Monday, April 20, 2020

यह दुनिया क्या हम बदल पायेंगे...?


हल्की हरारत सी महसूस हो रही है. बदलते मौसमों की आहट है. देह से होकर तो गुजरेगी ही हमेशा की तरह. सामान्य है सब लेकिन कहाँ सामान्य रह गया है कुछ भी. पिछले दिनों एक खबर देखी थी. एक सज्जन को कुछ भी नहीं हुआ था बस जरा हरारत थी, उन्होंने सतर्कता और जिम्मेदारी के चलते सोचा जांच करा लें...उसके बाद उन पर क्या क्या न बीती...15 माह की बच्ची को घर छोड़कर टेस्ट कराने गये थे लेकिन कहाँ कहाँ न धक्के खाते फिरे...7 दिन बाद रिपोर्ट मिली. हालात ऐसे कि जिस प्रक्रिया में जहाँ जहाँ और जिनके साथ उन्हें रखा गया न होता तो भी हो ही जाना था विषाणु से सामना.

कैसा तो समय है, कैसे मनुष्य हैं हम और कैसे हैं हमारे इंतजामात?

मनुष्यता की तो क्या ही कहें, कुछ रोज पहले एक दोस्त ने बताया कि उसके मोहल्ले में कुछ संस्थाएं आयीं राशन बांटने. उन्होंने मोहल्ले के कुछ रसूख वालों को दे दिया राशन और खुश होकर दान देने वाले सुकून को लेकर, मदद कर दी इसका सुख लेकर चले गये. दोस्त ने बताया कि राशन मोहल्ले के कुछ घरों में आपस में ही बंट गया. जरूरतमंदों को तो महक तक न पहुंची.

हालात यहाँ तक आ पहुंचे कि देने वालों में देने की होड़ लगी है लेकिन भूख तक खाने के पहुँचने का रास्ता इतना लम्बा है कि लोग दम तोड़ रहे हैं. हालाँकि उनके बीमारी से भूख से गरीबी से मरने की ख़बरें भी छुपा दी गयी हैं.

प्रकृति चिल्ला चिल्ला कर बता रही है कि कमीनों अब तो सुधर जाओ, इन्सान बन जाओ, इन्सान के भेष में हैवान न हो, ये जो गरीब हैं न इनका कोई धर्म नहीं है, इनकी कोई जाति नहीं है...कमरों में बैठकर चैनल बदलते हुए, लाइव होते हुए थोड़ा बहुत दान करके आप इस पीड़ा को समझ नहीं सकते जब तक दिल की धडकनों को थोड़ा गौर से नहीं सुनेंगे.

एक खबर पढ़ी थी कुछ दिन पहले, एक गरीब ने दान लेने से इनकार कर दिया. वो विकलांग था. उसने कहा मुझे ऐसा दान नहीं लेना जिसे देकर लोग अपनी छाती चौड़ी करके दान का सुख लेते दिखें. आज मुझे दान की जरूरत इसलिए पड़ी कि आपके इंतजाम ठीक नहीं थे...इसलिए मेरे कामगार हाथ बढे हुए हाथों में बदल गए. लेकिन मुझे दान नहीं चाहिए. सम्मान से दीजिये. हक की तरह भीख की तरह नहीं...

मुझे इस इन्सान से प्यार हो गया. कितनी ताकत चाहिए न अपने हक और सम्मान के लिए विपरीत हालात में भी भिड जाने के लिए. लेकिन कितनी विनम्रता चाहिए...अहंकार को छोड़ मनुष्य बनने के लिए...हम फूलों की, पत्तों की, नदियों की बात तो करते हैं...इनसे सीखते कुछ नहीं...हम कुछ क्यों नहीं सीखते?

मैं चाहूं तो तुम्हें एक फोन भी कर सकती हूँ कि चिठ्ठियाँ कौन लिखता है आजकल. लेकिन तुम शायद नहीं जानते कि तुम्हारा होना तुम्हारे होने को खंडित करता है. इन चिठ्ठियों को लिखते समय यह सुख है कि तुम हो और मैं भी हूँ...तुमसे बात करना खुद से बात करना ही तो है...मेरे भीतर की उदासी कहीं नहीं जाती...मेरे ही भीतर रह जाती है कहीं...कुछ फूल हैं जो हर रोज खिलते हैं और ज़िन्दगी के प्रति आश्वासन से भरते हैं, कुछ पत्ते हैं जो सर पर हाथ फेरने को डालें छोड़ देते हैं...और एक तुम्हारी स्मृति है...जो सुबह की चाय में हर रोज घुल जाती है.

यह दुनिया क्या हम बदल पायेंगे...?

3 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

विचारणीय आलेख

Sweta sinha said...

जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार २१ अप्रैल २०२० के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

कविता रावत said...

समय आता है तो दुनिया को बदलते देर नहीं लगती
बहुत कुछ नहीं तो कुछ तो अवश्य बदलेगा
बहुत अच्छी विचारणीय प्रस्तुति