ढेर सारे कचनार खिले देखकर मेरा मन एकदम खिल उठा था. इन दिनों जिस शहर में रहती हूँ वहां कचनार इस तरह नहीं खिलते. वहां बुरांश खिलते हैं. वो भी मुझे पसंद हैं लेकिन जो रिश्ता कचनार से है उसमें एक अलग सी ही खुशबू है. कचनार से रिश्ता कचनार से रिश्ता होने जैसा ही है उसे बुरांश से रिश्ता होने की तरह नहीं सोचा जा सकता. यह सोचते हुए मैंने अपनी हथेलियाँ फूलों से भरी कचनार की डाल के नीचे रख दीं. उन्हें तोड़ने के लिए नहीं, बिना तोड़े उन फूलों से अपनी हथेलियाँ और उनकी खुशबू से अपने जीवन को भर लेने के लिए. मैंने ढेर सारी साँसें लीं. गहरी साँसें. नीचे गिरे एक फूल को उठाया और उसे जूड़े में टांक लिया. ऐसा लगा मैं भी थोड़ी सी कचनार हो गयी हूँ. बस जरा सी. कुछ देर पहले मैं जिन उदासियों के साथ यहाँ आई थी नदी के इस किनारे पर अब वो उदासी कम हो गयी है ऐसा महसूस हुआ.
उदासी से ऐसा रिश्ता है कि वो कम होती है या दूर जाती है तो लगता है वजूद का कोई हिस्सा दूर जा रहा हो. लेकिन वो इस कदर साथ रहती है कि उससे आजिज़ आ जाती हूँ और सोचती हूँ कि यह जाए कहीं तो साँस आये. अरे, कहीं घूम ही आये थोड़ी देर को.
अभी इस पल में कचनार और मैं मिलकर उदासी को तनिक दूर टहलने भेजने में कामयाब हो गए हैं. चाय पीने की इच्छा को मन में ही थामे जब नदी में गिरते सूरज को देख रही थी तो जाने कैसे उस शाम की खिड़की खुल गयी जब हमने साथ में एक रोज डूबते सूरज को देखा था.
‘साथ में’, ‘किसके साथ में’ के बगैर कितना अधूरा लगता है न? यह ‘किसके’ हालाँकि हमेशा अधूरा ही होता है फिर भी.
एक रोज इसी नदी के किनारे नदी में गिरते सूरज के सामने उसने मुझे चूम लिया था. सूरज का तमाम लाल रंग मेरे गालों पर उतर आया था और नदी का सारा पानी मेरी आँखों में. देह काँप उठी थी. बहुत देर तक बल्कि कई दिनों तक समझ नहीं आया कि मुझे अच्छा लगा था या बुरा.
कुछ समय बाद इतना समझ आया कि बुरा तो नहीं लगा था. लेकिन अच्छा लगा था यह समझने में सच में काफी समय लगा. फिर हमारी शामों में नदी का पानी बढ़ने लगा और गालों पर कचनार की रंगत खिलने लगी. एक रोज जब हम यूँ ही नदी के किनारे टहल रहे थे मैंने उससे कहा, ‘कचनार के फूल बारह महीने क्यों नहीं खिलते.’ वो चुप रहा.
और इस तरह एक सुंदर चुप के साथ एक रिश्ता पूरा हुआ.
इतने बरसों बाद कचनार देखते हुए क्या मुझे उस सम्बन्ध की याद आ रही है? वो क्या होता है किसी सम्बन्ध में जो किसी को याद आता है. बहुत बाद में यह बात समझ में आई कि वो होता है अधूरापन.
अधूरापन बहुत खूबसूरत होता है, उसमें असीम संभावनाएं होती हैं, उसमें एक मीठी कसक होती है जो स्मृति के पोखर में रंग बनकर घुल जाती है. हल्का सा कसैलापन भी होता है...कुछ वैसा जैसा सिगरेट पीने के बाद मुंह में घुला रह जाता है.
मुझे उस कसैलेपन से प्यार है यह बात देर में समझ में आई.
हर नए सम्बन्ध में उस कसैलेपन की ख़ुशबू आती है. वो अधूरापन खींचता है जिसमें पूरा होने की आशा छुपी है. यह जानते हुए भी पूर्णता कुछ भी नहीं सिवाय ऊब के हम उसी की तलाश में जाने क्यों भटकते रहते हैं. बदलते मौसम के साथ जब शाखों पर कोंपलें फूटती हैं मुझे लगता है इन शाखों पर कोई अधूरापन उग रहा है, वही कसैली ख़ुशबू जिसकी तलब जीवन को रहती है.
उदासी हर रिश्ते की ऊँगली थामे चलती है कभी पास, कभी दूर. वो जानती है जब दिन और रात का, खुशबू और नदी का यह खेल थमेगा तब उसे ही सहेजना होगा सबकुछ.
मैंने उदासी से नज़रें चुराकर एक कंकड़ी नदी की तरफ उछाल दी थी. कुछ छींटे मुझ तक उड़कर आये. जीवन के कुछ छींटे. उदासी दूर बैठकर मुझे टुकुर-टुकुर देख रही थी. उसके चेहरे पर मुस्कान थी, मेरे भी.
1 comment:
बहुत सुंदर सृजन
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