VINCENT VAN GOGH: SUNFLOWERS
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जो हमें पसंद हो उसका हमारे जीवन में होना क्यों जरूरी है. यह एक किस्म की लालसा है. इसमें एक तरह के स्वार्थ की बू आती है. जो चीज़ें हमें पसंद हैं, हमारे पास हों, घर में हों यह पागलपन है. जो हमें पसंद है वो वहीं रहे जहाँ वो है तो क्या हमारी पसंद घट जाती है? शायद ज्यादा बची रहती है. और फिर अगर किसी रोज पसंद बदल जाए तो उस व्यक्ति का या सामान का क्या करें जिसे जीवन में या घर में इस कदर भर लिया था कि वो पूरा जीवन ही घेरकर बैठ गया था. अब या तो उस बदली हुई पसंद के साथ रहना होता है या उसके बगैर छूट गये ढेर सारे खालीपन के साथ.
मुझे अब यह समझ आने लगा है कि हासिल करने जैसा कुछ नहीं होता. पसंद और प्रेम का कोई रिश्ता नहीं होता. अहंकार अलबत्ता जरूर आते-जाते हैं. अधिकार आते-जाते हैं, अपेक्षाएं आती-जाती हैं. यह सब मिलकर उस पसंद के उस मूल तत्व को नष्ट कर देते हैं जहाँ होना सुख देता था. सुख की उस अनुभूति को, उस केंद्र को हम दुनियावी प्रवंचनाओं से नष्ट कर देते हैं. फिर उसे खोजते हुए आरोप गढ़ने के लिए कोई केंद्र ढूंढते हैं. कोई तो हो जिसे कहें कि तुमने मेरा जीवन नष्ट कर दिया. जबकि असल में ऐसा कुछ होता नहीं है. हम खुद ही अपना जीवन नष्ट करते हैं या सुंदर करते हैं.
जीवन की नदी का जो मटमैलापन है इसे भी प्यार करना चाहिए. यह मटमैलापन हमें गढ़ता है. हम ईश्वर या खुदा नहीं हैं. गलतियों का भी सुख है, लड़ने झगड़ने का भी, प्यार करने का भी और प्यार के टूटकर बिखर जाने का भी. यह मटमैलापन अपने भीतर बहुत सारा उजाला छुपाये है. जैसे खूब गहरे उतरकर समझ आता है कि ऐसा कुछ नहीं जिसके बिना जिया नहीं जा सकता. हमें किस कदर लगता है कि इसके बिना कैसे चलेगा जीवन, लेकिन मजे में चलता है. दुःख प्रेम के टूटने का नहीं अहंकार के टूटने का होता है. क्योंकि प्रेम तो टूटता नहीं हाँ उसका हमारे जीवन में रहने का तरीका बदल जाता है. जैसे कमरे की सेटिंग चेंज कर दी हो,
यह कितना अजीब है कि जब हम एक बड़ी, कठिन और लम्बी यात्रा कर चुके होते हैं और कहीं पहुँच चुके होते हैं या पहुँचने वाले होते हैं तब पता चलता है हम तो गलत दिशा में आ गए. यात्रा की सारी थकान बिखर जाती है...फ़ैल जाती है. जैसे सब हाथ से छूट गया हो. फिर किसी कोंपल के फूटने की आवाज सुनाई देती है. गलत दिशा में चलकर आई हुई जगहों पर अक्सर सही चीज़ें मिली हैं. सारा थका हुआ सुख में बदल जाता है. जीवन ऐसा ही है.
कई बरसों से मुझे लगने लगा था कि मैं लिख नहीं पाऊंगी, फिर मैंने लिखने की कोशिश करना छोड़ दिया लेकिन ब्लैंक स्क्रीन के सामने घंटों बैठकर उसे देखते रहना नहीं छोड़ा. कई बरसों से मुझे लगने लगा था मैं पढ़ नहीं पाऊंगी फिर मैंने पढने की कोशिश करना छोड़ दिया लेकिन किताबों के आसपास रहना नहीं छोड़ा, कई बरसों तक मुझे लगता रहा मैं तुम्हारे बिना जी नहीं पाऊंगी, फिर मैंने इस तरह सोचना छोड़ दिया लेकिन तुम्हारी स्मृतियों के आसपास रहना नहीं छोड़ा. या यूँ कह लो कि यह सब मुझसे छूटा नहीं.
अब जब मेरे हाथ में हर वक़्त कोई किताब फिर से रहने लगी है तो लगता है जीवन वापस लौट रहा है पहले से बेहतर होकर. स्मृतियाँ अब दुःख नहीं हैं. ब्लैंक स्क्रीन से दोस्ती होने लगी है, लिखने का पता नहीं लेकिन कुछ शब्द उगने लगे हैं. लॉकडाउन में बहत कुछ अनलॉक हुआ है. खुद के भीतर खुद को फिर से देखा है इन दिनों.
मेरे कमरे की नीली दीवार जो सिरहाने है उस पर पेड़ की डालियाँ हैं और चिड़िया हैं. सामने की दीवार खाली है. उस खाली दीवार पर सोचा था तुम्हारी परछाई सहेजूंगी. लेकिन इन दिनों उस दीवार पर सूरजमुखी उगते दिखने लगे हैं. खाली दीवार में कितना कुछ है उगने को. कभी सोचती हूँ इस दीवार पर गाढे नीले रंग की पेंटिंग लगाऊंगी जिसमें पानी होगा, कभी सोचती हूँ इस पर एक रोज अमलतास खिलेंगे, कभी यह दीवार कल्पना के सुफेद फूलों से भर उठती है. हालाँकि इन पर सूरजमुखी उगेंगे एक रोज यह मैंने सोचा नहीं था. लेकिन वो उगे हुए हैं. और अच्छे लग रहे हैं. जो हम सोचते हैं उससे इतर भी कितना कुछ है अच्छा हमारे जीवन में आने को. हम अपने जाने हुए से उस अनजाने की आमद का रास्ता रोककर खड़े हुए हैं. अजीब बात है न. हमें अपने जीवन में कुछ खाली जगहें रखनी चाहिए, घर में कुछ खाली दीवारें.
जब कभी दीवार पर अपनी ही छाया को देखती हूँ तो मुस्कुरा देती हूँ...
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