Saturday, June 6, 2020

कि तुम यहीं कहीं हो...


बहुत बरस पहले की बात है, शायद बहुत बार बता भी चुकी हूँ फिर से बताना चाहती हूँ कि बहुत बरस पहले जब ख्वाब देखने सीखे भी नहीं थे एक रोज आधी जागी आधी सोयी सी किसी रात में एक ख्वाब देखा था कि पहाड़ के किसी गाँव में हूँ. शीशे की दीवारों वाला कोई कमरा है, उसमें मेरे साथ तुम भी हो. सारी रात बारिश होती रही और हम सारी रात चाय पीते रहे बूंदों का खेल देखते रहे. सुबह जब बारिश रुकी तो चाय के कप तो दो थे लेकिन तुम कहीं नहीं थे. ख्वाब का स्वाद तबसे जबान पर लगा रहा. गया नहीं.

अब जब मैं पहाड़ के एक छोटे से हिस्से में बस गयी हूँ या यूँ कहूं कि मैंने खुद को बो दिया है यहाँ और धीरे-धीरे उगने लगी हूँ यहीं. वो ख्वाब जिसका स्वाद जबान पर अटक गया था अक्सर करीब से गुजरता है. कभी वो काँधे से कांधा मिलाकर बैठता है. कभी खिड़की के बाहर बरसता रहता है और शीशे की दीवारों पर अपने निशान छोड़ते हुए मुस्कुराता है, कभी मुंह पर बौछार बन गिरता है और मध्धम मुस्कुराहटों को भीगी खिलखिलाहटों में बदल देता है. चेहरे पर पड़ी बूंदों को पोछती नहीं हूँ, फिसलने देती हूँ, जैसे वो तुम्हारी उँगलियाँ हों. वो ख्वाब अब ढीठ हो गया है. घर में रहने लगा है. साथ चाय बनाता है, लड़ता है मुझसे और हाथ पकड़कर खींच ले जाता है शीशे की दीवारों के उस पार भी. 

कल सारी रात बारिश हुई. जैसे कोई ख्वाबरात बीती हो. जैसे सिरहाने कोई बैठा रहा हो रात भर. जैसे बूंदों के राग में तुम्हारी बातों की खुशबू घुली हो. सुबह उठी तो वो ख्वाब धूप बनकर चमक रहा था. 

कल सारा दिन फूलों और तितलियों के बीच भागती फिरी थी शायद उसी का असर होगा कि नींद में कोई जादू घुल गया होगा. मुझे पता नहीं था सचमुच कि कल कोई पर्यावरण दिवस था कि मेरे लिए हर दिन फूलों, का पंछियों का, चाँद का, कविताओं का और याद का दिन होता है....इन सबसे मिलकर जो संगीत बनता है उसका दिन होता है. लेकिन कल यह ख्वाब दिन ख्वाब रात में भी बदल गया. सारी रात सपने में फूलों की शाखें खिलखिलाती रहीं. 


क्या ये फूल बहुत से लोगों के दिलों के जख्मों को भर पायेंगे...? क्या इनका सौन्दर्य किसी के जीवन में रोटी की कमी को पूरा कर सकेगा, या रोजगार, पुलिसिया मार और अपमान के जख्म को तनिक भर में कम कर पायेगा?

नहीं, यह फूलों का काम नहीं, फूलों का काम है धरती को मानवीय होने के सबक देना, हम सबको बिना भेदभाव के प्रेम करना सिखाना, हमारे भीतर की हिंसा को, क्रोध को प्रेम में बदल देना. अगर हम यह समझ सकेंगे तो फूलों से रोटियों की उम्मीद किये बिना गेहूं की बालियों के इश्क में पड़ जायेंगे, उन बालियों को हमारी थालियों तक लाने वालों के इश्क में पड़ जायेंगे. फिर शायद कुछ हिंसा कम होगी बाहर की. 


कुदरत हमारे भीतर की हिंसा, क्रोध, ईर्ष्या को प्रेम में बदलने की ताकत रखती है बस कि हम फूलों और फलों से लदी और झुकी हुई डालियों को ठीक से देखना सीख तो लें, बारिशों को अपने ऊपर आने तो दें, हथेलियों पर धूप को फिसलते हुए देखते हुए जो फूटता है हरियाली का अंकुर भीतर उसे पाल पोस तो लें. दुनिया सच में बदलने लगेगी. कितनी तो मोहब्बत है दुनिया में और लोग मोहब्बत की कमी से मरे जा रहे हैं...हाँ सचमुच लोग भूख से या अपमान से नहीं दुनिया में कम होती जा रही मोहब्बत की कमी से मर रहे हैं. कि जो प्यार से भरे हैं वो अपने आस पास के लोगों को भूख प्यास से मरने तो नहीं देंगे. गौर से देखना उन सब लोगों के चेहरे जिन्होंने इस विषम समय में कुछ लोगों के जीवन में उम्मीद बचाई है, कुछ जिंदगियों को छांव दी है, वो सब इश्क में डूबे हुए लोग हैं.

आज ठंड बढ़ गयी है यहाँ, सुबह की धूप देख अच्छा लग रहा है, गुनगुनी सी धूप. कल कुछ किताबें मिलीं हैं. पढूंगी दिन भर. उस ख्वाब के बारे में ज्यादा मत सोचना कोई सिरा जोड़ नहीं पाओगे तुम क्योंकि जब पहली बार देखा था वो ख्वाब तुम तब भी नहीं थे कहीं, और अब जब दिन रात जीती हूँ न यह ख्वाब तुम अब भी नहीं हो. हालाँकि लगता यही है कि तुम हो, यहीं कहीं हो...

कल की कुछ तस्वीरें भेज रही हूँ....

7 comments:

Onkar said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति

kuldeep thakur said...


जय मां हाटेशवरी.......

आप को बताते हुए हर्ष हो रहा है......
आप की इस रचना का लिंक भी......
07/06/2020 रविवार को......
पांच लिंकों का आनंद ब्लौग पर.....
शामिल किया गया है.....
आप भी इस हलचल में. .....
सादर आमंत्रित है......

अधिक जानकारी के लिये ब्लौग का लिंक:
https://www.halchalwith5links.blogspot.com
धन्यवाद

Bhawna Kukreti said...

वाकई इंसानों में प्रेम की कमी ही आस पास के ,अंदर के दुखों की वजह है। काश हम सब के दिल फूल हो पाते ,हम सब पूरे के पूरे फूल ही हो जाते ये दुनिया कितनी जीने लायक हो जाती।

शुभा said...

वाह!सुंदर भावाभिव्यक्ति ।

hindiguru said...


बहुत सुन्दर प्रस्तुति

Alaknanda Singh said...

अगर हम यह समझ सकेंगे तो फूलों से रोटियों की उम्मीद किये बिना गेहूं की बालियों के इश्क में पड़ जायेंगे, उन बालियों को हमारी थालियों तक लाने वालों के इश्क में पड़ जायेंगे. फिर शायद कुछ हिंसा कम होगी बाहर की. ... बहुत खूब प्रत‍िभा जी...मन के कोने में बैठी संवेदनायें चहक उठीं...

Abhilasha said...

बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति 👌👌