Thursday, July 7, 2022

उसका नाम रूहानी था - रूह



आँख देर से खुली. जाने रात की हरारत के कारण या बारिश की मध्धम धुन को ओढ़े पड़े रहने के लालच के कारण. माँ फोन पर पूछती हैं, बुखार कैसा है? मैं हंसकर कहती हूँ, 'बुखार नहीं है, हरारत है. एक किताब पढ़ रही हूँ जब तक वह खत्म नहीं होगी यह हरारत रहेगी.' माँ मेरे पागलपन की आदी हैं. बेफिक्री से कहती हैं, 'ठीक है फिर जल्दी खत्म करो किताब'. 

बालकनी की खिड़की खोलती हूँ तो जूही की पत्तियों पर अटकी बूँदें मुस्कुराकर कहती हैं 'गुड मॉर्निंग'. मैं हंस देती हूँ. सुबह की चाय बनाते हुए 'रूह' का ख्याल साथ है. सुबह पढ़ने का सुख, सुबह पढ़ने का सुख ही है उसे किसी से बदला नहीं जा सकता. कल के पढ़े हुए के साथ गड्डमगड्ड करते हुए सोचती हूँ सुबह Pat Boone, सुनूँ या Cliff Richard.' Cliff Richard गाने लगे हैं. आज की सुबह में 'रूह' को उठाने की बेताबी नहीं है. चाय के कप के करीब रूह को रखे देखना सुख है. जैसे दो प्रिय बैठे हों साथ.

'आजकल आप रूह पढ़ रही हैं न? बहुत अच्छी किताब है क्या? कितना सुंदर लिख रही हैं आप?' कल इनबॉक्स में किसी ने पूछा था. मैं देर तक चुप रही. समझ नहीं आया क्या कहूँ...क्या मैं अच्छा लिख रही हूँ? क्या किताब बहुत अच्छी है? अच्छा लगना कैसा होता है. 'अच्छी और बहुत जरूरी किताब है' इनबॉक्स में जवाब ठेलने के बाद सोचती रहती हूँ.

जीवन का सारा अच्छा वहां था जब असल में वह अच्छा नहीं था. इस किताब को पढ़ते हुए अच्छा नहीं लगता, दुःख, उदासी, बेचैनी, पीड़ा उभरती है...कहीं-कहीं अच्छा भी लगता है. मेरे तईं सबसे अच्छा पढ़ना वही था जिसे पढ़ने के बाद मैं महीनों, सालों उस पढ़े हुए में घूमती रही, परेशान रही, सोचती रही. उससे जुड़े तमाम तार ढूंढती रही, कुछ और पढ़ने को बेचैन होती रही. इस लिहाज से यह अच्छी किताब है. कि कल से दो नए गायक मेरी जिन्दगी में शामिल हो चुके हैं और एक किताब जो कल विश लिस्ट में थी तोहफा भेजने को आतुर दोस्तों में से एक ने ऑर्डर कर दी है.

रूह अपनी पूरी धज के साथ घर में रहती है. जैसे यह उसका ही घर है. किचन में, ड्राइंगरूम में, बालकनी में, कार में...हर जगह. हाँ, यह रूह का ही तो घर है.

पहली बार लेखक की हेठी घुटने टेकते हुए दिखी है तो सच कहूँ तो अच्छा लग रहा है. 'रूह हर चीज़ की तह तक जाकर संवाद करती है.' वह लेखक को कश्मीर पर लिखने को उकसाती है लेकिन यह भी कहती है कि 'कश्मीर से निकलते ही मैं जा चुकी होऊंगी.'
'हम दोनों के पास सिर्फ कश्मीर तक का ही वक्त था. जब मैंने सुझाव दिया कि हम दोनों कश्मीर के बाद भी टच में रह सकते हैं क्या? उसने कहा था, कश्मीर यात्रा खत्म होने के बाद हमारे साथ रहने का कोई कारण नहीं है.' मैं जब भी प्रेम सरीखे वाक्य बोलता तो वो डर जाती...'
इन हिस्सों को पढ़ते हुए मेरे भीतर चोर मुस्कुराहट तैर जाती है. मुझे 'बहुत दूर कितना दूर होता है' की कैथरीन याद आती है और कैथरीन की फिर से मिलने की इच्छा पर लेखक का यह सोचना याद आता है कि 'अभी तो मैं गिलहरियों का खेल देख रहा हूँ, अभी मैं कैसे आ सकता हूँ.' रूह ही कैथरीन लगने लगती है. यह लिखते हुए जो मुस्कुराहट है उसमें लेखक की रूह के साथ टच में रहने की इच्छा को इग्नोर होते देखने की तसल्ली शामिल है. सच, रूह ही है जो हमारी तमाम हेकड़ी को ठिकाने लगा सकती है.

तभी इति और उदय से मुलाकात होती है. अरे, इति और उदय? इन्हें तो मैं जानती हूँ. ये यहाँ कैसे. इति उदय और बिलाल के साथ ट्रैक पर निकल पड़ी हूँ. जिस तरह पढ़ना डुबकी लगाने जैसा होना चाहिए मुझे लगता है उसी तरह देखना भी दृश्य में घुल जाने जैसा होना चाहिए. लिखना कैसा होना चाहिए इसके बारे में ठीक-ठीक पता नहीं लेकिन यह हिस्सा पढ़ते हुए लगता है कि दृश्यों को जीना ऐसा ही होना चाहिए...

'रात के क़रीब तीन बजे मेरी आँख खुली, मुझे पेशाब करना था. तभी टेंट के बाहर कुछ बहुत धीमी हरकत सुनाई देने लगी. डर के मारे मैंने ख़ुद को स्लीपिंग बैग में छुपा लिया. जब आवाज़ आनी बंद हो गयी तो मुझे उठना पड़ा , पेशाब करना बहुत जरूरी था. जैसे ही मैंने टेंट के बाहर कदम रखा तो मैं हतप्रभ सा आसमां ताकता रह गया. इतने सारे तारे मैंने एक साथ कभी नहीं देखे थे, लग रहा था कि सारे तारे पृथ्वी के थोड़ा ज्यादा क़रीब आ चुके थे. नीचे तालाब को देखने से लग रहा था कि जाने कितने तारे टूटकर तालाब में गिर पड़े हैं. चारों तरफ चांदनी में नहाए ऊंचे पहाड़. मैं कुछ देर के लिए पेशाब करना भूल गया था. मैं इसे देखते हुए सोच रहा था कि अगर मैं इस दृश्य को कभी लिखूंगा तो क्या पढ़ने वाले को वही दिखेगा जो मैं देख रहा हूँ.'

इस दृश्य को पढ़ने के बाद ऐसा लग रहा है कि यह सुबह चांदनी रात में तब्दील हो गई है. और मैं तारों भरे आकाश के नीचे तारों भरे तालाब के किनारे कहीं बैठी हूँ. भला हुआ कि मुझमें चीज़ों को शब्दशः पढ़ने का हुनर न आया और मैं उन्हें भावशः पढ़ती रही, सुनती रही, देखती रही.
बिलाल के घर न जाने और जूते चोरी के किस्सों को छोड़ आगे बढ़ रही हूँ लेकिन चोपानों की और बिलाल की पीड़ा को साथ लिए हुए ही.

बड़ी देर बाद शायद पहली बार किताब में एक ऐसा हिस्सा आता है वो भी एकदम अचानक कि मेरी हंसी ही नहीं रुक रही. होटल में एक अकेली लड़की से मुलाकात होना और उससे लेखक का कहना, 'कल मैं गुलमर्ग जा रहा हूँ अगर आप चाहें तो मैं आपको ड्रॉप कर सकता हूँ.'
'शुक्रिया ! मैं आपसे पूछने ही वाली थी. मुझे लगा आपको यह न लगे कि मैं आपके गले पड़ रही हूँ.'
'नहीं ऐसी कोई बात नहीं है, बस मैं अपनी पत्नी से पूछकर आपको बताता हूँ.'
'बीवी?'
'जी वो ऊपर सो रही है'...

इसके बाद का किस्सा पाठकों के लिए छोड़ रही हूँ कि मेरी हंसी रुक ही नहीं रही...

लड़की का नाम रूहानी था...

(जारी...)

5 comments:

Ravindra Singh Yadav said...

नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार 08 जुलाई 2022 को 'आँगन में रखी कुर्सियाँ अब धूप में तपती हैं' (चर्चा अंक 4484) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।

Ravindra Singh Yadav said...

नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार 08 जुलाई 2022 को 'आँगन में रखी कुर्सियाँ अब धूप में तपती हैं' (चर्चा अंक 4484) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।

Ravindra Singh Yadav said...

नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार 08 जुलाई 2022 को 'आँगन में रखी कुर्सियाँ अब धूप में तपती हैं' (चर्चा अंक 4484) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।

Anita said...

रोचक

Onkar said...

बहुत सुंदर