Saturday, May 7, 2022

जीवन मुझे अभी और मांजना चाहता है...

- प्रतिभा कटियार

इस भोर में बीती रात की ख़ुशबू शामिल है. हाथ में चाय का कप लिए बौर से लदे पेड़ों को देखती हूँ. नयी कोंपलों से सज रही शाखों को देखती हूँ. मौसम आँखों पर बढ़िया चश्मा लगाये, फूलों की उठती गंध का इतर लगाये एकदम टशन में है. यह इश्क शहर है, देहरादून. फूलों में होड़ है खिलने की, रास्तों में मनुहार है गले लगने की. दस बरस हो गए मुझे इस शहर के इश्क़ में पड़े. दस बरस हो गये मुझे इस शहर में साँस लेते.

कितने किस्से हैं इस शहर और मेरे इश्क की दास्ताँ के. ये किस्से या तो यह शहर जानता है या मैं जानती हूँ. दस बरस पहले की बात है. जीवन से, रिश्तों से निराश टूटी-बिखरी अवसाद के घने अंधेरों में घिरी एक स्त्री को इस शहर ने आवाज़ दी, ‘आ जाओ’. जब खुद पर भरोसा न हो तब उनके भरोसे पर भरोसा करो जिन पर तुम्हें भरोसा है. यह बात एक बार प्रभात सर ने कही थी. बात साथ रह गयी. देहरादून से आवाज़ देने वाली स्वाति को भी शायद नहीं पता होगा कि उसकी आवाज़ में मेरी ज़िन्दगी बदल देने की ताकत है. दवाइयों की बड़ी सी पोटली लिए मैं इस शहर में दाखिल हुई. डरी, सहमी, सकुचाई. खुद पर रत्ती भर भी भरोसा नहीं बचा था. बस एक चीज बची थी आत्मसम्मान को सहेजने की इच्छा.

दवाइयों की गिरफ्त में सोयी रहने वाली इस टूटी-फूटी मन दशा की स्त्री को चाह थी कि सर पर हाथ फेर दे कोई और कह दे, ‘सब ठीक हो जाएगा. मैं हूँ’. और यह कहा शहर देहरादून ने. इस शहर ने मुझे मेरा होना महसूस कराया, मेरे भीतर धंसी अवसाद की परतों को आहिस्ता-आहिस्ता निकाला और मुझे आज़ाद किया. इस शहर के रास्तों ने मेरे आंसू संभाले, यहाँ की बारिशों ने मेरा माथा सहलाया. फूलों ने ज़िन्दगी में आस्था बनाये रखना सिखाया.

पहली बार कोई फैसला किया था अपने जीवन का जिसमें सिर्फ मैं शामिल थी और कोई नहीं. ऐसा फैसला जिससे कोई सहमत नहीं था. अच्छी खासी नौकरी, घर, अपना शहर सब छोड़ कर अनजान शहर जाने का फैसला आसान नहीं था. आसान नहीं था अविश्वास से भरे, लगातार पीड़ा देने वाले रिश्ते से हाथ छुड़ाकर निकलना. मेरे सामने अकेले अनजान शहर में छोटी सी बच्ची को लेकर आने के फैसले के मुकाबले तमाम सुविधाएँ थीं. शहर छोड़ने का, नए सिरे से सब शुरू करने का, संघर्ष की राह चुनने का विकल्प अंतिम विकल्प नहीं था. बहुत सारे और चमचमाते विकल्प भी थे लेकिन मैंने इस राह पर चलने को पहले विकल्प की तरह लिया क्योंकि मैं अपनी ज़िन्दगी को एक मौका देना चाहती थी. खुद को आज़मा कर देखना चाहती थी.

मैंने जीकर जाना है कि जब मन मुश्किल में हो तब अजनबी लोग, अनजान शहर बड़े मददगार होते हैं. अजनबी लोग आपसे सवाल नहीं करते, आपको बात-बात पर जज नहीं करते. वो आपको आपके अतीत के मद्देनजर नहीं परखते, वो आपको आज के व्यवहार व काम जानिब देखते हैं. इस शहर ने, यहाँ के लोगों की अजनबियत ने मरहम का काम किया.

पलटकर देखती हूँ, तो सारे ज़ख्म, सारी पीड़ाएं, सारी मुश्किलें मानो दोनों हाथों से आशीर्वाद दे रहे हों. मेरा सर झुक जाता है उनके आगे. उनके प्रति आभार से मन द्रवित हो जाता है कि क्या होती मैं अगर जीवन यूँ मुश्किल न होता. क्या होती मैं अगर जीवन में ठोकरें न मिली होतीं, धोखे न खाए होते. जब हम मरकर जीना सीखते हैं तब जीवन निखरता है, हम निखरते हैं. अब जब भी जीवन में कोई सुख का लम्हा आता है मैं उसका एक हिस्सा उन दुखों, उन चोटों को अर्पित करती हूँ जिन्होंने मुझे गढ़ा, जिन्होंने मजबूत बनाया.

यूँ देखा जाय तो ऐसा भी कुछ बुरा नहीं हुआ था मेरे साथ. जब अपने आसपास के लोगों को देखती हूँ तो सोचती हूँ इन सबके मुकाबले तो कितना कम सहा मैंने. ये सब लोग खासकर स्त्रियाँ कितना ज्यादा सहती हैं और उसे नॉर्मल होना ही मानती हैं. यह हमारी गढ़न की बाबत है. क्या पढ़े-लिखे लोग, क्या अनपढ़. क्या अमीर, क्या गरीब. यह सच में गढ़न का मामला ही है कि हमें सदियों से सहना सिखाया गया. वो हमारी आदत में है.

कितनी ही स्त्रियों को जानती हूँ जो गले तक दुःख, पीड़ा, अपमान से भरी हैं लेकिन एसर्ट करने की, उससे निकलने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहीं. हिम्मत न जुटा पाने की बात मानती भी नहीं कि उस हिम्मत न जुटा पाने को तमाम तर्कों में छुपा देती हैं. कभी बच्चों की परवरिश तो कभी कुछ और.

मैंने हमेशा चाहा कि रिश्ते साफ़ होने चाहिए. जैसे ही उनमें सलवटें पड़ने लगती हैं, वो सड़ने लगते हैं वो नुकसान पहुँचाने लगते हैं. ऐसे रिश्ते सबसे ज्यादा नुकसान बच्चों को पहुंचाते हैं. जिन बच्चों की खातिर हम रिश्तों को सहेजते हैं वो ही बच्चे उन रिश्तों से चोटिल हो रहे होते हैं.

उलझनों से हाथ छुड़ाना आसान नहीं होता. इसमें एक ईगो भी होता है कि अरे मेरे साथ ऐसा कैसे हो सकता है. मैं सब संभाल लूंगी. फिर हम और ताकत झोंक देते हैं सब सुलझाने में गुनगुनाते हुए ‘सुलझा लेंगे उलझे रिश्तों का मांझा...’. इस सुलझा लेने की, सब ठीक कर लेने की जिद का हासिल होता है और चोट, और घाव. क्यों यह सब ठीक कर लेने की जिद महिलाओं में ही ज्यादा होती है?

एक रोज इस ‘ठीक’ शब्द से इत्मिनान से लम्बी बात की. और समझ यह आया कि ‘ठीक’ की गढ़न को हम वैसा ही देखते हैं जैसे समाज हमें दिखाता है. यानी ऐसा करो यह ठीक है, ऐसे जियो यह ठीक है. अगर ऐसा नहीं हुआ तो वह गलत है. यह भी होता है कई बार कि ‘मेरे मन का ठीक’ यह है लेकिन इसे कोई और लाकर मेरी हथेली पर रख दे. गलत है यह. अपना ठीक खुद ही ढूंढना होता है. उसके लिए खुद ही चलना पड़ता है. रेडीमेड वाला ठीक भरम होता है ठीक का. मुझे लगा मैं जिस ‘ठीक’ के पीछे भाग रही हूँ असल में वो ठीक है ही नहीं. और यह बात समझने में एक उम्र खर्च हो गयी.

जब अपने मन का ‘ठीक’ तलाशने की सोची तो ढेर सारी चुनौतियों ने घेर लिया. लेकिन मेरे हाथ में मेरी नन्ही बिटिया की उंगली थी. उससे ताकत मिलती थी. बस उसी नन्ही सी उंगली को थामकर निकल पड़ी अपने हिस्से की जमीं, अपने हिस्से का आसमां तलाशने. यह आसान नहीं था, मुश्किल था. बहुत मुश्किल था लेकिन जरूरी था. और आज कह सकती हूँ कि बहुत अच्छा भी था.

अपने इस सफर की बाबत लिखते हुए मैं सोच रही हूँ उन सारी स्त्रियों के बारे में जिनका हक़ है एक बेहतर ज़िन्दगी जीने का लेकिन जो बरसों से सिर्फ रिश्तों के भीतर घुट रही हैं. हिम्मत नहीं कर पा रहीं. हर रोज जिस रिश्ते की चुभन आपको बेध रही है, उसके बारे में बात करने की, उसे सम्भालने की कोशिश करने की भी कोई तो सीमा होती होगी. हम भारतीय स्त्रियों की वह सीमा बहुत मजबूत है.

ज्यादातर स्त्रियाँ कविताओं में, कहानियों में, भाषणों में, किटी पार्टी में तो मजबूत दिखती हैं लेकिन असल जीवन में हार मान जाती हैं. जो जैसा है उसे वैसे निभाते जाने की सदियों पुरानी कंडीशनिंग और कम्फर्ट के चलते उन्हें सहते जाना आसान च्वायस लगती है शायद.

यह बात कहकर नहीं कही जा सकती कि जीने के लिए एफर्ट करना पड़ता है, जोखिम लेने पड़ते हैं. लेने चाहिए. वरना सांस लेने और जीने के फर्क को समझे बगैर न जाने कितने लोग जी ही रहे हैं. इन दस बरसों में जीवन ने मुझे बहुत सिखाया. रुलाया या हंसाया लेकिन कभी बिसराया नहीं. हाथ थामे रहा. तब भी जब मैंने जीवन का हाथ छोड़ दिया. तब भी यह साथ ही रहा. आज जीवन मेरे बगल में बैठा मुस्कुरा रहा है. मेरे कप की चाय से चाय पी रहा है. मैं उसे कहती हूँ, ‘ज्यादा इतराओ नहीं, मैंने भी तुम्हें दिल से सहेजा है.’ उसकी मुस्कुराहट बड़ी हो गयी है.

सांस सबके हिस्से आती है, जीवन सबके हिस्से नहीं आता. हालाँकि होता वो आसपास ही है. इन दस बरसों में मारीना का साथ रहा, रिल्के का साथ रहा. मौसम का साथ रहा. इन सारे साथ को महसूस कर सकूं इसके लिए मेरी माँ और मेरी बेटी का साथ रहा. मारीना कहती है, ‘जीवन जैसा है मुझे पसंद नहीं’ मैं उसके इस कहन का तात्पर्य कुछ ऐसे समझ पाती हूँ कि जीवन जैसा है उसे वैसे जीते जाने की बजाय उसे वैसा बनाओ जैसा उसे होना चाहिए, जैसा उसे तुम जीना चाहते हो. इसमें एफर्ट लगता है. कम्फर्ट टूटता है. हम टूटने से डरते हैं. मैं भी डरती रही. शायद अब भी डरती हूँ. लेकिन अब मैंने कुदरत पर भरोसा करना सीख लिया है. जब हम अपनी ज़िन्दगी के फैसले नहीं ले पाते तब कुदरत हमारी मदद करती है, बस उस मदद को देखना, समझना और अपनाना सीखना होता है.

मैं कोई बहुत मजबूत स्त्री नहीं थी. मुझे भी इसी समाज ने गढ़ा है. मुझे भी अच्छी लड़की बनकर जीना अच्छा लगता था. मैंने भी अच्छी बेटी, अच्छी बहू, अच्छी बीवी, अच्छी बहन, अच्छी भाभी बनने के लिए वो सब जतन किये जो फिल्मों में, धारावाहिकों में या आस-पड़ोस में देखे सुने थे. मैंने भी करवाचौथ के निर्जला व्रत किये, समर्पण के सुख का पाठ पढ़ते हुए जीने की कोशिश की. लेकिन कुदरत ने मेरे लिए कुछ और ही सोच रखा था शायद और तब मेरे ठहरे हुए जीवन में तूफ़ान आया. वो तूफ़ान जरूरी था. मध्यवर्गीय जड़ता भरे जीवन से निकलना मेरी जरूरत थी और मुझे इस बारे में पता भी नहीं था. वही सबको सुखी रखने में सुख ढूंढते हुए बूढ़ी हो जाने की मेरी पूरी तैयारी थी. तब कुदरत ने कहा, ‘उठो प्रतिभा’. मैंने मन ही मन सोचा. सब ठीक तो है. लेकिन यह जो सब ठीक है का भ्रम है न यही तोड़ना होता है. और उम्र भर इसे ही बचाए रखने के हम लाख जतन करते रहते हैं. कितनी ही बातों को अनदेखा करते हैं, कितने ही जख्मों से दोस्ती कर लेते हैं. मैंने भी कर ही ली थी शायद.

लेकिन जीवन को यह मंजूर नहीं था. वही जीवन जो इस वक़्त लैपटॉप में झाँक रहा है और कह रहा है मेरे बारे में और लिखो न. दुष्ट जीवन. प्यारा जीवन. तो जीवन को यह मंजूर नहीं था और वो मेरे जीवन में अविश्वास का, धोखे, अपमान का बवंडर लेकर चला आया. छोटे-छोटे दुखों के संग, गाहे-बगाहे होते रहने वाले छोटे-छोटे अपमानों के संग जीना सीखने में हम स्त्रियाँ माहिर होती हैं. हमें जगाने के लिए बड़े बवंडर जरूरी होते हैं. तो बस उस बवंडर के आगे मैंने घुटने टेकने से इनकार कर दिया और जीवन को चुन लिया. जीवन वो जिसमें अब और अपमान न हो, अविश्वास न हो. जीवन वो जो मेरा हो, जिसमें मैं हूँ. पहली बार निपट अकेले अपने लिए कोई फैसला लिया. और आज पलट कर देखती हूँ तो गर्व होता है अपने फैसले पर. अपनी यात्रा पर.

इन दस बरसों में मैंने सीखा कि हमें दुःख की आवाज़ सुननी नहीं आती. दुःख जो बेआवाज़ टूटता है. हमारे बेहद करीब मुस्कुराहट का लिबास पहने कोई उदास धुन गल रही होती है हम उसे पहचान नहीं पाते. हमें एक समाज के तौर पर यह सीखने की जरूरत है. मैंने जाना कि हम प्रवचन देने वाले लोग हैं. हर कोई प्रवचन की टोकरी उठाये आपके पास चला आएगा और आपको ज्यादा उदास करके चला जाएगा. कभी-कभी प्रवचनजीवियों ने उदासी को अपमानित भी किया है. एक दुःख का दूसरे दुःख से कम्पैरिजन करके हम क्या समझाना चाहते हैं पता नहीं. मैंने जीकर जाना है कि उदास व्यक्ति से कुछ भी कहने से बचना चाहिए लेकिन उसे सुनना जरूर चाहिए.

मुझे सुना अजनबी लोगों ने, रास्तों ने, मेरी डायरी ने. जिन्हें बिना जज किये, बिना ज्ञान दिए कोई सुनने वाला नहीं होता उनका जीवन सच में और ज्यादा मुश्किल होता होगा.

इन दस बरसों में मैंने समझा कि स्त्रियों को खूब एकल यात्राएँ करनी चाहिए. यूँ सबको ही करनी चाहिए लेकिन स्त्रियों को विशेषकर. क्योंकि स्त्रियों के पास ससुराल, मायके, शादी ब्याह या फिर फैमली ट्रिप के अलावा कोई अवसर नहीं होता यात्रा का. इस वजह से उन्हें जब अवसर मिलता भी है तो वो यात्रा की चुनौतियों को स्वीकार नहीं कर पातीं. मैंने जीकर जाना है कि जीने के लिए मरना भी जरूरी होता है. पानी का स्वाद प्यासे को ही पता होता है. धूप में भटकने के बाद ही छाया की तासीर समझ आती है. घुटने फोड़ने के बाद ही ठीक से चलने का शऊर आता है. और इसका कोई नियम नहीं कि कब, किसे, किस फैसले की ओर बढ़ना चाहिए. या रिश्तों से अलग होना ही जीवन है. रिश्तों में रहते हुए या रिश्तों के बिना आत्मसम्मान से समझौता तो नहीं किया जाना चाहिए.

यह तो नहीं जानती कि अब भी मैं कितनी मजबूत हो सकी हूँ लेकिन इतना जरूर जानती हूँ कि मेरी बेटी को मुझ पर, मेरे फैसलों पर गर्व है. मुझे सुकून है इस बात का कि मैंने कभी भी जीवन के किसी भी मोड़ पर दोहरा जीवन नहीं जिया. न लिखने में न जीने में. इसकी चुनौतियाँ कम नहीं थीं, कम नहीं हैं लेकिन उन चुनौतियों के बरक्स जो जरा सा सुख है न, सुकून है वो गाढ़ी कमाई है.

जीवन फिर सामने खड़ा है ढेर सारी नयी चुनौतियां, नई ठोकरों को लिए. मैं जानती हूँ वो मुझे अभी और मांजना चाहता है. मैं तैयार हूँ...

(वर्तमान साहित्य के अप्रैल 2022 के अंक में प्रकाशित आत्मकथ्य)


2 comments:

Hari mukh Meena said...

🙏

Onkar said...

वाह, बहुत सुंदर