Friday, October 7, 2022

बस इतना सा ख़्वाब था...



सुबह की आँख अभी खुली नहीं थी. सपनों की सुनहरी लकीर लड़की की पलकों से छनकर छलक रही थी. लड़की ने अपनी करवट में मुस्कुराते हुए सिसकी ली. उस सिसकी में रुदन नहीं था. उस सिसकी में झरे हुए हरसिंगार की रंगत थी. क़ायनात इस इंतज़ार में थी कि लड़की की आँख न खुले और उसका सपना न टूटे. इसलिए बादलों ने सुबह को छुपाने के तमाम जतन करने शुरू कर दिए.

बादल आये तो आई हवा भी और जब आई हवा तो सोई हुई लड़की के बिखरे हुए बालों को चूमने से खुद को रोक न सकी. लड़की चौंक के जाग गयी. उसे अपनी पलकों पर किसी चुम्बन की आहट मिली. ख़्वाब था शायद....हाँ, ख़्वाब ही होगा. नीम हरारत में सिमटी अनमनी लड़की ने खिड़की के बाहर टंगे बादलों को देखा और वापस नींद की नदी में उतरने को लेट गयी. लेकिन नींद जा चुकी थी. वो टूटे हुए सपने की रानाई में देर तक उलझी रही.

सपना बस इतना सा था कि लड़के ने कहा, 'सुनो आज मैंने तुम्हें सपने में देखा...' लड़की ने पूछा, 'सच'. लड़के ने कहा, 'हाँ सच.' कहते हुए लड़के ने लड़की की पलकों को चूम लिया था. लड़की की आँखें बह निकली थीं कि कोई किसी के ख़्वाब में यूँ ही तो नहीं आता.

डालियों पर अटके हरसिंगार हवा के झोंके के संग झूलकर धरती के गले लग चुके थे. लड़की अब नींद से बाहर थी. चाय के पानी के संग कुछ अल्फ़ाज महक रहे थे रसोई में, 'सुनो आज मैंने तुम्हें सपने में देखा'.

ख़्वाब में ख़्वाब की बातें हसीन होती हैं...है न? लड़की ने आईने से कहा.

मौसम सुहाना था शहर का. अक्टूबर महकने लगा था.  

1 comment:

Onkar said...

सुंदर सृजन