Tuesday, June 9, 2020

'जीवन के हाथों में बहुत सारा उलझा हुआ मांझा है...'- मानव कौल



कभी-कभी सोचती हूँ कि इन रोजानमचों का क्या हासिल? फिर सोचती हूँ इस जिन्दगी का भी क्या हासिल? फिर यह सोचती हूँ कि क्यों होना ही चाहिए हासिल, छोड़ो न. और अगले पल ही यह सोचते हुए पिछला सारा सोचा हुआ हंसी में उड़ा देती हूँ कि इतना सोचती क्यों हूँ?

तो कल की बारिश की बात है, टूटे हुए चश्मे को बनवाना जरूरी था और वक़्त पर घर पहुंचना भी, दफ्तर के सारे काम भी जरूरी थे तो बारिश में भीगते हुए चश्मा बनवाने जाना तय हुआ. इन दिनों पढने की इच्छा ने जैसे स्पीड पकड़ी हुई है ऐसे में चश्मे का टूटना बड़ा स्पीड ब्रेकर था. परसों रात जो किताब पढ़ी थी और उसके पहले वाली रात जो किताब पढ़ी थी उन दोनों अलग-अलग लेखकों की किताबों के किरदार परसों की रात मेरी नींद में गप्प लगा रहे थे.

इन दिनों हो यह रहा है कि एक साथ कई किताबें पढ़ी जा रही हैं. एक साथ. जिस किताब का जिक्र मैं छुपा रही हूँ उसका पढ़ना हूक से भर रहा है. वह किताब है 'बहुत दूर कितना दूर होता है.' मानव कौल की किताब. यह अनलॉक  की दूसरी सौगात थी. जैसे ही अनलॉक हुआ हमने खूब सारी किताबें ऑर्डर कर दी. किताबें आ रही हैं एक-एक कर. रोज घर पहुँचो तो कोई नया संसार कुछ नए किरदार इंतजार करते मिलते हैं और मन एकदम खुश हो जाता है.

सिलसिला शुरू हुआ किशोर चौधरी से...आगे बढ़ाया मानव कौल ने लेकिन बीच में सुजाता ने इंट्री ले ली और जिस चश्मे को बनवाते हुए मन में यह ख्याल था कि पेरिस पहुँचने के बाद बंटी का क्या हुआ निवेदिता, सिध्धांत, जगजीत, अबीर और मीना अपने साथ अलग यात्रा पर निकल गये. बहुत अरसे बाद एक ही बार में पूरा उपन्यास खत्म किया है. इसमें मनस्थितियों का भी बड़ा हाथ है.

इस सुबह में पेरिस पहुँचने की इच्छा है लेकिन कोई हडबडी नहीं है. बीती रात पढ़े 'एक बटा दो' का असर है लेकिन अब कोलाहल नहीं है. उधर वो बाड़मेर वाला अमित दूर से बैठा देख रहा है जैसे उसने इत्मिनान भरी आँखों से देखकर आश्वस्त किया हो कि मैं हूँ, यहीं. तुम आराम से घूम लो पेरिस फिर हम साथ चलेंगे.

ये किरदार कितने प्यारे होते हैं कि हम इनसे दिल लगा बैठते हैं.

तो बीती रात से पहले वाली रात का किस्सा सुनो, हुआ यूँ कि अमित के संग बाड़मेर घूमने के बाद सोयी थी और सुबह यानी इतवार की सुबह एक बहुत दूर, कितना दूर जानने निकल पड़ी. मानव तो फिर मानव है. अजीब जादुई असर में लाते हैं. मानव को पढना भीतर की यात्रा में ले जाता है, वो अपने आप को कुरेदना सिखाता है.

तो सलीम, बंटी और जीवन से दोस्ती होती है. कभी लगता है मैं बंटी हूँ, कभी लगता है सलीम हूँ लेकिन जीवन जीवन ही है. सारा दिन बिटिया कहती रही 'क्या मम्मा सारा दिन नापती रहती हो बहुत दूर कितना दूर होता है, लो मेरा स्केल ले लो और नाप लो. और मानव अंकल को भी दे दो वो भी नाप लेंगे.' हम दोनों हंस देती हैं.

मानव को गति से नहीं पढ़ा जा सकता, वह बाहर का पढना नहीं है. एक-एक लाइन वापस बुलाती है और डुबो लेती है भीतर.

'जीवन से झूठ बोलने पर आँखें खुद झुक जाती हैं.'
'जीवन के हाथों में बहुत सारा उलझा हुआ मांझा है...'
'जीवन ने बंटी को रोकने की कोशिश की बंटी ने जीवन का हाथ झिडक दिया.'
यह जीवन सलीम और बंटी का ही नहीं हम सबका जिया हुआ है, जिया जा रहा है. हम अपना तमाम जिया हुआ इसके आगे पसार के बैठे रहते हैं. हम भाग क्यों नहीं जाते. हमें अपने तमाम सवालों के जवाब अपनी ही धुरी पर क्यों चाहिए. हमें सच में निकलना चाहिए यह जानने कि बहुत दूर कितना दूर होता है. दूर होता भी है या नहीं...या बहुत दूर असल में बहुत पास होता है और बहुत पास होता है बहुत दूर.

दूर फ़्रांस में इस सवाल से उलझे बंटी की बात अचानक बाड़मेर वाले अमित से होने लगती है. फिर वो दोनों नापने लगते हैं 'बहुत दूर कितना दूर होता है' को. जबकि जीवन भेलीराम की थडी पर सलीम और अपनी चाय बनवा रहा है. क्योंकि बंटी तो बहुत दूर फ़्रांस में है. तभी बंटी कूदकर चाय लपक लेता है कहते हुए, 'अरे मैं यहीं हूँ बे...'

कैथरीन दूर कहीं बंटी के इंतजार में है...वान गौग, पिकासो, कामू और सात्र भी हैं.

लेकिन मेरी नींद में सलीम जीवन अमित और बंटी की गप्प चलती रही...बीती रात उन सबकी जगह सिध्धांत, जगजीत,अबीर ने ले ली. यह सोचते हुए सो गयी कि सब के सब अलग-अलग तरह से कितने कमजोर पुरुष थे...

आज नया दिन है और मुझे पेरिस की यात्रा पर निकलना है, शाम तक दिन कौन सी करवट लेगा पता नहीं. कि कुछ किताबें अभी रास्ते में हैं...

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