सुबह की चाय के साथ ढेर सारे सवाल लिए लॉन के उस कोने में बैठी हूँ जो मुझे दिन भर ललचाता है. फूलों से भरा कोना. मुझे यहाँ बैठना असीम सुख से भरता है. फूलों से भरी क्यारियों के बीच बैठना, चाय पीना, पंछियों की तस्वीरें खींचना, फिर कुछ देर अख़बार पलट चुकने के बाद वॉन गॉग से गप्पें लगाना. गॉग कहता है 'हमें पढ़ना सीखना चाहिए, ठीक उसी तरह जैसे हमें देखना चाहिए.' वो ठीक कहता है. हमें साँस लेना भी सीखना चाहिए, भूख को महसूस करना भी. जो है के उस पार देखना उसे जो नहीं है...या ठीक इसके उलट भी.
बहुत सारा लालच रहता है इन दिनों ज्यादा जी लेने का. कि जिन्दगी का भरोसा तो कभी नहीं रहा लेकिन इन दिनों अविश्वास बढ़ गया है. हर दिन को आखिरी दिन की तरह जीना चाहती हूँ, जीते हुए सुख से भर उठती हूँ फिर अचानक गालों पर कुछ बहता हुआ महसूस करती हूँ. कुछ पिघल रहा है भीतर.
संगीत सुनने जाती हूँ तो मेहँदी हसन, जगजीत सिंह, किशोरी अमोनकर, कुमार गन्धर्व सबको सुन लेना चाहती हूँ, मालकोश, भैरवी, तिलक कामोद , सारंग सारे राग फिर से जीवन में घोल लेना चाहती हूँ कि अचानक प्रहलाद टिपनिया कबीर गुनगुनाने लगते हैं. सुबह जल्दी से बीत जाती है....इसे न जाने कहाँ जाने की जल्दी है.
पढ़ने की कोशिश में लोर्का, ब्रेख्त, अन्ना अख्मतोवा, फहमीदा रियाज, निर्मल वर्मा, लाल बहादुर वर्मा, विनोद कुमार शुक्ल, वॉन गॉग सब आपस में गुंथ जाते हैं. इन सबके बीच से निकलकर चुपचाप किसी पेड़ के नीचे बैठकर सामने वाले पेड़ पर बैठे शरारती कबूतरों के खेल देखने लगती हूँ.
आजकल दिन के खाने की छुट्टी है. यह बेटी का बनाया हुआ नियम है. उसे बहुत सारे लोगों की भूख महसूस होती है. उसने एक वक़्त का खाना स्थगित किया है. उसका नियम मुझे पसंद है. वो कहती है इसी देश में कितने लोग भूख से लड़ रहे हैं और हम...चारों पहर ठूंस रहे हैं. मैं चुप रह जाती हूँ. यूँ एक वक़्त के खाने का गायब होना काफी राहत लेकर आया है. घरेलू काम घटे हैं और इस बचे हुए समय में जेहनी उथल पुथल बढ़ गयी है.
ज्यादा देख पा रही हूँ अपने ही विचारों पर पड़ी धुंध को. कितनी परतें हैं अभी जो अस्पष्टता बनाये हुए हैं. हमारे विचार भी कहाँ साफ हैं. बस इतना ही समझ सकी हूँ खुद से, ईमानदारी से कि बहुत सीखना, बहुत जानना शेष है, जिन्दगी की पहली कक्षा की विद्यार्थी हूँ...थोड़ी कन्फ्यूज़, थोड़ी बेशऊर...
कितना कुछ कह रहा है यह जीवन...
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