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इन दिनों आँखें नम रहती हैं...सबसे इनकी नमी छुपाती हूँ, गर्दन घुमाती हूँ, बातें बदलती हूँ कि कोई सिसकी कलाई थाम लेती है. फिर तन्हाई चुराती हूँ थोड़ी सी...आँखों के बाँध में फंसी नदी को खुला छोड़ती हूँ...फिर रोती हूँ...फिर और रोना आता है. जाने कैसी उदासी है...जाने कैसा मौसम मन का. कुछ समझ नहीं आता कि बस इस उदासी के सजदे में झुक जाती हूँ. ये सुख की उदासी है. सुख जब भी आते हैं अपने साथ उदास नदियाँ लेकर आते हैं.
इन दिनों ऐसे ही सुखों से घिरी हूँ कि आँखें हर वक़्त डबडब करती रहती हैं. क्या है आखिर मुझमें ऐसा? मुझे प्यार की आदत नहीं पड़ी है. सुख की आदत नहीं पड़ी शायद. जब भी प्यार, अपनेपन, सम्मान, स्नेह की बारिशें मुझे भिगोती हैं मैं उदास हो जाती हूँ. कहीं छुप जाना चाहती हूँ. सम्भलता नहीं प्रेम. भरी-भरी आँखों से प्रेमिल लोगों को देखती हूँ. सोचती हूँ इन्हें मुझमें क्या नज़र आता होगा आखिर. क्योंकर मुझे करते हैं इतना प्रेम. ये इन सबकी ही अच्छाई है, मुझमें तो ऐसा कुछ भी नहीं. और फिर आँखें छलक पड़ती हैं.
प्रेम के कारण रुलाने वालों में सबसे नया नाम जुड़ा है विनोद कुमार शुक्ल जी का.
मेरी आँखों में जो गिने चुने सपने थे, जीवन में जो गिनी चुनी ख्वाहिशें थीं उनमें से एक थी विनोद कुमार शुक्ल से मिलने की ख्वाहिश. कई बार ऐसे अवसर बने कि उनसे मिलना होता लेकिन वो अवसर बगलगीर होकर गुजरते रहे. जाने किस लम्हे की तैयारी में कितने लम्हे हमसे छूटते जाते हैं.
इस बार यात्रा की बाबत मैं वहां से लिखूंगी उस अंतिम दृश्य से जो आँखों में बसा हुआ है, फ्रीज हो गया है. रायपुर में विनोद जी के घर से विदा होने का वक़्त. उनका वो जाली के पीछे खड़े होकर स्नेहिल आँखों से हमें देखना और कहना ठीक से जाना, फिर आना. सुधा जी के गले लगना, शाश्वत का कहना मैं चलता हूँ छोड़ने. बमुश्किल उसे मनाना कि तुम रहो यहीं, हम चले जायेंगे.
जैसे नैहर से विदा होती है बिटिया कुछ ऐसी विदाई थी. गला रुंधा हुआ था. और जब तक नजर में रहीं सुधा जी तब तक विदा का हाथ हवा में तैरता रहा.
लौटते समय हम इतने खामोश थे कि हमारी ख़ामोशी के सुर में हवा का खामोश सुर भी शामिल हो गया था.
(जारी...)
3 comments:
samvedana ka milan raha samvedana se! Medha ka medha se!
वाह स्नेह स्नेह से मिलना
मन से जुड़ता है आपका लेखन🙏🏻
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