कालो थियु सै...इसका क्या मतलब होता होगा. पता नहीं. यह जो पता नहीं का आकर्षण है यह इतना ज्यादा है कि यह खींचता है. हालाँकि मेरा इस किताब को पढने की इच्छा होने का एक कारण किशोर चौधरी के नए लिखे हुए को पढ़ना ज्यादा था. अंदाजे से कहूँ तो किशोर वो लेखक हैं जिन्हें मैंने लगभग शत प्रतिशत पढ़ा है. और यह पढ़ना सिर्फ शब्द भर नहीं है. ब्लॉग के ज़माने से उनकी पोस्ट पढ़ना, उन पर बातें करना, बातें बेवजह की पढ़ना उनके असर में रहना, किस्स्सगोई के रेशमी धागों में उलझते हुए किरदारों से बातें करना और जानना रेतीले प्रदेश के प्रेमिल संसार के बारे में.
अमित का हाथ थाम मैं किताब के भीतर प्रवेश करती हूँ और खुद को बाड़मेर के उसी स्टेशन के सामने खड़ा पाती हूँ जहाँ गांधी जी की प्रतिमा है...जहाँ शायद लोग धरना देते होंगे. स्टेशन से बायीं तरफ यानि चोह्टन की तरफ जाने वाली सडक पर जा चुकी हूँ और दायीं तरफ वाली सडक यानी नेहरू युवा केंद्र की तरफ वाली सडक पर भी. इस बार मेरे साथ अमित है. वो अपने किस्से सुनाते हुए घुमा रहा है.
अमित की जिन्दगी वैसी ही है जैसी उस दौर में आम किशोर जनों की हुआ करती थी. ज्यादा पढ़ाकू बच्चे खेलने वाले बच्चों के लिए हमेशा सरदर्द रहे हालाँकि जिन्दगी का हिसाब उठाकर देख लें खिलंदड बच्चों ने ही दुनिया की खूबसूरती को बचाया है. पढ़ाकुओं ने सिर्फ तर्क गढे हैं. मुझे लगता है अमित की मेरी दोस्ती हो गयी है. मुझे भी फ़िल्में न देखने वाले लोग दोयम दर्जे के ही लगते हैं, मने ये भी कोई बात हुई इन्सान फिल्म भी न देखे. मुझे मेरे कॉलेज के समय की वो फैंटेसी याद आ गयी जब मैं सोचती थी कि सिनेमा का टिकट बड़ा महंगा होता है काश सिनेमाहाल वाले के लड़के से दोस्ती हो जाए और सारे सिनेमा फ्री में देखने की सुविधा हो जाए. हालाँकि यह फैंटेसी पूरी हुई पत्रकारिता में ट्रेनी होते ही कि सिनेमा की समीक्षा के लिए टिकट देकर भेजा जाने लगा. तो अमित मुझे बढ़िया लगता है. वो मस्त है, उससे दोस्ती वर्जित भू-भाग की तरफ खींचती है
अमित को सब पता है, और जिसे सब पता होता है उसके आगे सब दुम दबाये बैठे होते हैं. फिर मुझे लगता है ऐसे अमित तो कितने हैं आसपास अलग-अलग नामों वाले अमित. सबकुछ जानने वालों की भी हेकड़ी निकालने में, आत्मविश्वास से भरे लोगों को बाँध देने में समाज माहिर है ही. बेचारा अमित कैसे न फंसता चक्रव्यूह में. लेकिन उसने सपने देखना नहीं छोड़ा न सपनों का पीछा करना. ये सपनों का पीछा करने वाले लोग मुझे पसंद हैं इसलिए मुझे अमित पसंद है.
अमित जिन्दगी से भरा है, वो जीना चाहता है. समाज को ऐसे लोग पसंद नहीं, प्रवचन फैक्ट्री का सारा माल अमित जैसों के लिए ही निर्मित होता है. और कन्धा बिरादरी के लोग 'मैं तुम्हें समझ रहा हूँ' कहकर आते हैं और जिम्मेदारियों और नैतिकताओं के लिफाफे टिकाकर कंधे थपथपा कर चले जाते हैं. जैसे कह रहे हों, बस बहुत जी लिए बेटे तुम अब जाओ दुनियादारी के दडबे में. वेलकम टू द हेल...टाइप फीलिंग आती है.
अमित कलमकार है, कलमकार का दोस्त है, जिन्दगी से भरपूर है लेकिन जिन्दगी से दूर है. वह जिन्दगी के करीब जाने को लालायित है. जिन्दगी उसे बार-बार समझौते की चौखट पर बाँध देने को व्याकुल है. अमित का हाथ थाम बाड़मेर से मुम्बई के बीच गोते खाते हुए उसके संग भेलीराम की थडी पर चाय पीने की इच्छा खूब बढ़ती जाती है.
अमित के संग अभी कालो थियु सै की यात्रा शुरू हुई है. मुझे पढने में हडबडी पसंद नहीं...इसलिए एक अच्छी किताब को सहेज लिया है बुरे दिनों में पढने को. कुछ दिन अमित के संग रहने की इच्छा है.
2 comments:
शुभ यात्रा ।
सुन्दर प्रस्तुति
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