Wednesday, April 29, 2020

सुनना सीख रही हूँ


इन दिनों कुछ भी नया पढने में मन रुच नहीं रहा. पुराने की ही फिर-फिर पलट रही हूँ. रिल्के, निर्मल वर्मा, लोर्का और वॉन गॉग ज्यादा साथ रहते हैं. गॉग अपने भाई को लिखे खत में कहते हैं, क्या हम पढ़ना जानते हैं? सचमुच हमेशा यही तो सोचती रही कि क्या हम पढ़ना जानते हैं? क्या हमने सुनना सीखा है? क्या हमने देखना सीखा है? सब कुछ तो सीखना बाकी ही है. हम जिन चीज़ों को पढकर खुश हुए, उनमें रम गये, आहलादित हुए, दिल दे बैठे उन्हें खोलकर देखा तो पाया कि इसमें तो हजार दिक्कतें थी. दिक्कतें दिखीं क्यों नहीं? जिन बातों से प्रभावित हुए जिन लोगों से उनमें भी हजार दिक्कते थीं. जिन बातों को सुन-सुनकर बड़े हुए, जो रगों में लहू के साथ दौड़ने लगीं उनको कभी परखा ही नहीं. ये सब देखना, सुनना, पढना जो जो बचपन से जारी है जिसने हमें गढा है उसमें हजार दिक्कतें रहीं. बस दिखी नहीं. क्योंकि हमें तो सिर्फ आँख भर देखना, शब्द भर सुनना, और पढना सिखाया गया था. वो भी वैसे,जैसे बताया गया है.

हम खुद से सवाल करने वाले लोग नहीं हैं, अपने कार्य, व्यवहार को पलटकर देखने और उसे तराशने के लिए कोशिश करने वाले लोग नहीं हैं. हम खुद को खुदा समझने वाले लोग हैं. व्यक्ति के तौर पर, समूह के तौर पर. पिछले दिनों कुछ साथियों से पढने लिखने ख़ासकर साहित्य पढने को लेकर बात कर रही थी. और सोच रही थी कि अभी तो पढने की बात भर है कि साहित्य पढना हमें निखारता है, संवेदनशील बनाता है. वो बात तो हुई ही नहीं कि साहित्य में भी काफी घपलेबाजी है. उसे अलग से देख पाने के लिए बहुत पैनी नजर और नाजुक नजरिया चाहिए. कि अभी तो सवाल वहीं तक पहुंचे कि क्या कुछ भी जो छप गया वो साहित्य है, सेल्फ हेल्प किताबें भी साहित्य हैं क्या? कितनी लम्बी है वो यात्रा जब सवाल आएंगे कि देवदास हीरो क्यों था? शरतचन्द्र, रविन्द्रनाथ टैगोर की कहानियों की नायिकाएं ऐसी ही क्यों हैं? कविताओं में स्त्रियाँ दुःख और करुणा की इमेज में ही क्यों कैद हैं. समर्पण का सुख ही क्यों है स्त्री का सुख और क्यों नायिकाओं के सौन्दर्य पर इतना ध्यान दिया गया है. क्यों प्रेमिकाओं और पत्नियों के बीच एक जंग छिड़ी रहती है कहानियों में और पाठकों को जोड़े रखती है. क्यों नख शिख वर्णन इतना स्पेस घेरता है, जुझारूपन क्यों नहीं जगह घेरता.

हमें क्या पढ़ाया जा रहा है, क्या दिखाया जा रहा है, कैसा साहित्य, कैसा सिनेमा और उसे अलग से पहचान पाना हम कब सीख पायेंगे आखिर? बहुत दूर लगता है यह सब. सोचती रहती हूँ लेकिन शायद मैंने अब तक अपनी बात को ठीक से कहना सीखा नहीं.

इन दिनों मोनिका कुमार को पढ़ रही हूँ. मोनिका मेरे मन की वो सारी बातें लिख रही हैं जिन्हें मैंने अब तक कहना सीखा नहीं. जितना मैं सोचती हूँ, सोच पाती हूँ उससे भी आगे की बात लिख रही हैं मोनिका. लिखे हुए को, पढ़े हुए को, देखे हुए को वो उधेड रही हैं. हमें यह उधेड़ना सीखना है. हाँ जरूर है किसी बात को ख़ारिज करने के लिए उस बात को तफसील से जानना बहुत जरूरी है.ऐसा मालूम होता है जिन्दगी की कक्षा में पहले दर्जे की विद्यार्थी हूँ. हूँ ही. 

मुझे चिड़ियों की आवाज सुनना अच्छा लगता है. मैं उनकी आवाज में आवाज मिलाना सीखना चाहती हूँ. मुझे झरने की आवाजें पसंद हैं मैं झरने की आवाज को झरने के संग पीना चाहती हूँ. इन आवाजों से हमें भिड़ना नहीं पड़ता, सवाल नहीं करने पड़ते. ये प्रकृति की पवित्र आवाजें हैं. काश हम प्रकृति जैसे हो पाते.

पता है, आज पूरे 32 दिन बाद घर के बाहर कदम रखे. सड़क पर. खामोश सड़क पहले कब देखी थी याद नहीं. हैवलॉक की याद आई. ऐसी ही ख़ामोशी थी वहां. हरियाली और खुशबू में लिपटी हुई सड़कें. पीले, गुलाबी, बैंगनी और लाल फूलों से सजी हुई सड़कें. एक पेड़ के नीचे से गुजरते हुए मेरी पलकें भीग गयीं. जानते हो क्यों...धरती पूरी लाल फूलों से पटी पड़ी थी. मैं कुछ फूल चुनने लगी. कुछ फूल मेरे ऊपर भी गिरे. मैंने आज फूलों के गिरने की आवाज सुनी.

तुमने कभी सुनी है आवाज? फूलों के गिरने की आवाज? मैं सुनना सीख रही हूँ इन दिनों...

4 comments:

ANHAD NAAD said...

मैं आकाश पुत्री नाचते कदमों से
चल अाई हूं पूरी पृथ्वी
फूलों का हार लिए इस तरह
कि क्षति नहीं पहुंचाई एक भी कोंपल को.
(मारिना त्स्वेतायेवा)

दिलबागसिंह विर्क said...

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 30.4.2020 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3687 में दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।

धन्यवाद

दिलबागसिंह विर्क

Onkar said...

सुन्दर रचना

neera said...

पढ़ना, लिखना बहुत कुछ सोचना... शिद्दत, पारदर्शिता और इंसानियत को साँसों में भर, सच्चाई की स्याही में डूबे शब्दों को ब्लॉग पर परोसना ... हम जैसे निकम्मो के कंधे झंझोड़ना, सोचने पर मजबूर करना … ओह!