Wednesday, April 8, 2020

लॉकडाउन में खुलना भीतर के तालों का


अरसे बाद सुबहों को सुन पा रही हूँ. शामों में जो एक धुन होती है न शांत सी, मीठी सी उसे गुनगुना पा रही हूँ. चाय की मिठास में पंछियों की चहचआहट घुल रही है. वक़्त के पीछे भागते-भागते वक्त को जीना भूलने लगे थे हम शायद. आज वक्त मिला है खुद को समझने का है. अपने आप से बात करने का है. सोचने का कि मशीन की तरह यह जो हम भागते जा रहे थे, उसके मानी क्या थे आखिर. द्वेष, ईर्ष्या, बैर इन सबका अस्तित्व क्या है आखिर. जीवन बहुत कीमती है. इसे प्यार करना, लम्हों को युगों की तरह जीना, लोगों को अपने होने से बेहतर महसूस करवा सकना और क्या?

इससे बात करना पसंद नहीं, उसने ऐसा क्यों कहा, वो ऊंचा है, वो फलां धर्म का है, मैंने तो हमेशा सबके लिए अच्छा किया फिर मेरे साथ ऐसा क्यों हुआ...जैसे जाने कितने ख्याल हैं जो हमें बेहतर मनुष्य होने से रोकते हैं. जाहिर है ये ख्याल हम लेकर तो नहीं जन्मे थे, ये सब यहीं मिले हमें सामाजिकता, दुनियादारी के वैक्सिनेशन के बाद. हम वो विचार और व्यवहार अपना समझकर ढोने लगे जो न हमारे थे न हमारी च्वायस थे. तो हम अपने भीतर किसी और को जी रहे हैं इतने बरसों से?

यह मुश्किल वक़्त हमसे कुछ कहने आया है. इतना विनाशकारी वायरस भी हमें कुछ सिखा रहा है कि वो हमें सिर्फ मनुष्य के तौर पर पहचानता है. उसके लिए इस बात के कोई मायने नहीं कि आप किस देश के, किस राज्य के, धर्म के, जाति हैं. कौन से ओहदे पर हैं और क्या सामाजिक आर्थिक हैसियत है आपकी? उसके लिए हमारा मनुष्य होना ही काफी है. और हम न जाने कितने खांचों में बंटे हैं. एक पिघलन सी महसूस हो रही है भीतर. जी चाहता है अपने सब जानने वालों से जोर-जोर से बोलूं कि उनसे प्यार है. सबसे माफिया मांग लूं कि कभी दिल दुखाया हो शायद मैंने. कहूँ कि देखो न आज गले भी नहीं मिल सकते और गले मिलने के वो सारे लम्हे जब पास थे, हमने उन लम्हों को झगड़ों में गँवा दिया.

यह वक़्त हमें वो सिखाने आया है जो सीखने को लोग न जाने कितने पुस्तकालयों की ख़ाक छानते रहे, कितने वृक्षों के नीचे धूनी जमाने को भटकते रहे. मनुष्यता का पाठ.

अभी कुछ ही दिन पहले हमने दंगों की आग देखी है, बर्बर हिंसा देखी है. हिंसा बाहर बाद में आती है पहले वो भीतर जन्म लेती है. वो किसी भी बहाने बाहर फूट पड़ने को व्याकुल होती है. यह समय अपने भीतर की उस हिंसा को समझने का है, उसे खत्म करने का है.

यह वक्त गुजर जाएगा. यकीनन हम वापस अपनी जिंदगियों में लौट आयेंगे. सब पहले जैसा हो जायेगा. लेकिन...क्या हमें सब पहले जैसा ही चाहिए? क्या हमें पहले से बेहतर दुनिया नहीं चाहिए. मेरी दोस्त बाबुशा कहती है आपदा का यह समय बीत जाने के बाद यदि हम बचे रह जाएँ, और हम एक बदले हुए मनुष्य न हों तो मरना बेहतर है. सच ही तो कहती है वह.
यह वक़्त अपने भीतर नमी को सहेज लेने का है, उन सबके प्रति प्रेम से भर उठने का जिनके प्रति कभी भी जरा भी रोष रहा हो. क्या होगा इस हिसाब-किताब का कि किसने क्या कहा, किसने क्या किया.
अपने भीतर के विन्रमता के पौधे को, मनुष्यता के पौधे को खूब खाद पानी देने का समय है. जी भर कर रो लेने का, प्यार से भर उठने का समय है. यह समझने का भी कि हमारे ईश्वर, अल्लाह, नानक ने हमें हमारे ही हवाले किया है, हमारी चेतना और संवेदना के हवाले. सोचना है कि हम उनके नाम पर कर क्या रहे हैं.

सामाजिकता ने हमारे भीतर जो खांचे बनाये हैं जिनमें न जाने कबसे हम अनजाने ही लॉकडाउन हैं उनसे खुद को मुक्त करना है. हम बेहतर मनुष्य होकर लौटेंगे और ज्यादा ऊर्जा और सकारात्मकता से काम पर जायेंगे. अपने भीतर पनप रहे नाकारात्मकता के वायरस को खत्म करके हाथ भी मिलायेंगे, गले भी मिलेंगे.

यकीनन इस बार हम पहले से बेहतर मनुष्य होकर मिलेंगे.

4 comments:

पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा said...

बेहद सुन्दर, समसामयिक व संवेदनशील लेखन।

Onkar said...

सुन्दर प्रस्तुति

कविता रावत said...

काश कि इतना देखने सुनने जानने के बाद भी हम बेहतर मनुष्य हो सके
बहुत अच्छी चिंतनपरक प्रस्तुति

विश्वमोहन said...

वाह!!!