाना खाया. गर्म स्वादिष्ट दाल चावल सब्जी रोटी अचार सलाद. यह एक दिव्य भोज था. अलग ही स्वाद था, अलग ही एहसास था. बचपन में गांव की शादियों में पत्तलों में खाने की मीठी याद ताजा हो उठी. तब खाने से ज्यादा परोसने का सुख हुआ करता था. जी करता था सबकी पत्तल में बस खाना देते ही जाएँ. कोई मना कर देता तो जैसे मन उदास हो जाता. वो दिन कितने सुंदर थे. फिर महाशय बुफे आ गये...और आते ही चले गये.
इस कबीर चबूतरा की तमाम स्मृतियों में इस रात्रि भोज का स्वाद और एहसास कभी नहीं भूलूंगी.
खाने के बाद हम फिर टहलने लगे थे. थकने के बावजूद रुकने का मन नहीं था. पूरे वक्त संज्ञा की नर्म हथेलियाँ मेरी हथेलियों में थीं, चीड़ों पर चांदनी थी भरपूर क्योंकि चाँद पूर्णमासी का था.
तुम्हारा इंतज़ार है-
आँख खुली तो हथेलियों पर सुबह चमक रही थी. सुबह ने मुस्कुराकर कहा, ‘उठो, बाहर निकलो कुदरत के नजारों को तुम्हारा इंतज़ार है.’ मेरी सुबहें तनिक देर से आती हैं. मुझे यात्राओं में देवयानी की याद आती है वो मुझे सुबह जगाने में माहिर है. उसके साथ जितनी सुबहें देखीं उतनी किसी के साथ नहीं. हम देर से सोये थे लेकिन जल्दी जागे. मैं जगी तो पता चला संज्ञा पहले ही जागकर सुबह से मिल चुकी है. फिर हम निकल पड़े सुबह से मिलने साथ में. घंटों हम सुबह के आंचल को थामे उसके पीछे-पीछे चलते रहे. आसपास की तमाम सड़कें हमने नाप लीं. हमें साथ होना था इसी तरह और हम साथ थे. हमारी हथेलियों का कसाव बढ़ता जाता था कदमों की लय मिली हुई थी. ज़िन्दगी मेहरबान थी हम पर कि डेढ़ दिन में हमें सदियाँ जीने को मिल रही थीं. कल दिन नहीं बीत रहा था, रात को रात नहीं बीत रही थी और अब सुबह.
सुबह को जी भरकर के जी चुकने के बाद हम अगले सफर की ओर बढ़ चले.
एक नदी थी दोनों किनारे थाम के चलती थी-
सुबह को जी भरकर के जी चुकने के बाद हम अगले सफर की ओर बढ़ चले.
एक नदी थी दोनों किनारे थाम के चलती थी-
लेकिन माई के उस मंडप तक पहुँचने के लिए एक नदी पार करनी थी. नदी ज्यादा गहरी नहीं थी लेकिन गहराई जितनी भी हो पानी का बहाव तेज़ था. लगा ये तो आसान होगा. लेकिन आसान था नहीं...पत्थरों पर फिसलन थी और पानी का बहाव तेज़. आखिर हमने एक-दूसरे का हाथ पकड़कर धीरे-धीरे उसे पार किया. पहाड़ियों, चट्टानों और हरियाली के बीच से गुजरते हुए न जाने कहाँ से ढेर सारी सीढ़ियाँ आ गयीं सामने. हम उतरते गये और एक बेहद सुंदर जगह जा पहुंचे. एक गुफा थी सामने पानी का झरना और पहाड़ी. गुफा के बीच में पानी. पतली संकरी सीढ़ियों से होते हुए हम गुफा के मुहाने पर जाकर एक पत्थर पर टिक गये. यही था माई का मंडप जहाँ नर्मदा का विवाह हो रहा था. यहीं वो मंडप सजा था जहाँ से वो उठकर भागी थीं और कपिल धारा का प्रपात बना था. वहां जो पहाड़ियां और पत्थर थे वो शादी के बर्तन थे. यह सब सुनना काफी रोमांचक लग रहा था. भले ही ये किवदन्तियाँ हों लेकिन मीठा था इन्हें सुनना.
मैंने महसूस किया कि नर्मदा एक ऐसी नदी है जिसके बारे में बात करते हुए लोग काफी भावुक होते हैं. ये भावुकता धार्मिक आस्था वाली नहीं बल्कि प्रेम वाली होती है. लोग ऐसे बात करते हैं जैसे अपने परिवार के किसी प्रिय जन के बारे में बात कर रहे हों. वापसी उन्हीं सीढ़ियों से...और फिर एक झरने के सामने. जैसे झरने और जंगल लुका-छुपी खेल रहे हों. जैसे कुदरत मुस्कुराकर अपने तमाम खजाने लुटाकर खुश हो रही हो. तभी तो झरने के पास थे और बारिश आ गयी. जब सब भीगने से बचने को एक शेड में रुक गए मेरा पनीला मन बेचैन हो उठा. मैंने सोचा बुखार का क्या है आएगा ही किसी न किसी बहाने अमरकंटक में बारिश मिलने आई है और मैं भीगूँ न? और मैं निकल पड़ी बारिश की ओर. पानी खूब बरसा, और खूब भीगी मैं. वैसे ही भीगे-भीगे हम लौटे पेंड्रा गेस्ट हाउस की ओर. यहीं मैंने हमने सूखे कपड़े पहने और चल पड़े एयरपोर्ट की ओर.
मन वापसी की ओर था लेकिन मन झरना हो गया था. हम लौट आये लेकिन वहीँ उन्हीं वादियों में कहीं छूट भी गए हैं. अब भी खुद को छूती हूँ तो सर पर बारिश महसूस होती है, पाँव तले हरी घास, हथेलियों में संज्ञा की हथेली और जंगल की ख़ुशबू और इन सबको संजोती संजय सैलानी की मुस्कान.
नर्मदा की कहानी-
नर्मदा नदी के बारे में कहा जाता है कि यह राजा मैखल की पुत्री थीं. नर्मदा के विवाह योग्य होने पर मैखल ने उनके विवाह की घोषणा करवाई. साथ ही यह भी कहा कि जो भी व्यक्ति गुलबकावली का पुष्प लेकर आएगा राजकुमारी का विवाह उसी के साथ होगा. इसके बाद कई राजकुमार आए लेकिन कोई भी राजा मैखल की शर्त पूरी नहीं कर सका. तभी राजकुमार सोनभद्र आए और राजा की गुलबकावली पुष्प की शर्त पूरी कर दी. इसके बाद नर्मदा और सोनभद्र का विवाह तय हो गया.
राजा मैखल ने जब राजकुमारी नर्मदा और राजकुमार सोनभद्र का विवाह तय किया तो राजकुमारी की इच्छा हुई कि वह एक बार तो उन्हें देख लें. इसके लिए उन्होंने अपनी सखी जुहिला को राजकुमार के पास अपने संदेश के साथ भेजा. लेकिन काफी समय बीत गया और जुहिला वापस नहीं आई. इसके बाद तो राजकुमारी को चिंता होने लगी और वह उसकी खोज में निकल गईं. तभी वह सोनभद्र के पास पहुंचीं और वहां जुहिला को उनके साथ देखा. यह देखकर उन्हें अत्यंत क्रोध आया. इसके बाद ही उन्होंने आजीवन कुंवारी रहने का प्रण लिया और उल्टी दिशा में चल पड़ीं. कहा जाता है कि तभी से नर्मदा अरब सागर में जाकर मिल गई. जबकि अन्य नदियों की बात करें तो सभी नदियां बंगाल की खाड़ी में मिलती हैं.
एक अन्य कथा-
नर्मदा के प्रेम की और कथा मिलती है कि सोनभद्र और नर्मदा अमरकंटक की पहाड़ियों में साथ पले बढ़े. किशोरावस्था में दोनों के बीच प्रेम का बीज पनपा. तभी सोनभद्र के जीवन में जुहिला का आगमन हुआ और दोनों एक-दूसरे से प्रेम करने लगे. जब नर्मदा को यह बात पता चली तो उन्होंने सोनभद्र को काफी समझाया-बुझाया लेकिन वह नहीं माने. इसके बाद नर्मदा क्रोधित होकर उलटी दिशा में चल पड़ीं और आजीवन कुंवारी रहने की कसम खाई.
Subscribe to:
Posts (Atom)