फिर मैंने बचे हुए शब्दों को भी निकाल फेंकना चाहा, मैं उस 'बहुत कुछ' के करीब जाना चाहती थी जो मुझमें है और मुझे लग रहा था वो नहीं है. यह तो बेईमानी हुई न. मेरे ही भीतर 'यह बहुत' कुछ चिपक कर रह रहा है और मुझे ही पता नहीं. लेकिन जब बचे हुए शब्दों को मैंने खींचकर अलग करना चाहा तो मुझे बहुत दर्द हुआ. चीख निकल गयी. ये शब्द मेरी आत्मा से चिपक गये थे. इन शब्दों में जैसे मेरा खून बहने लगा है. इन्हें अलग करना लहूलुहान होने के सिवा कुछ नहीं. फिर मैंने इन कुछ शब्दों को छोड़ दिया. यह मान लिया कि ये शब्द अब जड पकड़ चुके हैं.
मैंने उस 'बहुत कुछ' को निकालकर बाहर मेज पर लाकर पटक देना चाहा, लेकिन वह 'बहुत कुछ' मुस्कुरा दिया. वह बहुत कुछ मेरी कामनाओं, इच्छाओं से बना था. वो जो छोटे-छोटे दुःख थे असल में वो बड़े दुखों को ढंके हुए थे, वो जो छोटे-छोटे से सामान्य शब्द हैं वह बहुत बड़े दुःख के तिलिस्म को संदूक में बंद करके ताला लगाने की कोशिश हैं. लेकिन क्यों बड़े दुःख को संदूक में बंद करना, क्यों रिहा नहीं करना.
शायद इसलिए कि रिहा करने से पहले रिहा होना जरूरी होता है. यह जो ढेर सारे चमकीले शब्दों के नीचे तलहटी में धंसा हुआ है 'बहुत कुछ' होकर वो रिहा नहीं होने देता कुछ.अचानक छुपाकर रखा हुआ दुःख तलहटी पर उतर आया. तैरने लगा. मुझे बहुत घबराहट हुई. मैंने अपने भीतर से उलीच कर बाहर फेंके हुए शब्दों को फिर से अंदर भर लिया. कुछ नए चमकदार शब्दों को भी भर लिया.अब कुछ ठीक लग रहा है...लेकिन यह 'कुछ ठीक लग रहा है' असल में धोखा है. क्योंकि अब मैंने अपने भीतर के उस बहुत कुछ को देख लिया है अब शब्दों के जादू से उसे ढंक नहीं पाऊंगी.
सोच रही हूँ एक दिन मैं बिना शब्दों के काम चलाना सीख जाऊंगी. सिर्फ मुस्कुराकर या पलकें झपकाकर या सिर्फ उन शब्दों से जो मुझमें अब सांस लेने हैं. और तब यह बहुत कुछ मेरे भीतर नहीं रहेगा, दुःख भी नहीं रहेगा...फिर मैं उस खाली जगह का क्या करूंगी...
मैं अपनी काफ्काई हरारत से निकलकर चाय का पानी चढाते हुए सोच रही हूँ...बेवजह की चीज़ों की तरह बेवजह के शब्द भी खूब जमा कर लिए हैं हमने. करतब दिखाने वाले शब्दों से मुझे चिढ है. चाय की भाप के साथ अदरक इलायची की खुशबू भी मेरे चेहरे पर जमा हो रही है...सबसे सच्चा शब्द कौन सा है जीवन का...
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सुन्दर प्रस्तुति
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