Saturday, December 24, 2022

24 दिसम्बर


जो बीत चुका है
वो जाने कितने बरसों से बीत रहा था

अपनी धीमी गति से बीतने से 
वो खुद ऊबने लगा था

यूँ जब वो बीता नहीं था 
तब भी उसमें जीवन की 
चमक नहीं थी 
हाँ, उसमें दुनियादारी की चमक थी 
रीति-रिवाजों की दमक थी 

सोचा था दुनियावी चमक से खींचकर 
एक रोज उसे 
अपनी दुनिया में ले जाऊंगी 
खींचते-खींचते मेरी इच्छाएं 
जख्मी होने लगीं 
सपनों से भरी आँखें 
थकने लगीं 
और एक रोज 
मैं थककर बैठ गयी 
उसी दिन से वो बीतने लगा था 

उसे बीतते हुए देखना 
उदास करता रहा 
बरसों लगता रहा 
एक रोज यह बीतना रुक जायेगा 
बीतने की उदास खुशबू में 
'आखिर हमने बचा लिया' की 
उम्मीद का रंग घुल जायेगा 

उम्मीद का रंग कैसा होता है
जाने बगैर उस रोज मैंने 
अपनी हथेलियों पर 
एक बादल बनाया था.

आगे बढ़ते हुए 
अपनी हथेलियों को कसकर बांधे थी 
बरसों से बीत रहे को 
बीत चुका है की मुहर लगने को है

मैंने महसूस किया कि 
हथेलियों से टूटकर 
एक लकीर वहीं कहीं 
गिर गयी है.

क्या कोई ख़ुशबू 
कहीं उग रही होगी?

1 comment:

Onkar said...

बेहतरीन रचना