Tuesday, May 10, 2022

वो मुझमें रहती है मैं बनकर


आना सिर्फ एक शहर से दूसरे शहर आना नहीं होता. आना होता है सांस लेने में जिन्दगी बनकर. हमें खुद न पता हो हमारी प्यास का और कोई दरिया बहता चला आये प्यास बुझाने ऐसा भी होता है कभी. ऐसे ही दिन थे, छलके-छलके से अटके भटके से. न किसी से बात करे न मिलने का. बस कि अपनी चुप की नदी में चुपचाप पड़े रहने को दिल करे. ऐसे वक्त में किसी दोस्त का आना और अपनी पलकों से छूकर लम्हों को परों से हल्का बना देना क्या तो सुख है. सुख जिसका नाम है श्रुति.

यह श्रुति की भोपाल से देहरादून की यात्रा नहीं थी. यह एक एकल आत्मा की दूसरी एकल आत्मा तक की यात्रा थी. एकांत का सुंदर सुर लगा रहा इसमें. इस सुर में हम डूबते-उतराते रहे. कोई हड़बड़ी नहीं बस कि साथ का एहसास. उसे किसी टूरिस्ट स्पॉट देखने में कोई रुचि नहीं उसे सिर्फ मेरे पास रहना था.

जैसे कितने बरसों से ऐसे किसी साथ की तलाश थी. साथ जो घुल जाए वजूद में. घर में. शहर में. वो मुझे दूसरी नहीं लगती मेरा ही एक हिस्सा लगती. मुझसे बेहतर होकर जो मुझे मिला हो.

लम्बे अरसे से अकेले रहते हुए कुछ ऐसा हो गया है मन कि अब किसी का भी होना असहज करने लगा है. ऐसे में खुद को थोड़ा समेट लेती हूँ और किसी के साथ के बीतने का इंतजार करने लगती हूँ. लेकिन श्रुति तुम्हारे साथ होकर समझ में आया कि इकसार होना कैसा होता है. इसका कैसा तो सुख होता है. और सबसे सुंदर बात यह कि यह सब इतना एफर्टलेस है. जैसे एक ही वक़्त पर चाय की तलब लगना, एक ही वक़्त पर नज़रें उठाकर देखना एक-दूसरे को, एक ही वक़्त पर पलकें झपकाना और हथेलियों को थाम लेना. इकसार होना ऐसा ही होना चाहिए.

तुम्हारे साथ बैठकर खुद की जकड़नों को करीब से देखा है उनसे आज़ाद होने की तरफ पहला कदम बढ़ाया है. तुम्हारे साथ रहकर जाना है कि साथ होने के असल मानी कैसे होते हैं जब किसी के साथ होकर हम पहले से ज्यादा तरल और सरल होने लगते हैं, हमारे माथे की लकीरें चमक उठती हैं.

अब जबकि तुम चली गयी हो वापस तो देखो तो किस कदर छूट गई हो यहीं. बिखरी पड़ी हो घर के कोने-कोने में, शहर के हर हिस्से में, मेरी मुस्कुराहटों में.

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