एक बात के ऊपर दूसरी-तीसरी बात जम्प करती रहती है. हम बातों और दृश्यों के ढेर में लगातार गुम होते जाते हैं. कुछ करने जाते हैं और कुछ और करने लगते हैं क्या करने आये थे भूल जाते हैं. क्या कहना था, ज़ेहन से निकल जाता है और न जाने क्या-क्या बोलते जाते हैं. हमसे कुछ हमारा ही खो सा गया है. कैसा सैलाब है ये. कुछ अच्छा नहीं लगता. फिर अचानक चलना शुरू कर देती हूँ. चलती जाती हूँ. कुछ सोचना नहीं चाहती, यह सोचते हुए न जाने क्या-क्या सोचती जाती हूँ.
दृश्यों से दूरी वाले दिनों में कुछ उजाला क़रीब आया हुआ महसूस हुआ. लेकिन अजीब सी फितरत है कि सुख को हाथ लगाते डर लगता है. ख़ुशी थोड़ी दूरी पर रखी हुई ही भली लगती है कि हम एक-दूसरे के देख मुस्कुरा सकें. लेकिन जब हम उठकर चल दें विपरीत दिशाओं में तो कुछ टूटे नहीं.
यह थोड़ा मुश्किल है लेकिन इन दिनों यही ठीक लग रहा है. ख़्वाब जब तक आँखों में थे सुंदर थे, जैसे ही वो हकीकत की हथेली पर उतरे उनके बिखरने का डर भी साथ चला आया. ऐसे ही एक रोज दोस्त से मजाक में कहा था, 'मुझे सुख से डर लगता है, वो क़रीब आता है तो सोचती हूँ अभी इसके पीछे-पीछे आता होगा दुःख भी.' फिर हम देर तक हंसे थे.
कोई फांस धंसी हुई हो जैसे. जीने की इच्छा और जी लेने के बीच. बावजूद इसके जीने की इच्छा को सबसे ऊपर रखती हूँ और खुद को ज़िन्दगी के हवाले कर देती हूँ.
सूरज इस कदर आँखों में कूदने को व्याकुल है कि आंखें चुंधिया जाती हैं. मैं हंस पड़ती हूँ. खुद से किये वादे को दोहराती हूँ कि ख़ुश रहूंगी. खुश रहना भी साधना है. खुश दिखने से यह अलग होता है. इसके रास्ते में तमाम उदासी के पहाड़, नदियाँ जंगल आते हैं उन्हें पार किये बिना यह संभव नहीं.
हथेलियाँ आगे करती हूँ तो जूही खिलखिला पड़ती है. कानों में एक गीत बज उठता है, 'अफीमी अफीमी अफीमी है ये प्यार...' हाँ ज़िन्दगी से प्यार अफ़ीमी ही तो है.
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