जो बीत चुका है
वो जाने कितने बरसों से बीत रहा थाअपनी धीमी गति से बीतने से
वो खुद ऊबने लगा था
यूँ जब वो बीता नहीं था
तब भी उसमें जीवन की
चमक नहीं थी
हाँ, उसमें दुनियादारी की चमक थी
रीति-रिवाजों की दमक थी
सोचा था दुनियावी चमक से खींचकर
एक रोज उसे
अपनी दुनिया में ले जाऊंगी
खींचते-खींचते मेरी इच्छाएं
जख्मी होने लगीं
सपनों से भरी आँखें
थकने लगीं
और एक रोज
मैं थककर बैठ गयी
उसी दिन से वो बीतने लगा था
उसे बीतते हुए देखना
उदास करता रहा
बरसों लगता रहा
एक रोज यह बीतना रुक जायेगा
बीतने की उदास खुशबू में
'आखिर हमने बचा लिया' की
उम्मीद का रंग घुल जायेगा
उम्मीद का रंग कैसा होता है
जाने बगैर उस रोज मैंने
अपनी हथेलियों पर
एक बादल बनाया था.
आगे बढ़ते हुए
अपनी हथेलियों को कसकर बांधे थी
बरसों से बीत रहे को
बीत चुका है की मुहर लगने को है
मैंने महसूस किया कि
हथेलियों से टूटकर
एक लकीर वहीं कहीं
गिर गयी है.
क्या कोई ख़ुशबू
कहीं उग रही होगी?
1 comment:
बेहतरीन रचना
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