Wednesday, June 3, 2020

तेरी याद संग लिली खिली है


देश चल पड़ा है, दुनिया चल पड़ी है तो मन में जाने कैसे-कैसे ख्याल आ रहे हैं. हम चल पड़े हैं क्योंकि चलना जरूरी था. जरूरत क्या है इसे कौन तय करता है? जब मजदूर चल पड़े थे तब सबको उन पर गुस्सा आया, सबसे ज्यादा गुस्सा आया सरकारों को उन पर, सरकार के भक्तों को आया. उन्होंने कहा कि जब कहा था कि रुको तो रुक जाना था न, क्यों चले जा रहे हैं. अब जब वो बात नहीं मानेंगे तो भुगतेंगे ही न? सीमायें सील हुईं, ट्रेनों पर जगह मिलीं नहीं मिली पटरियों तक पर, न बसों में न ट्रकों में सड़कों में न घर बचा था उनके पास न राशन. फिर भी समझ न पाया कोई कि वो न चलते तो क्या करते आखिर. गुनहगार भी वही साबित हुए जिन्होंने जान गंवाई. और अब देश खुल गया. दुकानें, दफ्तर, मॉल, मंदिर सब खुल गया. अब सबको चलना है. ऐसा कहा गया है. सबको काम पर पहुंचना है. दिखाना है कि इकोनोमी को कैसे दुरुस्त करेंगे हम. कैसे जान पर खेलकर दुनिया को बताएँगे कि हम डरे नहीं थे. हम डर तो रहे हैं लेकिन डरने की बात करना मना है.

ये क्या चल रहा, कैसा खेल चल रहा है जिसके सारे नियम सरकार के हैं, पासा भी हर बार वही फेंक रही है. जाहिर है जीतना भी उसी को है. हर बार. जब डर नहीं रहे थे तो डराया जा रहा था. जब सच में डर लगने लगा है तो कहा जा रहा है डरो मत. जब बाहर जाना चाहते थे तो पुलिस डंडे लेकर दौडाती थी अब घर में रहकर काम करना चाहते हैं तो रोजगार खोने का भय बाहर निकलने को मजबूर कर रहा है.

एक व्यक्ति एक समय पर टीवी पर आता है कहता है स्टेचू और पूरा देश स्टेचू हो जाता है, फिर वो कहता है 'दिए' तो देश जगमगा उठता है, फिर वो कहता है 'ताली' तो पूरे देश में नगाड़े बजने लगते हैं, फिर वो कहता है 'आत्मनिर्भर' और सब जान हथेली पर लेकर निकल पड़ते हैं. ये कैसा खेल है भाई. जब केस कम थे तो हम घरों में कैद थे जब केस ज्यादा हैं तो हम सड़कों पर हैं.

जिन्दगी आंकड़ा भर नहीं होती, आंकड़ों के हेर-फेर में आप माहिर लोग हैं लेकिन यह जो जान है न यह हमारी है, हमारी जान से सरकार को फर्क नहीं पड़ता जानते हैं. हम मर गये तो आप आंकड़ों से भी बाहर कर दोगे, या शामिल हुई भी हमारी मौत आंकड़ों में तो क्या होगा सिवाय मरने वालों की संख्या बढ़ने के. लेकिन साहब एक जिन्दगी एक जिन्दगी होती है. उस जिन्दगी का उसके परिवार के लिए महत्व होता है, जहाँ वो पूरी दुनिया होती है संख्या नहीं. देश खोल तो दिया है लेकिन इंतजाम अब भी जीरो ही हैं. ऐसे में आत्मनिर्भर वाला मन्त्र कितना और कब तक काम आएगा पता नहीं. लोग डरे हुए मिलते हैं. सबके भीतर एक डर है, ऐसा कभी नहीं देखा कि किसी से महीनों बाद मिले हों और कोई बात ही न हो. यह जो इकतरफा खेल है न यह अच्छा नहीं है, इसमें हमारी इच्छा की कोई जगह नहीं. हम जिन्दा लोग हैं लूडो की गोटियाँ नहीं हैं. इस बात को समझने वाला कोई नहीं है.

हमारे दफ्तर में तो खूब सैन्टाईज किया गया है सबकुछ, मास्क वास्क भी मिले हैं, तुम्हारे यहाँ ये सब नहीं होगा शायद. तो खूब ध्यान से रहना, कहीं से भी कुछ भी उठाकर मत खा लेना. तुम लापरवाह बहुत हो. मैं नहीं हूँ वहां इसलिए खुद ही ख्याल रखना होगा तुमको. 

मन उदास है. इस उदासी में तुम्हारी याद के संग लिली खिली है. 

4 comments:

Onkar said...

अभी सावधान रहने की बहुत ज़रूरत है

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

उपयोगी पोस्ट।

डॉ. दिलबागसिंह विर्क said...

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 4.6.2020 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3722 में दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
धन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क

Rakesh said...

बढ़िया