पूरे दस घंटे सोकर उठी हूँ. थोड़ा सुकून थोड़ा आलस भरा है शरीर में. रात भर बारिश हुई और बारिश की थपकियों के बीच कम्बल ओढ़कर सोना अलग ही सुख देता है. मुझे यह सुख चाहिए. यह मेरे ही हिस्से के सुख हैं. पहले इन छोटे-छोटे सुखों के बारे में पता नहीं था, बाद में जब पता चला तो ये सुख मुझसे खो गये. अब मुश्किल से मिले हैं तो मैं इन्हें जोर से पकड़े रहना चाहती हूँ.
जो किताब पढ़ रही हूँ न 'बहुत दूर कितना दूर होता है' वह मुझे दूसरी दुनिया में घुमाते हुए हर रोज मेरी ही दुनिया की दहलीज पर लाकर छोड़ रही है. मैं धीरे-धीरे पढ़ रही हूँ. जैसे स्वादिष्ट खाना देर तक चुभला-चुभला कर आराम से खाते हैं न वैसे ही. उस खाने के सुख में उसके खत्म हो जाने या पेट भर जाने का भय भी शामिल होता है. ऐसी किताबों को पढ़ते हुए पेट तो नहीं भरता वैसे और ये खत्म भी नहीं होतीं. ऐसी किताबों की बात करते हुए मुझे धुंध में उठती धुन, चीड़ों पर चांदनी, वॉन गॉग के खत, रिल्के खत याद आते हैं. ये कभी खत्म नहीं हुए. इन्हें कभी भी उठा लो, कोई भी पन्ना जो पहले भी बीसों बार पढ़ा जा चुका है फिर से पढना शुरू किया जा सकता है. पहले पढ़ा जा चुका इस नए पढने से अलग होता है इसलिए नए सिरे से पढने पर कुछ अलग सा ही महसूस होता है. फिर भी इन्हीं ठहर के पढना सुखकर होता है.
एक रोज जब मैंने पहाड़ की बारिशों के बारे लिखकर पूर्णविराम लगाया और चाय बनाने उठी तो ऐसा लगा बारिशों की खुशबू घुली है पूरे घर में. फिर चाय पीते हुए 'जब बहुत दूर कितना दूर होता है' को बुकमार्क लगाकर रखी गयी जगह से खोला तो वहां पहाड़ की बारिशों का जिक्र था. फ़्रांस में घूमते हुए वहां के पहाड़ों के करीब जाते हुए उत्तराखंड के पहाड़ों की याद थी वहां. एकदम वैसा ही मह्सूस हुआ जैसे एडिनबरा की खूबसूरत बारिशों के बीच से गुजरते हुए हरे के विशाल समन्दर में प्रवेश करना और देखना वहां के पहाड़ों को. सच, कितने मोहक पल थे वो. जैसे कोई पेंटिंग थी सामने और हमें उसमें चुपके से इंट्री मिल गयी हो. आँखों में कोई नमी उतर आई थी वो नमी अभी इस पल उस पल की याद बनकर साथ है. तब मुझे भी अपने उत्तराखंड के पहाड़ याद आये थे. एक जुडाव और अपनापन है यहाँ के पहाड़ों में.
तो इस वक्त स्कॉटलैंड, फ़्रांस और देहरादून सब साथ चलते रहते हैं. मेरी चाय में मानव की कॉफ़ी का स्वाद जाने कहाँ से आकर घुल जाता है. शायद यही वजह होगी कि इन दिनों कॉफ़ी पीने की इच्छा बढ़ने लगी है.
सारा दिन खबरों से भागती फिरती हूँ आजकल. खबरें मुझे उदास करती हैं, लेकिन हर कोई जानबूझकर न देखी गयी खबरों को कानों में ठेलता रहता है. कोई वाटसप ज्ञान, कोई फेसबुक ज्ञान टीवी. मैं चीखकर कहना चाहती हूँ कृपया मुझे सूचनाओं से न भरें. मैं खुद को खुद के लिए बचा रही हूँ. ये खबरों से भागना मेरी कायरता हो सकती है, लेकिन इस समय मुझे कायर कहलाया जाना मंजूर है. मैंने बमुश्किल उदासियों से पीछा छुडाया है.
इस जजमेंटल होती दुनिया में खुद के लिए एक ऐसी जगह सहेजना जहाँ आप जैसे हैं वैसे ही सांस ले सकें कितना मुश्किल है. मुझे लगता है उदास होना आंतिरक क्रिया है लेकिन वह बाहरी अतिरेक होकर फैलने की हडबडी में तब्दील हो रही है. जब उदासी एक बाजार में तब्दील होने लगती है जिसमें हमारी भी भूमिका होती ही है भले ही उसे कोसते हुए ही सही तब हम वैसी ही अन्य उदास ख़बरों के लिए जगह बना रहे होते हैं.
मुझे इस बाजार से डर लगता है. भावनाओं के बाज़ार से सबसे ज्यादा. उफान से डर लगता है. मैं किसी व्यक्ति से बात करने की बजाय पेड़ों से बात करना, बादलों को देखना या नदी के किनारे बैठते हुए खाली आसमान को देखना पसंद करूंगी. मैं लोगों के जीवन में नदी, पेड़ या बादल होकर शामिल होना चाहूंगी.
सर थोड़ा भारी होने लगा है. बेहतर है मैं एलेक्स के साथ Alps की सफ़ेद पहाड़ियों का रुख करूँ. अरे हाँ, यह बताना तो मैं भूल ही गयी कि लीचियां पेड़ों से उतरकर घर आ गयी हैं...खाने से ज्यादा उन्हें देखने का सुख है.
1 comment:
सहज मनोभाव
बढ़िया लेख
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