Tuesday, December 27, 2022

चलो न खो जाते हैं...



अरे कहाँ गया, यहीं तो रखा था. ऐसे कैसे खो जाता है कुछ भी. अभी-अभी तो यहीं था, अभी नहीं है. ऐसा ही होता है हमेशा, कभी भी कुछ भी खो जाता है.

स्कूल में खो जाती थी पेन्सिल और इरेज़र भी. पेन्सिल खोने के साथ ही खो जाती थीं उससे लिखी जानी वाली न जाने कितनी ही इबारतें, इरेजर खोने के साथ खो जाती थी सम्भावना लिखी गयी इबारत को दुरुस्त कर पाने की.

कुछ किताबें खोयीं, खोये दोस्त कुछ. बचपन के कुछ खेल खोये, धौल धप्पे, शरारतें खोयीं. खोये कुछ रंग ओढ़नी के. पाज़ेब की रुनझुन खोई, रहट की आवाज़ खोई, नीम की पत्तियों के झरने की आवाज के साये तले शीशम के पेड़ से लिपट जाने के याद खोई. नहर में पाँव डालकर घंटों आसमान ताकने वाली फुर्सत खो गयी एक रोज.

आँखों का काजल खोया था जिस रोज, एक ख़्वाब भरी रात भी खो गई थी. एक झुमका खो गया था और उसका जोड़ी झुमका न जाने कितने बरस अपने साथी झुमके की ख़ुशबू बिखेरता रहा.

खोये कुछ सावन, धूप खो गयी थी सर्द दिनों में. किसी उदास शाम में एक रोज गुलमोहर की याद खो गयी. ग़ालिब का दीवान खो गया एक रोज, बेगम अख्तर की आवाज़ खो गयी.

खोया चश्मा तो देख सके कि न जाने कितने लम्हे खो गये हैं. यहीं हथेली पर तो रखे थे वो नर्म, खुशनुमा लम्हे. ख़्वाब खो गए कुछ और कुछ ख़्वाबों की तो याद भी खो गयी. एक चांदनी रात खो गई जिसके साये तले देर तक, दूर तक टहलते रहे थे हम रात भर.

कोहरे की वो ख़ुशबू खो गयी जो समेट लेती थी सारे सुख दुःख अपने भीतर.

नीले आसमान में टांगा था आरजुओं का जो थैला वो थैला भी गुम गया, देखा ध्यान से एक रोज तो आसमान भी गुमशुदा ही मिला.

नीली नदी के किनारे एक धुन खो आई थी उस रोज जब मिलके लौटी थी प्रेम से. धुन बस प्रेम में जीने और प्रेम में ही मर जाने की. हथेलियों की लकीरें खो गयीं न जाने कितनी ही कि शफ्फाक हथेलियों में लकीर कोई भी नहीं.

समन्दर के किनारे एक रोज खुद को ही खो आई थी. बंजारा बस्तियों में अपनी आवारगी खो आई थी. चलते-चलते एक रोज खो गया था जीवन का रास्ता भी. भटके हुए रास्ते में अब खुद को खो देने की तमन्ना लिए बैठी हूँ कि कोई हाथ बढ़ाये और खुद को खो दूँ.

अम्मा ठीक कहती थीं, ‘बड़ी लापरवाह है लड़की देखो न कुछ भी तो संभालकर नहीं रखती.’

किसी रोज ज़िंदगी भी खो दूँगी यूँ ही सोचते हुए मुस्कुराती हूँ. मुस्कुराहट में होती थी जो चमक वो भी न जाने कहाँ खो आई हूँ.

जाते दिसम्बर की उदास हथेली अपनी हथेलियों में लेती हूँ, कहती हूँ, ‘चलो न, हम दोनों खो जाते हैं.’ दिसम्बर पलकें झपका देता है.

2 comments:

Onkar said...

बहुत सुंदर

ismita said...

🏵️🏵️☺️