Friday, May 6, 2022

अभिसारिका

पेंटिंग- सुकांत दत्त साभार गूगल  

वह न रातरानी की गमक थी
न मोगरे की लहक
उसकी गुलमोहर सी आतिशी रंगत में 
आ मिली थी अमलतास की खिलखिलाहट 
धरती पर बजती रहती थी 
हरदम उसकी मुस्कुराहटों की पाज़ेब 

बारिश की धानी ओढ़नी 
लहरा रही थी इस छोर से उस छोर
उसके होंठों पर 
रखे थे हिमालय ने बर्फ के टुकड़े 
सूरज की पहली किरन ने 
सजाई थी उसकी मांग 

बेवजह मुस्कुराना 
मुस्कुराते ही जाना 
उसकी झोली में आ गिरा था 
ठीक उस वक़्त जब 
वो अपने जूड़े में लगाने के लिए 
बीन रही थी उदास फूल 

यह विरहणी के 
अभिसारिका बनने की रात थी 
नहीं वो तुम्हारे प्रेम में हरगिज़ नहीं 
तुमने तो गलती से 
उसके भीतर के इतर की शीशी को 
खोल भर दिया
यह प्रेम का इतर उसका अपना है  
लेकिन तुम अब उसकी खुशबू में  
महकते रहोगे उम्र भर 

अभिसारिका और विरहणी 
दोनों प्रेम की एक ही नदी का नाम हैं 
जो अपने समन्दर की तलाश में सदियों से 
बहे जा रही है...  

4 comments:

अनीता सैनी said...

जी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(०७-०५-२०२२ ) को
'सूरज के तेवर कड़े'(चर्चा अंक-४४२२)
पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर

Anuradha chauhan said...

बहुत सुंदर अभिव्यक्ति।

ज्योति-कलश said...

बहुत सुन्दर

Onkar said...

वाह, बहुत सुंदर रचना