Thursday, November 24, 2022

हम बस खुलकर रोना चाहते हैं


ऋषभ गोयल से जब कई बरस पहले कविता के एककार्यक्रम में मुझे मिली थी तो मुझे उसकी आँखों की चमक और चेहरे की मुस्कान ने सम्मोहित किया. सपनों और उम्मीदों से भरी उन आखों में एक संवेदनशील दुनिया का सपना था. उसकी मुस्कान में एक निश्चितता कि इस दुनिया को बेहतर बनाना संभव है. फिर ऋषभ एक प्यारा दोस्त बन गया. हर कदम पर उसको निखरते देखती हूँ और ख़ुश होती हूँ. ऋषभ ने अंतर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस के बहाने कुछ बहुत जरूरी बात कही है जिसे राजस्थान पत्रिका ने प्रकाशित किया है. उस जरूरी बात को यहाँ सहेज रही हूँ. -प्रतिभा 


मैं करीब 11 साल का था जब किचन में माँ का हाथ बँटाते हुए मामा ने पीछे से टोक दिया था कि क्या हरदम किचन में घुसा रहता है, जा बाहर जाकर खेल. मुझे आज तक यह वाकिया इसलिए याद है, क्योंकि उनके लहजे में मेरे लिए परवाह नहीं थी, बल्कि एक घिन्न थी, जैसे मैं कोई दोयम दर्जे का काम कर रहा हूँ. उसके बाद किचन में वापस कदम रखने में मुझे कई साल लग गए थे. बड़ा हुआ तो एहसास हुआ कि दिक्कत मेरे किचन में काम करने से नहीं थी, मामा की सोच में थी, वही सोच जो हमें समाज में अक्सर देखने को मिलती है, वही पितृसत्तात्मक सोच जो लड़कियों के गाड़ी चलाने और वज़न उठाने पर नाक-भौं सिकोड़ लेती है.

भले ही पितृसत्ता, ‘पितृ’ यानी पुरुषों की देन है, लेकिन इस सोच ने जितना नुकसान महिलाओं का किया है, उतना ही पुरुषों का भी किया है. बचपन से ही तय कर दिया जाता है कि अगर आप एक पुरुष हैं, तो आपको ऐसा बर्ताव करना है, आप ये शौक रख सकते हैं और ये नहीं, आपको ये चीज़ें खानी हैं और ये नहीं, यहाँ तक कि एक पुरुष किस रंग के कपड़े पहन सकता है, यह भी पितृसत्ता ही तय करती है. क्या कहा, आप नहीं मानते? तो याद कीजिए कि पिछली बार जब आपने किसी लड़के को गोल-गप्पे खाते, खुलकर हँसते-रोते, कत्थक करते, चटक गुलाबी शर्ट पहने देखा था, तो आप उतने ही असहज नहीं हुए थे जितने आप एक लड़की को बाइक चलाते हुए देखकर हुए थे? या जब कोई पति किचन में अपनी पत्नी का हाथ बँटाता है, तो उसे ‘सपोर्टिव’ या ‘केयरिंग’ जैसे तमगों से क्यों नवाज़ा जाता है, जबकि वह तो सिर्फ़ अपने घर का काम कर रहा होता है.

अगर हम गौर से देखें, तो यह सोच हम पुरुषों को अंदर से खोखला कर देती है, क्योंकि हम महसूस तो बहुत कुछ करते हैं, लेकिन समाज के खाँचे में फ़िट होने के चक्कर में कुछ भी खुलकर व्यक्त नहीं कर पाते. न खुलकर रो पाते हैं, न खुलकर हँस पाते हैं, न खुलकर प्यार कर पाते हैं और न अपने स्वास्थ्य, अपने चेहरे और शरीर का खयाल ही रख पाते हैं. भावनाओं को व्यक्त न कर पाने की वजह से ही हम बेटों की अपने पिता से बात सिर्फ़ मौसम, एग्ज़ाम और नौकरी तक सीमित होकर रह जाती है, जबकि हम उनसे पूछना चाहते हैं कि पापा आप ठीक तो हो न, दवाई समय पर ले रहे हो न, और उन्हें गले लगाकर बताना चाहते हैं कि हम उनसे कितना प्यार करते हैं, लेकिन हमने ऐसा करते कभी अपने पिता को ही नहीं देखा होता, तो ऐसा करने की हिम्मत ही नहीं होती. बड़े होते हैं, तो पिता के साथ एक अजीब सा रिश्ता कायम हो जाता है, जिसमें दो पुरुष होते हैं, जो एक दूसरे के लिए जान दे सकते हैं, लेकिन एक दूसरे को ‘आई लव यू’ नहीं कह सकते. बेटों की पिताओं से यह भावनात्मक दूरी भी पितृसत्ता की ही देन है.

हमें बचपन से यही सिखाया जाता है कि अगर आप पुरुष हैं, तो आप मज़बूत हैं, ताकतवर हैं, आपमें मर्दानगी कूट-कूटकर भरी होनी चाहिए और यही झूठी मर्दानगी हम पुरुषों की कुंठा का कारण बनती है, क्योंकि इस कंडीशनिंग की वजह से हमारे लिए रिजेक्शन झेलना, किसी काम में फ़ेल होना, किसी रिश्ते में फ़ेल होना बहुत मुश्किल हो जाता है, क्योंकि भावनात्मक रूप से ताकतवर होने की बातें तो हमें कभी बताई ही नहीं जातीं. शायद यही कारण है कि हमारे देश में हर गली-नुक्क्ड़ पर मर्दाना कमज़ोरी के दवाखाने खुले हुए हैं, लेकिन पुरुषों के लिए भावनात्मक कमज़ोरी के दवाखाने कहाँ हैं? और अगर हैं भी, तो हम वहाँ जाना नहीं चाहते हैं. ऐसा मैं नहीं नेशनल लाइब्रेरी ऑफ़ मेडिसिन के आंकड़े बताते हैं, जिनके अनुसार पुरुषों के आत्महत्या करने की संभावना महिलाओं से 1.8 गुना ज़्यादा होती है, लेकिन उनके मेंटल हेल्थ से जुड़ी मदद लेने की संभावना महिलाओं से काफ़ी कम होती है. यानी हम भावनात्मक रूप से बीमार तो हैं, लेकिन हमारी कंडीशनिंग हमें मदद लेने से भी रोकती है, क्योंकि हम मदद माँगने को भी कमज़ोरी समझते हैं और मर्द क्या कभी कमज़ोर हो सकता है!

लेकिन निराश मत होइए, अभी हालात इतने भी नहीं बिगड़े हैं, इस अंधेरी सुरंग के छोर पर रोशनी की एक किरण दिखने लगी है। आज की पीढ़ी पुरुषों की समस्याओं को लेकर ज़्यादा सजग नज़र आती है। वह पुरुषों के फ़ैशन से लेकर उनकी मेंटल हेल्थ तक के बारे में खुलकर बात करती है। आज फ़िल्मो और टीवी शोज़ में 'एंग्री यंग मेन' के साथ-साथ सेंसटिव और वल्नरेबल मेन भी देखने को मिलते हैं और सराहे भी जाते हैं। ये सब अच्छे संकेत हैं, लेकिन याद रखिए कि पितृसत्ता की जड़ें बहुत गहरी हैं और उन्हें काटने में समय तो लगेगा, बस हमें निरंतर कोशिश करनी होगी। आपको और मुझे बार-बार याद रखना होगा कि भले पितृसत्ता से सिर्फ़ महिलाओं का नुकसान नहीं होता, पुरुषों का भी होता है।

1 comment:

bse55 Movies said...

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