Tuesday, May 3, 2022

प्रीतम का कुछ दोष नहीं है...



ये ईद की सुबह है. सुबह में मोहब्बत के रंग घुले हैं. अलसाई आँखों ने बड़े बेमन से नींद से दामन छुड़ाया है. सुबह की चाय में आज अलग ही बात है. एक शांति है. सुकून है. देर तक देखती हूँ फलों से लदी डालियों को. कोई हलचल नहीं वहां. सामने सूरजमुखी के बागीचे में भंवरों की टोली डोल रही है. रात भर खिलखिलाती जूही भंवरों की मटरगश्ती देख मुस्कुरा रही है.

मैं अपनी हथेलियों को देखती हूँ. खाली हथेलियाँ. जीवन की नदी में एक-एक कर सब लकीरें गुमा आयीं हथेलियाँ. बिना लकीरों वाली हथेलियाँ खूबसूरत लग रही हैं. ये खाली हथेलियाँ अब नयी लकीरों की मुंतज़िर नहीं. ये लम्हों पर ऐतबार करना नहीं चाहतीं बस उन्हें दूर से देखना चाहती हैं. लम्हों की आवक-जावक जारी है. कोई लम्हा टूटकर गिरता है एकदम करीब जैसे कई बरस गिरा था पलाश का फूल. सिहरन महसूस होती है. दूर से बैठकर लम्हों को आते-जाते देखना सुख है. उनसे मुत्तासिर न होना अभ्यास है. यह ज़िन्दगी के रियाज़ से आता है.

सोचती हूँ लम्हों के कंधों पर उम्मीदों का बोझ न डालना भी तो सुख है. यह बेज़ारी तो नहीं. तो क्या यह निर्विकार होना है. सुख में होना और उससे मुब्तिला न होना. यह आसान नहीं. ज़िन्दगी का रियाज़ आसान नहीं. लेकिन क्या ज़िन्दगी आसान है?

एक दोस्त ने सुबह-सुबह नुसरत साहब की आवाज़ भेजी है. मैं उसे कहती हूँ नुसरत साहब तो असाध्य रोग हैं...लग जाए तो छूटता नहीं. वो हंस देता है. उसे मेरी बातें जरा कम समझ में आती हैं. वैसे मुझे ही कौन से अपनी बातें समझ आती हैं. सच कहूँ तो इस समझने ने बड़ा नुकसान किया है. तो जरा नासमझ होकर देखते हैं ज़िन्दगी के खेल...नुसरत साहब कह रहे हैं प्रीतम का कुछ दोष नहीं है...

जीवन ही तो प्रीतम है...और वो तो है निर्दोष...

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