लेकिन दूसरे ही पल लगता है ये बचकानी बातें, ये ऊट-पटांग से ख्याल कितना जीवन है इनमें. इन्हें हम क्यों जाने दें भला? स्कूल के दिनों में जब दोस्त स्क्रैप बुक भरवाते थे तो उसमें दाल चावल खाने की इच्छा को जब लिखा था तो कैसा तो मजाक उड़ाया था सबने. लेकिन मुझे वही पसंद था तो मैं और कुछ क्यों लिखती भला.
ये सब बातें अगड़म-बगड्म लग सकती हैं तुम्हें लेकिन ये बातें मुझे उन उदासियों को रिहा करने के काम आती हैं जो भीतर छुपी होती हैं और अचानक सामने आ खड़ी होती हैं. कल से सुशांत की खबर ने उदासी से भर दिया है. असल में उस खबर ने अपनी तमाम बेचैन दिनों को याद दिला दी है. कहने का पता नहीं लेकिन शायद उस मनस्थिति को कुछ हद तक समझ सकती हूँ. जब बहुत से लोग आसपास होते हुए भी कोई करीब नहीं लगता. ढेर सारे संवादों के ढेर में से एक वाक्य नहीं मिलता जो जीवन में रोक सके. उम्मीद का एक शब्द.
अब समझ सकी हूँ कि बाहर से नहीं आती उम्मीद, खुद उगानी होती है. वो शब्द हमारे ही भीतर होता है, हमें अपने भीतर बार-बार छलांग लगानी होती है और उसे ढूंढना होता है. हाँ, इसमें जल्दबाजी काम नहीं आती. बरस के बरस बरस के चले जाते हैं. आज यह लिखते हुए उदास नहीं हूँ, जब उदास थी तब लिख नहीं पा रही थी.
हम पीड़ा में छटपटाते हैं, कभी जोर-जोर से हंसते हैं, रोते हैं, गाते हैं, गिटार बजाते हैं. आवाज देते हैं, चुप हो जाते हैं. बस खुद को रिहा नहीं करा पाते. कोई जान नहीं पाता कभी कि अभी अभी जो साथ बैठा था, हंस रहा था जोर-जोर से, चुटकुले सुना रहा था वो भीतर से इतना टूटा था...वो जो गया है अभी-अभी उठकर वो मर रहा था. समाज के तौर पर अभी इतना नहीं सीख पाए हम. अरे हम तो कहे गये शब्दों के मानी नहीं समझ पाने लोग हैं, अनकहे को समझने की यात्रा तो बहुत लम्बी दिखती है. फिर भी कुछ कमीने दोस्तों का होना जिन्दगी को कुछ आराम तो देता है.
जीकर यह जाना है कि साझेदारी आसान नहीं. साझेदारियां बहुत बार व्यर्थ ही जाती हैं या अजीब अजीब से ज्ञान भरे प्रवचनों के रूप में लौटती हैं. दम घुटता है प्रवचन सुनते हुए. जी चाहता है चिल्लाकर कहें, खुदा के लिए चुप हो जाइए, रहने दीजिये मुझे समझने का ड्रामा करने की कोशिश, आपसे न होगा, आपकी योग्यता नहीं. लेकिन सम्मान में हम ऐसा कहते नहीं, उस कहे हुए को सहते हैं.
मुझे अजनबी चेहरे पसंद हैं, वो आपको जज नहीं करते. अजनबी, सड़कें, अजनबी लोग, चाय की टपरी, फूलों भरे बागीचे जहाँ से ट्रेन की आवाज सुनाई न देती हो. जहाँ आप रो सकें जी भर के. जीकर ही समझा है कि जीवन बहुत मामूली चीज़ों का नाम है, उन्हीं से बना है और उन्हीं मामूली चीज़ों से ही यह बचता भी है. जैसे बरसती बूंदों के आगे हथेलियाँ पसारना जैसे पंछियों के संग शरारत करना, कैसे वो सब गलतियाँ करने की इच्छा को पोसना जिसे करने से रोका गया हो अब तक.
जैसे इस वक्त बिना किसी इच्छा के तुम्हें याद करना, चाय का पानी चढ़ाना और सोचना मैगी के बारे में कि वो खत्म हो गयी है घर में, आज लाना है.
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