Thursday, June 18, 2020

अच्छा लगना कितना अच्छा होता है


मैंने उसे कहा कि मैं एक किताब पढ़ रही हूँ इन दिनों, 'बहुत दूर कितनी दूर होता है' बहुत अच्छा लग रहा है. उदासियों की चादर ओढ़े डूबी सी आवाज में उसने धीमे से कहा, 'अच्छा लगना कितना अच्छा होता है'. जाने क्यों मुझे सुनाई दिया 'अच्छा लगना कैसा होता है'. मैं उसे बताना चाहती हूँ कि अच्छा लगना बहुत अच्छा होता है. कभी-कभी वो हमसे खो जाता है. कभी-कभी ज्यादा दिन के लिए भी खो जाता है लेकिन असल में वो इतना अच्छा होता है कि हम उसे ढूंढ लेते हैं. और अगर कभी हम ढूंढ नहीं पाते तो वो हमें ढूंढ लेता है. बस हमें ध्यान इतना ही रखना होता है कि खेल से बाहर नहीं होना है. खेल में बना रहना जरूरी है. जीवन के खेल में.

मैं उसे बताना चाहती हूँ, खोया हुआ अच्छा लगना जब वापस मिलता है तो वह पहले से भी ज्यादा चमकदार होता है, ज्यादा निखरा हुआ.

लेकिन उदासी की चादर ओढ़ के सोये व्यक्ति से ज्यादा कुछ कहना नहीं चाहिए, बस उसके सर के बालों को सहला देना भर काफी होता है, या जलते हुए तलवों पर ओस के कुछ फाहे रख देना या उसकी जागी आँखों पर स्नेहिल चुम्बन रख देना. इतना ही. बहुत हुआ तो कभी-कभार आलिंगन भी. लेकिन बिना किसी किस्म की जताहट के. ये बहुत छोटी सी लगने वाली चीज़ें अक्सर रह जाती हैं.

और जताहट वो काबिज हो जाती है. मैं तुम्हारी केयर करता हूँ या करती हूँ यह जताने की बात होती ही नहीं. केयर तो एहसास में घुली होती है न. लेकिन मेरे कंधे तो छिले हुए हैं एक समय में जताहटों के बोझ से. लेकिन जिन स्पर्शों ने जिन संवादों ने मुझे सहेजा वो बहुत नार्मल थे. यह नॉर्मल होना इतना मिसिंग क्यों हो जाता है. जबकि नार्मल होने की बात सब कहते हैं, कोशिश करते हैं लोग नार्मल होने की. मुझे हंसी आती है, अरे वो नार्मल होना है, वो कोशिश करने से नहीं आता है, वो कोशिश करना छोड़ देने से आता है. लेट इट बी नार्मल.

एक बार रंगमंच से जुड़े एक दोस्त से बात करते हुए मैंने कहा था, 'अजीब बात है न जीवन में वो लोग सफल होते हैं जो अच्छा अभिनय कर लेते हैं. और रंगमच में वो ऐसा अभिनय करें कि लगे ही न कि वो अभिनय है.' हम दोनों देर तक हँसे थे इस बात पर.

मैं इन दिनों जिस किताब में धंसी हुई हूँ वहां से निकलना नहीं चाहती. और उसे पढ़ते जाने का मोह भी नहीं छूट रहा. अजीब कशमकश है. कल दिन में ऑफिस में जब लंचटाइम में कानों बारिश पहनकर मैंने उस किताब को खोला तो उसके एक पन्ने पर कुछ पीला निशान दिखा. यह हल्दी का निशान था. मुझे इतनी जोर से हंसी आई कि आसपास के लोग मुझे देखने लगे और मैंने खुद को संयत किया. मुझे जो हंसी आई उसमें एक सुख था. सुख कि फिर से किताबें हर वक़्त साथ रहने लगी हैं. ये सुख मुझसे खो गया था. कॉलेज के जमाने में यह सुख मेरे जीवन का हिस्सा था. हर वक़्त साथ रहने से किताबों पर हमारे जिए जा रहे लम्हों के निशान भी दर्ज होते रहते हैं हमारी उन आँखों के साथ जो उसमें हर वक़्त धंसी रहती हैं. इस किताब पर हल्दी के निशान उस वक़्त आये होंगे जब मैंने इसे किचन में एक हाथ में पकड़े हुए सब्जी बनाते हुए पढ़ा होगा.

लेखक की पी गयी कॉफी और पाठक के द्वारा छौंकी गयी भिन्डी की सब्जी का स्वाद और निशान हमेशा के लिए उन पन्नों में दर्ज हो चुके हैं. मेरी तमाम किताबों में ऐसे निशान मिलेंगे. तरतीब से पढना नहीं आता. मेरी किताबें मैं किसी को नहीं देती क्योंकि उन किताबों में एक खुशबू दर्ज होती है, पढ़े जाने की पूरी यात्रा. बिलकुल, पाठक की भी एक यात्रा होती है.

बहरहाल, यह किताब खत्म न हो इसलिए मैं इसके पढ़े जा चुके पन्नों में से कुछ हिस्सों को पहले देर तक चुभलाती हूँ फिर उसमें कुछ नए बिना पढ़े गये पन्नों का स्वाद मिला लेती हूँ. लेकिन मैं ज्यादा दिन तक ऐसा नहीं कर सकूंगी. फिर मैं क्या करूंगी? क्या नयी किताब मुझे यह सुख यह सुकून देगी. इस बारे में अभी सोचना नहीं चाहती. लेकिन इतना जरूर है कि इस किताब ने एक बार फिर मेरे पढने के सिलसिले को शुरू किया है. मानव को पढकर पहले भी कई बार ऐसे रुके हुए सिलसिले चल पड़े हैं लेकिन वो ब्लौग का जमाना था जब मैं घोर उलझनों में 'मौन में बात' की कुछ बार बार पढ़ी पोस्ट को फिर से पढ़ने लगती थी. असल में इस पढ़े में खुद को पढने सरीखा एहसास होता है. यही बात लेखक और पाठक के बीच के रिश्ता कायम करती है.

'यहाँ से दस मिनट की दूरी पर एक ब्रिज है जिससे चलकर तुम जर्मनी से फ़्रांस जा सकते हो. Basel बार्डर है.' जंग हे लेखक को बता रही हैं और मैं उस पुल पर खुद को खड़ा पाती हूँ. मेरा दिल चाह रहा है मैं उस पुल पर ही खड़ी रही हूँ. और जर्मनी और और फ़्रांस दोनों को उलझन में डाले रहूँ कि मैं किधर जाने वाली हूँ. हा हा हा...कितना अच्छा है ऐसे सोचना. जंग हे ..को तो पता भी नहीं होगा कि एक लेखक के साथ यात्रा करते हुए वो कितने सारे पाठकों की दोस्त बन चुकी हैं. वो मुझे बहुत सुलझी हुई लगती हैं. उनके पास से शेक्सपियर की याद सी आती हुई मालूम होती है. शायद इसलिए कि मैंने शेक्सपियर के जन्म का वह ठीहा देखा है और मैं जंग हे से वहीं कहीं मिलना चाहती हूँ. लेकिन फिर उस पुल का क्या होगा जो फ़्रांस और जर्मनी के बीच है दोनों देशों को जोड़ता हुआ.

हम सबको ऐसे पुलों की जरूरत है. जिन पर खड़े होकर आश्वस्त हुआ जा सके कि बस दो कदम चलकर पहुंचा जा सकता है अपने मनचाहे गन्तव्य तक. इस तरह सोचना सुख देता है...हालाँकि हमने दिलों की दूरियां मिटाने वाले पुलों को खूब तहस-नहस किया है, दुनिया की दूरियां मिटाने वाले पुलों को भी. सरहदें कितनी उदास होती होंगी अपने सीने पर जवां खून के छींटे सहेजते हुए इस पार भी उस पार भी.

कोई क्यों नहीं समझता कि घर में आई छोटी चिड़िया से बात करना वैसा ही है जैसे किसी भी देश के व्यक्ति को प्रेम करना. भले ही हम उसकी भाषा न जानते हों, उसका नाम भी ठीक से उच्चारित न कर पाते हों. उदासी की चादर ओढ़े दोस्त से कहना चाहती हूँ, 'हाँ अच्छा लगना बहुत अच्छा होता है.' खिड़की खोलो जरा, वो वहीं बाहर खड़ा नजर आयेगा...

2 comments:

Niketan Mishra said...

सादर नमस्कार,मैं नया साहित्य की दुनिया का नया पाठक हूँ, आपका यह लेख मुझे एक बार मे समझ नही आया तो मैंने इसे बार बार पढ़ा,फिर भी समझ नही आया तो बन्द कमरे में जोर जोर से बोलकर पढ़ा,अपनी नाजुक बुद्धि से जितना समझ आया वो यह कि इस लेख ने मुझ पर बेहद सकारात्मक प्रभाव डाला है,मैं इस लेख को बार बार पढूंगा,पढ़ते रहूंगा।
बहुत धन्यवाद दीदी जी����

Niketan Mishra said...

सादर नमस्कार,मैं साहित्यों का नया पाठक हूँ, मुझे ठीक से पढ़ना भी नही आता,अभी सीख रहा हूँ,आपका यह लेख मुझे एक बार मे समझ मे नही आया तो मैंने इसे दोबारा पढा,फिर बन्द कमरे में जोर जोर से बोलकर पढ़ा,इस लेख ने मुझ पर बेहद सकारात्मक प्रभाव छोड़ा है,एवं मैं आगे भी मैं इसे बार बार पढूंगा,इस शानदार लेख के लिए सहृदय धन्यवाद।